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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१२८६. बाहुवलि
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दोऊ सूर महासुभट भरतवाहुवल वीर । अति साज चले रण लरिवेकौ अतिधीर ॥ सत्रे सै चलहोत्तर भादौ सुदि सुमवार । सुक्ल पक्ष तेरस भनी गावै मगल च्यार । इति श्री भरत वाहुबलि भाषा समाप्तम् ।
Colophon :
१२६० विवेक-जकड़ी
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Closing ।
चेतन तेरो वानी चेतन दानी चेतन तेरी जाति वेवेही हात मति खोई जाति विगोई रहयो प्रमादनि भाति वेवेहा ।। कुदकु द आचारज गुरुवयणहि मूरख पिनन सभाले । आपन औगुण सहज सुनिर्मल जो जिनदास सुपाल ।। इति विवेक जकरी।
Clolophon:
१२६१. व्यवहारपचीसी
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सम्यग् पदधारी तीनलोक अधिकारी क्रोध लोभ परिहारि सौ
___महाराज है। सबकौं समान गिना राग दोष भाव विना नाही पास तिना सक्र
___ सौ को सिरताज है। ताही को वपान्यो धर्म सोई साच सोई पर्म और को कह यौ
अधर्म झूठ को समाज है। सिवपुर वाट के वटाउनि को सवल है सुख को दियो महाकाज
माहि नाज है ॥१॥ चाहत धन सतान • आनताहि वहे है ॥२६॥
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