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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
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Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१२६५. नेमिनाथ विवाह
देखे, क्र० १२६३ ॥
देखें, क्र० १२६३ |
इति श्री नेमनाथ का व्याहुला समाप्त |
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१२६६. पखवारा
पडिवा पथम कला घटि जागी परम प्रतीत रोग रस पागी ! प्रति प्रतिपदा प्रीत उपजाव व प्रतिपदा नाम कहावे ||१||
पून्यौ पूरण ब्रह्म विलासी पूरण गुण पूरन परगासी । पूरण प्रभुता पूरण वासी कहै जती तुलसी वनवासी ॥ इति पषवाराजी समाप्तम् ।
१२६७. परमार्थजकडी
अरहत चरन चित ल्यावो, फुनि सिद्ध सिव कर ध्यावो । वंदौ जिन मुद्राधारी निग्रंथ जती अविकारी ॥१॥
न अघाय यों हीरमै निस दिन एकछि नहूँ ना चुके । नहि रहे वरज्यो वरजदेष्यो बार बार तहाँ धुके श्री जिन सिद्धान्त सरोज सु दर ताहि मध्य लगाईए।
रामकृष्ण इलाज याकी कीए एही सुख पाईए ॥८॥
इति श्री रामकृत जबरी सपूर्णम् ।
देखे, रा० सू III, पृ० १३७ ।
१२६८ पिगल
मुरलीधर श्रीधर सुकवि मानि महामन मोद कवि विनोद मो यह कियो उत्तम छेद विनोद ||१||