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________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shu Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bbavan Arrah Closing : स्याद् गाइ आम निर्दोष अन्य मत्र ही है जु मदोप। ___त्याग दोष गुण धरे विचार हेतु विचय ध्यान निर्धार ॥ Colophon: इति श्री धर्मरत्न सपूर्णम् । ११०४. धर्मग्रन्थ Opening: Closing : Colophon: ......... दोनिका न्यारा न्यारा मानना । " " एकेन्द्रिय तो सर्वत्र है ही, भर कर्मभूम अनुपलब्ध । । Opening . ११०५. धर्मामृतसार अनतर अग्निासी भगवान ऋषभपुराण पुरुषोत्तम तिमिक प्रणाम करि महापुराण की पीठिका प्रगट करिए है। अर नाभिराज कमल मडिन तलाब की उपमाकू धरै उदय होणहार भगवान रूप सूर्य ताकि अभिलाषा करता निरतर निरषता सतापरमउदयरूप अतुलधर्य को धारताभया । श्री श्री श्री। Closing . Colophon: ११०६. धर्माष्टक Opening I Closing : में देव निति अरिहत चाहूँ सिद्ध को सुमरण करी । मै सुर गुरु मुनी तीन पदमय साध पद हिरवं धरौ ॥१॥ यह भावना उत्तम संदा भानु तुम सुनो जिनराज जी, तुम कृपानाथ अनाथ द्यानतं दया करनी ग्याव जी। दुष्ट कर्म विनास ज्ञान प्रकास मोकू कीजिए, करि मुगति गमन ममाधि मरण सुभगति चर्ण को दीजिये | इति धर्मचाप्टक भाषा सम्पूर्णम् । Colophon:
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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