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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
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माधुरी जिनवानि चली री सुनिह,
विपुलाचल परि वा वार्जत भुनक परी मेरे कान । वर्द्धमान तीर्थङ्कर आयेरी, वदे निज गुर जानि ॥ नही है |
१५५७. पद
सिद्धचक्र की मेवा कीजे, नवपद महीमा धारी हैं । अरोहत मिश्री उवझाया सकल साधु गुन भारी है ॥ अरज सुना वेहरमान वदो नितमेव रे
चेनन को तार लेव मत वीसारो टेव रे ॥ प्र० ॥ इति पद सम्पूर्णम् ।
१५५८ पद
श्रीपति जिनवर करुनायतनं दुखहरण तुम्हारानना है । मत मेरी वार अवार करो मोही देहु विमल कल्याना है ॥ टेक ॥
हो दीनानाथ अनाथ हित जन दीन अनाथ पुकारी हैं, उद्यागत कर्म विपाक हलाहल मोही विया विस्तारी है, ज्यो आप अवर भवि जीवन की तत्काल विथा निरवारी है, त्यो वृदावन कर जोर कहैं प्रभु आज हमारी ही वारी है | टेक इति श्री विनती सम्पूर्णम्
१५५६. पद
मोह नीद मेरी उर भ है, भोत दीना ने जाया । जीन ॥१॥
अस्पष्ट ।
नही है |