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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah,
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Colophon :
सारस्वत्या प्रमादेन काव्य कुर्वन्ति पडिता । ततस्सैपा समाराध्या भक्त्या शास्त्रे सरस्वति ।। इत्या श्रीमद्गवन्मुखारविंदविनिर्गते श्रीगौतमपिपादपद्माराधकेन श्री जिनसेनाचार्येन विरचिते त्रिवर्णाचारे उपासकाध्ययनसारोद्वारे ग्रहिधर्मदेवपूजा निरूपणीयोनाम पचम पर्वः।
१२२२. त्रिलोकसार
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त्रिभूवनमार अपार गुन गायक " " ।
श्री अरहत महत ॥१॥ सुखनाम निराकुलता का है। निराकुलता वीतराग भावनित हो है। तात परम वीतराग भावरूप शुद्धात्म रूप जनित परम आनद की प्राप्ति करहुँ। इति ।
देखे, जै०सि० भ० ग्र० I, ऋ० ४२७ ।
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१२२३ वचनिका
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वदो श्री वृपभादि जिनधर्मतीर्थकरतार । नमें जामपद इद्रसत शिवमारग सचिधार ॥१॥ हे करुणानिधान मेरी रक्षा करहु । तव भगवान कहते भये । है राम शोक न करि, तूचल देव हैक एक दिन वासुदेव सहित इन्द्र की नाई पृथ्वी का राज करि। जिनेश्वर का व्रत धरि । नहीं है।
Colophon:
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१२२४. वैराग पचीसी रागादिक दोषन तज, वैरागी जो देव । मन वचसीसनवाय के,कीजै तिनकी सेव ।।