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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrah.
१११०. धर्मरहस्य
Opening :
पनि मे कहिये परमेश्वर पचहु अक्षर नामदिये । उ नमकार सर्व सिम ऊपर पचनि ते-उतपत किये ते ।। , लोक अलोक त्रिकाल में नाहि कोई तीन की समदेप हिये ते ।।
Closing :
धर्म पचास कवित्तउ भज्जत भग्त विराग स्वज्ञान क्या है। आपनि औरनि को हितकार पढो वरनार सुभाव तथा है। अक्षर अर्थ की भूलि परि जहाँ सोध तहाँ उपकार जथा है । द्यानत सज्जन आप विषैरत होय वारधि प्राब्द मधा है। इति धर्मरहस्य कवित्त वावन सम्पूर्णम् ।
Colophon|
११११. धर्मसार सतसई
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Closing | Clolophon :
वीर जिनेश्वर प्रणमु देव, .... ... - सुमिरत जाके पाप नसाय ॥१०॥ गुन थोर - ... • चल वीर ॥१०॥ इति श्री धर्ममार भट्टारक श्री सकलकीरत उपदेशक पडित सीरोमण दास विरचिते श्री पथकल्यानक महिमा सपूरन लिखत धरमसनेही ने। इति श्री धरमसार ग्रथ सपूर्णः । सवत १८३२ । शाके १६६७ मीति वैसाष शुदि सोमवासरे सपूर्ण.।
१११२. द्रव्यसंग्रह
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जीवमजीव दव्य जिणवरवसहेण जेण णिहिट । देविदविदवद वदे तं सन्धवा सिरसा ।।
का सिरसा दव्वसगहमिण मुणिणाहा दोससंचयचुदासुदपुण्णा । सोधयतु तणु सुत्तधरेण मिषदमुणिणा भणिय ज ॥६॥
Closing :