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________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental library, Jain Sıdhhant Bhavan, Arrab. Colsing . हो दीनबन्धु श्री पति कहना निधान जी। ये मेरि विथा क्यो न हरो वार क्यो लगी॥ इति। Colophone १२५३. कवित्त Opening : Closing ! श्री जिनवर के नाम की महिमा अगम अपार । धरि प्रतीति जे जपत हैं सफल करत अवतार ॥१॥ अद्भुत अतिस तुम धरं वीतराग निज लीन । पूज्यक सहिजै उव्वहै निदक सहिजे लीन ॥६ . इति सम्पूर्णम् । . . . . Colophon: १२५४. कवित्त Opening • भी जल माहि भरयो चिरजीव सदीव अतीत भव स्थिति गाठी। राग विरोध विमोह उदैव सुकर्म प्रकृति लगी अति गाठी ! पेच पर्यो दिढे पुग्गल सो इह-भांति- सही बडी आपद गाठी। सम्यक् ध्यान भज्यो जबहीं तबही सवकर्मनि की जडकाठी ॥ Closing' · · · कहै वेदवके कई आप मति के कहै वेदवके कहूँ आप सुनि वेके कहें आप जो जायके कह इष्ट कह मित्र है। . . कहँ जोग विधि जोगी, कहें राज रस भोगी कहँ वैद कह रोगी कह कटक कहे मिष्ट है। . कह लता के छाया कह फूल के फूल्यो कह भौर के भल्यो कह रूपके दिखाए है। . • सकल निवासी अविनासी- सर्वभूत वासी गुपत प्रगासी आप -सिख आप सिष्ट है। Colophon . इति कवित्त । देखें, ज. सि० भ० प्र० I, क्र० ५०६।
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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