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________________ १८७ Catalogue of Sanskrit, P. akrit, Apibhraini & Hindi Manuscripts (Stotra) Colophon: इत्याशाधरसूरिकृत जिनसहतनामस्तवन समाप्तम् । १६०६. सहस्रनाम स्तोत्र Opening : Closirg Colophon श्रीमान् स्वयभूर्व पभ शम्भव शभुरात्मभ् । स्वयप्रम प्रभु पितविश्वभरिपुनर्भव ॥१॥ देखे, क. १६०५। इति श्री जिनसेनाचार्यप्रणीत जिनसहन्त्रनामस्तवन सम्पूर्णम् । सवत् १८०२ वर्षे मीति आमाढ सुदी ४ मथेनभाउ परतापगढ मध्ये लिखतम् । १६१० सहस्रनाम-स्तोत्र Opening : Closing परम देव परनाम करि, गुरुको करौ प्रणाम । बुद्वि वल वरनी ब्रह्म के गहस अठोतरनाम ।। सगुन पिभूति वैभवी सेसुखी समबुद्ध । मकल विश्वकर्मा ........ विश्वलोचन शुद्ध ॥ इति श्री दुरनिदलन नाम नवम सतक सपूर्णम् । Colophon १६११ सहस्रनाम Opening Closing : तुम स्वयम् अनादि मिद अजन्मा सो तिहारे ताई नमस्कार होह। त्वम आपकू आप करि आप विष उपजाय प्रगट भये हो। उपजी है आत्मवृत्ति जिनकै अर अचित्य है वृत्ति जिनकी । भगवान स्नयभ् ममन ना के ग्याता जगतपति विहार कर ही निनकू चन्द्र के मुख ते ॥ प्रार्थना के वचन नीम ते पुनरुत ममान होते भये । २६ । :ति श्री भाषा महस्रनाम सपूर्णम् । Colophon
SR No.010507
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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