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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
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ॐ ह्री षट् चत्वारिंशत गुण सहितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम ।
ॐ ह्री वीर्य्यान्तराय कर्मरहित श्री सिद्ध परमेष्ठिभ्यो नमः । नही है ।
१८६०. पंच परमेष्ठी पूजा
कल्याणकीर्तिकमलाकर सच्च चिदृज्वलमह प्रकटीकृतार्थम् । उच्च निधाय हृदिवीर जिन विशुद्ध शिष्टेष्टपच परमेष्ठीमह
प्रवक्ष्ये ॥
स्फुर्जत् प्रतापतपन प्रकटीकृताशाः श्री धर्मभूषणपदावुजचुम्नावनि ।
कर्त्तव्यमित्युदयत सुयसोभिन दिसूरे
सदतरूदपीकरणैकहेतु. ॥४॥
इति यशोन दिविरचिता पचपरमेष्ठी पूजा सम्पूर्णम् ।
देखे, दि० जि० ग्र० २०, पृ० १८७ ।
१८६१ पार्श्वनाथ कवित्त
प्रभु पारसनाथ अनाथ के नाथ कि जाप जपी जगवदन की ।
तिहुँ लोक के लायक लायक हौ सुखदायक आणि निकदन की ॥
जग सौ भे भीत तेरे पथसो परम प्रीति ।
ऐसी जाकी रीति ताकौ वदना हमारी है ।
नही ।
१८९२ पार्श्वनाथ- पूजा
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न्मडल चारुचतुर्विंशति कोष्टकम् ।
महारम्य पचवण रत्नप्रकरसभृतम् ॥२॥
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