Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004236/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री | द्रव्य-विज्ञान Hainepisodaynerg Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. बहिन म. साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्रीजी म.सा. जन्म - मोकलसर वि.स. २०२०, ज्येष्ठ शुक्ला ६ ता. २८/५/१९६३ माता - रोहिणी देवी लूंकड ( पू. माताजी म. साध्वी श्री रतनमालाश्रीजी म.) पिता - स्व. श्री पारसमलजी लूंकड दीक्षा - पालीताणा, वि.स. २०३०, आषाढ शुक्ला ७, ता. २३/६/१९६३ को माताजी एवं भाई के साथ पू. आचार्य श्री दीक्षा प्रदाता जिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरूवर्या - पू. आगम ज्योति प्रवर्त्तिनी श्री प्रमोद श्रीजी म. सा. परिवार से दीक्षित पू. उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. (भाई म.) पू. माताजी म. श्री रतनमालाश्रीजी म.सा. (माताजी म.) पू. मुनिश्री मनितप्रभसागरजी म. (चचेरे अनुज) पू. साध्वी डॉ. नीलांजनाश्रीजी म. ( चचेरी अनुजा) 1 अध्ययन – संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण, एवं आगमिक अध्ययन के साथ राजस्थान वि.वि. से एम.ए. (दर्शन शास्त्र) एवं गुजरात वि.वि. से षड्द्रव्याधारित 'द्रव्यविज्ञान' पर 'डॉक्टरेट' की उपाधि से विभूषित । व्यक्तित्व - लेखन एवं प्रवचन के क्षेत्र में अनूठी छाप गुरूदेव, कुशलगुरुदेव, स्वप्नदृष्टा, राही और रास्ता, भीगी भीगी खुश्बू प्रीत की रीत, विद्युत तरंगे, द्रव्यविज्ञान, अधूरा सपना आदि अनेकानेक पुस्तकों विशिष्ट शैली में लेखन । इसके अतिरिक्त अनेक पुस्तकों का संपादन ! प्रवचन की प्रांजतता, चेहेरे की सौम्यता, तर्क की प्रखरता, एवं वाणी की आकर्षण । न्तिसागरसूरि स्मारक मांडवला जालोर (राज.) citate Use Only Π Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य - विज्ञान (आंशिक संशोधन के साथ शोध-प्रबन्ध) साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • द्वितीय संस्करण प्रति १०००, वि. सं. २०६३ कार्तिक पूर्णिमा 10000000000000 0 0000000000000000000000000000 • प्रकाशक श्री भाईजी प्रकाशन श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, मांडवला-३४३०४२, जिला-जालोर (राज.) G:०२९७३-२५६१०७ 1000000000000000000000000000 000000000 • मूल्य ५० रुपये 1000000000000-00- 00-00-00-00000000000000000-00 • मुद्रक दीपक ओसवाल २६९ नया रविवार पेठ, पुणे-२ : ०२०-२४४७७७९१, ९८२२०५५८९१ RRRRRRRRRRR00000000000000000000000000 =:: अर्थ सहयोग ::= श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल द्वारा संस्थापित श्री धर्मनाथ मंदिर के ज्ञान खाते से प्रकाशित ८५, अम्मन कोइल स्ट्रीट, चेन्नई-६०००७९ :२५२०७८७५/२५२०७९३६ :: सूचना:: इस पुस्तक का प्रकाशन ज्ञान द्रव्य से होने के कारण मूल्य चुकाकार श्रावक-श्राविका ग्रहण करें, अन्यथा दोष लगता है। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जीवन के प्रत्येक कदम में जहाँ मात्र साम्यता, तादात्म्य एवं अभिन्नता है, उन अग्रज श्री मणिप्रभजी को... - साध्वी विद्युत्प्रभा For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वीतराग - वाणी मोक्ष का विज्ञान है। वीतराग परमात्मा ने केवलज्ञान के आलोक में जगत् के यथार्थ स्वरूप का दर्शन कर भव्य आत्माओं के कल्याण के लिए तत्त्वों का निरूपण किया । परमात्मा की वाणी पूर्णतः वैज्ञानिक है । यदि कोई तत्त्व विज्ञानवेत्ताओं की पकड़ में नहीं आता हैं तो यह उनके ज्ञान का अधूरापन है, इस अधूरे ज्ञान के आधार पर परमात्मा की वाणी में शंका करना आधारहीन है । जैनदर्शन यथार्थवादी दर्शन है। जैनदर्शन के अनुसार जगत् में दो तत्त्व हैं- जीव और अजीव । ये दो तत्त्व छह द्रव्यों में वर्गीकृत किये जाते है। छह द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने से जगत् के स्वरूप का तत्त्व समझ में आ जाता है । जगत षड्द्रव्यमय है; इसके अलावा और कुछ भी नहीं है । इसे ही आधार बनाकर परम पूजनीया परम विदुषी महाप्रज्ञा बहिन म. साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री जी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ में षड् द्रव्यों वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ आदरणीय बनेगा, ज्ञान- जिज्ञासा का आधार बनेगा । इन्हीं आशाओं के साथ ग्रन्थ आपको कर-कमलों में प्रस्तुत है । I For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व-स्वर जैन दर्शन की मान्यतानुसार जो गुण और पर्याय से युक्त है, वही द्रव्य है। वाचक उमास्वाति ने इन्हीं भावों में द्रव्य की परिभाषा गुम्फित की है गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ।-तत्त्वार्थसूत्र ३/८ जो द्रव्य के साथ अविच्छिन्न रूप से सतत् सहभावी होकर रहे, वह गुण कहलाता है एवं अपने मूल स्वभाव का परित्याग न करके भी भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित होने वाली द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं । द्रव्य पूर्वावस्था का परित्याग कर नवीन अवस्था को अवश्य ही प्राप्त हो जाता है फिर भी उसका मूल स्वरूप ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है। उपादान या निमित्त कारणों को प्राप्त कर द्रव्य अपना स्वरूप भले ही परिवर्तित कर ले परन्तु नये द्रव्य का न तो उत्पाद होता है और नही नाश। उदाहरण के लिए स्वर्ण को लें। जैसे सोना एक द्रव्य है, उसे विभिन्न आकृतियों में ढाला जाता है। परन्तु कंगन बने अथवा हार, उसका स्वर्णत्व दोनों ही रूपों में विद्यमान रहता है । यह केवल उदाहरण मात्र है। वास्तव में स्वर्ण भी कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है; वह भी पुद्गल की अनन्त अवस्थाओं में से एक अवस्था है। आज जो पुद्गल स्कन्ध स्वर्ण रूप में हैं, वही भविष्य में स्वर्णत्व का त्याग कर मिट्टी के रूप में परिवर्तित हो सकता है; इसीलिए पुद्गल द्रव्य के जिन लक्षणों को निर्दिष्ट किया गया है, वे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में भी रहेंगे और मिट्टी में भी।। जिस प्रकार पुद्गल एक द्रव्य है वैसे ही पाँच अन्य द्रव्य हैं, अन्तर इतना ही है कि पुद्गल रूपी (इन्द्रियगाह्य) है जबकि अन्य पाँच धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काल अरूपी हैं। इन छहों को जीव और अजीव रूप से दो भागों में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें से जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य सभी जड़ हैं। चेतनत्व गुण से युक्त मात्र जीव एक ऐसा तत्त्व है जो स्व और पर के विषय में जानना चाहता है, जान सकता है। स्व से संबन्धित जिज्ञासा से दर्शन का जन्म होता है। आचारांग सूत्र का प्रारम्भ इसी जिज्ञासा से होता है। १. इहमेगेसिं नो सन्ना भवइ,....अत्थि मे आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुओ भविस्मामि?-आचारांग सूत्र १/१-२ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत से व्यक्तियों को यह बोध (ज्ञान) नहीं होता- “मैं किस दिशा से आया हूँ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से च्यव कर कहाँ जाऊँगा ?" मैं कौन हूँ ? यह प्रश्न स्व के संबंध में है। समाधान मिलता है - मैं 'आत्मा' हूँ। 'आत्मा' धर्म-दर्शन का मूल आधार है। आत्मा है तो सब कुछ है। इसी कारण जैनदर्शन ने आत्म-बोध पर गहरा जोर दिया। जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब कुछ जानता है। __पाश्चात्य दर्शन पुद्गल (matter) को ही महत्त्व देते हैं और उसी के इर्द-गिर्द जीवनशैली का निर्माण व विस्तार करते हैं, जबकि भारतीय दर्शन अशाश्वत पुद्गलों के पार शाश्वत चैतन्य के अनुभव की प्रेरणा देते हैं। इस सन्दर्भ में मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद को दृष्टान्त के रूप में लिया जा सकता है मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से कहा-“मैं उसे स्वीकार कर क्या करूँ जिसे पाकर मैं 'अमृत' नहीं बनती, जो अमृतत्व का साधन है, वही मुझे बताओ।"२ अमृतत्व अर्थात् मोक्ष भारतीय दर्शन-अध्यात्म की आधार शिला है। मोक्ष का अर्थ है : चैतन्य-बोध, और चैतन्य-बोध का एक मात्र कारण है- यथार्थ तत्त्व-विज्ञान । चैतन्य और अचैतन्य-इन दो पदार्थों में भेद विज्ञान ही यथार्थ तत्त्वबोध है। चेतन आत्मा स्वयं को पर से भिन्न समझकर सत्य को प्राप्त कर लेता है । पर में स्वबुद्धि और स्व में परबुद्धि के कारण ही संसार है। . जिसे संसार समझ में आ गया, वह सत्य समझ लेता है। संसार का तात्पर्य संसार की असारता, अस्थिरता और अशाश्वतता से है। जैसे ही संसार का वास्तविक स्वरूप समझ में आ जाता है वैसे ही जीव प्रयत्नोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। स्वरूप की दृष्टि से जैनदर्शन के अनुसार षड् द्रव्यों का विस्तार ही संसार है। प्रस्तुत ग्रन्थ में षड् द्रव्यों का सांगोपांग निरूपण हुआ है। . ' वैसे यह विषय इतना विस्तृत व गहरा है कि इस छोटे-से ग्रन्थ में समा नहीं सकता। तथापि यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रस्तुति का आधार विस्तार या संकोच नहीं, पर स्पष्टता और सरलता है। १. जे एगं जाणइ से सव्वे जाणइ। २. येनाहं नामृता स्यां किं ते कुर्याम् । यदेव भगवन् वेद तदेव मे ब्रूहि ।। - बृहदारण्यकोपनिषद् For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ के लगभग पौने तीन सौ पृष्ठों में षड् द्रव्यों का स्पष्ट विवेचन हुआ है । बहिन साध्वी विद्युत्प्रभा की प्रज्ञा / प्रतिभा इस ग्रन्थ में प्रखरता से अभिव्यक्त हुई है । अद्यावधि, संघीय शासन में एतद्विषयक ग्रन्थों को प्रायः अभाव है । इसलिए, निश्चित ही यह ग्रन्थ शासन - गौरव का वजन भरा प्रतीक बना है । - मैं भी शोध-प्रबन्ध के विषय-निर्धारण के समय में कभी- कभी व्यवहारिक / बाह्य भावों में डूबकर व आदरणीय श्री कोठारीजी के स्वरों में स्वर मिला कर कहता'कोई सामान्य / सरल विषय लेकर शीघ्र ही शोध प्रबन्ध की पूर्णाहूति कर उपाधि लेकर डॉक्टर बन जाओ।' तो कभी-कभी गहराई भरे चिंतन का गंभीर स्वर प्रकट होता - 'कोई ऐसा विषय चुनो जो मात्र उपाधि का कारण बन कर ही न रह जाये, अपितु स्व-पर कल्याण का आधारभूत हेतु बने ।' बहिन विद्युत्प्रभा ने मेरे इस दूसरे निर्देश को स्वीकार कर इस गहन विषय का चुनाव किया और तलस्पर्शी अध्ययन के फलस्वरूप इस अत्यन्त उपयोगी व गूढ़ का ग्रन्थ सर्जन किया । परमविदुषी आगम - ज्योति स्व. प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्रीजी महाराज का इसे पूर्ण, परोक्ष आशीर्वाद मिला । पूज्य माताजी महाराज श्री रतनमालाश्री जी म. का वात्सल्यपूर्ण सान्निध्य मिला और इस ग्रन्थ का सृजन हो गया । मेरी कामना है, यह ग्रन्थ उन सभी जिज्ञासुओं के लिए पूर्ण उपयोगी व आदरणीय बनेगा जो तर्कबद्ध शैली व तुलनात्मक दृष्टिकोण से जैनदर्शन के द्रव्य-स्वरूप का अध्ययन करना चाहते हैं । बहिन साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभाश्री अपने चिन्तन के नवोन्मेष धरातल पर दर्शन की गहरी गुत्थियाँ सुलझाने वाले और नये-नये ग्रन्थों का नवसर्जन करतीं रहें, यही मेरे मानस की आशा है । 1 इन्दौर ५-१०-१९९४ IV For Personal & Private Use Only - বপ-৭ ( मणिप्रभसागर ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशंसा हरखचंद नाहटा अध्यक्ष अ.भा.खरतरगच्छ महासंघ अभी-अभी जानकारी प्राप्त हुई है कि डॉ. साध्वी विद्युत्प्रभाजी का शोधग्रन्थ प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजर रहा है, जानकर निःसंदेह आत्मिक आनन्द हुआ। मैंने अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में ही श्रद्धेय श्रीमद् देवचन्द्र, आनन्दघन, समयसुन्दर व रायचन्द्र के पदों को विरासत में प्राप्त किया था और इन पदों के माध्यम से जड़चेतन के स्वरूप का भेद समझने का भी प्रयत्न करता रहा हूँ। निन्मांकित यह पद तो मेरी रग-रग में रमा हुआ है जड़ ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समझाय छे; ' स्वरूप चेतन जिन, जड छे सम्बन्ध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्य मांय छे; एवो अनुभवनो प्रकाश उल्लसित थयो, जड़ थी उदासी तेने आत्मवृत्ति थाय छे; कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा निर्ग्रन्थनो पन्थ भव-अन्तनो उपाय छ। श्रीमद् देवचन्द्र ने नेमिनाथ के स्तवन में पंचास्तिकाय के नामों का दिग्दर्शन कराते हुए बताया कि किनका त्याग करना चाहिए और किन्हें अपनाना चाहिए... धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाति अग्राहोजी, पुद्गल ग्रहणे रे कर्म कलंकता, बांधे बांधक बाह्योजी। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों विजातीय तत्त्व होने से जीव के द्वारा अग्राह्य हैं। इनका ग्रहण संसार का मात्र विस्तार ही करता है। अतः सुज्ञ चेतना इन विजातीय तत्त्वों का स्वरूप और स्वभाव पहचान कर उनसे दूर ही रहने का प्रयत्न करती है। आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जीव को मात्र उत्तम वैरागी महापुरुषों से ही अभिन्नता स्थापित करनी चाहिए, जिससे वह भी क्रमशः उत्तमता को प्राप्त हो सके। ___ अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में चेतना को समभाव में रहने की प्रेरणा इन पदों के माध्यम से स्पष्ट रूप से प्राप्त हो जाती है, और जब साध्वी विद्युत्प्रभाजी के शोध-प्रबन्ध को इसी विषय पर देखा तो हृदय प्रसन्नता से भर गया। ___ उनकी वक्तृत्व कला व लेखन कला के बारे में सामान्य रूप से सुना अवश्य था, पर जब इस गूढ़ विषय पर उनके विश्लेषण की क्षमता को देखा तो चकित हुआ था। अभी तक मैंने उन्हें संघ की आशा पू. गणिवर्य श्री मणिप्रभसागरजी महाराज की अनुजा के रूप में ही पहचाना था, पर धीरे-धीरे उनका स्वयं का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरता गया। निःसंदेह वे संघ की एक उदीयमान प्रतिभाशाली साध्वी हैं। इस शोध-प्रबंध में संदेश अथवा प्रेरणा नहीं है। इनमें मात्र स्वरूप को उजागर किया गया है। अगर हमने जड़ और चेतन के स्वरूप को भी पहचान लिया तो अवश्य ही उनका श्रम सार्थक होगा और हमारी चेतना जड़ संबन्धों को काटकर शुद्ध बनेगी। उनकी लेखन क्षमता और अधिक गंभीर एवं पैनी बने। इन्हीं शुभाशंसाओं के साथ.... VM For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपना जो साकार हुआ डॉ. विद्युत्प्रभाजी के शोध प्रबन्ध की प्रकाशन बेला में मैं निःसंदेह रूप से आह्लादित एवं प्रमुदित हूँ। यह मेरा लक्ष्य व सपना था कि वे डॉक्टरेट की मंजिल तक पहुँचे । अगर मैं यह भी कहूँ कि उन्होंने पी-एच. डी. करके मुझ पर एक अनुग्रह किया है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । मैं उन्हे तब से जानता हूँ जब वे बोर्ड की परीक्षा दे चुकी थी । पदोन्नत होकर बाडमेर से मैं जोधपुर जा रहा था कि मुझे संदेश मिला कि साध्वीजी ने मुझे अपने अध्ययन के सिलसिले में याद किया है, तो मैं वहाँ पहुँचा और उनसे अध्ययन सम्बन्धी चर्चा हुई। उस समय उनके परिचय प्रभाव का दायरा अत्यन्त सीमित था । मैंने उन्हें सम्पूर्णत: आश्वस्त किया कि वे अध्ययन में आने वाली किसी भी समस्या से विचलित न होकर अपनी पढ़ाई जारी रखें। उसी दिन से उनकी व्यावहारिक शिक्षा सम्पूर्ण रूप से मैं जुड गया । उनकी राह में अनेकों बाधाएँ आईं। अध्ययन आरम्भ के कुछ ही दिनों बाद ही उनकी गुरुवर्याश्री का स्वर्गवास हो गया । निःसंदेह मुझे उनकी टूटी मानसिकता से लगा कि वे अब आगे नहीं पढ़ेंगी। मैंने उन्हें पूर्ण आत्मीयता के साथ एक पिता की भूमिका से समझाया । और मुझे हार्दिक संतोष है कि उसके बाद जितने भी अवरोध आये, उन सभी को पूर्ण प्रखरता से चीरती हुई वे आगे बढ़ती ही गई । साध्वी जी ने एम.ए. का अध्ययन पूरा कर लिया। मेरा मानस था कि वे सामान्य और सरल विषय चुनकर अतिशीघ्र डॉक्टरेट कर लें, पर यह पहला मौका था जब उन्होंने मेरी बात को अनसुना करके अपने ही तरीके से निर्णय लिया । उन्होंने शोध का विषय अत्यन्त गूढ़ परन्तु आगमिक चुना। ऐसा विषय चुना जो सामान्य समझ से परे था। पर अब चूँकि उनकी प्रज्ञा विकसित थी और अपनी प्रतिभा का वे शोध में उपयोग करना चाहती थीं, अतः मैंने विषय निर्धारण में उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया। वैसे मुझे और अधिक सन्तुष्टि थी कि वे जटिलतम विषय लेकर अपनी प्रज्ञा को पैना करना चाहतीं है । पर विषय निर्धारण के बाद उनकी गतिशील गाड़ी रुक गई । विहार का, परिचय का, शिष्याओं का और योजनाओं का विस्तार हो गया था। उसी में उनके समय का अधिकांश भाग गुजर जाता था । सन् १९९२ में उनका VII For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब मालपुरा जाना हुआ तब उन्होंने गुरु चरणों में संकल्प किया कि इसी वर्ष उन्हें शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करना है। जिस तेजी से उनकी गाड़ी रुकी थी, उसी अनुपात में बल्कि उससे भी ज्यादा तेजी से उनकी गति तीव्रतम होती चली गई। सतत् परिश्रम करके उन्होंने मालपुरा और जयपुर प्रवास के दौरान अपना शोध प्रबन्ध पूर्ण कर लिया। स्वयं स्व.डॉ.नरेन्द्र भानावत एवं जैनदर्शन के प्रमुख विद्वान् डॉ. के. सी. सोगानी उनकी गति से आश्चर्य चकित थे। जितनी अल्पावधि में उन्होंने अपना संकल्प पूर्ण किया, उसके लिए स्वयं डॉ. सोगानी के निष्कर्ष थे कि इस कार्य में उन्हें कोई दैवीय सहयोग उपलब्ध हो रहा है। और मेरा भी यही चिन्तनफल था कि उन्होंने मालपुरा के सम्राट दादा कुशलसूरि की धरती पर जिस कार्य का शुभारम्भ किया है, निःसंदेह उसकी पूर्णता में अवश्य ही गुरुदेव सहयोग कर रहे हैं। मेरा अपना अनुभव है कि जब वे मालपुरा में थी तब पुस्तकालय के अभाव में सन्दर्भ ग्रन्थों के न होने से परेशान थी, उस समय चूँकि आसपास का सारा वातावरण व परिवेश अपरिचित था, अतः गुरुचरणों में ही निवेदन किया कि मुझे सहयोग करें और तभी उन्हें आश्चर्यजनक रूप से कुछ पुस्तकें स्थानीय दिगम्बर जैन मंदिर से अनायास ही प्राप्त हो गईं। शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत होने के बाद वे विहार कर सांचोर आ गए और शोधप्रबन्ध परीक्षण हेतु प्रमुख विद्वानों के पास गुजरात विश्वविद्यालय ने भेज दिया; परन्तु मौखिकी परीक्षा (वायवा ) संभव नहीं हो पा रहा थी। बहुधा तैयारियाँ होने पर भी या तो डॉ. के. सी. सोगानी की परिस्थितियाँ बाधक बन जाती अथवा डॉ. वाई. एस. शास्त्री की अत्यधिक व्यस्तता के कारण वायवा अन्तिम समय पर रद्द हो जाता। अन्त में खरतरगच्छ महासंघ के अध्यक्ष आदरणीय भाईजी श्री हरखचंदजी नाहटा ने यह उत्तरदायित्व अपने सिर पर लिया और जोधपुर में १३ अप्रैल ९४ को बड़ी उमंगों के साथ उनका वायवा संपन्न हो गया। अगर यह कहूँ तो ज्यादा यथार्थ के निकट होगा कि उनकी व्यावाहारिक शिक्षा का प्रारम्भ मेरे सहयोग से हुआ तो उसकी परिसमाप्ति श्री भाई जी के सहयोग से संपन्न हुई। वह पल आज भी मेरी स्मृति में है, जब वे वायवा संपन्न कर डॉक्टर के रूप में बाहर आए, मेरा रोम-रोम प्रसन्नता से झूम रहा था। आनन्द आँसू के रूप में छलक उठा। VIII For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __मैं विगत वर्षों से उनके जीवन का साक्षी हूँ कि किन कठिनाइयों के साथ उन्होंने अपना लक्ष्य पूरा किया है। अत्यन्त व्यस्त हो जाने पर भी वे लक्ष्य की ओर अविचल भावों से बढ़ती रहीं। ____अपने दृढ़ संकल्प के बलबूते ही उन्होंने सामाजिक और सामुदायिक उत्तरदायित्व होने पर भी अपने उद्देश्य को पूर्ण कर ही लिया। उनका यह शोध-प्रबंध जैनदर्शन की मूल्यवान् धरोहर के रूप में स्थापित हो एवं विद्वानों के लिए उपयोगी सामग्री बने, इसी में इसकी सार्थकता है। ___डॉ. विद्युतप्रभाश्रीजी महाराज भविष्य में अध्ययन के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित करें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ.... । रंगरूपमल कोठारी I.A.S. X For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ऐसे संकटापन्न क्षणों में, जबकि भूत-विज्ञान परमाणु को ले कर नित-नये प्रयोग कर रहा है, साध्वीजी विद्युत्प्रभाजी का 'द्रव्य-विज्ञान' शीर्षक यह प्रबन्ध एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। सब जानते हैं कि दर्शन तर्क की आधार-भूमि पर खड़ा होता है और विज्ञान प्रयोग की बुनियाद पर। विज्ञान का सारा कारोबार प्रयोगशालाओं में संपन्न होता है। जैनदर्शन की प्रयोगशाला कैवल्य है; वहाँ जो सम्मुख है,वह शाश्वत सत्य है। उसमें कोई ‘ननु-नच' नहीं है। यह अन्धविश्वास नहीं है, ज्ञान का वैभव है, उसका सर्वोच्च शिखर है। .. विज्ञान के रास्ते बदले हैं, जैनदर्शन का रास्ता वही है जो पहले था, वही आज है, वही कल रहेगा। इसमें फेर-बदल की कोई गुंजाइश नहीं है । फर्क सिर्फ एक है। विज्ञान की डगर पार्थिव है, जैनदर्शन की अपार्थिव/आध्यात्मिक । वह मुक्ति की ओर है; बन्धन की दिशा में नहीं है। बन्धन-मुक्ति जैन धर्म/दर्शन का अन्तिम लक्ष्य द्रव्यों से लोक बना है। जहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल हैं वह- लोकाकाश है; तदनन्तर अलोकाकाश है। __'सत्' द्रव्य का लक्षण है। 'वह' है, उसका ‘होना' ही उसकी निशानी है। जब लगता है कि 'वह नहीं हैं, तब मात्र वैसा लगता है, होता असल में वैसा नहीं है। वैसा होना संभव भी नहीं है। पर्यायान्तरण की वजह से भ्रम हो सकता है; किन्तु ध्यान रहे, जहाँ सम्यक्त्व है, वहाँ संशयं अथवा आभास के लिए कोई स्थान नहीं है। द्रव्य की इबारत है- 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' (तत्त्वार्थसूत्र सू.३/८) द्रव्य, कोई भी वह हो, गुण और पर्यायवान् है। 'वह है, वह नहीं है' इसकी व्याख्या गुण और पर्याय शब्दों में धड़क रही है । गुण-की-अपेक्षा वह है, पर्याय-की-अपेक्षा उसका व्यय और उत्पाद है; लोप और आगम है। जानें, लोक का जर्रा-जर्रा सापेक्ष है। द्रव्य छह हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल; क्रमशः चेतन, अचेतन, गति, स्थिति, अवकाश और वर्तन । तमाम द्रव्यों की अपनी-अपनी अस्मिताएँ हैं, वे स्वाधीन हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने पाँव पर अवस्थित हैं । एक-दूसरे के अस्तित्व में एक-दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं है। संपूर्ण लोक-यातायात अविच्छिन्न और निर्विघ्न है। द्रव्य अनादि हैं। इनका X For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई सिरा नहीं है। द्रव्य की सत्ता को समझने के लिए उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की त्रयी को गहराई में उतर कर समझना बहुत जरूरी है। द्रव्य ‘है', उसका ‘था' और 'गा' पर्यटक है। 'है' ही रहता है, 'गा' और 'था' उखड़ जाते हैं। द्रव्य की यह सत्यकथा अनादि है। उत्पाद और व्यय की प्रक्रिया को पर्यायान्तरण में-से समझना चाहिये।। ... आत्मा है; शरीर ‘था' 'गा' 'है' तीनों है। 'था' वह हुआ, 'गा' वह होगा, 'है' वह है; किन्तु आत्मा के साथ ऐसा नहीं है। वहाँ सिर्फ 'है' है। शुद्धावस्था में यद्यपि 'गा' 'था' 'है' की त्रयी है तथापि वह शुद्धावस्थापरक है। द्रव्य के इस मौलिक व्याकरण को जाने बगैर लोक-रचना के रहस्य को जानना संभव नहीं है। __ जैनधर्म/दर्शन का मुख्य लक्ष्य स्वभावोपलब्धि है। भेद-विज्ञान इसका अचूक माध्यम है। इसके द्वारा हम द्रव्यों की स्वाधीन सत्ताओं का बोधमृत पाते, पीते हैं। आत्मा आत्मा है, देह देह है। आत्मा न कभी देह हुआ है, न था, न होगा। इसी तरह देह न कभी आत्मा था, न होगा, न है । इस पार्थक्य को हम भेद-विज्ञान में-से होगुजर कर ही जान पाते हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध साध्वीजी की ज्ञान-साधना की श्रमसाध्य परिणति है। उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन द्वारा द्रव्यों की विस्तृत/सर्वांग विवेचना की है। मुझे विश्वास है इसे व्यापक रूप में पढ़ा जाएगा। - साध्वीजी से निवेदन है कि वे अपनी अध्ययन-अनुसंधान-वृत्ति को अनवरत रखें और यदि संभव हो तो इसके एक सरल जेबी संस्करण से सामान्य जन को भी उपकृत करें। क्या हम गंभीर अध्ययनों को कॉमन जैन तक पहुँचाने को तुरन्त कोई उपाय नहीं करेंगे? मेरी समझ में यदि हम प्रयत्न करें तो जो ज्ञानामृत साधु-जन, विद्वज्जन खोजते-पाते हैं, उसमें एक सामान्य श्रावक की सहभागिता अवश्य बना सकते हैं ? इन्दौर, म.प्र. -डॉ. नेमीचन्द जैन १४ नवम्बर, १९९४ संपादक 'तीर्थंकर' 'शाकाहार-क्रान्ति' XI For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी ओर से भारतीय चिन्तनधारा में जैन दर्शन की चिन्तन पद्धति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। जैन दर्शन ने धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देने के स्थान पर सहिष्णुता को अधिक मूल्यवान् माना है। यही वैचारिक सहिष्णुता 'अनेकान्त' एवं आचार पक्षीय उदारता 'अहिंसा' के माध्यम से प्रतिपादित हुई । अहिंसा और अनेकान्तवाद के धरातल पर खड़ा जैन दर्शन मात्र भारतीयों को नहीं, अपितु विदेशी विद्वानों को भी सहज में ही प्रभावित करने में पूर्ण सक्षम है। जैनदर्शन का चिन्तन कल्पित नहीं है, अपितु अनुभव के अमृत से अनुप्राणित है । आज उसके अनेक सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा सिद्ध हो चुके हैं और भविष्य में भी खोज जारी है। विश्ववन्द्य करुणामूर्ति परमात्मा महावीर ने जिस सत्य का साक्षात्कार किया, उसी को निष्पक्ष दृष्टि से कल्याण और करुणा की भावना से ओतप्रोत होकर अभिव्यक् किया और वही अमृतवाणी आचार्यों द्वारा परम्परा के रूप में हम तक पहुँची है । प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव त्रिगुणात्मक है । केवलज्ञान का प्रकाश उपलब्ध होते ही तीन सिद्धान्त महावीर द्वारा प्ररूपित हुए- उत्पत्ति, स्थिति, और विनाश । इन तीन सिद्धान्तों पर जैन साहित्य की शाश्वत और अटूट इमारत खड़ी हुई है। पदार्थ के इस त्रिगुणात्मक स्वभाव पर मेरा यह शोध निबन्ध लिखा गया है । इस शोध-प्रबंध में कुल पाँच अध्याय हैं, जिनका परिचय इस प्रकार है: प्रथम अध्याय में भारतीय दर्शन में जैनदर्शन की विशेषता, सृष्टि के संबन्ध में प्रमुख भारतीय दार्शनिकों के विचार एवं द्रव्य के सामान्य स्वरूप पर चिंतन किया गया है । द्वितीय अध्याय में द्रव्य के स्वरूप और लक्षण का विशद, तार्किक रूप से स्पष्टीकरण करते हुए द्रव्य के गुण और पर्याय का सर्वांगीण विश्लेषण किया गया है। तृतीय अध्याय में षड् द्रव्यों की चर्चा करते हुए जीवास्तिकाय पर जैन दार्शनिकों एवं इतर दार्शनिकों के मतों का उल्लेख किया गया है। साथ ही आत्मा के अस्तित्व को भी विभिन्न तर्कसंगत मतों से प्रतिपादित करते हुए जीव के समस्त वर्गीकरण को प्रस्तुत किया गया है। XII For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय में अजीवास्तिकाय जिसके अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्रल समाविष्ट होते हैं, उसे सिद्ध करते हुए इनका जीव पर उपकार प्रतिपादित किया गया है। अंत में समस्त अध्यायों का उपसंहार रूप अपने चिंतन का प्रस्तुतीकरण करते हुए सभी अध्यायों का सार संकलित किया गया है । इस प्रकार पाँच अध्यायों से युक्त शोध-प्रबन्ध की प्रस्तुति बेला में निश्चित् ही मैं आतंरिक आनंद और आह्लाद का अनुभव कर रही हूँ । यद्यपि मैं यह भी अनुभव करती हूँ कि द्रव्य के स्वरूप पर आज तक प्रचुर लिखा जा चुका है; यह विषय ही इतना गहरा व विस्तृत है कि इस पर जितना लिखा जायेगा, थोड़ा ही होगा क्योंकि यह त्रिपदी ही तो आगमों का मूल है। फिर भी मैं अनुभव करती हूँ कि इस 'थीसिस' का अपना मूल्य और उपयोग होगा । द्रव्य जैसे गूढ़ विषय के चुनाव पर यद्यपि मुझे मेरे शास्त्रीय ज्ञान की अल्पता का भान था, फिर भी मुझे लेना यही विषय था । इसका कारण गुरुवर्याश्री की आन्तरिक / उत्कट अभिलाषा एवं उनका आदेश था । वे स्वयं अपने युग की आगम ज्योति कहलाते थे और मुझसे वे अपेक्षा रखते थे कि मैं भी आगमज्ञान की आत्मसात् करूँ । उनके अनुरूप बनने की मेरी अभिलाषा तो अवश्य है पर आशा नहीं, फिर भी उनके ज्ञानालोक में से प्रकाश की कुछ रश्मियाँ मेरे पल्ले भी आएँ और आगमों के आंशिक ज्ञान को उपलब्ध करूँ, बस इसी भावना को मूर्तरूप देते हुए इस विषय का चुनाव किया और आत्मतोष है कि अपेक्षित ज्ञानार्जन यद्यपि नहीं हुआ, फिर भी 'कुछ' कदम अवश्य बढ़े। में विषय का पंजीकरण होने के बाद कुछ संयमी जीवन से जुड़ी व्यस्तता होने के कारण कार्य में शिथिलता आ गयी थी, परन्तु जब गतवर्ष की जन्मदिन की कविता पूज्य ज्येष्ठ बन्धु श्री मणिप्रभजी ने अपने अन्तर्मन में भरे स्नेह से आपूरित "पी. एच. डी. करना ही है, और वह भी शीघ्र” - ये उद्गार व्यक्त किये तो मैं भी इस कार्य को आगे बढ़ाने में तत्पर हो गयी । जन्म-दिन की कविता का वह पद्यांश यह "वो सूर्योदय जिस दिन होगा, मुझको यह संवाद मिलेगा । बनोगी जब तुम 'डॉक्टर' बहिना, मेरे मन का फूल खिलेगा ।। शोध-ग्रन्थ की निर्मिति में श्रम-समय तुम्हें देना है सारा । XIII For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एक वर्ष में पूर्ण करूँगी,' एक यही हो तेरा नारा ।" . उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त कर मैं अपने समर्पण को नहीं आँकना चाहती। क्योंकि वे सर्वतोभावेन मेरी श्रद्धा और स्नेह के केन्द्र हैं। .. इसी क्रम में, एक पूर्ण संकल्प के साथ मैं मालपुरा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि के धाम पहुँची और दर्शन के प्रथम क्षण में ही मैंने गुरुदेव की चरण पादुका के समक्ष आत्मनिवेदन किया “मुझे इस स्थान पर अपना अध्ययन करना ही है जो तेरे आशीर्वाद बिना असंभव है। “प्रयत्न मेरा व कृपा तेरी"। मैं निश्चित् रूप से कह सकती हूँ- मेरे इस निवेदन को गुरुदेव ने सुना ही नहीं, पूर्ण आशीर्वाद भी दिया और इसी कारण यह शोध प्रबन्ध कुछ ही माह में संपूर्ण तैयार हो गया। मैं अभिभूत हूँ . गुरुदेव की इस कृपामयी अमीवृष्टि पर। . ___ मैं समग्रभावेन सादर सविनय नतमत्सक हूँ, दिव्याशीष-प्रदात्री, मेरे अंतर्मन में आसीन, रग-रग में बसी आगमज्योति अध्यात्मयोगिनी, अनेकों ग्रंथों की निर्मात्री अपनी गुरुवर्या प्रवर्तिनी श्री प्रमोदश्री जी महाराज के श्रीचरणों में, जिनके नाम से जुड़ने का सौभाग्य मुझे उपलब्ध हुआ। __मैं इन क्षणों में अपनी हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त किये बिना नहीं रह सकती - मेरी प्रारम्भिक शिक्षा से आज तक की शिक्षायात्रा से जुड़े प्रेरणादीप श्री आर. एम. कोठारी, आई. ए. एस. जोधपुर के प्रति ! यद्यपि अभिव्यक्ति की एक सीमा है और वह मात्र चार पंक्तियों में सिमट गयी है पर मेरे भावों में उनके प्रति असीम आस्था के स्वर गूंज रहे हैं। क्योंकि अगर वे मुझे अध्ययन से जुड़े रहने की निरन्तर निःस्वार्थ प्रेरणा नहीं देते तो संभवतः यह यात्रा अधूरी रह सकती थी। उन्होंने साध्वी के अनुरूप मुझे सम्मान तो दिया ही, उससे भी अधिक पिता बनकर स्नेहसिक्त प्रेरणा भी दी। .. मैं अपने मार्गदर्शक विद्वद्वर्य सरलता की प्रतिमर्ति श्री डॉ. वाई. एस. शास्त्री, आचार्य, एम. ए., पी.-एच. डी. (Reader in Philosophy) की हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरे शोधकार्य की विषय वस्तु को अन्यान्य अध्ययन अध्यापन की व्यस्तता के बावजूद देखा, जांचा, परखा एवं आवश्यक निर्देशों के साथ अविलम्ब मुझे लौटा भी दिया। मेरी अनुकूलता को उन्होंने प्रमुखता दी। अगर उनका अपेक्षित सानुग्रह सहयोग नहीं मिलता तो प्रस्तुति की अवधि और भी बढ़ सकती थी। मैं श्री डॉ. नरेन्द्र भानावत के अगाध ज्ञानप्रेम को भी विस्मृत नहीं कर पा रही हूँ। वे मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अपनी धर्मपत्नी डॉ. शान्ता भानावत के साथ मालपुरा XIV For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारे एवं मुझे विषय से संबन्धित मार्गदर्शन दिया। आज इस ग्रन्थ के प्रकाशन की वेला में उनकी अनुपस्थिति मुझे व्यथित कर रही है । मैं आत्मप्रिय स्व. डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत एवं स्व. डॉ. नरेन्द्र भानावत की पवित्रात्मा को विनम्र प्रणाम करती हूँ । पाण्डुलिपि देखने में मुझे श्री मिलापचन्द जी जैन, पूर्व परीक्षानियन्त्रक, राजस्थान विश्वविद्यालय का सहयोग मिला। मैं उनके सहयोगी व्यक्तित्व के प्रति शुभकामनाएँ समर्पित करती हूँ । बोर्ड से लेकर एम. ए. तक की शिक्षायात्रा में समग्रभावेन सहयोगी बने डॉ. एल. गांधी, डॉ. पी. मिश्रा, डॉ. एम. एल. शर्मा, डॉ. एम. एम. कोठारी, डॉ. विमला भंडारी, मि. आसोपा जोधपुर, डॉ. ललिता मेहता बाड़मेर एवं श्री भूरचन्दजी शाह, बाड़मेर आदि सभी की मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ । । शोधयात्रा की प्रस्तुति का सपना सार्थक करने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा- डॉ. कमलचन्दजी सोगानी, जयपुर का । उन्होंने पूर्ण अनुग्रह के साथ मेरे संकोच को तोड़कर मेरी शोध क्षमता को अनावृत किया । यद्यपि मेरे द्वारा लिखित अध्यायों में उन्होंने परिवर्तन सामान्य सा ही किया, पर ग्रन्थ की पुष्टि उन्होंने ही की । नि:संदेह ग्रन्थ प्रस्तुति के निर्माण का श्रेय उन्हीं को जाता है। मैं विनम्रभाव से उनकी कृतज्ञता को शब्दों में बांधने का असफल प्रयास करती हूँ । शोध निमित्त जयपुर प्रवास के दौरान जिनकी आत्मीय स्निग्धता ने अपरिचित • परिवेश में मेरे श्रमशील मस्तिष्क को ऊर्जा व तरलता देने वाले सा.डी. देवल I.A.S., शमीम दीदी अख्तर, R.A. S. दुलीचन्दजी टांक, महोपाध्याय विनयसागरजी, (स्व.) महावीरप्रसादजी श्रीमाल, कनक श्रीमाल, बाबूलाल डोसी, जतनकुँवर गोलेच्छा, सौ. मे बाई सुराणा आदि की भी मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ । मैं श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट, मांडवला के अध्यक्ष श्री द्वारकादास डोसी, बाड़मेर को भी विस्मृत नहीं कर सकती जिनके प्रयासों से मुझे विषय से संबन्धित सामग्री प्राप्त होती रही । मैं अखिल भारतीय श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ महासंघ के अध्यक्ष पितृहृदय निश्छलमना भाईजी श्री हरखचन्दजी नाहटा के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ जिनके प्रयासों से मेरा वायवा जोधपुर में व्यवस्थित रूप से संपन्न हो पाया । मैं पूज्या समतामूर्ति तपस्विनी प्रकाशश्रीजी महाराज, माताजी म. श्री XV For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतनामालाश्री जी महाराज के चरणों में विनम्रभावेन वन्दनाएँ अर्पित करती हूँ जिनके सान्निध्य में मैं अपनी संयम और स्वाध्याय की यात्रा निर्विघ्न चला रही हूँ। ... अन्त में मैं अपनी सुयोग्य प्रतिभाशालिनी सुशिक्षित आर्यावर्ग साध्वी शासनप्रभा M.A., स्वर्ण पदक प्राप्त साध्वी नीलांजना M.A., प्रज्ञांजना, दीप्तिप्रज्ञा, नीतिप्रज्ञा एवं विभांजना की भी कतज्ञ हैं जिन्होंने मेरे अध्ययन के लिये शान्त और नीरव परिवेश के निर्माण में अपना संपूर्ण योगदान दिया। अपनी समस्त संवेदनाओं को समाप्त कर मेरे अध्ययन की भूमिका का निर्माण किया, समस्त उत्तरदायित्वों से मुक्त कर मुझे निश्चित किया। शोध-प्रबन्ध की प्रेस कॉपी साध्वी शासनप्रभा एवं नीलांजना ने तैयार की है। उन्हें मेरा हार्दिक आत्मीय मंगलमय आशीर्वाद है। वे . निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होकर अक्षय आनन्द को उपलब्ध करें। प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन मात्र उपाधि हेतु नहीं किया गया है, अपितु इसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान की अपूर्व सम्पदा की प्राप्ति रहा है। इन षड्द्रव्यों का अध्ययन कर अपनी आत्मचेतना को शुद्ध और मुक्त बनाऊँ, इसी कामना के साथ मेरा यह प्रयास हुआ है। इस मंजिल की प्राप्ति में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सहयोगी वृन्द के प्रति हार्दिक शुभकामनाएँ व्यक्त करती हुई विद्वजनों की निष्पक्ष आलोचना सादर आमन्त्रित करती हूँ। परमात्मा महावीर की अमृतवाणी को अगणित वंदना । सादर विurem साध्वी विद्युत्प्रभा श्री XVI For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-विज्ञान अनुक्रमाणिका जैनदर्शन ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में अपने विशाल साहित्य और तलस्पर्शी चिन्तन के कारण एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। द्रव्य-स्वरूप के विषय में जैन दार्शनिकों का जो सूक्ष्म विश्लेषण है, उसे अनेक आधुनिक भौतिक शास्त्र के वैज्ञानिकों ने भी कुछ हद तक स्वीकार किया है। इस शोध निबन्ध में जैन दार्शनिक ग्रन्थों में पायी गयी द्रव्य-विषयक विवेचना के समग्र चित्र को प्रदर्शित करते हुए तुलनात्मक दृष्टि से प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत शोध निबंध में कुल पाँच अध्याय हैं । वे इस प्रकार हैं :१) प्रथम अध्याय : भारतीय दर्शनों के संदर्भ में जैन दर्शन की द्रव्य अवधारणा द्वितीय अध्याय : जैन परम्परा-मान्य द्रव्य का लक्षण ३) तृतीय अध्याय : जैनदर्शन के अनुसार आत्मा ४) चतुर्थ अध्याय : अजीव का स्वरूप ५) पांचवां अध्याय : उपसंहार इन अध्यायों में निम्नलिखित विषयों की विवेचना की गई है : ' १. भारतीय दर्शनों के संदर्भ में जैन दर्शन की द्रव्य अवधारणा १-२२ • भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में एकता की अनुगूंज । • भारतीय दर्शन की विशेषता। पाश्चात्य दर्शन की विशेषता । • दर्शन शब्द की उत्पत्ति, प्रयोग एवं उसका अर्थ । • दर्शन शब्द की फिलॉसाफी से तुलना • दार्शनिक के मापदंड एवं उनकी विशेषता। • आस्तिक और नास्तिक विचारधारा । •जैनदर्शन की प्राचीनता। • जैनदर्शन में द्रव्य । • द्रव्य का निरुक्त अर्थ । . . • द्रव्य के पर्यायवाची शब्द । द्रव्य की परिकल्पना का कारण। • भारतीय .. दार्शनिक के द्रव्य एवं सृष्टि के संबंध में विभिन्न मत । • उपनिषद् के अनुसार XVII For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य एवं सृष्टि। • बौद्ध धर्मानुसार द्रव्य एवं सृष्टि । • सांख्य दर्शन के अनुसार द्रव्य एवं सृष्टि। • चार्वाक मत में द्रव्य एवं सृष्टि। • जैनदर्शन की द्रव्य एवं सृष्टि के सम्बन्ध में मान्यता । २. जैन परम्परामान्य द्रव्य का लक्षण २३-६६ • जैन परम्परा में सत् का लक्षण। • द्रव्य लक्षण गुण पर्याय युक्त है। •सहभावी और क्रमभावी की अपेक्षा गुण पर्याय। • वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। द्रव्य त्रैकालिक है। • अस्तित्व की अनिवार्यता परिणमन है। . ऊर्ध्वता एवं तिर्यक् की अपेक्षा द्रव्य, उत्पादादि से भिन्न भी है। • द्रव्य में ऐकान्तिक प्रतिपादन के दूषण। • द्रव्य-गुण पर्याय में एकान्त भेद नहीं। • द्रव्य, गुण और पर्याय में एकान्त अभेद भी नहीं। • जैनदर्शन समन्वयवादी है। उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य में काल की भिन्नता-अभिन्नता। • सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं। सत् सप्रतिपक्ष है- (सद्-असद्, वाच्यावाच्य, अस्तित्व-नास्तित्व, सामान्य-विशेष) सद्-असद्-न्याय वैशेषिक, भेद-अभेद वेदान्त व सामान्य कुमारिल के अनुसार। • नय का स्वरूप और उसकी आवश्यकता। • षड्द्रव्यों का विभाजन : चेतन व अचेतन की अपेक्षा से मूर्त व अमूर्त की अपेक्षा से, एक व अनेक की अपेक्षा से, परिणामी व नित्य की अपेक्षा से, सप्रदेशी व अप्रदेशी की अपेक्षा से, क्षेत्रवान् एवं अक्षेत्रवान् की अपेक्षा से, सर्वगत व असर्वगत की अपेक्षा से, कारण व अकारण की अपेक्षा से, कर्ता व भोक्ता की अपेक्षा से। ३. जैनदर्शन के अनुसार आत्मा ६७-१५५ • आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति । आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि । • आत्मा प्रमाण सिद्ध है। जिनभद्रसूरि के अनुसार आत्मसिद्धि । विभिन्न आचार्यों के अनुसार आत्मा की सिद्धि। • आत्मा और उपनिषद् । • उपनिषद् और आत्मस्वरूप की विभिन्नता। • देहात्मवाद। • प्राणात्मवाद। • मनोमय आत्मा। . प्रज्ञा विज्ञानात्मा। • चैतन्यात्मा। • न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा। • बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद। • चार्वाक दर्शन में आत्मा। XVIII For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सांख्य दर्शन में आत्मा । • जीवास्तिकाय के लक्षण । • उपयोग के प्रकार । • ज्ञान के प्रकार । • सहवादी और क्र मवादी विचारधाराएँ। . अनेकात्मवाद। देहपरिमाणात्मवाद। • नित्यता तथा परिणामीअनित्यतावाद। • आत्मकर्तृभोक्तृत्ववाद। जीवों का वर्गीकरण और शुद्धात्मा का स्वरूप। कर्ममुक्त आत्मा। •पारिणामिक भाव। • आत्मा और भाव - (क) औपशमिक भाव, (ख) क्षायिक भाव, (ग) मिश्र भाव, (घ) औदयिक भाव। • संसारी जीवों का वर्गीकरण-त्रस और स्थावर की अपेक्षा से। • वनस्पति । • वनस्पति के भेद। • त्रस जीवों के भेद । •पंचेन्द्रिय जीवों का वर्गीकरण। • मनुष्य जीवों के प्रकार । नैरयिकों के प्रकार। • देवों के प्रकार। • जीव और शरीर। • आत्मा और चारित्र । •लेश्या और जीव। कर्म और जीव । •जीव और पर्याप्ति । आत्मा और गुणस्थान। .पुण्य, पाप, बन्ध और जीव। .आम्रव, संवर, निर्जरा और जीव । कर्म और आम्रव। • संवर और निर्जरा । • बंध और मोक्ष । • बंध और आस्रव में भेद •मोक्ष का स्वरूप- (क) पूर्व के संस्कार, (ख) कर्म से असंग, (ग) बन्ध-छेद (घ) अग्निशिखावत्, (च) मुक्ति की प्राप्ति के भेद •मुक्ति के साधन, • जीव के अनेक नामों के कारण। ४. अजीव का स्वरूप . १५६-२३६ • धर्मास्तिकाय का लक्षण। .कारण के प्रकार। धर्मास्तिकाय की उपयोगिता । अर्धास्तिकाय का स्वरूप एवं लक्षण । • अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व की सिद्धि । •आकाशस्तिकाय का लक्षण और स्वरूप। चतुष्टयी की अपेक्षा से लोक। .आकाशास्तिकाय के भेद । बौद्ध मत में लोक का विवेचनः (क) नरक लोक (ख) ज्योतिर्लोक (ग) स्वर्ग लोक। वैदिक धर्मानुसार लोक वर्णन: (क) नरक लोक, (ख) ज्योतिर्लोक, (ग) महर्लोक। लोक के भेदप्रभेद संस्थान के प्रकार । लोकालोक का पौवापर्य। • दिक् । न्यायवैशेषिक और आकाश। • सांख्य और आकाश । • अद्वैत-वेदान्त और आकाश । •बौद्धमत और आकाश । • आकाशास्तिकाय की सिद्धि । XIX For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • काल द्रव्य। • काल का लक्षण (क) वर्तना क्या है? (ख) परिणाम क्या है ? (ग) क्रिया क्या है? (घ) परत्व व अपरत्व (ड) परिणाम के संबंध में कुछ तर्क । वर्तना और परिणाम में अन्तर । काल अखण्ड प्रदेशी नहीं है। .काल अनन्त समय युक्त है। .काल के प्रकार। .काल का उपकार । • क्रिया में सहायक काल है। • व्यवहार के भेद। • निश्चय काल का लक्षण। • व्यवहार और निश्चय काल में अन्तर। .कालचक्र की अवधारणा । काल के ज्ञान की आवश्यकता। • वैशेषिक दर्शन में काल। • सांख्य और काल । • पुद्गल का लक्षण। • पुद्गल के भेद। • परमाणु का स्वभाव चतुष्टय, • पुद्गल के लक्षण, • पुद्गल के भेदः (क) स्कन्ध (ख) स्कन्धदेश (ग) प्रदेश (घ) परमाणु। • पुद्गल के पर्यायः (क) शुद्ध (ख) बन्ध (ग) सूक्ष्म (घ) स्थूल (ङ) संस्थान (च) भेद (छ) अन्धकार (ज) छाया (झ) आतप (ब) उद्योत। • पुद्गल के छह भेद। • पुगल परिणमन । • पुद्गल का स्वभाव-चतुष्टय । • पुद्गल के उपकार । • जैनदर्शन का लक्ष्य। ५. उपसंहार २३७-२५४ . ६. संन्दर्भ - ग्रन्थ सूची २५५-२६९ ७. हमारे प्रकाशन २७०-२७३ IIX. For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : प्रथम भारतीय दर्शनों के संदर्भ में जैन दर्शन की द्रव्य - अवधारणा जैन दर्शन भारतीय दर्शनों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इस कल्पार्द्ध जैन शासन आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव माने जाते हैं। वर्तमान समय में चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर का जिनशासन प्रवर्तित है । जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है- उसकी अनेकान्तमयी उदार दृष्टि, जहाँ सभी दर्शन अपने वाद की स्थापना के लिये ही संपूर्ण शक्ति लगाते हैं, वहीं जैन दर्शन उन दर्शनों मे कथञ्चित् सत्य पक्ष ढूँढ़ता है। वैचारिक अपेक्षा से जैन दर्शन की सबसे बड़ी मौलिक देन है स्याद्वाद - अनेकान्तवाद एवं व्यवहार की अपेक्षा से आचार की पवित्रता । अनेकान्तवाद की स्थापना की गहराई में भी अहिंसा के ही दर्शन होते हैं । जैन तीर्थंकरों की अहिंसा मात्र कायिक ही नहीं, अपितु मानसिक और वैचारिक भी है । मन से किसी का अहित चिंतन करना या शब्दों से किसी को अनुचित एवं कटु कहना भी हिंसा ही है । जैन दर्शन की उत्कृष्टता का एक अन्य कारण यह भी है कि यह किसी एक आत्मा विशेष को परमात्मा की संज्ञा देकर कर्तृत्व से नहीं जोड़ता, अपितु समस्त आत्माओं को परमात्मा की तुल्यता प्रदान करता है । आत्मा और परमात्मा का अन्तर यही है कि एक की शक्ति प्रकट है और दूसरे की अप्रकट । जिसकी शक्ति प्रकट हो चुकी है, वह परमात्मा है । जिसकी शक्ति प्रकट नहीं हुई है, वह भी उसी शक्ति का स्वामी है और प्रबल पुरुषार्थ द्वारा उसे प्रकट कर वह परमात्मा बन सकता है। उन परमात्मा द्वारा प्ररूपित जैन विचार धर्म भी है और दर्शन भी । आचार सूक्ष्म व्याख्या के कारण यह धर्म है और अन्य विचार पद्धति का विरोध किये बिना आत्मानुभूत सत्य-तथ्यों के क्रमबद्ध और युक्तियुक्त विश्लेषण के कारण दर्शन भी है। १ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का चरम लक्ष्य आत्मानन्द की उपलब्धि है और वह आत्मानन्द मानसिक, वाचिक और कायिक शुद्धता द्वारा ही उपलब्ध होता है। विचारों की उदारता और आचार की पवित्रता ही वास्तविक अहिंसा है; और इसी नींव पर जैन दर्शन का भव्य प्रासाद शोभायमान है। सहिष्णुता एवं आचारगत अहिंसा सृष्टि के लिए उदाहरण स्वरूप है । भाषा, रस्म-ओ-रिवाज, जीवनपद्धति और आचार पद्धति की विभिन्नता भी यहाँ के जनमानस को 'भारतीय' एकता में बांधे हुए है। भारत में तत्त्वज्ञान समीक्षात्मक रहा है। सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने स्तर पर अनेक विषयों पर चिंतन किया। ईश्वर जैसे विषय पर भी मुक्त चिंतन हुआ। बौद्ध और जैन संप्रदायों ने ईश्वर को कर्त्ता या सृष्टि के हेतु भूत मानने में अस्वीकृति देते हुए कोई संकोच नहीं किया। भौतिकवादी चार्वाक ने तो ईश्वर को नकार ही दिया। विचारों के विकास एवं अभिव्यक्ति में भारतीय तत्त्वज्ञान जितना उदार है, अन्य देशों में शायद ही इसकी कल्पना की जा सकती है। भारतीय दर्शन पद्धति की विशेषताः____ भारतीय दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी कोई मंजिल है। यद्यपि भारतीय दर्शन पर निराशावादी होने का आरोप लगाया जाता है, परन्तु यह भ्रम मात्र है, क्योंकि भारतीय दर्शन दुःखों का विवेचन मात्र करके ही नहीं रह जाता, अपितु दुःखमुक्ति का मार्ग भी बताता है। भारतीय दर्शन पद्धति जनता की आवश्यकता की पूर्ति करती है। आधि-व्याधि पूरित दैनिक जीवन से हटकर मात्र कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करना, भारतीय दार्शनिक परम्परा को अस्वीकार्य है। राग-द्वेष रहित इस प्रकार का जीवन जीना जिससे स्थायी और अक्षय सुख उपलब्ध हो, यहाँ के दार्शनिकों की पहचान है। व्यास एवं विज्ञानभिक्षु का यह कथन सत्य है कि जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र रोग, रोगनिदान, आरोग्य तथा भैषज्य, इन चार तथ्यों के यथार्थ निरूपण की प्रवृत्ति अपनाता है उसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र भी दुःख, दुःख हेतु, मोक्ष एवं मोक्ष के उपाय बताता है।' १. भारतीय दर्शनः बलदेव उपाध्याय पृ. ११ २. यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्म्यहम्-रोगी, रोगहेतुः आरोग्यं भेषजमिति । तदिपमपि शास्त्रं चतुर्म्यहम् । तद् यथा-संसारः मोक्षः मोक्षोपायः इति । - व्यासभाष्य, २.१५; सांख्यप्रवचनभाष्य, पृ. ६ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में एकता एवं सामंजस्यः स्वयं के एवं सृष्टि के स्वरूप को समझने के लिए भारतीय उर्वरा भूमि पर विभिन्न विचारधाराओं का आविर्भाव हुआ। विभिन्न विचारधाराओं के मध्य भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो एकता की अनुगूंज को प्रखर करते हैं। मेक्समूलर ने विभिन्न दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि 'दर्शन' की परस्पर भिन्नता की पृष्ठभूमि में एक ऐसे दार्शनिक ज्ञान का भंडार है जिसे हम राष्ट्रीय या सर्वमान्य दर्शन कह सकते हैं एवं जिसकी तुलना हम उस मानसरोवर से कर सकते हैं जो यद्यपि सुदूर प्राचीन काल रूपी दिशा में अवस्थित था, तो भी उसमें से प्रत्येक विचार को अपने उपयोग के लिए सामग्री प्राप्त हो जाती थी। जैन दार्शनिकों के अनुसार एकान्तवादी समस्त विचारधाराएँ असत्य और मिथ्या हैं, परन्तु जब वही सापेक्ष रूप से प्रतिपादित की जाती हैं तो सत्य बन जाती हैं, इसे ही उन्होंने स्याद्वाद कहा है। इस प्रकार से स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा जैन दार्शनिकों ने समस्त दर्शनों की ग्राह्यता एवं उपयोगिता स्पष्ट की है। इस देश के विचारकों की उत्कृष्टता के कारण ही मनु ने कहा कि संपूर्ण संसार ने भारतीय धरा पर अवतरित चारित्रिकों से चरित्र की शिक्षा ली। ___ मूलरूप से छह विचारधाराओं का अस्तित्व आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्वीकार किया है-बौद्ध, न्याय, सांख्य, जैन, वैशेषिक एवं मीमांसक। डॉ.राधाकृष्णन् का मत कुछ भिन्न हैं वे अपने 'भारतीय दर्शन' में इन छह दर्शनों को स्वीकार करते हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा। भारतीय विचारक यद्यपि दर्शन में प्रवृत्त होता है संसार की दुःखमय प्रवृत्ति देखकर ही, परन्तु वह निराशा या कुण्ठा से हताश होकर चुपचाप नहीं बैठ जाता, ३. मैक्समूलर,-सिक्स सिस्टम्स् ऑफ इण्डियन फिलॉसॉफी, पृ.१७ ४. सर्वदर्शनसंमत....समीचीनामंचति ।-षर्शनसमुच्चय, टीका१.४; स्याद्वादः....हेयादेय विशेषकः, -आप्तमीमांसा, १०:१०४; तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, पृष्ठ १३६, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ३, एवं - रत्नकरावतारिका पृ. १५ ५. एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । __ स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः। - मनुस्मृति २.१० ६. बौद्धनैयायिक....ममून्यही । - षड्दर्शनसमुच्चय ३ ७..डॉ. राधाकृष्णन् : भारतीय दर्शन, भाग २, पृष्ठ १७ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्युत आगे बढ़ता है । सांख्यकारिका के आरम्भ में विचारशास्त्र की प्रवृत्ति का यही कारण बताया है। जैन दर्शन ने द्रव्यों का विवेचन एवं उन्हें समझने का कारण इसी दुःख-निवृत्ति को बताया है। अतः हम निःसंकोच कह सकते हैं कि दर्शन की उपयोगिता मात्र वर्णनात्मक ही नहीं, अपितु आचारात्मक भी है, क्योंकि मात्र ज्ञान के द्वारा ही दुःख से मुक्ति नहीं होती, अपितु उसके लिए रत्नत्रयरूप ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आवश्यक हैं।१० . __ यह स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि भारत में दर्शन और धर्म अलग-अलग तत्त्व नहीं है । दर्शनशास्त्र की कसौटी पर कसा जाने वाला तत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित होता है। इसी कारण भारतीय दर्शन में आत्मा मुख्य तत्त्व बना क्योंकि हेय और उपादेय का ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता आत्मा में ही पायी जाती है ।११ बृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मा को सर्वप्रिय तत्त्व कहा गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में तो आत्मा को ब्रह्म कहा है ।१३ मुण्डकोपनिषद् में उस विद्या को श्रेष्ठतम बताया गया है जो ब्रह्मविद्या से अनुप्राणित हो। युद्ध क्षेत्र में अर्जुन की अपनी विभूतियों के विराट् स्वरूप के बारे में बताते हुए श्रीकृष्ण ने समस्त विद्याओं में अध्यात्मविद्या को उत्कृष्टतम विद्या बताया है।५, भारत में दर्शनशास्त्र लोकप्रिय रहा है और उसकी लोकप्रियता का कारण यदि आचार और विचार दोनों से इसका अनुस्यूत होना कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यदि भारतीय दर्शन ने मात्र दुःखों का विवेचन ही किया होता तो हम कह सकते थे कि यह एक निराशावादी विचारपद्धति है परन्तु इसने तो पूर्ण समाधान का मार्ग भी प्रशस्त किया है; और यही नहीं कि मात्र कुछ आत्माएँ ही स्थायी ८. दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। - सांख्यकारिका, का. १ ९. एवं पवयणसारं, पंचत्थियसंगहं वियाणिन्ता। ___जो मुयदि रारेसि, सो गार्हाद दुक्खपरिमोक्खं । प.का. १०३ १०. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि मोक्षमार्गः। -तत्त्वार्थसूत्र १.१ ११. यस्यैवामूर्तस्यात्मनः.....विषयात्मकेन निरन्तरं ध्यातव्यः । -बृ.उ.सं. १२. बृहादारण्यकोपनिषद् २.१.५ १३. तैत्तिरीयोपनिषद् १.५ १४. स ब्रह्मविद्यां सर्वविधाप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय आह।- मुण्डकोपनिषद् १.१ १५. अध्यात्मविद्या विद्यानां....प्रवदतामहम् ।-गीता १०.३२ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख शांति उपलब्ध कर सकती हैं, अपितु जो भी आत्मा ज्ञान, दर्शन और संयममय होती है, वह निर्वाण या मोक्ष के असीम और अक्षय आनंद को प्राप्त कर सकती है।१६ - धार्मिक एवं दार्शनिक उदारता के कारण ही भारतीय दर्शन निरंतर पनपता रहा । और यही वैचारिक उदारता एवं आचार द्वारा लक्ष्य प्राप्ति का आश्वासन, इसकी विशेषता एवं महत्ता को प्रतिपादित करती है। जहाँ भारतीय दर्शन संसार से मुक्ति या दुःख से मुक्ति के विचार और पद्धति पर प्रतिष्ठित है, वहीं पाश्चात्य विचारपद्धति के विकास के दूसरे (सांसारिक) कारण हैं। पाश्चात्य दर्शन की विशेषता एवं पद्धतिः लिटी की यह सर्वप्रसिद्ध उक्ति है कि दर्शन का जन्म आश्चर्य से होता है । ७ पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में यह बात स्पष्ट झलकती है कि उनके जीवन का लक्ष्य नाम के आधार पर प्रज्ञावान् या बुद्धिमान् होना ही है। कुछ ही अपवाद मिल सकते हैं जिन्होंने आचरण शुद्धि तथा मन की परिशुद्धता के आधार पर परम सत्ता के साक्षात्कार को अपना उद्देश्य और आदर्श माना है; और यह आदर्श भी प्राच्य है न कि पाश्चात्य । पाश्चात्य विद्वान् तो आचरण की अपेक्षा ज्ञान पर अधिक जोर देते हैं । १९ ब्रिटेन के विश्वविख्यात रसेल के अनुसार दर्शन का अपना कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है; वह धर्म एवं विज्ञान के महत्व की वस्तु है। रसेल के अनुसार विज्ञान एवं धर्मशास्त्र के अधिकार क्षेत्र के मध्य एक ऐसी अनाथ अथवा विवादास्पद भूमि (No man's Land) होती है जिसके ऊपर नित्य ही दोनों १६. संपजदि णिव्वाणं....दसणणाणप्पहाणादी । प्र.सा.६ १७. फिलॉसफी बिगिन्स इन वंडर। - डॉ. राधाकृष्णन् : भारतीय दर्शन भाग २, पृ.९ १८. याकूब मसीह : पाश्चात्य आधुनिक दर्शन की समीक्षात्मक व्याख्या का विषय प्रवेश, पृ.१ १९. वही। २०. बट्रेण्ड रसेलः हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसाफी इन्ट्रोडक्शन, पृ. १० For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर से आक्रमण होते रहते हैं; यही विवादास्पद भूमि दर्शनशास्त्र है। २१ दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति एवं उसका अर्थ :.'दर्शन' शब्द के तीन अर्थ सभी दर्शनों में प्रसिद्ध हैं- (१) व्यवहारभाषा में घटदर्शन आदि, अर्थात् चाक्षुषज्ञान के अर्थ में, (२) आत्मा इत्यादि तत्त्वों के साक्षात्कार के अर्थ में एवं (३) न्याय, सांख्य आदि निश्चित विचारसरणी के अर्थ में 'दर्शन' शब्द का प्रयोग सर्वसम्मत है। परन्तु जैन दर्शन में 'दर्शन' शब्द का जो प्रचलित अर्थ है वह अन्य स्थानों पर उपलब्ध नहीं होता। जैन परम्परा में श्रद्धा के अर्थ में 'दर्शन' शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। इसी तरह वस्तु के निर्विशेष सत्तामात्र के बोध को भी दर्शन कहा जाता है। दर्शन चाहे चाक्षुष हो, अचाक्षुष हो या आवधिक, दर्शन मात्र दर्शन होता है, वह न सम्यग् होता है और न मिथ्या। इसे सिद्धसेन ने भी सूचित किया है। २४ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही संप्रदाय दर्शन को तार्किक रूप से प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। माणिक्यनंदी ने न केवल दर्शन को प्रमाणबाह्य कहा, अपितु उसे प्रमाणाभास भी कहा है ।२५ वादिदेवसूरि ने अपने प्रमाणनयतत्त्वालोक ग्रन्थ में भी यही बात की है।२६ ____ यद्यपि अभयदेवसूरि ने दर्शन को प्रमाण कहा है, परन्तु उसे तार्किक दृष्टिकोण से नहीं, अपितु आगमिक दृष्टि की मुख्यता को दृष्टिगत रखते हुए सम्यग्दर्शन के अर्थ में कहा है ।२७ पंडित सुखलालजी ने दर्शन के ‘साक्षात्कार' अर्थ की अपेक्षा 'सबल प्रतीति' अर्थ पर बल दिया है। क्योंकि अगर ‘साक्षात्कार' अर्थ करें तो विभिन्न दार्शनिकों के मतभेद नहीं होने चाहिए। साक्षात्कार के योग्य पुनर्जन्म, उसका २१. जगदीश सहाय श्रीवास्तव: ग्रीक एवं मध्ययुगीन दर्शन का वैज्ञानिक इतिहास, १.१ २२. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। - तत्त्वार्थसूत्र, १.२ २३. विषयविषयिसन्निपातान्तरसमुद्भूतसत्तामात्रागोचरदर्शनात् । - प्रमाणनय, २.७ .. २४. “अत्र च यथा सांकारद्धायां सम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्विशेषः, नैवमस्तिदर्शने, अनाकारत्वे उभयोरपि तुल्यत्वादित्यर्थः।” – तत्वार्थभा., टीका २.९ २५. परीक्षामुख ६.२ २६. अज्ञानात्मकानात्म...... यथा सन्निकर्षा..... ध्यवसाया इति ।-प्रमाण. ६.२४, २५ २७. सन्मति टी. पृ. ४५७ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण, पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व एवं पुनर्जन्म के कारणों का उच्छेद, ये चार प्रमेय ही साक्षात्कार के विषय माने जा सकते हैं। इन प्रमुख प्रमेय तत्त्वों के विशेष स्वरूप के विषय में एवं इनके विस्तृत मंथन-चिंतन में प्रमुख दर्शनों का कभी तो इतना विरोध और मतभेद देखा जता है कि तटस्थ तत्त्वोन्वेषी असमंजस में पड़ जाता है। इस प्रवृति को देखते हुए इसका अधिक उपयुक्त अर्थ 'सबल प्रतीति' जैन दर्शन में इसका दूसरा अर्थ है 'सामान्यबोध', जिसे अनाकार उपयोग भी कहते हैं। श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों मान्यताओं में 'अनाकार' शब्द ज्यादा प्रचलित है। लिङ्गसापेक्ष उपयोग या बोध तो ज्ञान है और लिङ्गनिरपेक्ष साक्षात् होने वाला बोध अनाकार या दर्शन है। यह तो एक मत है, दूसरा मत यह भी है कि जो मात्र वर्तमानग्राही बो है, वह दर्शन है और जो त्रिकालग्राही बोध है, वह ज्ञान है। २९ प्रचलित भाषाव्यवहार में 'दर्शन', 'दार्शनिक', 'दर्शनसाहित्य' आदि जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, वे तत्त्वविद्या से संबंधित हैं। - 'दर्शन' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्', वस्तु के सत्य स्वरूप का जहाँ अवलोकन ही चिंतन हो वह दर्शन है। हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं और हमारा क्या लक्ष्य है, यह चिंतन जगत् की ही देन है । दर्शन के इन चिंतन बिन्दुओं के बीज प्राचीनतम शास्त्र आचारांग में स्पष्टतया प्राप्त होते हैं ।३० दर्शन शब्द की फिलोसोफी से तुलनाः... पाश्चात्य विचारशास्त्र की सामान्य संज्ञा 'फिलॉसोफी' है। यह शब्द दो शब्दों के मिश्रण से बना है- 'फिलास' अर्थात्, प्रेम या अनुराग और 'सोफिया' अर्थात् विद्या । इस शब्द का प्रचलन सर्वप्रथम ग्रीस देश में हुआ। इस संयुक्त शब्द के अर्थ से हमें पाश्चात्य दृष्टिकोण को समझने में सरलता आती है। पाश्चात्य दार्शनिक विद्यानुरागी या प्रज्ञावान् बनना चाहता है। प्रत्येक में छानबीन करके मनमानी कल्पना करने के लिए पश्चिम जगत् विख्यात है। २८. पं. सुखलालजी : दर्शन और चिंतन पृ. ६७, ६८ २९. तत्त्वार्थभाष्य टीका २.९ ३०. आचारांग १.१.२ . For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम का दार्शनिक उस नाविक के समान है जो किसी गन्तव्य स्थल का निर्धारण किये बिना अपनी नौका विचार-सागर में तैरने के लिए छोड़ देता है। अगर नाव घाट पर लग जाये तो भी आनन्द, और न लगे तो भी आनंद।३१ भारतीय दार्शनिक लक्ष्य का निर्धारण करके चिंतन के सागर में उतरता है, और इसके फलस्वरूप मुक्ति-मंजिल स्वरूप आत्मशुद्धि का मोती उसे अवश्य हाथ लगता है।३२ . पश्चिम में धर्म से भिन्न दर्शन छट्ठी शताब्दी पूर्व यूनान में प्रारंभ हुआ। लगभग एक हजार वर्ष तक विचरण करता हुआ दर्शन एक बार फिर ईसाई धर्म में निमग्न हआ। पाँचवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का समय दर्शन का अंधकारमय युग कहलाता है, क्योंकि इस कालखण्ड में दर्शन ईसाई धर्म का दास रहा।३३ भारत में इस प्रकार की हठधर्मिता कभी नहीं रही। श्री हैपन के अनुसार "भारत में धर्म की रूढ़ि या हठधर्मिता का स्वरूप कभी प्राप्त नहीं रहा; वरन् यह मानवीय व्यवहार की ऐसी क्रियात्मक परिकल्पना है,जो आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों में और अवस्थाओं में अपने आपको अनुकूल बना देती दार्शनिक के मापदंड एवं उसकी विशेषताएं:- . सत्यान्वेषी को अपना अन्वेषण प्रारम्भ करने से पूर्व अपेक्षित योग्यता को अवश्य अर्जित करना पड़ता है। (अ) सत्यान्वेषी में जिज्ञासुप्रवृत्ति अवश्य होनी चाहिए। जिससे वह प्रकट रूप में असंबद्ध सामग्री के समूह से सत्य स्वरूप को ढूँढकर निकाल सके। (ब) वह एकाग्रता से किसी विषय से जुड़कर अविचलित मन से विषय की तह में जाये । (क) कर्मफल की आकांक्षारहित प्रवृत्ति; उसका लक्ष्य फलप्राप्ति नहीं होना चाहिए, अपितु उसका एकमात्र लक्ष्य अन्वेषण ही ३१. बलदेव उपाध्यायः भारतीय दर्शन, उपोद्वात, पृ. ५ ३२. प्रवचनभक्तिश्रुतसंपद्धर्मा....जनकानि। -प्रशमरति १४१ ३३. ग्रीक एवं मध्ययु. दर्शनों का वै. चिंतन जगदीश. १.२ ३४. डॉ. राधाकृष्णन भारतीय दर्शन, भाग १, पृ. २१ से उद्धृत For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना चाहिए। (ड) उसकी दृष्टि पूर्वाग्रह से रहित एवं तटस्थ होनी चाहिए। (इं) उसका अपना अन्तर्मन पूर्णरूपेण प्रशिक्षित होना चाहिए। उसमें शान्ति, धैर्य, आत्मसंयम, त्याग और श्रद्धा का होना अनिवार्य है। उसे सांसारिक आकर्षण एवं प्रलोभनों से अविचलित रहना चाहिए। (ई) उसमें मुमुक्षुवृत्ति (आध्यात्मिकवृत्ति) के पूर्ण समर्पण का भाव होना चाहिए। (उ) लक्ष्य प्राप्ति और उसके समीप पहुँचने की प्रबल आकांक्षा मात्र ही अवशेष रहना । ३५ ऐसे दार्शनिक ही भारतीय जनमन के श्रद्धास्पद एवं विशिष्ट सम्माननीय बन सकते हैं। भारतीय संस्कृति व सभ्यता की सफलता का कारण यही है कि इन दार्शनिकों का संपूर्ण चिंतन उपदेशों के रूप में परहित के लिए सदैव बरसता रहा। आस्तिक एवं नास्तिक दो प्रकार की विचार पद्धति : हम पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि भारतीय विचारपद्धति सदा से ही उदार एवं सहिष्णु रही है। मुख्य रूप से यहाँ दार्शनिक जगत् में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं, आस्तिक एवं नास्तिक । साधारण बोलचाल की भाषा में ईश्वर में श्रद्धा, आस्था रखने वाले दर्शन को आस्तिक एवं श्रद्धा न रखनेवाले को नास्तिक कहते __ पाणिनी ने इसकी शास्त्रीय व्याख्या अपनी अष्टाध्यायी में इस प्रकार की है। "अस्ति परलोके मतिर्यस्य स आस्तिकः।” अर्थात् आस्तिक वह है जिसकी परलोक में आस्था हो । 'आस्तिक', 'नास्तिक' तथा 'दैष्टिक' शब्दों की सिद्धि “अस्तिनास्तिदिष्टं मतिः” (४.४.६०) सूत्र से ठक् प्रत्यय द्वारा होती है। पाणिनी की इस व्याख्या के अनुसार जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। .परन्तु मनु ने आस्तिक और नास्तिक की व्याख्या अलग प्रकार से की है। मनु के अनुसार आस्तिक वह है जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करे और . नास्तिक वह है जो वेद में विश्वास न करे। ... ... परन्तु निष्पक्ष और तटस्थ दृष्टिकोण से देखा जाये तो मात्र चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन की कोटि में आता है। जैन दर्शन लोक-परलोक एवं ईश्वर ३५. वेदान्त दर्शन, शांकरभाष्य १.१ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसे वह परमात्मा या अर्हत् भी कहता है, को मानता है। अत: जैन दर्शन को नास्तिक कहना युक्तिविरुद्ध है । इसे हम आगे स्पष्ट करेंगे। जैसा कि हम पहले ही लिख आये हैं कि भारत में छः मुख्य दर्शन हैं और उनमें जैन दर्शन की भी परिगणना होती है। अब भारतीय दर्शनों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का क्या स्थान है, इसकी विवेचना करेंगे। भारतीय दर्शन में जैन दर्शन की प्राचीनता : कुछ समय पूर्व तक जैन दर्शन के बारे में इस प्रकार की धारणा व्याप्त थी कि यह स्वतन्त्र दर्शन न होकर बौद्ध दर्शन की शाखा मात्र है। कुछ ने इसे हिन्दू धर्म के अन्तर्गत भी बताया, परन्तु तटस्थ अनुसंधान के कारण अब यह धारणा खंड-खंड हो गयी है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि भगवान् महावीर या प्रभु पार्श्व इसके संस्थापक नहीं हैं, अपितु यह जैन दर्शन तो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित है। डॉ. याकोबी के अनुसार पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे। जैन परम्परा ऋषभदेव को इस धर्म का प्रवर्तक मानती है और इसके प्रमाण भी हैं।३६ ____डॉ. सर राधाकृष्णन् इसे और अधिक पृष्ट करते हैं। उनके अनुसार जैन परम्परा ऋषभदेव से अपनी उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत शताब्दियों पूर्व हुए थे। इस बात के प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं कि ईस्वीपूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म पार्श्वनाथ और महावीर से पूर्व भी प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि के नाम उपलब्ध होते हैं। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे। डॉ. सर राधाकृष्णन् का उपर्युक्त अभिप्राय निम्नंकित है “There is evidence to show that so far back as the first century B.C., there were people who were worshiping Rishabhadeva, the first 36 There is nothing to prore that Parshva was the founder of Jainism. Jain tradition in unanimous in making Rishabha the first. Tirthankara (as its founder), there may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara. - Indian Antiquary, Vol IX, P.163 १० For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parshvanath. The Yajurveda menitons the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitnath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism-Indian Philosophy, Vol. I.P. 287 इन अनुसंधानपरक तत्थों द्वारा यह प्रमाणित होने के कारण आज विश्व के क्षितिज पर जैन दर्शन की प्राचीनता में कोई संदेह नहीं करता । साथ ही जैन दर्शन विज्ञानसम्मत नियम निर्धारण के कारण विश्वधर्म बनने की क्षमता से ओतप्रोत है। जैन दर्शन की समस्त धारणाएँ वैज्ञानिक हैं, इसे हमे अगले अध्यायों में विचलित करेंगे। जैन दर्शन में स्वीकृत द्रव्यः- . दर्शन आदि की आंशिक परन्तु अनिवार्य भूमिका स्पष्ट करने के पश्चात् हम अपने मूल विषय पर दृष्टिपात करते हैं। यहाँ 'विवेच्य है- द्रव्य एवं उसका स्वरूप' । सर्वप्रथम हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन दर्शन में 'द्रव्य' शब्द किन-किन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। प्राकृत का ‘दव्व', पालि का 'दब्ब' और संस्कृत का द्रव्य' शब्द अत्यन्त प्राचीन है । यद्यपि लोकव्यवहार में तथा काव्य, व्याकरण, दर्शन आदि शास्त्रों में भिन्न-भिन्न सन्दर्भो में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग प्राचीन एवं बहुत रूढ़ जान पढ़ता है तथापि.जैन परिपाटी में 'द्रव्य' शब्द अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अनेक अर्थों में भिन्न भी प्रतीत होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन निक्षेपों के प्रसंग में ३८; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रसंग में ३९; द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के विषय में ४०; द्रव्याचार्य एवं भावाचार्य में एवं द्रव्यकर्म और भावकर्म के प्रसंग में आने वाला द्रव्य शब्द विशिष्ट अर्थयुक्त है। .३७. पं. सुखलालजी : दर्शन और चिंतन, पृ. १४३ ३८. नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्नासः।-तत्त्वार्थसूत्र १.५ ३९. दव्वाइं, खेतओ..... भावओ वण्णमंताई। - भ. २.१.४ ४०. द्रव्यास्तिकं.... पर्यायास्तिकम् । - तत्त्वार्थभाष्य, ५.३१ ४१. पंचाशक-६ ४२. द्रव्यकर्मण एवं कर्ता....भावकर्मण । प्र.सा.ता.वृ. १२२ For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विश्व के मौलिक पदार्थों के अर्थ में भी ‘द्रव्य' शब्द का प्रयोग हुआ है । वह तत्त्व जो स्वभाव का त्याग किये बिना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त हो, जैन दर्शन का 'द्रव्य' शब्द का वाच्य है। जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में 'द्रव्य' शब्द गुणकर्माधार अर्थ में प्रसिद्ध है।" पृथ्वी, जल, तेज आदि नौ द्रव्य हैं। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर 'द्रव्य' शब्द के अर्थ की चर्चा की है । उन्होंने एक स्थान पर कहा है कि घड़े को तोड़कर कुण्डी और कुण्डी को तोड़कर घड़ा बनाया जाता है। भिन्नभिन्न अलंकारों को तोड़कर भिन्न-भिन्न अलंकार बनाये जाते हैं, परन्तु उसमें रहने वाला सुवर्ण तत्त्व नित्य रहता है । भिन्न-भिन्न आकृतियों में स्थिर रहने वाला यह तत्त्व ही 'द्रव्य' शब्द से अभिहित किया जाता है।५ 'योगसूत्र' के व्यासभाष्य में 'द्रव्य' की यह परिभाषा ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है। - मीमांसक कुमारिल ने भी 'द्रव्य' शब्द की व्याख्या की है। पतञ्जलि ने दूसरी जगह गुणसमुदाय या गुण सद्भाव को द्रव्य कहा है।४८८ महाभाष्यप्रसिद्ध एवं बाद में व्यास आदि द्वारा समर्थित ये सारी व्याख्याएँ जैन दार्शनिक वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होती हैं।९ . 'द्रव्य' शब्द का निरुक्तिलभ्य अर्थ: व्याकरण की दृष्टि से परम्परा में प्रयुक्त पारिभाषिक 'द्रव्य' शब्द का विशेष अर्थ एवं उसकी व्याख्या को निम्नांकित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है:४३. अपरिच्चत......दव्वंति वुच्चंति । - स.सा. ९५ ४४. वै-सू. १.१.१५ ४५. द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या...सुवर्णं कदाचिदाकृत्या....पिण्डाकृतिमुपमर्च रुचकाः ____ क्रियते.......आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते । -पातञ्जल महाभाष्य, १.१. ४६. योगभाष्य, ४.१३ ४७. वर्धमानकमङ्गे च....हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं न नाशेन विकारी । सामान्यनित्यता, मीमांसा श्लोक वार्तिक २१.२३ ४८. पातञ्जल महाभाष्य ४.१.३, ५.१.११९ ४९. तत्त्वार्थसूत्र, ५.२९, ३०.३७ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र व्याकरण के अनुसार : 'द्रव्य' शब्द 'द्रु' शब्द से 'यत्' प्रत्यय का विधान करने पर व्युत्पन्न होता है; यहाँ पर 'यत्' प्रत्यय इवार्थक है; और 'द्रव्य' शब्द यत्प्रत्ययान्त निपातित मानना चाहिये। 'द्रव्य भव्ये' (४.१.१५८), जैनेन्द्र व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार जो 'द्रु' की तरह हो उसे 'द्रव्य' समझना । जिस प्रकार बिना गाँठ की लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल, कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, जैसे पाषाण खोदने से पानी निकलता है । यहाँ अविभक्त कर्तृकरण है, उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिये । ५° पंचास्तिकाय के अनुसार : उन-उन सद्राव पर्यायों को जो तत्त्व द्रवित होता है, प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, जो सत्ता से अनन्य भूत है । ५१ सर्वार्थसिद्धि के अनुसार : (१) जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था; जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं । ५२ (२) जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं । ५३ पंचास्तिकाय का अनुसरण करती व्याख्या राजवार्तिक में भी उपलब्ध होती है । ५४ अनेक पर्यायावाची शब्दों के द्वारा अभिहित द्रव्यः उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाव युक्त नित्य परिणमनशील अर्थ में प्रयुक्त होने ५०. “अथवा 'द्रव्यं भव्ये' (जैनेन्द्र व्याकरण - ४. १. १५८), इत्यनेन निपातितो..... तेन तेन पर्यायेण द्रु इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते ।” राजवार्तिक, ५.२.२.४३६.२६ ५१. दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सव्भावपज्जयाई । जं दवियं तं भण्णते, अणण्भूदं तु सत्तादी ।। पं. का. ९ ५२. गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गतं गुणैर्द्रोष्यते, गुणोन्द्रोषतीति वा द्रव्यम् - सर्वार्थसिद्धि, १.५.१७.५ ५३. यथास्वं पर्यायैद्र्यन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि । - सर्वार्थसिद्धि ५.२.२६६.१० ५४. राजवार्तिरक, १.३३.१.९५.४ १३ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले इस 'द्रव्य' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं । सत्ता, सत् अथवा सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि, ये नौ शब्द सामान्य. रूप से एक द्रव्य रूप अर्थ के वाचक हैं।५५ द्रव्य के अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति हैं ।५६ परन्तु अधिक प्रचलित अर्थ, द्रव्य, सत् अथवा भाव है। द्रव्य की परिकल्पना का कारण:___हमें यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि द्रव्य की परिकल्पना क्यों की गयी? इसके समाधान में हमें यही तर्क प्राप्त होता है कि सृष्टि की व्याख्या को समझने के लिये 'द्रव्य' शब्द की कल्पना हुई होगी। ‘सृष्टि द्रव्यमय है'; हमारे सामने जड़-चेतन जो कुछ है, वह सब द्रव्य है। ___ अन्य भारतीय दर्शनों में भी 'द्रव्य' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका विस्तारपूर्वक विवेचन आगे के पृष्ठों में है। जैन दर्शन का द्रव्य ही उपनिषद् का सत् है एवं जैन दर्शन में भी 'सत्' और 'द्रव्य' पर्यायवाची हैं। सांख्य पुरुष-प्रकृति के अर्थ में, चार्वाक भूतचतुष्टय के अर्थ में और न्याय-वैशेषिक परमाणुवाद के अर्थ में 'द्रव्य' शब्द को ग्रहण करते हैं। . भारतीय दार्शनिकों के विभिन्न मतः- . ___विविधता और विशिष्टता से भरपूर यह रंगबिरंगी सृष्टि अनेक दार्शनिकों के चिंतन का विषय रही है। उनके लक्ष्य एवं उद्देश्य में भिन्नता हो सकती है। उनके जैसे तत्त्वज्ञ संत इस सृष्टि की तह में इसलिये जाना चाहते हैं जिससे इसका वास्तविक स्वरूप पहचानकर उसके प्रति विरक्त बनें एवं अन्य को भी निवृत्ति का मार्ग प्ररूपित कर सकें। ____ दार्शनिक मात्र अपनी अन्तर्नदी में उफनती जिज्ञासाओं को समाहित करने हेतु इसे जानना चाहता है । मतों की इस भिन्नता ने जहाँ एक ओर उदारवाद का परिचय दिया, वहीं दूसरी ओर अवधारणाएँ भिन्न-भिन्न बनती गई। सृष्टि के ५५. सत्ता सत्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु। ___ अर्थो विधिरविशेषा एकार्थवाचका अमी शब्दाः। -पं. ध. पु.-१४३ ५६. द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्तिरित्यर्थः । - स. सि. १.३३.२४११. १४ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न पर भी अनेक अवधारणाएँ बनीं। आगे के कुछ अनुच्छेदों में द्रव्यों एवं सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न दार्शनिक मतों को प्रस्तुत किया जा रहा है । उपनिषद् के अनुसार द्रव्य एवं सृष्टि: -- सर्वप्रथम यहाँ असत् था, इस असत् से सत् की उत्पत्ति हुई ।५७ कुछ ऋषियों के मत में असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सर्वप्रथम सत् ही था, उसने सोचा “मैं अनेक होऊं” और सत् की इसी कल्पना से सृष्टि का निर्माण हुआ । ५८ उपनिषद् आत्मा और ब्रह्म को अभिन्न मानता है । "यह सब ब्रह्म ही है और आत्मा ही ब्रह्म है । ५९ चंद्रमा और सूर्य ब्रह्मा की आँखें, अंतरिक्ष और दिशाएँ श्रोत्र और वायु इसका उच्छ्वास है । ६० तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म की व्याख्या इस प्रकार बतायी गयी है - "वह जिससे समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई और उत्पन्न होने के पश्चात् जीवन को धारण करते हैं, मृत्यु के बाद वे सारे ब्रह्म में ही समा जाते हैं । १ एक मत यह भी है कि जिस प्रकार बढ़ई मकान आदि बनाता है, ब्रह्मा ने भी उसी प्रकार से सृष्टि बनायी है । यहाँ प्रश्न यह होता है कि जब ब्रह्मा ने संसार बनाया तो बनाने की सामग्री उसे कहाँ से उपलब्ध हुई? इसका उत्तर आगे जाकर यह दिया गया कि ब्रह्म ही वह वृक्ष एवं कष्ठ है जिससे द्युलोक एवं पृथ्वी का निर्माण हुआ । ६२ इस प्रकार सृष्टि के संबन्ध में उपनिषदों में स्पष्ट विचारधारा मिलती हैं कि संपूर्ण चेतन-अचेतन ईश्वर द्वारा सर्जित है एवं व्यय या विनाश होकर उसी में विलीन हो जाता है । ५७. असत: सदजायत । - छान्दोग्य उपनिषद् ६.२.१ ५८. कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । सत्त्वेव सौम्येदमणु आसीत् । एकमेवाद्वितीयम् । तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति । - छान्दोग्योपनिषद् ६.२.२ ५९. सर्वं हि एतद् ब्रह्म अयमात्या ब्रह्म । - माण्डूक्योनिपनिषद् ६०. मुण्डोकपनिषद्, १.१ ६१. तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१६; तैत्तिरीय ब्राह्मण, १०.३१.७ ६२. तैत्तिरीय ब्राह्मण १५ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध मत में द्रव्य एवं सृष्टिः महात्मा बुद्ध से जब इस प्रकार के जीव-जगत् विषयक प्रश्न किये जाते थे६३, तब वे उन्हें अव्याकृत कहकर मौन ही रहते थे। बुद्ध कहते थे ये प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं, न ही धर्मयुक्त । इनका ज्ञान न तो ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक है और न निर्वेद के लिए; इनसे न विराग होता है; न दुःखनिरोध; न शान्ति प्राप्त होती हैं न अभिज्ञा; न संबोधि प्राप्त होती है और न निर्वाण, अतः इन्हें अव्याकृत कहा है।६४ ... तथागत आगे कहते हैं “कुछ श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवाद को मानते हैं, कुछ उच्छेदवाद को, कुछ अंशतः दोनों को मानते हैं। ये सब इन्हीं प्रश्नों में उलझकर रह जाते हैं। मैं भी इनको जानता हूँ, प्रत्युत ज्यादा जानता हूँ, परन्तु जानने का अभिमान नहीं करता, अतः तथागत निर्वाण का साक्षात्कार करते हैं।” ६५ : ... बुद्ध ने आगे यह भी कहा कि जो लोक (संसार) आदि का विवेचन करते हैं क्या उन्होंने उस लोक का साक्षात्कार किया है? अगर नहीं, तो क्या उनका वचन अप्रमाणिक नहीं होगा?६६ - बुद्ध ने तो यहाँ तक कहा कि जो इन अव्याकृत प्रश्नों में उलझकर रह जाता है वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।६७ नागार्जुन समग्र व्यावहारिक धारणाओं की परीक्षा करके यही निर्णय लेते हैं कि यह सब कुछ असत्य है; मात्र शून्यता ही सत्य है ।६८ सांख्य के अनुसार द्रव्य एवं सृष्टि:- . सांख्य द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यह पुरुष और प्रकृति दोनों की सत्ता स्वीकार करता है। इसके अनुसार 'कार्य' कारण में विद्यमान होता है। कारण की ६३. दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त, ९ ६४. दीघनिकाय, पोट्टपादसुत्त, ९ . . . ६५. दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त, १ . ६६. दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त ६७. मज्झिमनिकाय ६३, चूलभालुक्यसुत्त ६४, दीघनिकाय९ ६८. न स्वती नाति परती..... भावा क्वचन केचन । - मध्यमकारिका-११ १६ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाषा करते हुए सांख्य कहता है कि कारण वह सत्ता है जिसके अंदर कार्य अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है। इसके लिए वह कतिपय उक्तियाँ भी प्रस्तुत करता है। ६९ अभावात्मक पदार्थ किसी भी क्रिया का कारण नहीं हो सकता; असत् को सत् नहीं बनाया जा सकता । नीले को हजारों कलाकार भी पीला नहीं कर सकते। सांख्य इस सृष्टि को किसी बुद्धिमान् की रचना नहीं मानता, अपितु वह स्पष्ट कहता है कि प्रकृति का कार्य-कलाप किसी सचेतन चिंतन का परिणाम नहीं है। - बुद्धि रहित प्रकृति के बारे में कहा जाता है कि वह वैसे ही कार्य करती है जैसे वृक्ष फलों को उत्पन्न करते हैं। पुरुष स्वयं रचनात्मक शक्ति नहीं है, परन्तु प्रकृति जो ‘अनेक रूप विश्व' को उत्पन्न करती है, वह पुरुष के मार्गदर्शन एवं संपर्क के कारण ही करती है । इस सिद्धान्त को लंगड़े और अंधे के उदाहरण द्वारा समझाया हैं।७३ सांख्य के अनुसार सृष्टि न यथार्थ है न अयथार्थ, फिर भी वर्णनीय है, क्योंकि अवर्णनीय की सत्ता नहीं है। सांख्य मतानुसार उसका न तो अस्तित्व है और न ही मात्र वैचारिक सत्ता । यह जगत् प्रकृति के नित्य रूप में विद्यमान रहता है और अपने अस्थायी परिवर्तित रूपों में विलुप्त हो जाता है। यह विकास और विलय का चक्र अनादि-अनंत है। प्रकृति का यह नृत्य मुक्ति तक चालू रहता "रका९ . ६९. असदकरणादुपादानग्रहात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।-सांख्यकारिकार ७०. नहि नीलं शिल्पीसहस्त्रणे पीतं कर्तुं शक्यते । - तत्त्व. कौमुदी. २.९ ७१. सांख्यप्रवचनसूत्र, ३.३१ ७२. सांख्यप्रवचनसूत्र, वृत्ति, २.१ ७३. पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । -सांख्यकारिका, २१ ७४. सांख्यप्रवचनसूत्र, ५.५४ ७५. सांख्यप्रवचनसूत्र, ५.५५ ७६. सांख्यप्रवचनसूत्र, १.४२ ७७. सदसत्ख्यातिविधिबाधात् ।-सांख्यप्रवचनसूत्र, ५.५६ ७८. सांख्यप्रवचनसूत्र, ३.३६ १७ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सांख्य का सृष्टि क्रम इस प्रकार स्पष्ट है-प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ एवं पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं। ये चौबीस तत्त्व अचेतन हैं, फिर भी चेतन पुरुष के प्रयोजन के लिये प्रवृत्त होते हैं। पुरुष सृष्टि व्यापार से अलिप्त है; न यह विकृति है, न प्रकृति । मूलप्रकृति प्रकृति (अव्यक्त) है; महत्, अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ, ये प्रकृति-विकृति दोनों हैं। मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच महाभूत, ये सोलह तत्त्व मात्र विकृति हैं । ८० ... . . ___रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द, ये पाँच तन्मात्राएँ हैं । इन पाँच तन्मात्राओं से अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश रूप पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती न्याय-वैशेषिक में द्रव्य व सृष्टि: न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र माने जाते हैं। न्याय के अनुसार जगत् की सृष्टि तथा संहार करने वाला व्यापक, नित्य, एक, सर्वज्ञ तथा नित्यज्ञानयुक्त शिव पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, नदी, समुद्र आदि सभी किसी बुद्धिमान् द्वारा निर्मित हैं, क्योंकि ये घट-पट की तरह कार्य हैं; और जितने भी कार्य हैं, वे सारे किसी न किसी से निर्मित हैं।८३ . न्याय और वैशेषिक असत्कार्यवादी माने जाते हैं। वैशेषिक परमाणु को जगत् का कारण मानते हैं। इस जगत में सारे पदार्थ उत्पत्ति-विनाशशील हैं; नित्य परमाणुओं के विभिन्न संयोगों से बनते हैं और वियोग से विनष्ट होते हैं। भौतिक पदार्थों के अवयवों का विभाग भी किया जाता है और इन अवयवों को पुनः अन्य अवयवों में विभक्त किया जा सकता है, इस अनवस्था से बचने के लिये ७९. प्रकृतेर्महांस्ततो....पंच भूतानि । -सांख्यकारिका, ३३ ८०. मूलप्रकृतिरविकृति.... विकृतिः पुरुषः।-सांख्यकारिका, ३ ८१. षड्दर्शनसमुच्चय ४०, सांख्यकारिका, माठरवृत्ति, पृ. ३७ ८२. अक्षपादमते समाश्रयः । -षड्दर्शनसमुच्चय, १६ . ८३. यद् यद् कार्यं सत्तद् बोधाधारकारणम्..तस्मात् बोधाधारकारणम् ।-प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ३०२ १८ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम अवयव को अविभाज्य और निरवयव मानना होगा, और ऐसा अतीन्द्रिय नित्य अविभाज्य भौतिक द्रव्य परमाणु है । ८४ परमाणु चार प्रकार के हैं- पार्थिव, जलीय, तैजस आर वायवीय । आकाश एक और नित्य है । प्रशस्तपाद ने अपने भाष्य में इन परमाणुओं से जगदुत्पत्ति का सुंदर विवेचन किया है।८५ अणु परिणाम विशिष्ट परमाणुओं से द्वणुक की उत्पत्ति होती है । द्व्यणुक कार्य होने से अनित्य है यद्यपि वह भी अणुपरमाणुक होता है। तीन णकों से जिस त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है, वह महत्परिमाणवाला होता है । यही इन्द्रियगोचर होता है । परमाणु की व्याख्या इस प्रकार उपलब्ध होती है - छत के छेद से सूर्य की किरणों में जो छोटे कण नजर आते हैं, वे त्रसरेणु हैं और उस त्रसरेणु का छठा भाग परमाणु है । ८६ 1 परमाणु शान्त और निस्पन्द रहते हैं फिर उनमें स्पन्द कैसे होता है ? वैशेषिक इसका कारण धर्माधर्मरूप अदृष्ट को बताते हैं । जैसे सुई की अयस्कांतमणि में गति", वृक्षों में रस का नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना " होता है, वैसे ही मन तथा परमाणुओं की पहली क्रिया अदृष्ट की सहकारिता से ईश्वर की इच्छा से परमाणुओं स्पंदन और फिर उससे सृष्टि क्रिया मानी गयी है । ८९ चार्वाक में द्रव्य एवं सृष्टि: भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन का उल्लेख नास्तिक दर्शन में होता है । वह इस सृष्टि की रचना को किसी व्यक्ति विशेष की उपलब्धि न मानकर इसे पृथ्वी, जल, तेज और वायु के ही तत्त्वचतुष्टय के द्वारा उत्पन्न बताता है । जिस प्रकार ८४. न्यायभाष्य ४.२.१७ - २५.७; प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९-२२ ८५. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९-२२ ८६. जालान्तरगते भानौ, यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः । तस्य षष्ठतमो भाग: परमाणु सः उच्यते । - आप्तमीमांसा, पृष्ठ २० से उद्धृत - ८७. मणिगमनसूच्यभिसर्पणमित्यदृष्टकारणम् । - वैशेषिकसूत्र, ५.१.१५ ८८. वृक्षाभिसर्पणमित्यदृष्टकारितम् । - वैशेषिकसूत्र, ५.२.७ ८९. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २० ९०. पृथ्वी जलं तथा... चतुष्टम् । - षडदर्शन. ४३; “शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञेभ्य... ।” - प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ११५ १९ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महुआ आदि मादक सामग्री के संयोग से विशिष्ट मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी तरह भूतचतुष्टय के विशिष्ट संयोग से चैतन्यशक्ति उत्पन्न होती है। भूत और भविष्य में इनका विश्वास नहीं है। इनकी प्रसिद्ध उक्ति है“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।” __इस प्रकार लोक (सृष्टि) के संबन्ध में अनेकों मत हैं। इसके विस्तृत विवेचन के लिये हमें हरिभद्रसूरि कृत 'लोकतत्त्व निरूपण' ग्रन्थ देखना चाहिये । अब हम जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि के संबन्ध में विवेचन पर दृष्टिपात करें। द्रव्य व सृष्टि के संबंध में जैन दर्शन की मान्यता: जैन दार्शनिकों ने जीवन से संबंधित समस्त पहलुओं पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। चूँकि मानव अपनी समस्त क्रियाएँ संसार में ही सम्पन्न करता है तो इस विषय पर जैन दार्शनिक मूक कैसे रह सकते हैं ! भगवान् महावीर के परम विनम्र शिष्य, “रोह" ने समाधान की प्रार्थना करते हुए महावीर से निवेदन किया"पहले लोक हुआ अथवा अलोक।" . __ भगवान् ने उसकी जिज्ञासा को उपशांत करते हुए कहा-रोह! लोक और अलोक, ये दोनों अनादि हैं; इनमें पौर्वापर्य संबन्ध संभव नहीं है। इसके लिए उन्होंने अण्डे और मुर्गी का उदाहरण भी दिया जहाँ पर हम रहते हैं वह लोक है। लोक में आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव की सहस्थिति ही है ।१२ ___ द्रव्य से परिपूर्ण इस सृष्टि को जैन दर्शन में लोक कहा जाता है। महावीर ने इस संपूर्ण सृष्टि को छह द्रव्यों से परिव्याप्त बताया है । जैन सिद्धान्तों के प्रकाश में अभेदात्मक अपेक्षा से इस सृष्टि को द्रव्यमय एवं भेदात्मक दृष्टिकोण से षड्द्रव्यमय कहा जा सकता है।९३ यह विश्व इस अनन्तानन्त 'सत्' का विराट् आगर है और अकृत्रिम है;" किसी व्यक्ति विशेष या ईश्वर द्वारा रचित नहीं है। माध्यमिकों के अनुसार, “पदार्थ ९१. भगवती सूत्र १.६ ९२. जीवा चेव आजीवा य, अस लोगे वियहिए। - उत्तराध्ययनसूत्र, ३६.२ ९३. धर्माधर्माकाश....दित्यादिर्यथा ।-प्रमाणन. ७.२० ९४. लोगो अकिठिमो खलु। -मूलाचार ७१२ २० For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म एक है और न अनेक । एक इसलिए नहीं क्योंकि पदार्थों में विविधता है और उस विविधता को सिद्ध करने वाला प्रमाण न होने के कारण ‘अभाववैकान्त' कहना ठीक है।”९५ .. जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनादि-अनन्त है, उसमें न तो नया उत्पाद है और न प्राप्त सत् का विनाश है । वह मात्र पर्याय परिवर्तन करता रहता है। ... न तो असत् से सत् उत्पन्न होता है और न ही सत् का कभी विनाश होता है। समस्त साधन की उपलब्धता में भी मृत्पिंड के अभाव में घड़े का उत्पाद नहीं होता ।१६ भाव (द्रव्य) मात्र गुण और पर्याय में परिवर्तन करते हैं, परन्तु सत् का उत्पाद या विनाश कभी नहीं होता। हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में भी इसी व्याख्या की पुष्टि की है।९८ . __जैन दर्शन ने द्रव्य छह माने गये हैं-धमास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं काल ।' तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि 'काल' द्रव्य का वर्णन उपर्युक्त पाँच अस्तिकाय द्रव्यों के वर्णन के साथ तो नहीं उपलब्ध होता, परन्तु इसी (पाँचवें) अध्याय के पैंतीसवें सूत्र में काल को द्रव्य के रूप में लिया है।०° राजवार्तिक में द्रव्य की संख्या उपलब्ध होती है । १०१ कुंदकुंदाचार्य को परिवर्तन लिंग युक्त कहकर द्रव्य की संख्या स्वीकार की है । १०२ वे सभी द्रव्य परस्पर मिश्रित रहकर एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं फिर भी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते । १०३. ९५. भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः । यस्मोदकमनेकं च, रूपं तेषां न विद्यते।। . -प्रमाणवार्तिका. २.३६० ९६. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६.२८ ९७. भावस्म णत्थि णासो.... पुकव्वंति ।- पं.का. १५ ९८. शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६.३७ एवं ११.५ ९९. तत्त्वार्थसूत्र, १.३ १००. तत्त्वार्थसूत्र, ५.३५ १०१. राजवार्तिक, ५.३.४४२ १०२. पं. का. २.६ १०३. अण्णोण्णं पविसंता.....विजंहति प.का.न. २१ For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक छह पदार्थ मानते हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ।१०४ वैशेषिक मत में द्रव्य का लक्षण है- जिसमें गुण और क्रिया पायी जाय तथा जो कार्य का समवायी कारण हो ।०५ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन, ये नौ द्रव्य हैं । १०६ एक अपेक्षा से अद्रव्यत्व और अनेक द्रव्यत्व भी द्रव्य का लक्षण है। आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन और परमाणु अद्रव्य हैं, ये न किसी से उत्पन्न हैं और न किसी के उत्पादक हैं । अवशिष्ट पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये अनेक द्रव्य हैं, क्योंकि ये अनेक द्रव्यों से उत्पन्न भी हैं और अनेकों के उत्पादक भी हैं।१०७ ____ वैशेषिक दर्शन ने गुण को भी नितान्त भिन्न माना है। जो एक द्रव्याश्रित हो गुणरहित एवं संयोग-विभाग का सापेक्ष कारण हो, वह गुण है।१०८ रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, द्रवत्व, गुरुत्व, संस्कार, स्नेह, धर्म, अधर्म, और शब्द, ये २४ गुण होते हैं । १०९ वैशेषिक दर्शन की तरह बौद्ध दर्शन भी एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से संबन्ध स्वीकार नहीं करता । परतन्त्रता नाम संबन्ध का है; परन्तु जो वस्तु सिद्ध हो गयी उसमें परतन्त्रता का प्रश्न ही नहीं है, इसीलिए किसी भी पदार्थ में कोई वास्तविक संबन्ध्र नहीं है।११० ---- ---- १०४. स्याद्वादमंजरी ८.४८ । १०५. क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् ।-वैशेषिकसूत्र, १.१.१५ १०६. वैशेषिकदर्शन, १.१.१५ । १०७. दव्यं द्विधा अद्रव्यमनेकद्रव्यं च । न विद्यते द्रव्यं जन्यतया जनकतया च यस्य तदद्रव्यं द्रव्यम्, यथाकाशकालादि। अनेकं द्रव्यं जन्यतया च जनकतया च यस्य तदनेकद्रव्यं द्रव्यम् ।- स्याद्वादमंजरी, ४.४९ से उद्धृत १०८. द्रव्याश्रयगुणवान् संयोगविभागेप्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् ।-वैशेषिकसूत्र १.१.१६ १०९. रूपरसगंध....प्रयत्नश्च ।-वैशेषिकसूत्र, १.१.६ ११०. “पारतंत्र्यं हि संबन्धः सिद्धे का परतन्त्रता । तस्मात् सर्वस्वभावस्य संबंधो नास्ति तत्त्वतः।" “संबंधपरीक्षा।" -आप्तमीमांसा १.११.१२३ पर उद्धृत २२ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : द्वितीय जैन परम्परा मान्य द्रव्य का लक्षण .. भूत और भविष्य को जोड़ने वाला वर्तमान है। यदि वर्तमान न हो तो भूत और भविष्य दोनों महत्त्वहीन हैं। जिसका हम आज अस्तित्व स्वीकार करते हैं, निःसंदेह अतीत में भी उसका अस्तित्व रहा है और भविष्य में भी रहेगा। अवस्था में परिणमन तो अनिवार्य है, परन्तु परिणमन के मध्य कुछ ऐसा अप्रकंप तत्त्व है जो सर्वदा स्थायी है। दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य उसे ही कहते हैं जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में प्रतिपल परिणमन तो करे, परन्तु अपने मौलिक स्वभाव की अपेक्षा नित्य रहे। सत् और द्रव्य एक ही है; अथवा यह भी कह सकते हैं- जो सत् है, वही द्रव्य - अवस्थाओं का परिणमन उसी में संभव है जो ध्रुव या नित्य रहे। नित्य की अनुपस्थिति में न तो पूर्ववर्ती अवस्था संभव है और न ही उत्तरवर्ती । नित्य का लक्षण वाचक उमास्वाति ने इस प्रकार बताया है- जो अपने भाव से कभी च्युत न हो, वह नित्य है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की इस व्याख्या से युक्त परिणमन की परम्परा से युक्त होकर भी द्रव्य अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं करता। अतः इस सत् (द्रव्य) को त्रिलक्षण ही कहना चाहिये। द्रव्य में न तो मात्र-उत्पाद संभव है और न ही मात्र व्यय और ध्रौव्यता के अभाव में उत्पाद-व्यय किसके आश्रित होंगे। प्रतिपल उत्पाद-व्यय की स्थिति के मध्य भी द्रव्य के अपने स्वरूप की हानि नहीं होती। १. भारतीय दर्शनः बलदेव उपाध्याय पृ. ११ २. उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्- त.सू. ५.२९ . ३. गोयमा सद्दव्वयाए- भ. ८.९.५५ ४. तद्भावाव्यय नित्यम्-त.सू. ५.३० ५. एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां....सत्वमनुमोदनीयम्-प्र.सा.त.प्र.वृ.९९ ६. ण भवो भंगविहीणो.....विणो धोव्वेण अत्थेण - प्र.सा. १०० २३ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य और सत्ता इनमें मात्र शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि द्रव्य और सत्ता-इन दोनों का एक ही अर्थ में प्रयोग मिलता है । द्रव्य और सत्ता के एकार्थक होने का कारण प्रवचनसार में इस प्रकार से कथन प्राप्त होता है- “द्रव्य यदि सत् नहीं है तो असत् होगा; और असत् तो द्रव्य नहीं हो सकता, अतः द्रव्य स्वयं सत्ता है।” ७ चेतन और अचेतन जितने भी हैं, वे सभी द्रव्य कहलाते हैं। चेतन और अचेतन द्रव्यों में उत्पाद-व्यय वैसे ही होता है जिस प्रकार मृत्पिंड से घड़े का निर्माण और पिण्डावस्था का नाश । मिट्टी से जब घड़ा बना तब मृत्पिंडाकार का व्यय हुआ और घट की उत्पत्ति हुई, परन्तु इन दोनों ही अवस्थाओं में मृत्तिका की स्थिति यथावत् (ध्रुव) रहती है। ____ आचार्य गुणरत्नसूरि ने 'षड्दर्शन समुच्चय टीका' में सत् की यही व्याख्या दी है-समस्त वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हैं, क्योंकि वे सत् हैं । जो उत्पाद-व्यय युक्त नहीं हैं, वे सत् नहीं हैं। लोकभाषा में 'सत्' शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते हैं, पर यहाँ 'सत्' का अर्थ अस्तित्व है। ___ स्वयं हरिभद्रसूरि ने “उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त” को ही सत् के रूप में प्रतिष्ठित किया हैं।११ “पंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य ने द्रव्य की व्याख्या इस प्रकार दी है'“जो 'सद्भाव' पर्यायों को द्रवित होता है, प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, और ऐसा द्रव्य सत्ता से अनन्यभूत है।"१२९ अगले ही श्लोक में उन्होंने द्रव्य के तीन लक्षण बताये-जो सत् लक्षण वाला हो, जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त हो एवं जो गुण-पर्यायों का आश्रय हो, ७. पादुव्भवाद य अण्णी......उप्पण्णं - प्र.सा. १०३ ८. ण हवदि जदि सद्दव्वं......दव्वं सत्ता-प्र.सा. १०५ ९. “चेतनस्य अचेतनस्य......घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमा.......घटोत्पत्तो पिण्डाकृतेः" स.वा. ५.३० ४९४-९५ १०. सर्व वस्तूत्पाद्रव्यय......तत्सदपि न भवति-षड्दर्शन टी. ५७.३६० ११. तत्रेह विवक्षातः.......वेदितव्यः - स.वा. ५.३०.४९५ १२. येनोत्पाद.....तत्सदिष्यते-षड्दर्शन ५७. For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही द्रव्य है ।१३ . द्रव्य का लक्षण-गुण पर्याययुक्त है:___ गुण और पर्याय युक्त को ही 'द्रव्य' संज्ञा से अभिहित किया है। नियमसार में भी द्रव्य की यही व्याख्या है। इसी व्याख्या से मिलती जुलती व्याख्या प्रवचनसार एवं न्यायबिन्दु (जैन) में उपलब्ध होती है ।१६ गुण और पर्याय के साथ सत् जिसे द्रव्य कहते हैं, का तन्मयत्व है ।१७ । ... द्रव्य, गुण और पर्याय-ये तीनों एक साथ पाये जाते हैं; इन तीनों में सह अस्तित्व है; तीनों में से एक भी विभक्त नहीं होता । द्रव्य का अभाव गुण का भी अभाव कर देगा, और गुण के अभाव में द्रव्य का भी अस्तित्व नहीं होगा; द्रव्य और गुण अव्यतिरिक्त हैं। इसी प्रकार से पर्याय के अभाव में द्रव्य नहीं हो सकता और द्रव्य के अभाव में पर्याय नहीं; द्रव्य और पर्याय भी अनन्यभूत हैं।१९ जो अन्यवी हैं, वे गुण हैं और जो व्यतिरेकी हैं, वे पर्याय हैं।" -- गुण और पर्याय को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं-द्रव्य में भेद करने वाले को गुण (अन्वयी) और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं।२१ .. १... गुण और पर्याय को उदाहरण सहित इस प्रकार समझाया है-“ज्ञान आदि गुणों द्वारा ही 'जीव' अजीव से भिन्न प्रतीत होता है । जीव में घट ज्ञान, पट ज्ञान, क्रोध, मान आदि पाये जाते हैं। वे जीव द्रव्य की पर्यायें हैं।२२ .. - गुण और पर्याय से युक्त समूह को तो द्रव्य सभी कहते हैं। परन्तु कहीं १३. दवियदि गच्छदि....भूदंतु सत्तादी - पं.का. ९ १४. दव्वं सल्लक्खणयं.... भण्णंति सव्वण्हू - पं. का. १० १५. “गुणपर्यायवद् द्रव्यम" - त.सू. ५.३८ १६. नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः - नि.सा. ९. १७.प्र.सा. ९५, न्यायबि. १.११५. ४२८ १८. जेसिं अत्थि.....विविहहिं-पं. का. १०. १९. दव्वेण विणा हवदि तम्हा-पं. का. १३. २०. पज्जयविजुदं.....अणण्णभूदं -पं. का. १२. २१. अन्वयिनोगुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः-स. सि. ५.३८.६००. २२. गुण इदि दव्वविहाणं....."अजुपदसिद्ध हवे णिच्चं" -सं. सि. पृ. २३७ पर उद्धृत. ..२३. द्रव्यं द्रव्यांतराद् येन विशिष्यते स गुणः, ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः.....तेषां विकारा.... .... घटज्ञानं, पटज्ञानं, क्रोधो....इत्येवमादयेः - स. सि. ५.३८.६०० : .... २५ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं मात्र गुणों के समुदाय को भी द्रव्य कहा गया है; केवल इतने से भी कोई आचार्य द्रव्य का लक्षण कहते हैं। सहभावी और क्रमभावी की अपेक्षा गुण-पर्यायः___ द्रव्य में गुण सहवर्ती एवं पर्याय क्रमवर्ती कहलाते हैं। सहभावी धर्म तत्त्व की स्थिति और क्रमभावी धर्म तत्त्व की गतिशीलता के सूचक होते हैं। पर्याय परिणमन प्रतिपल होता रहता है । जैसे चावल को पकाने के लिए बर्तन में डाला और उसे आग पर रखा। वह आधे घंटे में पके तो यह नहीं समझना चाहिये कि २९ मिनिट या २९.५ मिनिट में वह ज्यों का त्यों रहा और मात्र अंतिम क्षण में पक गया। उसमें सूक्ष्म रूप से परिवर्तन प्रथम समय में ही प्रारम्भ हो गया था। यदि प्रथम क्षण से परिवर्तन प्रारम्भ न हो तो दूसरे क्षण में परिवर्तन संभव ही नहीं है। वादिदेवसूरि ने पर्याय एवं गुण को विशेष के दो प्रकार बताया है एवं सहभावी धर्म को गुण की संज्ञा दी है। ज्ञान, शक्ति आदि आत्मा के गुण हैं, जिनका कभी नाश नहीं होता । यदि जीव का ज्ञानादि गुण समाप्त हो सकता तो वह अजीव हो जाता, और इस प्रकार द्रव्य की इस मूल व्याख्या का ही लोप हो जाता कि 'द्रव्य से द्रव्यान्तर' नहीं होता। ___ द्रव्य की उत्पादव्ययात्मक जो पर्यायें हैं, वे क्रमभावी हैं, जैसे-सुख, दुःख, हर्ष आदि।२८ टीकाकार रत्नप्रभाचार्य ने गुण और पर्याय की इस भिन्नता का कारण काल को बताया है।२९ २४. गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थः-प.ध.पृ.७२ २५. गुण समुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताप्युशंति बुधाः प.ध.पू. ७३३, सहक्रम प्रवृत्तगुण पर्याय पं. का.टी.११. २६. यथा व्यावहारिकस्य.....च न स्यादिति-त.वा. ५.२२ २७. विशेषोपि द्विरूपो गुणः पर्यायश्चेति, गुणः सहभावी धर्मो यथात्मानि विज्ञानव्यक्तियादिरिति प्रमाण न. ५.६.७. २८. पर्यायस्तु क्रमभावी यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति-प्रमाण न. ५.८ २९. स्याद्वाद. म ५.८.७३६ २६ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविनिश्चय में भी द्रव्य में गुणों को सहभावी एवं पर्याय को क्रमभावी कहा है। २० स्वजाति का त्याग किये बिना द्रव्य में दो प्रकार के परिणमन होते हैं, अनादि एवं आदिमान् । सुमेरु पर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं। आदिमान् दो प्रकार का है - एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक । स्वाभाविक को वैस्रसिक भी कहते हैं । कर्मों के उपशम होने के कारण जीव आदि जो भाव है; जिनमें पुरुष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं हैं, वे वैस्रसिक आदिमान् में औपशमिक भाव हैं,. और जो ज्ञान, शील आदि गुरु के निमित्त से होते हैं, वे प्रयोगजन्य अदिमान् हैं । कुम्हार के द्वारा अचेतन मिट्टी को घट आदि का आकार देना प्रयोगज है । इन्द्रधनुष, बादल आदि स्वाभाविक हैं । ३१ इन्हें क्रमशः स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय भी कहते हैं । अन्य के सहयोग के अभाव में होने वाले परिणमन को स्वभाव पर्याय एवं निमित्त से होने वाले परिणमन को विभाव पर्याय कहा जाता है। जीव की स्वभाव पर्यायें अनन्तज्ञान आदि हैं। इसी प्रकार पुद्गल की स्वभाव पर्यायें रूप आदि हैं। स्वभाव पर्याय सभी द्रव्यों में पायी जाती हैं परन्तु विभावपर्याय मात्र जीव और पुद्गल में ही पायी जाती है । जीव की विभावपर्यायें नारक, देव आदि एवं पुद्गल की विभावपर्यायें स्कन्धरूप (स्थूल रूप ) आदि हैं । २ जिस प्रकार द्रव्य में पर्याय अनिवार्य हैं, उसी प्रकार गुण भी उतना ही आवश्यक हैं । “द्रव्यरूप से तो द्रव्य सभी एक (समान) ही हैं। परन्तु गुण भेद के कारण ही द्रव्यभेद है । " पर्याय तो विनाशशील है, परन्तु गुण ध्रुव है। जैसे अंगूठी, हार आदि बनने पर स्वर्ण में आकृति परिवर्तन तो हो गया, परन्तु स्वर्ण का पीतगुण स्थायी ही रहा। इसे सदृश परिणमन भी कहते हैं । ३४ ३०. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ते सहक्रमप्रवृत्तयः न्यायवि. भू. १.११५.४२८. ३१. द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिणामो वैस्रसिकः - त.वा. ५.२२ ३२. यः सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलादीनां उत्पादयतीति का प्रे. टी. २१६ ३३. सव्वाणं दव्वाणं..... भिण्णाणि का. प्रे. १०.२३६ ३४. सारसो जो.... गुणो सोहि - का. प्रे. १०.२४१ २७ - For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों के प्रकार : . जो गुण सभी द्रव्यों में पाया जाये, वह सामान्यगुण है, और जो किसी निश्चित् द्रव्य में ही पाया जाये, वह उसका विशेष गुण है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, प्रदेशत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व, इस प्रकार से ये दस सामान्य गुण हैं। प्रत्येक द्रव्य में आठ सामान्य गुण पाये जाते हैं, जैसे जीव में मूर्तत्व और अचेतनत्व का अभाव है और पुद्गल में अमूर्तत्व एवं चेतनत्व का अभाव है। ३५ . .. ___ ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व-ये सोलह द्रव्यों के विशेष गुण हैं । अन्त के चार गुणों को स्वजाति की अपेक्षा सामान्य और विजाति की अपेक्षा विशेष गुण कहा जाता है । ३६ .... कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आचार्य शुभचन्द्र ने छः सामान्य गुणों की व्याख्या इस प्रकार की है- जिससे द्रव्य का नाश न हो, वह अस्तित्व, जिससे अर्थक्रिया हो वह वस्तुत्व, जिससे सदा परिणमन हो वह द्रव्यत्व, जिससे द्रव्य किसी न किसी के ज्ञान का विषय हो वह प्रमेयत्व, जिससे द्रव्यान्तर एवं गुणान्तर न हो वह अगुरुलघुत्व, जिससे द्रव्य का कोई न कोई आकार बना रहे वह प्रदेशित्व गुण गुण की व्याख्या करते हुए वाचक उमास्वाति ने कहा-गुण द्रव्य के आश्रित और स्वयं निर्गुण होते हैं ।३८ प्रवचनसार की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने गुण को सामान्य विशेषात्मक कहा है। उन्होंने अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, ३५. का. प्रे. टी. २४१ . ३६. का. प्रे. टीका १०: २४१ ३७. वही. ३८. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः त. सू. ५.४१ २८. For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुरुलघुत्व इत्यादि को सामान्य; एवं गतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्व, अवगाहनत्व, वर्तनाय तनुत्व, रूपादिमत्व एवं चेतनत्व को विशेष गुण कहा है। ३९ पर्यायों के प्रकार: प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक होती है ।" सहभावी धर्म को गुण और क्रमभावी धर्म को पर्याय कहते हैं । यदि वस्तु में हम अनंतधर्मों को स्वीकार नहीं करते हैं, तो वस्तु की सिद्धि नहीं होती है, अतः वस्तु अनंतधर्मात्मक ही माननी चाहिए ।" पर्याय के दो प्रकार हैं- अर्थपर्याय एवं व्यंजनपर्याय । भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह किसी भी एक शब्द के लिए वाच्य बन कर प्रयुक्त होता है, वह प्रवाह व्यंजनपर्याय कहलाता है । और उस परम्परा में जो भेद अंतिम और अविभाज्य है वह अर्थपर्याय कहलाता है। जैसे चेतन पदार्थ का सामान्य रूप जीवत्व है । काल, धर्म आदि के कारण उसमें उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व, बालत्व आदि अनन्त भेदों वाली अनेक परम्पराएँ हैं। उन परम्पराओं में निरंतर पुरुष रूप समान प्रतीति का विषय और एक 'पुरुष' शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृशपर्याय प्रवाह है वह तो व्यञ्जन पर्याय है, और पुरुषरूप में सदृशप्रवाह के अंतर्गत दूसरे बाल, युवा आदि जो भेद हैं, वे अर्थपर्याय हैं । ४२ जन्म से मृत्यु पर्यंत पुरुष के लिए जो 'पुरुष' संबोधन दिया जाता है, वह व्यंजन पर्याय का उदाहरण है। उस पुरुष के बाल, युवा आदि अंश अर्थपर्याय के उदाहरण हैं । यहाँ अंश का अर्थ 'पर्याय' है । व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से देखने वाले को 'पुरुष' निर्विकल्प या अभिन्न रूप में दिखता है और बचपन आदि विकल्प युक्त देखने पर वही (पुरुष) - ३९. प्र. सा. ता. प्र. पृ. ९५. ४०. अनंतकालस्त्रिकालषियत्वाद..... तदनंतधर्मात्मकम् - स्याद्वाद २२.२०० ४१. अनंतधर्मात्मकमेव सत्वमसूपपादम् अन्यययो २२. ४२. सन्मतितर्क १.३० पर प. सुखलालजी एवं बेचरदास जी का विवेचन । ४३. पुरिसमि पुरिससद्दी.... बहुवियप्पा - स. त. १.३२ २९ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थपर्याय के रूप में भिन्न-भिन्न (बाल,युवा आदि) दिखता है । ४४ व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय का अल्प विवेचन आचार्य शुभचन्द्र ने भी किया है। उनके अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अर्थपर्याय एवं जीव और पुद्गल में अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार की पर्याय उपलब्ध होती हैं । ५ जैन दर्शन का यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त 'सत्' सिद्धान्त 'परिणामी नित्यत्ववाद' कहलाता है। इस सिद्धान्त की तुलना रासायनिक विज्ञान' के 'द्रव्याक्षरतत्ववाद' से की जा सकती है। इस सिद्धान्त की स्थापना Lawoisier नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने की थी। इसके अनुसार विश्व में द्रव्य का परिणमन सदा होता है, परन्तु न्यूनाधिकता नहीं होती। साधारण दृष्टि से जिसे द्रव्य का नाश समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमन मात्र है। जैसे-कोयला जल कर राख हो जाता है, साधारण रूप से इसे नाश होना कहते हैं, परन्तु वास्तव में तो वह वायुमण्डल के ऑक्सीजन अंश के साथ मिलकर कार्बानिक एसिड गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है। , इसी प्रकार शक्कर या नमक भी पानी में घुलकर नष्ट नहीं होते, परन्तु वे ठोस से द्रव में रूपान्तरित हो जाते हैं । वस्तुतः नवीव वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, मात्र रूपान्तर होता है। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय आकर्षण आदि का ह्रास नहीं होता, वे तो एक दूसरे में मात्र परिवर्तित होते हैं।६ क्षण-क्षण में परिवर्तनशील पदार्थ यदि समाप्त होते तो आज सृष्टि का यह स्वरूप नहीं होता । परिवर्तन के अभाव में मात्र उत्पाद से सृष्टि का यह स्वरूप संभव नहीं था। ___‘सन्मति तर्क' में इस उत्पाद-व्यय रूप परिणमन को प्रयत्नजन्य और अप्रयत्नजन्य, दो प्रकार का कहा है। प्रयत्नजन्य वह है जो कि अपरिशुद्ध है। इसे ४४. वंजणपजायस्स..... अत्थपजाओ-स. त. १.३४. ४५. का. प्रे. टीका १०.२२० ४६. मुनि नथमलजी-जैन धर्म और दर्शन पृ. ३३० . ४७. उत्पादध्रुवविनाशैः.....दृश्यते द्रव्यानु. - त. ९.२. ३० For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुदायवाद भी कहा जाता है।४८ ____ परिणमन अस्तित्व का ही स्वभाव है । 'सत्' का यह लक्षण ईश्वरवादियों की मान्यता का प्रतिरोध करता है। ईश्वरवादियों के अनुसार परिणमन ईश्वर द्वारा प्रेरित है । कहा भी है- ईश्वर से प्रेरित जीव ही स्वर्ग की ओर प्रस्थान करता है। ईश्वर के सहयोग बिना जीव सुख-दुःख को भी नहीं प्राप्त कर सकता। प्राणी के प्रयत्नों द्वारा होने वाले परिवर्तन को प्रयत्नजन्य और अन्य किसी द्रव्य के सहयोग बिना प्रयत्न के होने वाले को अप्रयत्नजन्य कहते हैं । वैशेषिक मात्र प्रयत्नजन्य परिणाम ही स्वीकार करते हैं।५० ___ यह प्रयत्नजन्य और अप्रयत्नजन्य परिणमन सामुदायिक और वैयक्तिक रूप से दो प्रकार का है । दूध में शक्कर मिलाने से दूध में होने वाली मधुरता की उत्पत्ति सामुदायिक प्रयत्नजन्य उत्पाद है। ___ अलग-अलग रहने वाले अवयवों को मिलाकर या जुड़े हुए अवयवों को अलग कर जो उत्पाद और विनाश किया जाता है, वह सामुदायिक उत्पाद एवं • विनाश है; और एक ही द्रव्य के आश्रित न होने के कारण यह अपरिशुद्ध परिणमन सामुदायिक उत्पाद और विनाश स्कन्ध सापेक्ष होने के कारण और स्कन्ध पुद्गलद्रव्य में ही संभव होने के कारण मूर्त द्रव्य में ही संभव हैं; अमूर्त में नहीं। घट-पट आदि जो भी मूर्त पदार्थ हैं, वे सभी प्रयत्नजन्य परिवर्तन हैं। बादल, पहाड़ आदि का सर्जन और विसर्जन क्रमशः वैनसिक/सामुदायिक उत्पाद एवं विनाश हैं। बिना किसी अन्य द्रव्य से मिले अर्थात् एक स्वतन्त्र द्रव्य में जो उत्पाद या विनाश होता है, वह ऐकत्विक अप्रयत्नजन्य उत्पाद एवं विनाश है। यह स्कन्धाश्रित न होने के कारण परिशुद्ध भी कहलाता है। इसका विषय मात्र अमूर्तद्रव्य और एक-एक (स्वतन्त्र) द्रव्यरूप है। यह परिमणन आकाश, धर्म द्रव्य और अधर्म ४८. उप्पाओ दुवियाओ- अपरिसुद्धा-स.त. ३.३२ ४९. ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा । अन्योजंतुरनीशोयमात्मनः सुखदुःखयोः।। __-महाभारत वनपर्व ३०.२८ । ५०. क्षित्यादयो बुद्धिमत्कृर्तकाः कार्यत्वाद् घटवदिति । उद्धृतोयम् स्याद्वम. पृष्ठ ३२ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... द्रव्य में ही संभव है; यह प्रयत्नजन्य नहीं हो सकता, क्योंकि ये तीनों अस्तिकाय गति एवं क्रिया रहित हैं, अतः इनमें प्रयत्न का अभाव है। ... . प्रयत्नजन्य और अप्रयत्नजन्य, इन दोनों सामुदायिक विनाशों के समुदायविभाग मात्र एवं अर्थान्तरभावप्राप्ति नाम के दो दो प्रकार हैं । सामुदायिक प्रयत्नजन्य विनाश का उदाहरण हैः प्रयत्नपूर्वक बनाये गये मकान से ईंट आदि अवयवों का अलग हो जाना । सामुदायिक अप्रयत्नजन्य विनाश का उदाहरण है: प्रकृतित: बने हुए बादलों का स्वतः ही बिखर जाना । अवयवों से अलग हुए बिना (उसी द्रव्य में) पूर्व आकार को छोड़ कर नए आकार को धारण करना प्रयत्नजन्य अर्थान्तरभाव विनाश है, जैसे-कड़े से कुंडल बनना ।५१ अप्रयत्नजन्य अर्थान्तरभावप्राप्ति का उदाहरण है भौतिक संयोग से या ऋतु परिवर्तन से बर्फ का पानी और पानी का भाप बनना ।५२ ___वाचक उमास्वाति ने एक अन्य अपेक्षा से भी परिणमन की व्याख्या की है- . किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक परिणमन ‘पारिणामिक भाव' कहलाता है; एवं परमाणुओं के मिलने से जो परिणमन होता है, वह औदयिक भाव कहलाता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल में जो परिणमन होता है वह पारिणामिक है। पुद्गल द्रव्य में पारिणामिक एवं औदयिक, दोनों परिणमन होते हैं। परमाणु में पारिणामिक परिणमन होता है। स्कन्धों में रूप, रस आदि में होने वाला औदयिक परिणमन है । जीव में सभी परिणमन होते हैं ।५३ ।। द्रव्य त्रैकालिक है :___अपने परिणामी स्वभाव के कारण द्रव्यों में प्रतिक्षण परिणमन होना अवश्यम्भावी है, वे किसी भी क्षण परिणमनशून्य नहीं रह सकते । परिणमन करने पर भी वे अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करते। वे तद्भाव परिणमन करते हैं ।५४ अनादि काल के इस परिणमन प्रवाह में द्रव्य जितने थे, उतने ही हैं; न घटे हैं और न बढ़े हैं। ५१. सामाविओ वि समुदयकओ-पच्चओणियमा-सन्मतित. ३.३३. ५२. विगमस्स वि. एस.... भावगमणंच-स. त. ३.३४ एवं इसी पर संपादक युगल का विवेचन । ५३. भावो धर्माधर्माम्बर-भावानुगा जीवाः-प्रशमरति २०९. ५४. तद्भावः परिणामः त. सू. ५.४२ ३२ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्रव्य अथवा अन्य कोई भी न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है; मात्र पर्याय-परिणमन होता है। इससे यह स्पष्ट अवबोध होता है कि द्रव्य की सत्ता त्रैकालिक है। द्रव्य में अतीत में अनन्त पर्यायें हो चुकी हैं। भविष्य में भी अनन्त पयायें होगी, मात्र वर्तमान की अपेक्षा पर्याय एक है।५६ पर्याय वाला ही द्रव्य होता है। इस प्रकार से सूत्रकार के स्पष्टीकरण से तीनों कालों में द्रव्य का अस्तित्व निर्विवाद तीनों कालों को विषय करने वाले नयों और उपनयों के विषयभूत अनेक धर्मों के तादाम्य संबन्ध को प्राप्त समुदाय का नाम द्रव्य है । वह द्रव्य एक (सामान्य की अपेक्षा) भी है और अनेक (विशेष की अपेक्षा) भी।५८ पर्याय द्रव्य में ही होती है। अतः जब पर्यायों का त्रैकालिक अस्तित्व है, तो उसका आश्रयदाता द्रव्य तो स्वतः त्रैकालिक हो जाता है। .. कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका में 'सत्' का लक्षण प्रतिपादित करते हुए कहा है कि प्रत्येक क्षण में उत्पन्न और नाश होने वाले पदार्थों की स्थिति देखकर भी जो द्रव्य के उत्पाद और विनाश को नहीं मानते, इसमें उनकी पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता ही कारण हो सकती है। उत्पाद और विनाश, दोनों का अधिकरण त्रैकालिक ध्रुव द्रव्य ही है, जैसे चैत्र और मैत्र दोनों भाईयों का अधिकरण एक माता है । ६० आत्मा शब्द से अनन्त पर्यायों में रहने वाले अनन्त धर्मात्मक नित्य द्रव्य का सूचन होता है।६१ . ५५. मणुसत्तणेण-पं. का. १७.१८.१९ ५६. का. प्रे. १०.२२१, एय दवियम्मि-हवइ दव्वं-ध. १.१.१३६ १९९, क.पा. १.१.१४.१०८ ५७. पर्ययवद् द्रव्यमिति-द्रव्यमुक्तम्-लो. वा. २.१.५.६३.२६९ ५८. नयोपनय-द्रव्यमेकमनेकधा-आ.मी. १०.१०७. ५९. प्रतिक्षणोत्पाद-पिशाचकी वा: अन्ययो २१. ६०. स्थिरमुत्पादविनाशयौ यथा चैत्रमैत्रयोरेका जननी स्यात्-वही २१.१९७ ६१. अत्र चात्मशब्देनानंतेष्वपि-द्रव्यं ध्वनितम्-स्याद्वाद. २२.२०३ ३३ For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मसाधक श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में द्रव्य की नित्यता इस प्रकार स्पष्ट हुई है-“संपूर्ण रूप से द्रव्य का नाश तो होता ही नहीं, अगर द्रव्य का ही नाश हो जायेगा तो हे साधक! तू खोज कि वह किसमें मिश्रित होगा, अर्थात् तुझे समझ में आ ही जायेगा क्योंकि 'चेतन' चेतनानन्तर नहीं होता।”६२ ___ “बचपन, युवा एवं प्रौढ़ अवस्था में एक ही आत्मा द्रव्य है मात्र अवस्थागत परिवर्तन से आत्मा नहीं बदलता, वैसे ही पर्याय परिणमन तो होता है पर द्रव्य नित्य (अनाशवान्) ही है।”६३ ।। द्रव्य के त्रैकालिक होने में ‘अनुत्पत्ति' कारण है, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है, विनाश भी उसी का होता है। द्रव्य तो न किसी का उत्पाद है और न उसका व्यय होता है।६४ वही जन्मता और वही मरता है अर्थात मात्र उसमें पर्याय परिणमन होता है, उसका सर्वथा नाश नहीं होता। इस प्रकार का एकत्व तभी संभव है जब कोई उत्पत्ति और व्यय होते हुए भी ध्रुव हो । - उत्पत्ति और विनाश में नित्य रहने वाला एकत्व भी दो प्रकार का है, मुख्य और उपचरित । आत्मा आदि में तो मुख्य एकत्व होता है, जैसे-जो आत्मा नरक में था वही अब मनुष्य है; जो आत्मा बचपन में था, वही जवानी और बुढ़ापे में हैइत्यादि में मुख्य एकत्व ज्ञान है और सादृश्य युक्त वस्तु में उपचरित एकत्व होता है, जैसे-काटने के बाद पुनः उत्पन्न हुए नख और केश।६६ . . परिणमन अस्तित्व की अनिवार्यता है:- . परिणमन करना अस्तित्व का स्वभाव है। जिससे प्रतिक्षण परिणमन की क्षमता नहीं होती, वह अपनी सत्ता स्थायी नहीं रखा सकता। यह अस्तित्वगत परिणमनशीलता आरोपित नहीं है। द्रव्य का स्वयं का स्वभाव है कि वह उत्पाद६२. क्यारे कोई.....केमां भले तपास-आत्मसिद्धि ७०. ६३. आत्मा द्रव्ये नित्य एकने थाय- आ. सि. ६८. ६४. आ. सि. ६६. ६५. सो चेव जादि-प.का. १८ ६६. द्विविधं ह्येकत्वं मुरूयमुपचारित-सादृश्ये तदुपचिरतमिति-अष्टस. १६१. ३४ For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यय - ध्रौव्य युक्त हो । ७ स्वभाव में स्थिति का नाम ही सत् है और उत्पाद-व्ययव्य युक्त होना यह पदार्थ का स्वभाव है । ६८ सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिणमन के प्रवाह से गुजरते हैं । जो स्थिति प्रथम समय में थी वह दूसरे समय में नहीं होगी, परन्तु परिणमन के कारण सर्वथा नवीनता भी नहीं आती । ६९ पर्याय दृष्टि से वस्तु की उत्पत्ति और विनाश देखे जाते हैं, क्योंकि पर्यायों का परिणमन निर्बाध रूप से हमारे अनुभव में आता है । ७° ७० उत्पादित को परस्पर निरपेक्ष ही मान लिया जाये तो उनकी कल्पना आकाश कुसुम की तरह थोथी होगी । अतः उत्पाद-व्यय रूप परिणमन सापेक्ष है । इस परिणमन का कोई अपवाद नहीं है क्योंकि परिणमन के कारण ही पुण्य, पाप, परलोक गमन, सुखादिफल, बन्ध और मुक्ति संभव हैं । ७१ "जीव द्रव्य मनुष्य रूप से नष्ट हुआ और देव के रूप में पैदा हुआ" ७२ यही परिणमन है । अगर परिणमन स्वभाव नहीं हो तो क्या सृष्टि में परिवर्तन नजर आता? सृष्टि के परिवर्तन का कारण ही सत् का उत्पाद-व्यय रूप परिणमन है जिसे शास्त्रीय भाषा में 'अर्थक्रिया' भी कहते हैं । पर्याय परिणमन के कारण ही ऊर्जा में वृद्धि एवं हानि होती है । सभी पदार्थों में नाना प्रकार की शक्ति है । पदार्थ द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के अनुसार परिणमन करते हैं और उनकी इस परिणमन की क्रिया में कोई बाधक नहीं बन सकता। उदाहरण के लिये भव्यत्व शक्ति से युक्त जीव काल लब्धिको प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है; उसमें कोई बाधक नहीं बन सकता । ३ ६७. प्र. सा. ९५.६९: ६८. प्र. सा. ९९. ६९. सर्वव्यक्तिषु नियतं...व्यवस्थानात् उद्धृतेयम्, अनेकांतवाद - प्र. पृ. ५९. ७०. द्रव्यात्मना सर्वस्य वस्तुनः पर्यायानुभावात्, - षड् समु. टी. ५७.३५७ ७१. उत्पादः केवली प्रतिपतव्यौ अष्टस. पृ. २१९, पुण्यपाप ! न तैषां - आ.मी. ३.४० ७२. मणुसत्तणेण - इदरो वा पं. का. १७. ७३. कामाइ लद्धि जुत्ता "हवे काली" का. प्रे. १०.२१९ ... ..... ३५ For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन से पहले यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति रूप में और शक्ति को द्रव्य रूप में नहीं बदला जा सकता, परन्तु आइंस्टीन ने इस धारणा को खंडित कर दिया । यह माना जाने लगा कि द्रव्य और शक्ति भिन्न-भिन्न नहीं है; एक ही वस्तु के रूपान्तरण हैं । इस सिद्धान्त के आधार पर एक पौंड कोयले से शक्ति के रूप में दो किलोवाट की विद्युत शक्ति प्राप्त की जा सकती है। चूंकि वैज्ञानिक परीक्षण पुद्गल तक ही सीमित हैं, अतः पुद्गल की शक्ति को मापा जाता है, परन्तु द्रव्य चाहे पुद्गल हो या जीव, सभी अनन्तशक्तिं संपन्न है और इसी कारण उनका त्रैकालिक अस्तित्व है । परिणमन का अर्थ है- अवस्थान्तर होना । कोई व्यक्ति एक स्थान से प्रयाण कर अन्य स्थान पर पहुँचा। स्थान का परिवर्तन तो हुआ, परन्तु व्यक्ति में परिवर्तन नहीं हुआ । द्रव्य का परिणमन भी ऐसा ही है। सर्वथा उत्पाद या विनाश न होकर मात्र अवस्था का परिवर्तन है । ७४ कूटस्थ नित्यवादियों की मान्यता है कि पदार्थ सर्वथा नित्य होते हैं, क्योंकि वे सत् हैं "सर्वं नित्यं सत्त्वात् ” । उनके अनुसार क्षणिक पदार्थों में अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि क्षणिक पदार्थ एक क्षण के बाद दूसरे क्षण में स्थिर नहीं रहते । जबकि बौद्धों की मान्यता है कि "संपूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं क्योंकि वे सत् हैं”“सर्वं क्षणिकं सत्त्वात् ।" नित्य पक्ष में अर्थक्रिया संभव नहीं है । अर्थक्रिया के लिये पूर्व स्वभाव का विनाश और उत्तरकालीन स्वभाव का पदार्थ के प्रयोजन भूत कार्य को धारण करना आवश्यक है जो कि नित्य तत्त्व में संभव नहीं हैं । ७५ जैन दर्शन इन दोनों मान्यताओं का खंडन करता है । उसके अनुसार “जो दोष नित्य एकान्तवाद में है, वही दोष सर्वथा क्षणिकवाद में है । ७६ सर्वथा नित्य एकांतवाद में सुख, दुःख, पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती । ७७ ७४. परिणमास्तद्विदामिष्टः उद्धृतेयम् - स्याद्वाद मंजरी २३९ ७५. स्याद्वादमं जरी २६.२३३.३४. २६ ७६. अन्ययोगव्य. ७७. नैकांतवादे सुखदुःखभोगे..... बंधमोक्षौ - अन्ययो. २७ ३६ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एक रूप को नित्य कहते हैं। यदि आत्मा अपनी कारण सामग्री से सुख को छोड़कर दुःख का उपभोग करने लगे तो अपने नित्य और एक स्वभाव के त्याग के कारण आत्मा को अनित्य मानना पड़ेगा। अतः एकान्तवाद में अर्थक्रिया संभव ही नहीं है। इसी प्रकार क्षणिकवाद में भी अर्थ क्रिया संभव नहीं, क्योंकि वहाँ हिंसा का संकल्प करने वाला अलग है, हिंसा करने वाला कोई दूसरा है और हिंसा कर्म जनित कर्मबन्ध का फल भोगने वाला कोई तीसरा ही है।७९ ___ हम हिंसक किसे कहें? क्योंकि क्षणिकवाद के अनुसार हिंसा करने वाला हिंसक नहीं हो सकता। उसका अस्तित्व तो दूसरे क्षण ही विलीन हो जाता है। इस प्रकार पदार्थों का 'निरन्वय विनाश' मानने से एक को कर्ता और दूसरे को भोक्ता मानना पड़ेगा। इसका समाधान क्षणिकवादियों ने इस प्रकार किया है"जिस प्रकार कपास के बीज में लाल रंग लगाने से बीज का रंग भी लाल हो जाता है, उसी प्रकार अवस्था संतान में कर्मवासना का फल मिलता है।" ८० परन्तु जैन दर्शन इस मान्यता का खंडन करता है। एक क्षणवर्ती वस्तु को दूसरे क्षण से जोड़ने वाला कोई तत्व नहीं है। दोनों क्षणों को परस्पर जोड़ने वाले के अभाव में दोनों का संबन्ध संभव नहीं है। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी चाहिये। जैन दर्शन में बौद्धों जैसा उत्पाद और विनाश भी है और साथ ही दोनों को जोड़ने वाली कड़ी जो ध्रुव कहलाती है, भी विद्यमान है। ___ जैन दर्शन के 'ध्रुव' की कूटस्थ नित्य ब्रह्मवादियों के नित्य से एवं बौद्धों के अनित्य से उत्पाद व व्यय की समानता है, परन्तु यह समानता कथंचित् ही है सर्वथा नहीं, क्योंकि जैन दर्शन पदार्थ को कथंचित् नित्य एवं कथंचित् अनित्य मानता है। जैन दर्शन के अनुसार दीपक से लेकर आकाश तक के सारे पदार्थ नित्यानित्य स्वभाव युक्त हैं। ७८. स्याद्वाद. २७. २३६ ७९. हिनस्त्यनभिसंधात्-चित्तं बद्धं न मुच्यते- आ. मी. ३.५१ ८०. यस्मिन्नेव हि सन्ताने-रक्तता यथा । उद्धृतेयम्-स्याद्वाद मंजरी २७. २३८ ८१. अन्ययोगव्य. ५. ३७ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक कुछ पदार्थों को नित्य और कुछ पदार्थों को अनित्य मानते हैं। अतः वे अर्ध बौद्ध भी कहे जाते हैं । शंकराचार्य ने वैशेषिकों को अर्धबौद्ध कहकर संबोधित किया है।८२ ऊर्वता एवं तिर्यगंश की अपेक्षा द्रव्यः___ अभेद दृष्टिकोण को ‘सामान्य' एवं भेदग्राही दृष्टिकोण को 'विशेष' कहते हैं। इन्हें ही नय की भाषा में क्रमशः द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक कहते हैं। . जगत के सभी पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होते हैं । सामान्य को अनुवृत्त एवं विशेष को व्यावृत्त भी कहते हैं। प्रत्येक वस्तु में सत् आदि रूप की समानता होने . से अनुवृत्ति एवं विसदृशता होने के कारण व्यावृत्ति रूप ज्ञान का हेतु पाया जाता हा पूर्व पर्याय का व्यय और नवीन पर्याय का उत्पाद, इन दोनों अवस्थाओं में द्रव्यत्व की स्थिति अविच्छिन्न रूप से रहने से इसे नित्य परिणामी कहते हैं, और इस स्वभाव में ही अर्थक्रिया संभव है।८३ सामान्य के दो भेद हैं- 'तिर्यक् सामान्य' और 'ऊर्ध्वता सामान्य' । समान परिणाम को तिर्यक् सामान्य एवं पूर्व व उत्तर पर्याय में रहने वाले को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं।८४ ... ऊर्ध्वता सामान्य अपनी कालक्रम से होने वाली क्रमिक पर्यायों में ऊपर से नीचे तक व्याप्त रहता है, साथ ही सहभावी गुणों को भी व्याप्त करता है। तिर्यक् सामान्य तिरछा चलता है। अनेक स्वतन्त्र सत्ताक मनुष्यों में सादृश्यमूलक जाति की अपेक्षा मनुष्यत्व की सामान्य कल्पना तिर्यक् सामान्य कहलाती है। ८२. प्रो. ए.बी. ध्रुवः स्याद्वादमंजरी पृ. ५४ ८३.अनुवृत्तव्यावृतप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्ति- स्थिति लक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपतेश्श.-अष्टस. पृ. १६२. ८४. सदृशपरिणामास्तिर्यक्खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् एवं परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव __ स्थासादिषु. - अष्टस. पृ. १६४ ८५. पं. महेन्द्रकुमारजी: जैन दर्शन पृ. ४८१ ३८ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार की टीका में भी लगभग इसी से मिलती-जुलती व्याख्या है। वस्तु ऊर्ध्वता सामान्यरूप द्रव्य में, सहभावी विशेष स्वरूप गुणों में एवं क्रमभावी विशेष स्वरूप पर्यायों में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यमय है । ८६ जितने भी पदार्थ इस सृष्टि में हैं, वे सब सामान्य समुदायात्मक ( गुणसमुदायात्मक) और आयतसामान्य समुदायात्मक (पर्यायसमुदायात्मक) द्रव्य से रचित होने के कारण द्रव्यमय हैं । ७ उत्पादादि भिन्न भी अभिन्न भी: द्रव्य को हम त्रिलक्षणयुक्त सिद्ध कर आये हैं । यहाँ यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न ? दार्शनिकों ने इस प्रश्न की गम्भीरता को समझा और अपनी पैनी प्रतिभा से इस प्रश्न को निम्न प्रकार से समाहित किया । जैन दार्शनिक स्याद्वाद की नींव पर ही समस्त जिज्ञासाओं का समाधान खोजते हैं । उनके दृष्टिकोण में एकान्तवाद मिथ्या है। अतः उन्होंने वस्तु के स्वरूप को भी कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न कहा है। सत् को त्रिलक्षणात्मक कहा। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि इनमें परस्पर भिन्नता है । परन्तु ये एक वस्तु के उत्पाद - व्यय को दूसरी वस्तु में लेकर नहीं जा सकते, अतः अभिन्नता है। जैसे रूप, रस आदि के लक्षण अलग हैं, अत: इनमें भेद है, परन्तु ये परस्पर में सापेक्ष हैं, अतः अभिन्न भी हैं ।" न तो उत्पाद स्वतन्त्र है और न पदार्थ । इस प्रकार एक ही द्रव्य में भेद और अभेद, दोनों पाये जाते हैं। जो गुण है वह उत्पाद नहीं, जो उत्पाद है वह पर्याय नहीं, इद तीनों का संयुक्त स्वरूप ही अस्तित्व का सूचक है और प्रमाण का विषय होने से भेद और अभेद- दोनों ही वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं । गौण और प्रधान की अपेक्षा से भेद और अभेद- दोनों अविरोधी हैं । " निवर्तितनिवृत्तिमच्च - प्र. सा.त. प्र. १०. ८६. बस्तु पुनरूर्ध्वतासामान्यलक्षणे ८७. इह खलु यः कश्चन परिच्छिद्यमान..... निर्वृत्तत्वाद्द्रव्यमयः - प्र.सा.प्र. ९३. ८८. ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यते - अन्योयापेक्षणामुत्पादादीनां वस्तूनि पतिपतुत्तत्वं - षड्द. समु. टी. ५७. २५८ ८९. प्रमाणगोचरौ संतौ-गुणमुख्यविवक्षया- आ.मी. २.२६ ३९ For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रख्यात दार्शनिक श्री कुंदकुंदाचार्य ने प्रवचन सार में "उत्पाद के अभाव में व्यय नहीं होता और व्यय के अभाव में उत्पाद नहीं होता है। उत्पाद और व्यय, दोनों ही ध्रौव्य के ही आश्रित हैं।” कहकर भिन्नता और अभिन्नता स्वीकार करते हुए उनमें अविरोधित्व स्वीकार किया है । " आगे इसी को और स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं- “उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में और पर्यायें नियम से द्रव्याश्रित होती हैं । " ११९१ • द्रव्य स्वयं ही गुणान्तर रूप से परिणमित होता है। द्रव्य की सता गुणपर्यायों की सत्ता के साथ अभिन्न है, अतः गुणपर्याय ही द्रव्य है ।" टीकाकार अमृतचंद्राचार्य ने इसे वृक्ष के उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया है। “जिस प्रकार अंशी वृक्ष के बीज, अंकुर, वृक्षत्व स्वरूप तीनों अंश एक साथ दिखायी देते हैं, वैसे ही द्रव्य के व्यय, उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप निजधर्मों के द्वारा अवलम्बित एक साथ ही प्रतीत होते हैं। अगर द्रव्य को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप से भिन्न माना जाये तो सर्वत्र विप्लव हो जायेगा । यदि द्रव्य का व्यय ही मानें तो सारा संसार शून्य हो जायेगा, यदि द्रव्य का उत्पाद ही माने तो द्रव्य में अनन्तता आ जायेगी, और यदि द्रव्य को ध्रौव्य ही माने तो भावों का अभाव होने से क्रमशः द्रव्य का अभाव हो जायेगा । १३ हैं वे नहीं है और द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं । १४ अतः द्रव्य और गुण भिन्न हैं। उत्पाद - व्यय रूप भेद पदार्थों का धर्म हैं, वह धर्म पदार्थों से कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न है । धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद नहीं पाया जाता । I ९५ एक ही व्यक्ति में संबन्धों की भिन्नता पायी जाती है, जैसे एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भांजा, और भाई आदि संबन्धों से ज्ञपित होता है किन्तु इन संबन्धों ९०. ण भवदि भंगविहीणो.....धोव्वेण अल्पेण- प्र. सा. १००. ९१. उप्पादठ्ठिदिभंगा - दव्वं हवदि सव्वं प्र.सा. १०१. ९२. परिणमदि सयं दव्वं..... दव्वमेवत्ति - प्र. सा. १०.४ एव. गुणपर्यय वत् द्रव्यम् - त.सू. ५.३७ ९३. यथा किलंशिनः पादपस्य बीजजाङ्कुरपादपत्व..... द्रव्यस्याभावः - प्र. सा.त. प्र. पृ. १०१. ९४. यद्दव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति न द्रव्यं भवतीति - प्र. सा.त. प्र. पृ. १३०. ९५. भेदो हि पदार्थानां धर्म..... भिन्नभिन्नश्च - स्याद्वादरत्ना. १.१६.२०३ ४० For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भिन्नता ने संबन्धाश्रय एक व्यक्ति को भिन्न-भिन्न ( अनेक ) नहीं बनाया, उसी प्रकार इन्द्रियग्राह्य रूप, रस आदि पर्यायों में द्रव्य का एकत्व अवगत होता है। वैशेषिक द्रव्य और गुण को भिन्न पदार्थों के रूप में मान्यता देते हैं । भिन्न मान्यता से किन दोषों के आगमन का द्वार खुलता है, जैन दार्शनिक इसे स्पष्ट करते हैं । यदि द्रव्य का लक्षण 'स्थिति', और गुण का लक्षण 'उत्पत्ति का विनाश' मान लें तो ये लक्षण क्रमशः द्रव्य एवं गुण में ही घटित होंगे न कि संपूर्ण सत् में । द्रव्य से भिन्न गुण या तो मूर्त होंगे या अमूर्त। अगर गुणों को इन्द्रियग्राह्य और मूर्त्त मानेंगे तो परमाणु नहीं रहेंगे, क्योंकि परमाणु अतीन्द्रिय होते हैं। अगर अमूर्त होंगे तो इन्द्रियग्राह्य नहीं रहेंगे । ७ यहाँ यह शंका स्वाभाविक है जब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों परस्पर भिन्न हैं तो इन्हें त्रयात्मक रूप वस्तु नहीं कहा जा सकता और अभिन्न हैं तो इन्हें तीन रूप मानना चाहिए। " उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों की प्रतीति भिन्न-भिन्न होती है। आचार्य समन्तभद्र ने इसे इस प्रकार समझाया है - स्वर्ण घट का इच्छुक मानव स्वर्ण से मुकुट बनते समय दुःखी होता है और मुकुट का इच्छुक प्रसन्न; परन्तु स्वर्णप्रिय मनुष्य तो दोनों ही स्थिति में तटस्थ रहता है ।" दही नहीं खाने का संकल्प करने वाला दूध लेगा और जिसने दूध नहीं लेने का संकल्प लिया है वह दही लेगा; परन्तु जिसने गोरस नहीं खाने का संकल्प लिया है वह न दूध लेगा और न दही । १०० द्रव्य और पर्याय में कथंचित् अभेद है, क्योंकि उन दोनों में अव्यतिरेक पायी जाती है । दव्य और पर्याय कर्थचित् भिन्न भी है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायों में परिणाम का भेद है । द्रव्य में आदि और अनन्तरूपा से परिणमन का प्रवाह है 1 ९६. पिउपुत्तणतुभव्वयः....विसेसणं लहइ स.त. १७.१८ ९७. दव्वस्स ठिई जम्म..... अमुत्तेसु अग्गहुणं - स.त. ३.२३.२४ ९८. यद्युत्पादादयों..... कथमेकं त्रयात्मकम् - स्याद्वादम. मे. उद्धृत २१.९९९ ९९. घटमौलीसुवर्णार्थी.... सहेतुकम् - आ. मी. ३.५६ १००. पयोव्रती न दध्याति.... त्रयात्मकम् ३.६० ४१ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबकि पर्यायों का परिणमन सादि और सान्त है । द्रव्य शक्तिमान् है । पर्यायशक्ति रूप ‘एकत्वविशिष्ट' की द्रव्य संज्ञा है तो दूसरे (प्रसूत) की पर्याय संज्ञा । द्रव्य एक है, पर्यायें अनेक । द्रव्य का लक्षण अलग है, पर्याय का लक्षण अलग है। प्रयोजन भी दोनों के भिन्न हैं, क्योंकि द्रव्य अन्वयज्ञानादि कराता है जबकि पर्याय व्यतिरेकज्ञान कराता है । द्रव्य त्रिकालगोचर है जबकि पर्याय वर्तमानगोचर । इन नाना कारणों और लक्षणों से द्रव्य की भिन्नता भी है और अभिन्नता भी।१०१ द्रव्य 'गुण' नहीं है और गुण 'द्रव्य' नहीं।१०२ द्रव्य में एकान्तिक प्रतिपादन के दूषण: प्रख्यात दार्शनिक एवं तार्किक आचार्य समन्तभद्र एकान्तवाद में आने वाले दूषणों का आप्तमीमांसा में विशद विश्लेषण करते हैं। ___ बौद्ध दर्शन की शाखा शून्यवाद के अनुसार एक मात्र अभाव ही प्रमाण है। उनके अनुसार अभाव ही सत्य है, भाव तो स्वप्नज्ञान की तरह मिथ्या है। स्वप्न का ज्ञान अनेकों की अपेक्षा स्वप्नदर्शी को ही होता है और वह स्वप्न तक ही सीमित होता है । जगत् का ज्ञान अनेकों को होता है, अधिक स्थायी होता है, पर हैं दोनों मिथ्या। ___ जैन दर्शन के अनुसार, भाव की सत्ता.नहीं मानने वाले मत में इष्ट तत्त्व की सिद्धि नहीं होती। न तो वहाँ बोध प्रमाण है न ही वाक्य । प्रमाण के अभाव में स्वमत की सिद्धि और परमत का खण्डन संभव नहीं है । १०३ ___ मीमांसक सर्वथा भावाभावात्मक रूप वस्तु को मानते हैं, परन्तु यह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यदि 'भाव' और 'अभाव'- दोनों एकरूप हैं, तो या तो भाव रहेगा या अभाव। ___ सांख्य के मत में व्यक्त और अव्यक्त-दोनों का तादात्म्य है । महत् आदि का प्रकृति में तिरोभाव हो जाता है फिर भी इनका सद्भाव बना रहता है। व्यक्त और अव्यक्त सर्वथा एकरूप हैं तो दोनों में एक ही शेष रहेगा। १०१. द्रव्यपर्याययोरेवयं..... नानात्वं न सर्वथा- आ. मी. ४.७१.७२ १०२. प्र.सा. १०८. १०३. अभावैकांतपक्षेपि......साधानदूषणम् १.१२. ४२ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध 'तत्त्व' को सर्वथा अवाच्य बताते हैं, परन्तु अवाच्य कहने वाला अवाच्य का प्रयोक्ता नहीं हो सकता।१०४ स्याद्वादविरोधी मतों में भाव और अभाव का निरपेक्ष अस्तित्व संभव नहीं है, क्योंकि दोनों को एकात्म मानने में विरोध है। यहाँ तो अवाच्यैकान्त भी नहीं बनता, क्योंकि “यह अवाच्य है" ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं हो सकता।०५ .. ‘पदार्थो का सर्वथा सद्भाव ही है' अगर ऐसा मानें तो समस्त पदार्थ अनादिअनन्त और स्वरूप रहित हो जायेंगे ।१०६ ___ अभाव चार प्रकार का है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव । वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व अभाव को प्रागभाव कहते हैं। पदार्थ के नाश के बाद के अभाव को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से सापेक्ष अभाव को अन्योयाभाव कहते हैं। पदार्थ के शाश्वत अभाव को अत्यन्ताभाव कहते हैं। सांख्य पदार्थों का सर्वथा सद्भाव मानते हैं, प्राग्भाव नहीं। और प्राग्भाव न मानने से ‘महद्' आदि तत्त्व अनादि हो जायेंगे, फिर प्रकृति से महदादि की उत्पत्ति बताना व्यर्थ है, जबकि वे प्रकृति से ही उत्पत्ति बताते हैं । १०७ सांख्य 'पुरुष' और 'प्रकृति' में अत्यन्ताभाव नहीं मानते, तब तो प्रकृति और पुरुष में भेद१०८ व्यर्थ हो जायेगा। ___ चार्वाक प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव, दोनों को नहीं मानता। वह भूतों से सर्वथा नवीन उत्पत्ति और उनके वियोग को सर्वथा विनाश मानता है। मीमांसक भी शब्द को सर्वथा नित्य मानते हैं। यदि शब्द में प्रागभाव को न मानकर नित्य माना जाये तो पुरुष के तालु आदि प्रयत्न को क्या माना जायेगा? १०४. आप्तमी. तत्वदीपिका टीका. १.१३.१२९.३१ १०५. विरोधान्नोभयै....युज्यते-आ.मी. १.१३ १०६. भौवैकान्ते पदार्थानां.....मतापकम् आ.मी. १.९ १०७. सांख्यकारिका २२. १०८. वही ११ ४३ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य के अनुसार 'पदार्थ' एवं मीमांसक के अनुसार 'शब्द' मात्र अभिव्यक्त होते हैं, उनकी उत्पत्ति नहीं होती । कारणों के द्वारा अविद्यमान वस्तु की उत्पत्ति होती है। किसी आवरण से ढकी हुई वस्तु के किसी अन्य कारण से प्रकट होने को अभिव्यक्ति कहते हैं, जैसे अंधेरे में कोई वस्तु है पर दिखाई नहीं दे रही है, वही दीपक के प्रकाश से दिखने लगती है, यही अभिव्यक्ति है । परन्तु प्रागभाव का निराकरण करने के कारण घट आदि कार्यद्रव्य अनादि हो जायेंगे और प्रध्वंसाभाव को न मानने के कारण कार्यद्रव्य अनन्त हो जायेंगे । १०९. धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने पर "यह धर्मी है, ये इसी धर्मी के धर्म हैं और यह धर्म और धर्मी में संबन्ध कराने वाला 'समवाय' है" - इस प्रकार तीन बातों का अलग-अलग ज्ञान प्राप्त नहीं होता । यदि कहे कि समवाय संबन्ध से परस्पर भिन्न धर्म और धर्मी का संबन्ध होता है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसा ज्ञान धर्म और धर्मी का होता है वैसा 'समवाय' का नहीं होता । अगर यह कहें कि एक 'समवाय' को मुख्य मानकर समवाय में समवायत्व को गौण मान लेने पर समवाय की सिद्धि हो जायेगी। तो यह काल्पनिक मात्र है, तथा इसमें लोकविरोध भी है । ११० कार्य की एकान्त नित्यता में पुण्य, पाप, परलोकगमन आदि सब असंभव हो जायेंगे । १९९ क्षणिकैकान्त में 'यह वही है' - इस प्रकार का व्यवहार संभव नहीं रहेगा, और तब कार्य का आरंभ ही नहीं होगा तो उसका फल कैसे संभव है । ११२ क्षणिक पक्ष में कार्यकारणभाव भी नहीं बन सकता, कार्यरूप सन्तान कारण से सर्वथा पृथक् है (बौद्ध प्रत्येक पदार्थ को संतान मानते हैं ) ।११३ मात्र को 'असत् ' मान लें तो आकाशपुष्प की तरह उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी । ११४ १०९. कार्यद्रव्यमनादि.. अनंनतां व्रजेत्-आ.मी. १.१० ११०. न न धर्मधर्मित्व.... लोकबाधः अन्ययो. - व्य . ७. १११. पुण्यपापाक्रिया.... तेषां न - आ.मी. ३.४० ११२. क्षणिकैकांतपक्षेपि... कृतः फलम् - आ.मी. ३.४१ ११३. न हेतुफलभावा.... पृथक् - आ.मी. ११४. यद्यसत् सर्वथा.....खपुप्पवत् - आ.मी. ३.४३ ४४ ३.४२ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इन सभी एकान्तवादों का खंडन करके जैन दर्शन वस्तु का स्वरूप विरोधीयुगलों द्वारा प्रतिपादित करता है। उत्पाद क्या है: हमने द्रव्य को त्रिलक्षणात्मक सिद्ध किया हैं परन्तु जिज्ञासा हो सकती है कि 'उत्पाद'क्या है? किसका उत्पाद होता है? ग्रन्थकार यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं- “अपनी-अपनी जाति को छोड़ते हुए बाह्य और आन्तरिकदोनों निमित्तों को पाकर चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य का अन्य स्वपर्याय में परिवर्तित होना उत्पाद है ।१९५ पूर्वकालिक असत् का उत्तरकाल में सत्तालाभ उत्पाद नहीं है, अपितु अननुभूत का उत्तरकाल में प्रादुर्भाव ही उत्पाद है ।११६ विनाश क्या है: अपनी जाति का त्याग किये बिना पूर्व पर्याय का नाश होना विनाश या व्यय है, जैसे पिण्डरूप आकृति का नष्ट होना ।११७ उत्पाद-व्यय की इस प्रवाह परम्परा में स्थायिता न तो नष्ट होती है और न उत्पन्न । द्रव्य की एक पर्याय का व्यय होता है और दूसरी पर्याय का उत्पाद, परन्तु द्रव्य ध्रुव बना रहता है ।११८ ___ उत्पाद और व्यय युक्त पर्याय, गुण, और ध्रौव्य से युक्त सत् (द्रव्य) का ही अस्तित्व है। 'उत्पाद-व्यय' अर्थात् पर्याय द्रव्य रूप स्थायी धर्मी के धर्म हैं। न तो धर्म धर्मी से विभक्त होता है और न धर्मी धर्म का परित्याग करते हैं। धर्म और धर्मी की भिन्नता प्रमाणसिद्ध नहीं है। धर्मधर्मात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है।१९ धर्म और धर्मी की सत्ता कथंचित् सापेक्ष एवं कथंचित् निरपेक्ष है। ११५. चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य....घटपर्यायवत्-स.सि. ५.३० ५८४ ११६. उत्पादो भूतभवनं. - शास्त्रवार्ता. ७.१२ ११७. तथा पूर्वभाव विगमनं व्ययः यथा घटौत्पत्तौ पिण्डाकृतेः स.सि. ५.३०५८४ विनाशस्तद्विपर्यय: शास्त्रवार्ता. ७.१२ एवं-त.वा. ५.३० ११८. प्र.सा.१०३. ११९. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ५७.३६.३ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-गुण-पर्याय में एकान्त भेद नहीं है:___ न्यायवैशेषिक द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मानते हैं। यदि द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न माना जाये तो जैन दर्शन के मत में या तो द्रव्य की अनन्तता होगी या अभाव। व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय अनेकों हैं, और वे सब द्रव्य और गुण की अभिन्नता में ही संभव हैं। ° द्रव्य के नाश होने की आशंका इसलिए है कि गुण द्रव्याश्रित ही होते हैं। यदि 'गुण' द्रव्य से भिन्न होगा तो गुण किसी और का आश्रित होगा, और वह भी यदि द्रव्य से भिन्न होगा तब तो द्रव्य में अनन्तता आयेगी, क्योंकि गुण जिसका भी आश्रित होगा वह द्रव्य ही होगा।" धर्मी और धर्म (द्रव्य और गुण) को सर्वथा भिन्न मानने से विशेष्यविशेषणभार भी संभव नहीं है।२२ ___ गुणों को उसके आश्रयभूत द्रव्य से भिन्न मानने पर गुण निराश्रय हो जायेंगे, एवं गुण से पृथक् रहनेवाला द्रव्य भी निःस्वरूप होने से कल्पनामात्र बनकर रह जायेगा।३ वैशेषिक दिशा, काल और आकाश को क्रियावाले द्रव्यों से विलक्षण होने के कारण निष्क्रिय मानते हैं। कर्म और गुण को भी वे निष्क्रिय ही मानते हैं। अगर इन्हें निष्क्रिय मानें तो “गुणसन्द्रावो द्रव्यम्"२५ यह लक्षण कैसे सिद्ध होगा? एकान्तवादियों के मत में तो “द्रव्यं भव्ये" यह लक्षण भी सिद्ध नहीं होता। जब द्रव्य ही असिद्ध है, तो उसके 'भव्य' -होने (सत्ता का अनुभव रूप क्रिया से युक्त होने) की कल्पना कैसे की जा सकती है? गुण, कर्म और सामान्य से जब 'द्रव्य' सर्वथा भिन्न है तो खरविषाण की तरह असत् होने से भवन क्रिया का कर्ता नहीं हो सकता। असत् होने के कारण उसमें समवाय संबन्ध के कारण स्वरूप' की कल्पना भी नहीं होगी। २०. जदि हवदि मदव्वभण्णं......पकुव्वंति ववदेसा संठाणा....विज्जते -पं.का. ४४,४६. २१. द्रव्यस्य गुणेभ्यो भेदे.....द्रव्यानंत्यम्- पं.का.टी. ४४. २२. स.म.४.१७.१८ २३. यदि गुणा एव द्रव्याभावि....निराधारत्वाद्.....कल्पना द्रव्यस्य स्यात् रा.वा. ९.२.९.४३९ २४. दिक्कालावकाशशः.....निष्क्रियाः वै.द. ५.२.२१,२२. २५. पातंजल महाभाष्य ५.१.११९ २६. द्रव्यं भव्ये इत्ययमपि द्रव्यशब्दः एकांतवादिना.....अनेकांतदिनस्तु गुण सन्द्रावो द्रव्यम्, द्रव्यं 'भव्ये' इति चोपपद्यते रा. वा. ५.२.१.४४१.१.९ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अनेकान्तवाद' अर्थात् भिन्न-भिन्न स्वभाव में ही “गुण सन्द्रावो द्रव्यं" एवं “द्रव्यं भव्ये"- ये दोनों लक्षण सिद्ध होते हैं। "- वैशेषिक धर्म और धर्मी को समवाय संबन्ध से जोड़ते हैं। यह समवाय द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष पदार्थों में रहता है । समवाय संबन्ध के कारण ही सर्वथा भिन्न धर्म और धर्मी में धर्म-धर्मी का व्यवहार होता है ।२७ - जैन दर्शन में 'सत्' और 'द्रव्य' पर्यायवाची हैं, जबकि वैशेषिक ‘सत्ता' और 'द्रव्य' को अलग-अलग मानता है, क्योंकि वह (सत्ता) प्रत्येक द्रव्य में (आधेय रूप से) पायी जाती है। जैसे द्रव्यत्व नौ द्रव्यों में से प्रत्येक में रहता है। अतः द्रव्यत्व को द्रव्य नहीं कहा जात, परन्तु सामान्य-विशेषरूप (द्रव्य) कहा जाता है। इसी तरह ‘सत्ता' भी प्रत्येक द्रव्य में रहने के कारण द्रव्य नहीं अपितु 'सामान्य' कही जाती है।९ . - जैन दर्शन द्रव्य को सामान्य-विशेषात्मक मानता है, जबकि वैशेषिक दर्शन द्रव्यादि से विलक्षण होने के कारण 'विशेष' को पदार्थान्तर मानता है। प्रशस्तपाद के अनुसार अन्त्य में होने के कारण वे (विशेष) अन्त्य हैं तथा आश्रय के नियामक . हैं अतः विशेष हैं। ये विशेष नित्यद्रव्यों में रहते हैं।३१ ___ 'सामान्य' को भी वैशेषिक लोग ‘सत्ता' से भिन्न पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। यह सामान्य नित्य और व्यापक है। सामान्य के दो भेद हैं- पर और अपर। सामान्य द्रव्य, गुण और कर्म-इन तीन पदार्थों में रहता है। न्याय-वैशेषिक के सर्वथा भेदभाव का खंडन करते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि 'गुण और गुणी में, कार्य और कारण में तथा सामान्य और विशेष में २७. घटादीनां कपालादौ द्रव्येषु गुणकर्मणोः । तेषु जातेश्च संबंधः समवायः प्रकीर्तितः। -काारिकावली का: १२. मुक्तावली पृ.२३. २८. द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं सत्ता । वै.सू.१.२.४ २९. स्याद्वादमंजरी पृष्ठ ४९. ३०. अन्तेषु भवा अन्त्याः स्वाश्रयविशेषकत्वाद विशेषाः प्रशस्तपादभाष्य विशेष प्रकरण पृ.१६८ ३१. अन्स्यो नित्यद्रष्यवृत्तिः विशेषः परिकीर्तितः। - का. १०. ३२. सामान्यं द्विविधं प्रोक्तं.....परापरतयो उच्यते - का. ८.९. ४७ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वथा भेद मानना अनुपयुक्त है । ३३ द्रव्य गुण और पर्याय में एकान्त अभेद भी नहीं है: गुण और गुणी में सर्वथा अभेद मानने पर या तो गुण रहेंगे या गुणीं, तब दोनों का व्यपदेश संभव नहीं होगा। अकेले गुणी के या गुण के रहने पर यदि गुणी रहता है तो गुण का अभाव होने के कारण वह निःस्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा, और यदि गुण रहता है तो वह निराश्रय होकर कहाँ आश्रय लेगा ?३४ ब्रह्माद्वैतवादी संपूर्णतः अभेद को ही स्वीकार करते हैं । उपनिषदों में ऐसे अनेकों वाक्य आते हैं जो मात्र 'ब्रह्म' की ही सत्ता को स्थापित करते हैं । ५ चेतन-अचेतन समस्त सृष्टि के तत्त्व मात्र उस 'ब्रह्म' के प्रतिभासमात्र हैं । जिस प्रकार तिमिर रोगी को विशुद्ध आकाश भी चित्र - विचित्र रेखाओं से खचित दिखाई देता है, उसी प्रकार अविद्या या माया के कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकार के देश काल और आकार के भेदों से चित्र-विचित्र प्रतिभासित होता है । वस्तुतः सृष्टि में था, है और रहेगा, वह सब बह्म है। . यही ब्रह्म संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का उसी प्रकार कारण है जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल के प्रति । ३७ - सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब कुछ मिथ्या है - "बह्म सत्यं जगन्मिथ्या” – यह उपनिषद् की प्रसिद्ध उक्ति है, तो क्या आत्मश्रवण, मनन और ध्यान, जिसे वे आत्मशुद्धि का और अमृत की प्राप्ति का माध्यम मानते हैं, वह भी मिथ्या है या अविद्यात्मक है ? वेदान्ती इसका भी समाधान करते हैं और कहते ३३. कार्य कारण नानात्वं..... यदीप्यते । आ.मी. ६.६१. ३४. एकांतानन्यत्वे हि गुणा एव वा स्युः रा. वा. ५.२.९.४३९ ३४. यदि गुणा एव द्रव्याभावे निराधारत्वादभावः स्यात् । - ३५. सर्वं खल्विदं ब्रह्म । - छान्दोग्य उप. ३.१.१४ ३६. यथा विशुद्धमाकाशं तिमिराप्लुतो जनः संकीर्णमिव रेखामाशिश्चित्राभिरत्रिमिन्यते तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति - बृहदा. भा. वा. ३.५.४३.४४ ३७. यथोर्णनाभः सृअते गृह्णीतेश्च - मुण्कोप. १.१.७ रा. वा. ५.२.९.४३९ ४८ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं- भेदरूप होने से ये भी अविद्यात्मक हैं, परन्तु इनसे चूँकि विद्या की उत्पत्ति संभव है। जैसे धूल युक्त पानी को स्वयं धूलमय होते हुए भी कतक के फल का चूर्ण स्वच्छ कर देता है; विष को विष समाप्त कर देता है, उसी प्रकार श्रवण आदि भेदरूप अविद्या होते हुए भी मोह, राग, द्वेष, आदि मूल अविद्या को नष्ट कर स्वगतभेद की शान्ति से निर्विकल्प स्वरूप को प्राप्त होती है।३८ । ... संपूर्ण संसार ब्रह्म का ही विवर्त है, पर लोग ब्रह्म को न देखकर उसके विवर्त को ही देखते हैं, ३९ जबकि यह मिथ्या है, क्योंकि यह प्रतीति का विषय है और जो भी प्रतीति के विषय हैं, वे मिथ्या हैं, जैसे-'सीप' में 'चाँदी' का विवर्त । ___ जिस सृष्टि को मायामात्र कहकर ब्रह्माद्वैतवादी ‘ब्रह्म' को ही सत् मानकर अद्वैत सिद्ध करते हैं, वह 'माया' सत् है या असत्? अगर माया को सत् माने तो अद्वैत नहीं रहेगा आर असत् माने तो तीनों लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहें कि माया 'माया' (अनिवर्चनीय-असत्) होकर अर्थक्रिया करती है, तो उसी प्रकार विरोधाभास होगा जैसे यह कहना कि एक स्त्री मां होकर भी बांझ है।४९ जैन दर्शन समन्वय करता है:- जैन दर्शन का दृष्टिकोण आपेक्षिक रहा है । वह एकान्त से न भेद मानता है और न अभेद । उसकी मान्यता है-जो द्रव्य है वह गुण या पर्याय नहीं, और जो गुण या पर्याय है वह द्रव्य नहीं। गुण और गुणी से भेद न करें तो द्रव्य का लक्षण संभव नहीं है। द्वैत के अभाव में अद्वैत की सिद्धि संभव ही नहीं है। " ३८. यथा पयो पयोन्तरं जययति स्वयं च जीर्यतिः, यथा विषं विषांतरं शमयति स्वयं च साम्यति, यथा च कतकरजो रजोन्तराविले पयसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिंदत् स्ययमपि भिद्यमानमनावलिं पयः करोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति । - . ब्रह्मसू. शा.भा.भा. पृष्ठ ३२. ३९. सर्वं वै खल्विदं.....तत्पश्यति कश्चन-छान्दोग्य उ. १४ ४०. स्याद्वादमंजरी १३.११२. ४१. माया सती चेद्....वन्ध्या च भेवत् परेषाम् । - अन्ययो. १३. ४२. तेषामेव गुणानां तैः प्रदेशः विषिष्टा भिन्न.....-प्र.सा.त.प्र.१३० ४३. षट्खण्डागम, धवला टीका, ३.१.२.६३ . ४९ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन के अनुसार लक्षणरूप भेद होने पर भी वस्तुस्वरूप से गुण और गुणी अभिन्न हैं । ५ यद्यपि ये आपस में विशेषणविशेष्यभाव से संबन्धित हैं, फिर भी दोनों अभिन्न हैं । ६ द्रव्य में गुण-गुणी का भेद प्रादेशिक नहीं है, अपितु अतद्भाविक है ।" संज्ञा की अपेक्षा भेद अवश्य प्रतीत होता है, परन्तु सत्ता की अपेक्षा दोनों में अभेद है । ४८ कथंचित् भेदाभेद के कारण ही 'द्रव्य' इस संज्ञा की सिद्धि हो पाती है । ४९ गुण और द्रव्य परस्पर अविभक्त रूप से रहते हैं, अतः अभेद है तथा संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद है ।. जैनदर्शन में भेदाभेद की स्वीकृति से विरोधों की समाप्ति स्वतः ही हो जाती है । हमें वस्तु के स्वरूप को कथंचित् स्वीकार करना चाहिये । अद्वैत एकान्त को मानने से उसमें कारकों (कर्त्ता, कर्म, करण) का जो प्रत्यक्षसिद्ध भेद मानते हैं, उसमें विरोध आता है, क्योंकि एक वस्तु स्वयं अपने से उत्पन्न नहीं होती । ५° उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य में काल की भिन्नता एवं अभिन्नता: द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय - ध्रौव्य युक्त है । वस्तु के इन लक्षणों में काल की भिन्नता भिन्ना भी है और अभिन्नता भी । इन्हें द्रव्य से भिन्न भी कहा जा सकता है और अभिन्न भी, " क्योंकि जो सिकुड़ने का समय है वह फैलने का नहीं और एक अपेक्षा से सिकुड़ने के और फैलने के समय में भिन्नता भी नहीं ।" जिस ४४. अद्वैतं न बिना द्वैतादहेतुरिव.. . हेतुना. - आ.मी. २.२७. ४५. द्रव्यं च लक्ष्यलक्षण भावादिभ्य... भूतमेवेति मंतव्यम्. - पं. का. टी . ९. ४६. १.१.१४.२४२ (राजवार्तिक ?) ४७. प्र. सा.त. प्र.वृ. ९८. ४८. द्रव्यगुणानामध्यादेशवशात्..... मंतव्यम् - पं. का.टी. १३. ४९. कथंचिद् भेदाभेदोपपत्तेस्तद्व्यपदेशासिद्धिः ५.२.५.५२९ ५०. अद्वैतेकांत....स्वस्मात् प्रजायते. - आ.मी. २. २४ ५१. सन्मति तर्क ३.३६ ५२. जो आऊंचण कालो.... कालंतरणत्थि . - ५० स.त. ३.३६ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार तराजु के एक पलड़े का ऊपर जाना और दूसरे का नीचे आना एक साथ होता है, उसी प्रकार उत्पाद और व्यय भी एक काल में ही होते हैं । ५३ इस प्रकार 'द्रव्य एक ही क्षण में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है । ५४ पूर्व पर्याय के विनाश का क्षण ही उत्तरपर्याय के उत्पाद का क्षण है । अतः उत्पाद और विनाश समकालीन हैं। इस अपेक्षा से इनमें कालभेद हैं भी सही क्योंकि एक पर्याय की आदिकालीन सीमा और अंतिमकालीन सीमा भिन्नभिन्न हैं। जिस समय उत्पाद -विनाश रूप पर्याय परिवर्तन घटित होता है उस समय भी वस्तु सामान्यरूप से विद्यमान रहती है । जैसे अंगुली एक वस्तु है, वह जब सीधी (सरल) है तब टेढ़ी नहीं है और जब टेढ़ी है तब सीधी नहीं । अंगुली में टेढ़ापन पर्याय के उत्पाद और सरलता रूप पर्याय के विनाश का समय अलग-अलग नहीं है; यह हुई एक वस्तु रूप अंगुली में उत्पादविनाश रूप दो पर्यायों के एक साथ होने की व्याख्या । अब एक पर्याय वक्रता को लें तो उत्पाद - विनाश का कालभेद स्पष्ट हो जायेगा । अंगुली का टेढ़ापन मिटा और वह सरल बनी; यह अंगुली की सरलता का उत्पादकाल, अमुक समय तक सरल रहकर वक्र बनी; यह सरलता का विनाशकाल और सरलता से वक्रता तक की यात्रा के मध्य जो समय व्यतीत हुआ वह सरलता का स्थितिकाल बना । ५५ इसे और स्पष्ट करने के लिए सम्मति तर्क के सम्पादकीय में मकान का उदाहरण भी दिया गया है। जब मकान निर्माण की प्रक्रिया से गुजरता है, तब वह संपूर्ण मकान की अपेक्षा तो उत्पद्यमान (अधूरा) है, परन्तु उसके जितने भाग परिपूर्ण हो गये, उनकी अपेक्षा से उसे 'बन गया' कहेंगे और जो बनने बाकी हैं, उनकी अपेक्षा उसे कहेंगे कि 'बनेगा ।' ५६ उत्पन्न होते द्रव्य को कहेंगे 'हो गया', हो रहे को कहेंगे 'नष्ट हो गया' इस प्रकार कहकर द्रव्य को त्रिकालविषयी ५३. नाशोत्पादौ ...... तुलान्तयोः । उद्धृत - आ.मी. २२० पृ. मे ५४. सभवेदं खलु दव्वंसण्णिदट्ठेहिं - प्र. सा. १०२. ५५. सन्मतितर्क में संपादक युगल का विवेचन ३.३५.३७.२९५,९६. ५६. वही ३ स.त. ३.३७ ५१ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना देते हैं। यहाँ विवेचित एवं सिद्धसेन द्वारा निरूपित उत्पादादि में कालभिन्नता कार्य की पूर्णता की दृष्टि से है। प्रक्रिया की अपेक्षा से तो काल की अभिन्नता ही है। भारत में मुख्यरूप से तीन प्रकार की विचारधारा पायी जाती हैपरिणामवादी, संघातवादी, और आरम्भवादी। सांख्य वस्तु का मात्र रूपान्तर मानते हैं, अतः वे परिणामवादी हैं; बौद्ध स्थूल को भी सूक्ष्म द्रव्यों का समूहमात्र मानते हैं, अतः संघातवादी; और वैशेषिक अनेकों द्रव्यों के संयोग से अपूर्व नवीन वस्तु या द्रव्य की उत्पत्ति मानते हैं, अतः वे आरम्भवादी कहलाते हैं। . __ जैन दर्शन न आरम्भवादी, न संघातवादी और न ही परिणामवादी है, वह कथंचित् सभी को मानता है। सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं: सत् स्वयं अपने परिणमनशील स्वभाव के कारण परस्पर निमित्तनैमित्तिक बनकर प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री के अनुसार समस्त कार्य उत्पन्न होते हैं और पर्याय की अपेक्षा से विनष्ट भी। इनमें परस्पर कार्य-कारण भाव बनते हैं, फिर भी 'सत्' स्वतन्त्र और परिपूर्ण है। वह अपने गुण-पर्याय का स्वामी भी है और आधार भी। ___एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई नया परिणमन नहीं ला सकता। जैसी-जैसी सामग्री उपस्थित होती जाती है, कार्य-कारण नियम के अनुसार द्रव्य स्वयं वैसा वैसा परिणत होता जाता है । जिस समय प्रबल बाह्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती, उस समय द्रव्य स्वयं की प्रकृति के अनुसार सदृश या विसदृश परिणमन करती ही है। एक द्रव्य दूसरे में कोई नया गुणोत्पाद नहीं करता। सभी द्रव्य अपने अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं अर्थात् पर्याय परिवर्तन करते हैं । ५७ इसी तरह प्रत्येक द्रव्य अपनी परिपूर्ण अखंडता और व्यक्ति स्वातन्त्र्य की चरमनिष्ठा पर अपने-अपने परिणमन चक्र का स्वामी है। कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य ५७. समयसार ३७२ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का नियन्त्रक नहीं है । प्रत्येक सत् का अपने ही गुण और पर्याय पर अधिकार है । I सभी द्रव्य स्वभाव में रहते हुए स्वद्रव्य का ही कार्य करते हैं; कोई द्रव्य अन्य द्रव्य का कार्य नहीं करता । ५८ जो 'गुण जिस द्रव्य में होते हैं वे उसी द्रव्य में रहते हैं, अन्यत्र संक्रमण नहीं करते । गुण- पर्याय अपने ही द्रव्य में रहते है ।" सत् स्वलक्षण वाला स्वसहाय एवं निर्विकल्प होता है । ६० सभी प्रकार के संकर व शून्य दोषों से रहित संपूर्णवस्तु सद्भूत व्यवहारनय से अणु की तरह अनन्यशरण है, ऐसा ज्ञान होता है । द्रव्यों की संख्या छह है। उन छहों द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता। यद्यपि वे परस्पर में मिले हुए रहते हैं। एक दूसरे में प्रवेश भी करते हैं तथा एक ही क्षेत्र में रहते हैं । ६२ प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है । दो द्रव्य मिलाकर एक पर्याय नहीं बनाते और न दो द्रव्यों की एक पर्याय बनती है । द्रव्य अनेक हैं और अनेक ही रहते हैं । ६३ द्रव्य स्वयं ही कर्ता, कर्म, और क्रिया- तीनों है । द्रव्य पर्यायमय बनकर परिणमन करता है। जो परिणमन हुआ वही द्रव्य का कर्म है और परिणति ही क्रिया है, अर्थात् द्रव्य ही कर्ता है, क्रिया तथा कर्म का स्वामी भी वही है । ६५ कर्ता, क्रिया, और कर्म, भिन्न प्रतीत अवश्य होते हैं, परन्तु इनकी सत्ता भिन्न नहीं है। स्वयं की पर्याय का स्वामी स्वयं है । ६६‍ ५८. सर्वभाव निज भाव निहारे पर कारज को कोयन धारे। - द्रव्यप्रकाश १०९. ५९. जो जम्हि गुणे दव्वे.... परिणामए दव्वं । 1 अमृतचंद्राचार्य कृत टीका । ६०. तत्त्वं सल्लक्षणिकं - स्वसहायं निर्विकल्पं -च.प.ध.पू. ८.५२८ ६१. अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा । अणुरिव वस्तु समस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणम् । स.मा. १०३. विस्तार के लिये इसी की वहीं प.ध.पू. ५२८ ६२. अवरोप्परं विमिस्स.... . परसहावे गच्छंति - न.च.वृ. ७ ६३. “नोभौ परिणामतः.....मनेकमेव सदा ।” ६४. वही ५१ ६५. वही ५२ ६६. अप्पा अप्पु जिपरू जि, परु अप्पा परु जिण होई । परुणि कयाइ वि अप्पू णियमें पमणेहि जोई। - परमात्म प्रकाश १.६७ ५३ अध्यात्म अमृत कलश ५३. For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भेदविज्ञान की भाषा में वेत्ता की निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही है । परद्रव्य आत्मा नहीं होता और आत्मा पर द्रव्य नहीं होता।६७ .. समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं । वे कभी अन्य पदार्थों से अन्यथा नहीं किये जा सकते । एवंभूतनय की दृष्टि से देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं। इनमें आधार आधेयभाव नहीं है। व्यवहार नय से ही परस्पर आधारआधेय भाव की कल्पना होती है। जैसे वायु का आधार आकाश, जल का वायु और पृथ्वी का आधार जल माना जाता है।६८ सत् सप्रतिपक्ष है:___जैन दर्शन सत् का स्वरूप विरोधी युगल से प्रतिपादित करता है । सत् की सत्ता परिवर्तन के साथ ही शाश्वत है। न तो सर्वथा सत् है आर न सर्वथा असत्, अपितु कथंचित् सत् भी है असत् भी। प्रतिपक्ष(असत्) के अभाव में सत् की व्याख्या संभव नहीं है । सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थस्थित सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सप्रतिपक्ष है।६९ वस्तु कथंचित् ही असत् है, सर्वथा नहीं। इसी प्रकार अपेक्षाभेद से वस्तु उभयात्मक और अवाच्य है, नय की अपेक्षा से ही वस्तु सत् आदि रूप है; सर्वथा नहीं। नय का विवेचन इसी प्रकरण में आगे के पृष्ठों में किया गया है । जैन दर्शन वस्तु को अपेक्षा से ही प्रतिपादित करता है। वक्ता जिस दृष्टि से वस्तु के स्वरूप को कहना चाहता है उसी दृष्टि से उस वस्तु का विचार किया जाता है । वक्ता के अभिप्राय के विरुद्ध यदि एक ही दृष्टिकोण से वस्तु का विचार किया जाये तो अव्यवस्था निश्चित् है। जैन दर्शन में वस्तु का एकान्तिक रूप मिथ्या है। अतः समस्त वस्तुओं का अनेकान्तात्मक रूप से ही प्रमाण का विषय मानना चाहिये।" ६७. सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिताः १ न शक्यतेन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन । -प.ध.पू. ४६१। ६८. रा.वा.५.१२.४५४ ६९. पंचास्तिकाय८. एवं सभाष्य तत्त्वार्था पृ. २८२ ७०. कथंचित् ते न सर्वथा। - आ.मी. १.१४ ७१. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ५७.३६३. For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु सदसदात्मक है: स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव की अपेक्षा सब पदार्थ सत् हैं और पररूपादि (परद्रव्य, परकाल एवं परभाव) की अपेक्षा सभी पदार्थ असत् हैं । ७२ चाहे चेतन हो या अचेतन, इस नियम का कोई भी अपवाद नहीं है । अगर इस नियम को अस्वीकृत कर दिया जाये तो या तो सार संसार शून्य हो जायेगा या द्रव्य की सत्ता का कोई नियम नहीं रहेगा । वस्तु में वाच्यावाच्यत्व है: एक ही वस्तु में अनन्त धर्म पाये जाते हैं। इन अनन्त धर्मों में से जिस धर्म का प्रतिपादन किया जाये वह मुख्य और अन्य धर्म गौण कहे जाते हैं, ये ही शास्त्रीय भाषा में क्रमशः अर्पित और अनर्पित भी कहे जाते हैं । ७३ जब क्रम से स्वरूपादि चतुष्टयी की अपेक्षा से सत् तथा पररूपादि चतुष्टयी की अपेक्षा से असत् अर्पित होते हैं उस समय वस्तु कथंचित् उभयात्मक .(सदसदात्मक) होती है और जब कोई स्वरूपादि चतुष्टय तथा पररूपादि चतुष्टय के द्वारा वस्तु के सत्वादि धर्मों का एक साथ प्रतिपादन करना चाहता है तो ऐसा कोई शब्द नहीं मिलता जो एक ही शब्द में दोनों धर्मों का प्रतिपादन कर सकेऐसी अवस्था में वस्तु अवाच्य है । ७४ वस्तु में अस्तित्व - नास्तित्व है: ·1 अस्तित्व और नास्तित्व, ये आपस में अविनाभावी हैं । अस्तित्व के अभाव स्तित्व नहीं हैं और नास्तित्व के अभाव में अस्तित्व नहीं है । अविनाभाव अर्थात् एक संबन्ध, जो उन दो पदार्थों में पाया जाता है जिनमें से एक पदार्थ के • बिना दूसरा न रह सके । एक ही वस्तु में रहने वाला अस्तित्व विशेषण होने से प्रतिषेध्य (नास्तित्व) का अविनाभावी है, जैसे हेतु में विशेषण होने से साधर्म्य वैधर्म्य का अविनाभावी ७२. सदेवं सर्वं को व्यवतिष्ठते । आ.मी. १.१५ - ७३. अर्पितानर्पितसिद्धेः त. सू. । ५.३२ एवं स. सि. ५.३२.५८८ ७४. क्रमार्पिताद्वयाद्... शाक्तितः । आ.मी. १.१६ ५५ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है।७५ ___अन्वय को साधर्म्य और व्यतिरेक को वैधर्म्य कहते हैं । हेतु के होने पर साध्य का होना अन्यव है। हेतु के अभाव में साध्य का नहीं होना व्यतिरेक है। पर्वत में अग्नि है, धूम होने से।' यहाँ धूम हेतु है और अग्नि साध्य है, जहाँ वह्नि नहीं होती वहाँ धुंआ भी नहीं होता, यह व्यतिरेक है। ___ यद्यपि न्याय दर्शन कुछ हेतुओं को केवल अन्वयी और कुछ हेतुओं को केवल व्यतिरेकी मानता है, पर जैन न्याय के अनुसार सूक्ष्मता से देखा जाये तो कोई भी हेतु न केवल अन्वयी होता है और न केवल व्यतिरेकी। ___ बौद्ध तत्त्व (स्वलक्षण) को सर्वथा अवाच्य मानते हैं। उसमें विधि निषेध रूप व्यवहार सर्वथा संवृति (कल्पना) से होता है। वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है: द्रव्य एक भी है और अनेक भी। सामान्य की अपेक्षा एक है और विशेष की अपेक्षा अनेक हैं । सामान्य सत्ता सभी पदार्थों में समान रूप से रहती है। विशेष सत्ता सभी पदार्थों की भिन्न-भिन्न है। घट की सत्ता से पट की सत्ता भिन्न है। इस सामान्य सत्ता और विशेष सत्ता को तो ‘पदार्थ की आत्मा' तक कह दिया गया हेमचन्द्राचार्य ने भी इसी मान्यता की पुष्टि की है कि “समस्त पदार्थ सामान्य की अपेक्षा अनेक होकर भी एक हैं और एक होकर भी विशेष की अपेक्षा अनेक अद्वैतवादी, मीमांसक और सांख्य सामान्य को सत् रूप में स्वीकार करते हैं, बौद्ध विशेष को ही सत् मानते हैं, न्याय-वैशेषिक सामान्य और विशेष को निरपेक्ष और भिन्न-भिन्न मानते हैं। ७८ ७५. "अस्तित्वं......भेदाविवक्षया"-आ.मी. १.१७ ७६. सामान्यविशेषात्मा तदर्थों विषयः ।-परीक्षामुख ४.१ ७७. अन्ययो. व्य. १४ एवं आ. मी. २.३४ ७८. स्याद्वामंजरी १४.१२० For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु जैन दर्शन सामान्य-विशेषात्मक सत्ता युक्त को ही सत् मानता है । उसका स्पष्ट कथन है कि विशेष रहित सामान्य खरगोश के सींग के समान है और सामान्य रहित विशेष भी इसी प्रकार से असत् है । ७९ चन्द्राचार्य ने भी अपने ग्रन्थ में एकान्त सामान्य विशेष का खंडन करते हुए कहा कि जो अलग-अलग दिखने वाली पाँच अँगुलियों में केवल सामान्य रूप को देखता है वह पुरुष अपने सिर पर सींग ही देखता है । अतः विशेष को छोड़कर मात्रपदार्थों में सामान्य का ज्ञान होना असंभव है। बौद्ध सामान्य और स्वलक्षण में भेद मानते हैं । उनके अनुसार स्वलक्षण का कार्य अर्थक्रिया करना है, सामान्य कोई अर्थक्रिया नहीं करता । स्वलक्षण परमार्थसत् है और सामान्य संवृत्तसत् अर्थात् काल्पनिक है । " जैन दर्शन वस्तुको विरोधी युगल से सिद्ध करता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार “विरोधी धर्मों का अविरुद्ध सद्भाव प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वस्तु में विरोधी धर्म का होना वस्तु को भी रुचिकर है, हम उनका निषेध नहीं कर सकते । १ ८२. सामान्य और विशेष को निरपेक्ष या अभिन्न मानना प्रमाणाभास हो सकता है, प्रमाण नहीं ॥३ हम सामान्य को शाश्वत और विशेष को अशाश्वत भी कह सकते हैं, क्योंकि आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि सामान्य की अपेक्षा वस्तु न उत्पन्न होती है और न नष्ट, परन्तु विशेष की अपेक्षा उत्पन्न भी होती है और नष्ट भी । ४ वस्तु (सद्) का अर्थक्रियाकारी होना तभी संभव है जब उसमें विरोधी धर्मों का युगपत् अस्तित्व हो । विधि और निषेध रूप उभयधर्मों की एक साथ उपलब्धि ७९. निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत. - मी. लो. आकृ. श्लो. १०. ८०. एतासु पंचस्ववभासनीषु ईक्षते स. अशोकविरचित सामान्य द्रषणदिक्गन्थे उद्धृतेयम् स्याद्वाद. २४.९२२ ८९. यदेव अर्थक्रियाकारि.... स्वासामान्यलक्षणे । - प्रमाण वा २.३ ८२. विरुद्ध मपि संसिद्धं तत्र के वयम् - अष्टस. पृ. २९२ ८३. प्रमाण नयतत्वा. ६.८६.८७ ८४. न सामान्यत्मनो....दयापि सत् । - आ.मी. ९.५७ ५७ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही अर्थक्रिया पायी जाती है जैसे बहिरंग और अन्तरंग कारणों से ही कार्य की निष्पत्ति होती है, इनके बिना नहीं।८५ इस प्रकार जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार समस्त वस्तुओं में प्रतिपक्षी (विरोधी) धर्म पाया जाता है।६ लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है, इसका समर्थन ठाणांग भी करता है। ... अनन्तधर्मात्मक वस्तु ही कार्य कर सकती है, इसकी पुष्टि स्वामी कार्तिकेय भी करते हैं। जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है वही नियम से कार्यकारी होती है। एकान्तरूप द्रव्य कार्यक्षम नहीं हो सकता; और जो कार्यक्षम नहीं होता उसे द्रव्य नहीं कह सकते, क्योंकि परिणमन रहित नित्य द्रव्य न विनाश को प्राप्त होता है और न उत्पाद को, फिर वह कार्य कैसे करता है, और जो क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त होता है वह भी अन्वयी द्रव्य से रहित होने के कारण कार्यकारी नहीं हो सकता। नय का स्वरूप और उसकी व्याख्या:- . .. जब तक हम नयवाद की चर्चा नहीं करेंगे, हमारा विवेचन अधूरा रहेगा। संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति के दो आधार माने गये हैं- प्रमाण और नय । अनेकधर्मात्मक वस्तु को अखंड रूप से ग्रहण करना प्रमाण है। इसे सकलादेश भी कहते हैं।' नय वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करता है, साथ ही दूसरे नय की विवक्षा रखता है। दुर्नय एक धर्म को ग्रहण करके अन्य धर्मों का निराकरण करता है।९१ ८५. एवं विधिनिषेधा....रुपाधिभिः - आ.मी. १.२१ ८६. एवं सप्रतिपक्षे सर्वस्मिन्नेव वस्तुत्वेस्मिन् । उद्धृतेयं स्याद्वादरत्नाकर ५.८८.३४ ८७. ठाणं २.१ . ८८. जं वत्थु अणेयंत....दीसए लोए “एयतं पुण दव्वं केरिस दव" विहीणं.... कहं कुणइपजयभित्तं तच्चं..... किंपि साहदि। - क्रा.प्रे. २२५.२८ ८९. प्रमाणनयैरधिगमः।- त.सू. १.६ ९०. तथा चोक्तं सकामोदेशः प्रमाणाधीनः । - स. सि. १.६ ९१. अनेकस्यानेकरूपा, धी. प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः । अष्टशती में उद्धृत पृ. ३५ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा - अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना, हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता के प्राप्त कराने समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं । ९२ यहाँ यह भी प्रश्न हो सकता है कि वस्तु तो अनन्तधर्मात्मक है, तब उसके एक अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कैसे कहते हैं । इसका समाधान यही है कि नय के अभाव में स्याद्वाद की व्याख्या संभव नहीं है। जो एकान्तवाद या आग्रह से अपनी मुक्ति चाहता है उसे नय को जानना अत्यन्त आवश्यक है । १३ अनेकान्त की सिद्धि में नय की वही भूमिका है जो सम्यक्त्व में श्रद्धा की, गुणों में तप की और ध्यान में एकाग्रता की है । १४ नय को विकलादेश भी कहते यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि नय प्रमाणभूत है या अप्रमाणभूत । इसका समाधान हाँ में भी नहीं दिया जा सकता और ना में भी नहीं। जैसे घड़े में भरे समुद्र के जल को न समुद्र कहा जाता है न असमुद्र ।" जैसे घडे का जल समुद्रैकदेश है समुद्र नहीं, वैसे ही नय प्रमाणैकदेश हैं अप्रमाण नहीं । अन्तर इतना है कि प्रमाण में पूर्ण वस्तु का ग्रहण होता है और नय में वस्तु के किसी एक पक्ष का पूर्व में हम इन्हीं प्रमाणैकदेश भूत नयों के द्वारा वस्तु में सप्रतिपक्षत्व, त्राच्यावाच्यत्व आदि धर्मों का प्रतिपादन कर आये हैं । यहाँ इन वस्तुधर्मों को अन्य भारतीय दर्शनों में किसने और किस स्वरूप में स्वीकार किया है, इसका अंगुलनिर्देश निम्न अनुच्छेदों में किया जा रहा है। ९२. स. सि. १३३.२४१ ९३. नयचक्र १७५ ९४. नयकचक्र १७६ ९५. स. सि. १.६.२४ ९६. नायं वस्तु..... यथोच्यते, तत्त्वार्थश्लोक १.६ ५९ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न वस्तुधर्मो के विषय में दार्शनिक तुलना : सद्-असद् : जैन दर्शन तो वस्तु को सदसदात्मक मानता ही है, परन्तु वैशेषिक दर्शन में भी महर्षि कणाद ने अन्योन्याभाव के निरूपण में वस्तु को उभयरूप ही स्वीकार किया है । ७ ९७ गौतम ऋषि के न्यायसूत्र की वैदिक वृत्ति में 'कर्म से उत्पन्न होने वाला फल • उत्पत्ति से पूर्व सत् है अथवा असत्' ? इस प्रश्न के उत्तर में "उत्पाद व्यय दर्शनात्” ( ४.१.४९ न्यायसूत्र . ) इस सूत्र की टीका में हूबहू जैन दर्शन के समान ही वस्तु की सदसादात्मकता प्रतिपादित की गयी है। भेद - अभेद: वेदान्त दर्शन ने भी भेदाभेद को स्वीकार किया है । व्यास रचित ब्रह्मसूत्र पर भास्कराचार्य ने अपने भाष्य में "शब्दान्तराच्च” (२.१.१८) सूत्र पर स्वीकार किया है कि वस्तु में अत्यन्त भेद स्वीकार नहीं किया जा सकता । १९ अद्वैतः - अभिन्नवाद में भी भेदाभेद की चर्चा उपलब्ध होती है । विद्यारण्य स्वामी कार्यकारण सिद्धान्त पर चर्चा करते हुए करते हुए अपने ग्रन्थ में लिखते हैं'घड़ा मिट्टी से न तो एकान्त रूप से भिन्न हैं और न अभिन्न । १०० सामान्य- विशेष: कुमारलि भट्ट ने अपने ग्रन्थ में वस्तु के स्वरूप को स्पष्टतः सामान्यविशेषात्मक स्वीकार किया है । १०१ ९७. सच्चासत् । यच्चान्यदसदतस्तदसत् - वैशेषिक द.अ. ९ आ. १ सू. ४.५ उद्धृत चंपाबाई अभि. ग्रं. २५० ९८. वैदिकी वृत्ति: उद्धृत वही ९९. वही पृ. २५१. १००. स घटो ना मृदो.... मनविक्षणात् । वही १०१. वही पृ. २५१.५२. ६० For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि भिन्न-भिन्न दर्शनों में उपरोक्त विरोधी युगलों का प्रतिपादन उपलब्ध होता है, परन्तु जिस प्रकार का तर्कयुक्त और स्पष्ट प्रतिपादन जैन दर्शन में है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । इतर दर्शनों में सप्रतिपक्ष वस्तु का विवेचन अपवाद रूप में ही उपलब्ध होता है। यद्यपि नय में वस्तु के एक ही अंश को ग्रहण किया जाता है, फिर भी अन्य सभी धर्मों की अपेक्षा रहती है । प्रमाण 'तत्' और 'अतत्' - सभी को जानता है, नय में केवल 'तत्' की प्रतीति होती है । १०२ सापेक्षता नय का प्राण है । जो परपक्ष का निषेध करके अपने ही पक्ष में आग्रह रखते हैं, वे सारे मिथ्या हैं । १०३ जब वे परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यग् होते हैं, जैसे मणियाँ जब तक धागे में पिरोई नहीं जाती तब तक माला नहीं बनती । १०४. चूँकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनके धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त हैं, और उन अनन्त अभिप्रायों के कारण नय भी अनन्त हैं, १०५ फिर भी इन्हें मुख्यरूप से दो भागों में बाँटा गया है । वस्तु स्वरूपतः अभेद है और अपने में मौलिक है, परन्तु गुण और पर्याय के • धर्मों द्वारा अनेक है । अभेदग्राही दृष्टि द्रव्यार्थिक नय और भेदग्राही दृष्टि पर्यायार्थिक 1 नय कहलाती है । १०६ स्वामी कार्तिकेय ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है - युक्ति के बल से जो पर्यायों को कहता है वह पर्यायार्थिक १०७ और जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को कहता है वह द्रव्यार्थिक नय है । १०८ नयों की अपेक्षा से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार निक्षेपों का १०२. धर्मांतरादान्योपेक्षां तदन्यानिराकृतेश्च - अष्ट. पृ. २९०. १०३. निरपेक्षा... नर्थकृत. - आ. मी. १०४. जहणेय लक्खणगुणा.... विसेसण्णाओ । - स.त. १.२२.२५ १०५. जावइया वयणपट्टा..... वयवाया । - स. त. ३.४७ १०६. दव्वठ्ठियवत्तत्त्वं.. .... पज्जव्व वन्तव्वभग्योय - स. त. १.२९ १०७. का. प्रे. १०.२७० १०८. वही १०.२६९ ६१ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग इस प्रकार होता है- पर्यायार्थिक नय मात्र भावनिक्षेप को तथा द्रव्यार्थिक नय अवशिष्ट तीनों को ग्रहण करता है ।१०९ . . .... दोनों नय मिलकर ही सत् के लक्षण ग्रहण करते हैं, क्योंकि सत् का लक्षण सामान्य और विशेष दोनों से मिलकर बनता है ।११० द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अवस्तु है और पर्यायार्थिक नय का वक्तव्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अवस्तु है। क्योंकि द्रव्यार्थिक नय मात्र सामान्य को ही देखता है और पर्यायार्थिक नय मात्र विशेष को ही देखता है ।१११ ___ अगर एक ही नय से समस्त वस्तु धर्मों को ग्रहण करें तो सत् में परिणमन संभव नहीं हैं क्योंकि यदि मात्र द्रव्यार्थिक नय को स्वीकार करें तब तो संसार में परिवर्तन संभव ही नहीं, क्योंकि यह नय मात्र शाश्वत की अपेक्षा कथन करता है। और इसी प्रकार, मात्र पर्यायार्थिक नय में भी संसार संभव नहीं, क्योंकि यह मात्र अशाश्वत धर्मों की अपेक्षा कथन करता है ।११२ सुख-दुःख की कल्पना नित्यानित्य पक्ष में ही संभव है।१९३ पुद्गलों का योग होने से कर्मबन्ध होता है और कषाय के कारण बंधे हुए कर्मों की स्थिति का निर्माण होता है। एकान्त रूप से क्षणिक या शाश्वत बन्ध स्थिति का निर्माण असंभव है ।११४ बन्ध और स्थिति के अभाव में न तो संसार में भय की प्रचुरता होगी और न मुक्ति की आकांक्षा ।११५ - आध्यात्मिक दृष्टि से भी निश्चयनय और व्यवहारनय की ही मान्यता है ।११६ १०९. स. सि. १.२४.११६ ११०. एए पुण संगहओ....मूलणया- स.त. १.१३ १११. स.त. १.११ ११२. स.त. १.१७ ११३. स.त. १.१८ ११४. कम्म जोगानिपित्तं....बंधट्ठिइकारणंणत्थि- स.त. १.१९ ११५. बंधम्मि अपूरते.....णत्थि मोक्खोय । - स.त. १.२० ११६. नयसागर गा. १८३ - For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चयनय को भूतार्थ अर्थात् वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ग्राहक और व्यवहारनय को अभूतार्थ वस्तु के अशुद्धस्वरूप का विवेचक कहा बद्रव्यों का विभाजन: जैनदर्शन ने द्रव्यों की संख्या छह स्वीकार की है। उन छः द्रव्यों के विभिन्न विभाजन हैं, वे यहाँ (अपेक्षा से) प्रस्तुत हैं। चेतन-अचेतन की अपेक्षाः द्रव्य दो हैं जीव और अजीव । चेतना और उपयोग जीव के लक्षण हैं इनके विपरीत लक्षणों वाला अजीव है ।११८ मूर्त-अमूर्त की अपेक्षा: आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं, पुद्गल द्रव्य मूर्त है ।१९९ क्रियावान और भाववान की अपेक्षाः.. धर्म, अधर्म, काल और आकाश निष्क्रिय हैं, पुद्गल और जीव सक्रिय है। यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है ।१२० प्रवचनसार के अनुसार 'पुद्गल' और 'जीव' भाव वाले और क्रिया वाले होते हैं, क्योंकि परिणाम, संघात और भेद के द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्राप्त करते हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल मात्र भाववान् हैं, क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है। भाव का लक्षण परिणाम मात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदन । १२१ एक और अनेक की अपेक्षाः धर्म, अधर्म और आकाश-द्रव्य की अपेक्षा एक ही हैं, जीव और पुद्गल ११७. ववहारो मुदत्थो....हवदि जीवो-स.सा. ११. ११८. प्रवचनसार १२७, पं. का. १२४ ११९. पं. का. ९७ १२०. अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां.....सक्रियत्वमर्यादापन्नम्-स.सि.५.७.२७३. १२१. क्रियाभाववत्वेन..... क्रियावंतश्च भवन्ति ।- प्र.सा.त.प्र. १२९ . ६३ For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक हैं।१२२ वसुनन्दि ने जीव और पुद्गल की तरह व्यवहार काल को भी अनेक रूप माना है ।१२३ परिणामी और नित्य की अपेक्षाः स्वभाव तथा विभाव परिणामों से जीव तथा पुद्गल परिणामी हैं, शेष चार द्रव्य विभावव्यञ्जन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं । १२४ सप्रदेशी और अप्रदेशी की अपेक्षाः लोकप्रमाण मात्र असंख्यप्रदेशयुक्त जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सप्रदेशी हैं, काल अप्रदेशी है, क्योंकि उसमें कायत्व नहीं है ।१२५ . इन धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव को प्रदेशों के समूहयुक्त होने के कारण ही अस्तिकाय कहते हैं। काल में प्रदेशों का अभाव है, अतः नास्तिकाय है ।२६ इसे अप्रदेशी भी कहते हैं। क्षेत्रवान् एवं अक्षेत्रवान् की अपेक्षाः ___ सभी द्रव्यों को अवकाश देने के कारण मात्र आकाश ही क्षेत्रवान् है, अन्य पाँचों अक्षेत्रवान् हैं । १२० सर्वगत एवं असर्वगत की अपेक्षाः___ लोक और अलोक में व्याप्त होने की अपेक्षा से आकाश को सर्वगत कहा जाता है । लोकाकाश में व्याप्त होने के कारण धर्म और अधर्म भी सर्वगत हैं । एक जीव की अपेक्षा से जीव असर्वगत है, परन्तु लोकपूरण समुद्घात की अवस्था में एक जीव की अपेक्षा से सर्वगत है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा तो सर्वगत होता ही है। पुद्गलद्रव्य लोकव्यापक महास्कंध की अपेक्षा से सर्वगत है ही, शेष पुद्गलो की अपेक्षा से असर्वगत है । कालद्रव्य भी एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा से १२२. धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च.....मेकद्रव्यत्वम् । - रा.वा. ५.६.६.४४५ १२३. धम्माधम्मागासा.... ववहारकालपुग्गलजीवा हु. अणेयरुवति - वसु. श्रा. ३० १२४. बृ.द.स. अधिकार प्रथम की चूलिका द्वय १२५. बृ.द.स. अधिकार की चूलिका १.२ १२६. पं. का. टी. २२ बृहद् द्र.स. १ की चूलिका १.२ १२७. बृ.द्र.स. अधिकार १ की चूलिका १.२ ६४ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वगत नहीं है। लोकाकाश के प्रदेश के बराबर भिन्न-भिन्न कालाणुओं की विवक्षा से कालद्रव्य लोक में सर्वगत है । १२८ कारण और अकारण की अपेक्षा: -- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल व्यवहार नय से जीब के शरीर, वाणी, मन, प्राण, उच्छ्वास, गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य करते . हैं, अतः कारण है। जीव-जीव का तो गुरु-शिष्य रूप में उपकार करते हैं, परन्तु अन्य पाँचों द्रव्यों का कुछ भी नहीं करते, अतः अकारण है । १२९ कर्ता और भोक्ता की अपेक्षा: शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव यद्यपि बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-भावरूप पुण्य-पाप और घट-पटादि का अकर्ता है तो भी अशुद्ध निश्चय से शुभ और अशुभ के उपयोग में परिणमित होकर पुण्य-पाप का कर्ता और उनके फल का भोक्ता बनता है। विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावी शुद्ध आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और अनुष्ठान रूप शुद्धोपयोग से परिणमित होकर मोक्ष का भी कर्ता और उसका भोक्ता बनता है । अवशिष्ट पाँचों का अपने-अपने परिणाम से जो परिणमन है वही कर्तृत्व है, पुण्य पाप की अपेक्षा तो अकर्तृत्व ही है । १३० उपादान और निमित्त कारण की अपेक्षा: कार्य की उत्पत्ति में उपादान और निमित्त का क्या स्वरूप है, इस संबंध में चर्चा किये बिना द्रव्य के स्वरूप को समझने में अपूर्णता ही रहेगी। जैसे घट में, घट का उपादान कारण मिट्टी है और निमित्त कारण कुम्हार है । जो द्रव्य तीनों कालों में अपने रूप का कथंचित् त्याग और कथंचित् त्याग न करता हुआ पूर्वरूप से और अपूर्वरूप से विद्यमान रहता है वही उपादान कारण होता है । १३१ द्रव्य का न सामान्य (शाश्वत) अंश और न विशेष (क्षणिक) अंश उपादान होता है, परन्तु कथंचित् अशाश्वत और कथंचित् शाश्वत ही द्रव्य का उपादान १२८. वही १२९. वही १३०. बृहद् द्रव्य संग्रह के प्रथम अधिकार की चूलिका १३१. त्याक्तात्यक्तात्मकरूपं उपादानमिति स्मृतम् अष्टम्. पृ. १० में उद्धृत *****. ६५ For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण हो सकता है । १३२ उपादान में कारणकार्यभाव विद्यमान रहता है। इसे स्वामी कार्तिकेय ने स्पष्ट किया है कि पूर्वपरिणाम से युक्त द्रव्य कारणरूप से प्रवर्तित होता है और उत्तरपरिणाम से युक्त वही द्रव्य नियम से कार्य होता है । १३३ - स्वामी विद्यानन्द के अनुसार उपादान का पूर्व आकृति से विनाश कार्य का उत्पाद है, क्योंकि ये दोनों एक हेतु से हैं, ऐसा नियम है ।१३४ स्वामी पूज्यपाद के अनुसार जिस प्रकार गति क्रिया का निमित्त धर्मास्तिकाय है उसी प्रकार अन्य सब बाह्य पदार्थ निमित्त मात्र होते हैं। कोई अज्ञ विज्ञता को प्राप्त नहीं होता और विज्ञ अज्ञता को प्राप्त नहीं करता, मात्र उपादान की योग्यता के अनुसार बाह्य निमित्त सहायक होते हैं। कार्तिकेय ने भी इसी मान्यता का समर्थन किया है। सभी द्रव्य अपने-अपने परिणमन के उपादान (मुख्य) कारण हैं, अन्य बाह्य द्रव्य तो मात्र निमित्त हैं। प्रत्येक सत् या द्रव्य पूर्वपर्याय को छोड़कर प्रतिक्षण उत्तरपर्याय को धारण करता है। यह परिवर्तन सदृश या विसदृश, दोनों प्रकार का होता है । धर्म, अधर्म, आकाश, काल और शुद्ध जीव द्रव्य के परिणमन सदा एक से होते हैं। इनमें वैभाविक शक्ति नहीं है। शुद्ध जीव में स्वाभाविक शक्ति का सदा स्वाभाविक परिणमन होता है। इस पर निमित्त का कोई प्रभाव नहीं होता। ___ संसारी जीव और पुद्गल में वैभाविक शक्ति है। जिस-जिस प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है वैसे ही ये बदलते जाते हैं । यद्यपि सर्वथा असद्भूत परिवर्तन लाने की क्षमता नैमित्तिक कारण में नहीं है, जैसे लाख प्रयत्न करने पर भी पत्थर से तैल नहीं मिलता। परिणाम का अर्थ भी यही है । १३५ ---- ---- १३२. यत् स्वरूपं.... शाश्वतं यथा तं । जैन त. मी. में पृ. ४७ में उद्धृत १३३. पुव्वपरिणामजुतं....णियमा-का. प्रे. २३०. १३४. जैन त. मी. पृ. ४९ पर उद्धृत । “नाज्ञोविज्ञत्वमायाति.......धर्मास्तिकायवत् ।” इष्टापदेश ३५. १३५. तद्भावः परिणामः- त.सू. ५.४२ ६६ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : तृतीय जैन दर्शन के अनुसार आत्मा आत्मा शब्द का अर्थ: 'आत्मा' शब्द का मूल रूप आत्मन् है। ‘आत्मन्' शब्द की व्युत्पत्ति है 'अतति-गच्छति-जानाति इति आत्मा' । अत् सातत्य गमने धातुः' अर्थात् 'अत्' धातु सतत् गमन के अर्थ में है। यहाँ गमन का अर्थ ज्ञान है । अर्थात् जो सतत जानता है; एक भी क्षण अज्ञानी नहीं होता, वह आत्मा है। जो शुभ, अशुभ रूप कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापार यथासंभव तीव्र, मंद आदि रूपो में होते हैं, वे सभी ज्ञान गुण के कारण ही सम्भव होते हैं। ज्ञानादिगुण आत्मा द्रव्य के आश्रयी हैं । अतः उपर्युक्त व्युत्पत्ति सार्थक है। 'आत्मा' शब्द के बारे में एक तथ्य यहाँ स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि संस्कृत में 'आत्मन्' शब्द पुंल्लिंग है, जबकि हिन्दी में यह प्रायः स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है । यह लिंगव्यवस्था शब्द के साथ है, आत्मतत्त्व न तो पुंल्लिंग है और न ही स्त्रीलिंग, वह तो अलिंग है। जैन साहित्य में कुछ ऐसे प्रयोग अन्य शब्दों के साथ भी हैं, जैसे-कषाय, पर्याय ये दोनों शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी में 'आँख' शब्द का स्त्रीलिंग में प्रयोग किया जाता है। . 'जैन दर्शन ने आत्मा के जिस स्वरूप का प्रतिपादन शताब्दियों पूर्व किया था, अद्यपर्यंत वही स्वरूप उसी रूप से स्थापित है। उत्तरवर्ती तार्किकप्रतिभासंपन्न दार्शनिक आचार्यों ने उस स्वरूप को अपनी प्रखर तर्क शैली से सिद्ध किया, परंतु उस स्वरूप में सामान्य परिवर्तन भी नहीं आने दिया। _ 'आत्मवाद या आत्मा भारतीय दर्शन की आत्मा ही है' - ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि भारतीय दार्शनिकों के संपूर्ण चिंतन का केन्दबिन्दु आत्मा ही रहा है; और सारा दर्शन इसी के इर्द-गिर्द घूमता-सा प्रतीत होता है। ६७ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आत्मवाद' शब्द का प्रयोग हमें अति-प्राचीन जैन दर्शन के प्रथम अंग के रूप में स्थापित ‘आचारांग' में भी उपलब्ध होता है। आगे इसी में "आत्मा को विज्ञाता और विज्ञाता को ही आत्मा कहा है। ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश (व्यवहार) होता है। इस सूत्र के द्वारा आत्मा की दो परिभाषाएँ स्पष्ट हुईं-प्रथम परिभाषा द्रव्याश्रित और द्वितीय गुणाश्रित है। चेतन(आत्मा) द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है। चेतन प्रत्यक्ष नहीं होता, परन्तु चैतन्य प्रत्यक्ष होता है। .. यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं तब ज्ञेय भेद से अनेकरूप परिणत हुए ज्ञान की तरह आत्मा भी अनेकरूप हो जायेगी? इस प्रश्न का समाधान भगवती' में उपलब्ध होता है । घट, पट, रथ, अश्व आदि ज्ञेयों में परिणत ज्ञान के आधार पर एक ही आत्मा को घटज्ञानी, पटज्ञानी, रथज्ञानी, अश्वज्ञानी आदि कहा जाता है। आत्मा जिस समय ज्ञान के जिस परिणमन से परिणत होती है उसी के आधार पर आत्मा का व्यपदेश अर्थात् व्यवहार होता है। लोकराशि दो प्रकार की मानी है-जीव राशि और अजीव राशि। और लोक में शाश्वत क्या हैं? इस प्रश्न का समाधान दिया गया है कि जीव और अजीव दोनों शाश्वत हैं। . अजीव का अपना स्वंतत्र महत्त्व नहीं है उसका महत्त्व जीव के कारण ही है, क्योंकि अजीव स्वयं भोक्ता नहीं है, अपितु जीव ही सजीव का भोक्ता हैं। यदि जीव न रहे तो सृष्टि का कोई मूल्य नहीं है, पर ऐसा समय संभव नहीं है कि सृष्टि जीव रहित कभी हो भी। १. से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई-आचारांग १.१.५ २.जे आया से विण्णया, जे विण्णाया से आया जेण विजाणाति से आया-आचारांग ५.५.१०४ ३. भगवती ६.१७४ ४. दो रासी पण्णता तं जहा जीवरासी चेव अजीवरासी चेव - ठाणं २.३९२ ५. के सासया लोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव - ठाणं २.४१९ ६. भगवती २५.४.४ ६८ For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्यों में जीव को अस्तिकाय कहा है। अस्तिकाय के स्वरूप के संबन्ध में जब गौतम स्वामी ने यह पूछा कि अस्तिकाय का स्वरूप क्या है? तब प्रभु महावीर ने कहा- जैसे चक्र का, छत्र का, चर्मरत्न का, दंड का, दुष्यपट्ट का, आयुध का, मोदक का खंड या टुकड़ा क्रमशः चक्र, छत्र, रत्न, दंड, दुष्यपट्ट या आयुध, मोदकनहीं कहलासकता, वैसे ही अस्तिकाय के एक प्रदेशको अस्तिकाय नहीं कहते, परन्तु सम्पूर्ण तत्त्व को ही अस्तिकाय कहते हैं। मिट्टी के अभाव में जिस प्रकार घट का निर्माण असंभव है, वैसे ही आत्मा के अभाव में सृष्टि का व्यापार भी असंभव है। आत्मा के अस्तित्व की सिद्धिः जिस प्रकार हमें घट, पट आदि पुद्गल द्रव्य की पर्यायों के दर्शन होते हैं, वैसे हमें आत्मा के दर्शन नहीं होते। इसकी प्रतीति हमें कारण व्यापार द्वारा होती है। सारथी जिस प्रकार से रथादि का संचालन करता है, आत्मा भी उसी प्रकार से शरीर का नियन्त्रण करती है। आत्मा ज्यों ही शरीर का त्याग कर देती है त्यों ही सुन्दर, स्वस्थ, प्रिय शरीर को आग के सुपुर्द कर दिया जाता है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि शरीर से भिन्न कोई तत्त्व या सत्ता अवश्य होनी चाहिए। आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी इन्द्रियों द्वारा ज्ञान वस्तुओं की स्मृति विद्यमान रहती है। ___ आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है, क्योंकि कई बार इन्द्रियों का व्यापार होने पर भी पदार्थों की उपलब्धि नहीं होती। आँख, कान सक्षम हैं, फिर भी पदार्थों का ग्रहण नहीं होना यही प्रतीति कराता है कि इनके अतिरिक्त कुछ और भी है और वही आत्मा है।० - आत्मा इन्द्रियभिन्न नहीं होती तो एक इन्द्रियविकार दूसरी इन्द्रिय को प्रभावित नहीं करता। इमली को आँख से देखते ही तत्काल जिह्वा प्रभावित हो जाती है, उसमे अमल रसास्वाद स्मृति जन्य लारकास्राव होने लगता है। इससे ७. भगवती: २:१०.१ ८. भगवती २.१०.४, (३) ९. षड्दर्शन समु. टी. ४९.१५७ १०. षड्दर्शन समु. टी. ४९.१५८ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय से भिन्न आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है । " यदि आत्मा का अस्तित्व भिन्न नहीं होता तो आँख से घड़ा देखकर आवश्यकतानुसार घड़े को ग्रहण करने में क्यों प्रवृत्ति होती है । ?१२ इसी प्रकार 'मैं' सुखी - दुःखी आदि का संवेदन आत्मा के अस्तित्व की ही अनुभूति कराते हैं । आत्मा के अस्तित्व को नकारना स्वयं के अस्तित्व को ही नकारना है । आत्मा प्रमाण सिद्ध है: भारतीय दर्शन में चूँकि आत्मा सर्वोत्कृष्ट एवं महत्त्वपूर्ण प्रमेय रहा है अतः उसके संबन्ध में सभी दर्शनों ने अपने-अपने स्तर से विचार प्रस्तुत किये हैं। एक चिंतक है - चार्वाक, जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है । इसे भूतचैतन्यवाद कहते हैं । इसके विपरीत दूसरा चिंतन है - आत्मवाद । जैन दर्शन आत्मवादी है । चार्वाकदर्शन पृथ्वी, पानी, वायु और तेज के उचित अनुपात के मिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है । इन चार भूतों के अतिरिक्त पाँचवें किसी भी तत्त्व की मान्यता चार्वाक दर्शन में नहीं मिलती । षड्दर्शन समुच्चय की टीका में गुणरत्नसूर ने इसके प्रत्युत्तर प्रस्तुत किये हैं । गुणरत्नसूरि ने आत्मा को निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित किया है गुणरत्नसूर के अनुसार आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होता है, अतः आत्मा को प्रत्यक्षसिद्ध मानना चाहिये । स्मृति, जिज्ञासा, आंकाक्षा, घूमने आदि की इच्छा इत्यादि आत्मा के गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव होता है। चूँकि गुण प्रत्यक्ष है, अतः गुणी भी प्रत्यक्ष है । जैसा कि चार्वाक दर्शन मानता है कि भूतचतुष्टय के मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न होता है, तो उनका मिश्रण करने वाला कोई तत्त्व भी तो होना चाहिए, और वह आत्मा के अतिरिक्त कौन हो सकता है? अगर कोई तत्त्व नहीं है तो घट-पट आदि जितने पदार्थ हैं उन सभी को चैतन्ययुक्त होना चाहिए क्योंकि भूतों की १९. वही ४९.१५९ १२. वही ४९. १६० १३. षड्दर्शन समु. टी. ४९. १२० ७० For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता तो सर्वत्र है, परन्तु प्रत्येक भूतचतुष्टय युक्त पदार्थ चैतन्य नहीं बनता । अतः स्पष्ट है कि 'चैतन्य' भूत का नहीं, अपितु आत्मा का लक्षण है ।" इसके अतिरिक्त निम्नलिखित तर्कों से भी आत्मा सिद्ध होती है: - (१) ज्ञान प्राप्ति के माध्यम कर्ण, नेत्र, रसना आदि करण किसी से प्रेरित होकर ही अपनी क्रियाएँ संपन्न करते हैं । इन इन्द्रिय रूपी गवाक्षों से ज्ञान का ग्राहक आत्मा ही है । १५ आचार्य पूज्यपाद ने भी आत्मा का अस्तित्व इसी प्रकार से प्रतिपादित किया है - जिस प्रकार यन्त्रप्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता का ज्ञान कराती हैं वैसे ही प्राण - अपान (श्वासोच्छ्रास) आदि क्रियाएँ भी आत्मा का ज्ञान कराती है। " (२) यह संसरणशील शरीर किसी की प्रेरणा से ही चल सकता है, जैसे रथ सारथी की इच्छानुसार चलता है। खाने की या पीने की इच्छा होने पर तदनुसार प्रवृत्ति करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति कराने वाला कोई और है, और वही आत्मा है । १७ (३) इस शरीर को इस आकृति में किसी ने बनाया है जैसे घट का निर्माता कुम्हार है, वैसे ही समस्त कार्यों का कोई उत्पादक है । शरीर का जो निर्माता है वही आत्मा है । 1 (४) इस शरीर का कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ तो करण या साधन मात्र हैं। जैसे घटनिर्माण में सहयोगी औजारों का मालिक कुम्हार है, वैसे ही इन इन्द्रिय रूप औजरों का स्वामी आत्मा है । (५) यह शरीर तो जड़ है; और जड़ का भोक्ता चेतन ही होता है । " (६) रूप, रस आदि अनेक प्रकार के ज्ञान किसी आश्रय-भूत द्रव्य में ही रहते हैं । जैसे रूप घट का आश्रयी है, वैसे ही आत्मा ज्ञान का आश्रयी है । १४. वही ४९. १९९ १५. वही ४९. १२३ १६. यथा “यंत्रप्रतिमाचोष्टितं......साधयति " - वस. सि. १७. वही, प्रशस्त. भा. पृ. ६९, प्रश. व्यो. पृ. ४०२, न्यायकुसु. पृ. ३४९ १८. षड्दर्शन टी. ४९. १२३ ७१ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) ज्ञान, सुख आदि का कोई न कोई उपादान कारण अवश्य होना चाहिए। जैसे घट का उपादान मिट्टी है, इसी तरह ज्ञान, सुख आदि का जो उपादान कारण है और ज्ञानी, सुखी आदि बनता है, वही आत्मा है ।९ (उपादान कारण को हम द्वितीय अध्याय में स्पष्ट कर आये हैं।) . (८) चाहे जीव हो या अजीव, समस्त पदार्थ द्विपदावतार (सप्रतिपक्ष) होते हैं। जहाँ जीव है वहाँ अजीव भी है यह अजीव निषेधात्मक है । जिस निषेधात्मक शब्द का प्रतिपक्षी अर्थ न हो तो समझना चाहिये कि वह या तो व्युत्पत्तिसिद्ध शब्द का निषेध नहीं करता या फिर शुद्ध शब्द का,किन्तु किसी रूढ शब्द या संयुक्त शब्द का निषेध करता है, जैसे-अखरविषाण। (९) सामान्यतोदृष्ट अनुमान द्वारा भी आत्मा की सिद्धि हो सकती है। स्वयं की क्रिया जैसी क्रिया अन्य शरीर में भी देखकर आत्मा की सिद्धि हो सकती है। इस प्रकार की क्रिया देखकर हम आत्मा के अस्तित्व का अनुमान कर सकते हैं। प्रिय में आकर्षण और अप्रिय में विकर्षण का निर्णायक आत्मा ही बनती है। परन्तु यदि घट पर भयंकर सर्पचढ़ जाये तो भी घट में आकर्षण या विकर्षण जैसा कोई अन्तर नहीं आता।२२ . जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है, वैसे ही आगम (शब्द), उपमान और अर्थापत्ति द्वारा भी आत्मा प्रमाणसिद्ध है ।२३. जिनभद्रसूरि के अनुसार आत्मसिद्धिः जैसे गुण और गुणी की अभिन्नता है, वैसे ही स्मरण आदि गुणों से जीव भी प्रत्यक्ष सिद्ध है।" इन्द्रियाँ कारण हैं, अतः इनका कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिये, वह अधिष्ठाता ही आत्मा है।५ शरीर सावयव और सादि है, अतः घट की तरह इसका भी कोई कर्ता है। जिसका कोई कर्ता नहीं है, उसका निश्चित् १९. षड्दर्शन टी. ४९.१२५ २०. ठाणं २.१ २१. षड्दर्शन टी. ४९. १२५ २२. वही ४९.१२६ २३. वही ४९.१२७ २४. गणधरवादः- १५६०.६२ २५. वही १५६७ ७२ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकार नहीं होता । शरीर का कर्ता आत्मा है ।२६ विषय और इन्द्रियों के मध्य कोई ऐसा तत्त्व अवश्य होना चाहिए जो ग्राहक हो, और वह आत्मा है ।२७ जिस प्रकार भोजन, वस्त्र आदि का कोई भोक्ता अवश्य होता है, उसी प्रकार शरीर का भी कोई भोक्ता होना चाहिये, और वह भोक्ता आत्मा ही हो सकता हैं।२८ इसी प्रकार शरीरादि के संघात रूप में,२९ संशय के रूप में,३० अजीव के प्रतिपक्षी के रूप में, आत्मा का अस्तित्व है। अन्य आचार्यों के अनुसार आत्मसिद्धिः___ श्वासोच्छ्वास के रूप में एवं प्राणापान के कारण आत्मा का अस्तित्व आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। इन्द्रिय निरपेक्ष आत्मजन्य केवलज्ञान रूप सकल प्रत्यक्ष के द्वारा शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है। देश प्रत्यक्षः अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान के द्वारा कर्म-नोकर्म से युक्त आत्मा का प्रत्यक्ष होता है ।२३ इन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न ज्ञानों में आत्मा ही एकसूत्रता स्थापित करती हैं। किसी व्यक्ति को देखने मात्र से प्रियता और अप्रियता का भाव अचानक नहीं उठता, कहीं न कहीं उसके कारण सुख-दुःख का अनुभव हुआ होगा, इस प्रवृत्ति से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है।३५ २६. वही १५६७ २७. वही १५६८ २८. वही १५६९ २९. वही १५७० ३०. वही १५७१ ३१. रा. व. ५.१९.३८ पृ. ४७३ ३२. स्याद्वादम. १७. १७४ ३३. रा. वा. २८.१८.१२२. ३४. रा.वा. २.८१९ पृ. १२२. ३५. न्याय. ६८. ६९.७१ पृ.३९ ७३ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और उपनिषद् : अधिकांश भारतीय दार्शनिकों ने चेतन और अचेतन को सृष्टि का मौलिक तत्त्व माना है। जैन दर्शन ने इन्हें जीव और अजीव; सांख्य ने इसे प्रकृति और पुरुष; और बौद्ध ने इन्हें ही नाम और रूप के रूप में प्रतिपादित किया है। उपनिषद् का दृष्टिकोण अत्यन्त आत्मवादी रहा है। समस्त तत्त्वों में आत्मा को ही श्रेष्ठतम तत्त्व कहा गया है। जब याज्ञवल्क्य अपनी भौतिक संपदा का अपनी पत्नियों में विभाजन करके संन्यस्त होने का निर्णय लेते हैं, तब उनकी पत्नी मैत्रेयी उनसे दीर्घ संवाद करती है। जिसका निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि "जिस संपत्ति से मैं अमृत नहीं बन सकती, उसकी प्राप्ति निरर्थक है, जिसे पाकर अमृत बनूँ, उसी का उपदेश दें।” तब याज्ञवल्क्यं उन्हें इस प्रकार से आत्मा का उपदेश देते हैं- “आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान करने योग्य ___नाचिकेता भी जब आत्मतत्त्व को जानने की प्रबल जिज्ञासा अभिव्यक्त करते हैं, तब उन्हें यम अगणित भौतिक विभूतियों का प्रलोभन देकर आत्मा की जिज्ञासा से विरत करने का प्रयास करते हैं। परन्तु नचिकेता सारी सांसारिक विभूतियों को ठुकराकर मात्र आत्मतत्त्व जानने की ही इच्छा अभिव्यक्त करते हैं, तब यम आत्म स्वरूप को प्रकट करते हैं । ३९. ____ छान्दोग्योपनिषद् में आत्मविद्या को इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि उसके समक्ष समस्त विद्याएँ निरर्थक और व्यर्थ हैं । नारदजी सनत्कुमार से कहते हैं- “मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, गणित और सर्पादि विद्याओं का ज्ञाता हूँ, फिर भी आत्मविद्या के अभाव में शोकाकुल हूँ।” उनकी शोकमुक्ति के लिए सनत्कुमार उन्हें आत्मविद्या का ज्ञान प्रदान करते हैं।४० ३६. बृहदारण्यकोपनिषद् २.४.१.३ ३७. वही २.४.५ ३८. कठोपनिषद् १.२० . ३९. कठोपनिषद् २.२८ ४०. छान्दोग्योपनिषद् ८.१२ ७४ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न उपनिषदों में आत्मा का स्वरूप : आत्मा क्या है, इस संबंध में उपनिषद् में विभिन्न मत दृष्टिगोचर होते हैं, यथा प्रजापति के शब्दों में “पाप से निर्लिप्त, जन्म, जरा एवं मृत्यु के शोक से रहित, भूख और व्याकुलता की पीड़ा से रहित आत्मा है।"४२ ... बृहदारण्यकोपनिषद् में “आत्मा को कर्ता, जागृत और मृत्यु की अवस्था में एक समान रहनेवाला तत्त्व कहा है।"४३ छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार “आत्मा और शरीर भिन्न है । आत्मा अशरीरी तथा अमर है। देखने और सूंघने का विचार करने वाला आत्मा है, आँख और नाक तो मात्र माध्यम है।" कठोपनिषद् के अनुसार “आत्मा न मरता है न उत्पन्न होता है । यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है।" ४५ यह न तर्कगम्य है और न ही वेद के अध्ययन से प्राप्तियोग्य । यह मात्र प्रज्ञा द्वारा ही प्राप्त होता है।"४६ .. याज्ञवल्क्य ने आत्मा के संबन्ध में अपने विचार इस प्रकार स्पष्ट किये हैं"आत्मा विषय नहीं हो सकती।" आत्मा ही एकमात्र प्रीतियोग्य है। जो भी हम प्रीति करते हैं वह आत्मा के लिये है। जो कुछ भी प्रिय और मूल्यवान् है वह सब आत्मा के कारण है।" ४८ . ऋषियों के “सोऽहं” ४९ एवं "अहम् ब्रह्मास्मि की अभिव्यक्ति से अनुमान होता है कि आत्मा और ब्रह्म का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव हो गया था। - ४२. छान्दोग्योपनिषद् ८.७.४ ४३. बृहदारण्यकोपनिषद् ४.४.३ ४४. छान्दोग्योपनिषद् ८.१२.१, २ ४५. कठोपनिषद् १.२:१८ ४६. कठोपनिषदप १.२.२३ ४७. बृहदारण्यक उपनिषद् ४.५.१५ ४८. वही ४.५.६ ४९. कोषीतकी उपनिषद् १.६ ५०. बृहदारण्य उप. १.४.१० ७५ For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद् और आत्मस्वरूप की विभिन्नता : आत्म स्वरूप के निर्धारण में उपनिषद् निरन्तर प्रगति करता प्रतीत होता है, क्योंकि विभिन्न उपनिषदों में आत्मा के स्वरूप की भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती है। देहात्मवाद :. उपनिषद् के पुरस्कर्ता ऋषियों के मन में जब यह चिंतन चला कि बाह्य विश्व को गौण कर जिस चैतन्य की अनुभूति होती है, वह क्या है? इस संबन्ध में उपनिषद् में एक आख्यान आता है कि असुरों में वैरोचन और देंवों में इन्द्र आत्मविद्या की शिक्षा लेने प्रजापति के पास गये। तब प्रजापति ने बर्तन में पानी डालकर उसमें उनका प्रतिबिम्ब दिखाकर कहा- यही आत्मा है। इन्द्र तो देहात्मस्वरूप से संतुष्ट नहीं हुए पर वैरोचन संतुष्ट हो गये।५९ ... जैनागमों में द्वितीय अंग श्री सूत्रकृतांग में इसी को “तज्जीव तच्छरीरवाद" कहा गया है ।५२ __भगवान् महावीर के तीसरे गणधर वायुभूति के मन में भी यही शंका थी कि “जीव और शरीर भिन्न हैं या एक ही।"५३ ।। राजा प्रदेशी भी आत्मा को शरीर की तरह इन्द्रियग्राह्य मानता था और इसी कारण उसका आत्मशोधन का प्रयास निष्फल रहा।५४ प्राणात्मवादः इन्द्र को इस देहात्मवाद के स्वरूप से संतुष्टि नहीं हुई । इन्द्र की तरह औरों के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न उभरा होगा कि अगर शरीर ही आत्मा है तो मृत्यु के समय भी शरीर तो विद्यमान रहता है फिर भी शरीर की क्रियाएँ अवरुद्ध क्यों हो जाती हैं, निद्रावस्था में भी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया सतत् रहती है, यह क्या है, तब उन्होंने अनुभव के आधार पर प्राण सत्ता को ही समस्त प्रवृत्ति का कारण माना।५५ ५१. छान्दोग्योपनिषद् ८.८४ ५२. सुयगडांग ६.४८ ५३. गणधरवाद १६४९ ५४. राज प्रश्नीय २४४.२६६ ५५. तैतिरीय उपनि. २.२.३ ७६ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छान्दोग्य उपनिषद् में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि “विश्व में सब कुछ प्राण है। इन्द्रियाँ और प्राण का तादात्म्य भी कर दिया गया। इन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं।५६ दार्शनिक इस प्राणात्मवाद से भी संतुष्ट नहीं हुए। मनोमय आत्मा:___ आत्मा संबन्धी विचारणा और उसे प्राप्त करने में ऋषि निरन्तर प्रयत्नशील थे। उन्हें ऐसा आभास हुआ कि मन के अभाव में प्राण और इन्द्रियाँ सब व्यर्थ हैं। मन का संपर्क होने पर ही इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण कर सकती हैं; यदि मन अनुपस्थित हो तो इन्द्रियों की उपस्थिति सार्थक नहीं है । तब प्राणमय आत्मा के स्थान पर मनोमय आत्मा की सत्ता स्वीकार की गयी।५७ मन की सत्ता की उत्कृष्टता को स्वीकार करते हुए उसे परम ब्रह्मसम्राट् तक कह दिया। छान्दोग्य उपनिषद् में भी उसे ब्रह्म कहा है।५९ . प्रज्ञा विज्ञानात्मा: कौषीतकी उपनिषद् में प्राण को प्रज्ञा और प्रज्ञा को प्राण कहा है। इसी में आगे प्रज्ञा का महत्त्व स्वीकार करते हए कहा गया है कि प्रज्ञा के अभाव में इन्द्रियाँ और मन निरर्थक हैं। इन्द्रियों और मन की अपेक्षा प्रज्ञा का महत्त्व अधिक __विज्ञानात्मा को मनोमय आत्मा की अन्तरात्मा के रूप में बताया है। ऐतरेय उपनिषद में प्रज्ञान ब्रह्म के पर्यायवाची शब्दों में मन भी है।६३ प्रज्ञा और प्रज्ञान६४ एक ही हैं। यहाँ प्रज्ञान का पर्याय विज्ञान भी बताया है।६५ ५६. बृहदारण्यक उप. १.५.२१ ५७. तैतिरीय उपनि. २.३ ५८. बृहदारण्यकोपनिषद् ४.१.६ ५९. छान्दोग्योप. ७.३.१ ६०. कौषितकी उप. ३.२.,३.३.३.३.३४. ६१. कौषितकी उप. ३.६.७ ६२. तैतिरीय उपनिषद् २.४ ६३. ऐतरेय उपनि. ३.२ ६४. ऐतरेय उप. ३.३ ६५. ऐतरेय उप. ३.३ ७७ For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्यात्माः आत्मा के संबन्ध में निरंतर वैचारिक चिंतन का परिणाम आगे जाकर यह निकला कि केनोपनिषद् ने स्पष्ट कह दिया कि अन्नमय आत्मा रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही आत्मा है।६६ यही दृष्टा, श्रोता, मनन करने वाला और विज्ञाता है। इस चिदात्मा को अजर, अमर, अक्षर, अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अनन्त माना गया है।६८ इस प्रकार, सतत् चिंतन से शरीर और आत्मा की भिन्नता सिद्ध की गयी। न्याय-वैशेषिक में आत्मा:... न्याय दर्शन ने आत्मा की व्याख्या भिन्न रिति से की है।" ज्ञान, इच्छा, आदि गुणों का आधार आत्मा है।" ६९ द्वितीय परिभाषा है-“प्रतिसंधान, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान करने वाला तत्त्व ही आत्मा है।"७० ___ न्याय दर्शन आत्मा को शरीरादि से भिन्न एक स्वतन्त्र द्रव्य मानता है, ७१ परन्तु उसे जडवत् मानता है। चैतन्य जो आत्मा का स्वाभाविक गुण है, न्याय दर्शन के अनुसार वह आगन्तुक गुण है। न्याय दर्शन में आत्मा को इस चैतन्य गुण की उत्पत्ति का आधारमात्र बताया गया है।७२ . बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न, ये आत्मा के छह विशेष गुण माने गये हैं। * मुक्ति में शरीरादि का अभाव है; अतः वहाँ मुक्तात्मा में आगन्तुक चैतन्यगुण का भी अभाव है।७५ ६६. केनोपनिषद् १.२ ६७. बृहदारण्य ३.७.२२ ६८. कठो. ३.२ ६९. त. सं. पृ. १२ ७०. न्यायवा. १.१.१० पृ. ६४ ७१. प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४९.५० ७२. भारतीय दर्शन-डॉ. राधाकृष्णन् भाग २ पृ. १४८, १४९ ७३. तर्कभाषा-केशिव मिश्र पृ. १९० ७४. तर्कभाषा-केशिव मिश्र पृ. १९० ७५. न्यायसूत्र १.७.२२ ७८ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक सूत्र में आत्मा का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया गया है। प्राणापान, निमेषोन्मेष, जीवन, इन्द्रियान्तर-संचार, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, संकल्प आदि को आत्मा के लिंग बताते हुए इन्हीं से आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध किया गया है। विशेष विवेचन के लिए एन. के. देवराज द्वारा लिखित भारतीय दर्शन पृ. ३०१-८.१ देखना चाहिए। - इसी प्रकार न्याय सूत्रकार ने भी इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और निर्णयात्मक ज्ञान के हेतुओं द्वारा आत्मा की सत्ता का अनुमान किया है। गौतम ऋषि अनुमान के अतिरिक्त शास्त्रीय प्रमाण भी देते हैं।७८ .. ___ आत्मा का मानस-प्रत्यक्ष होता है या नहीं, न्याय दर्शन में इसके विषय में मतभेद है। न्यायसूत्र में आत्मा के अनुमान की चर्चा है, प्रत्यक्ष की नहीं। ७९ न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने आत्मा को अलौकिक प्रत्यक्ष का विषय कहा है, लौकिक प्रत्यक्ष का नहीं। वैशेषिक दर्शन के प्राचीन साहित्य के अनुसार भी भाष्यकार वात्स्यायन द्वारा प्रतिपादित आत्मा के इसी योगी-प्रत्यक्ष का विषय होने के पक्ष का समर्थन होता है, परन्तु उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र आदि ने ज्ञान आदि विशेष गुणों के साथ आत्मा का मानस-प्रत्यक्ष 'अहम् पदार्थ के रूप में माना है। बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद : . उपनिषदों ने आत्मा और आत्मा से संबन्धित विद्या को प्रमुख तत्त्व मानकर उसी की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य बना दिया था। बौद्ध दर्शन ने तेजी से पनपती इस आत्मवाद की प्रवृत्ति को रोकने के लिए अनात्मवाद का सिद्धान्त दिया । बुद्ध ने रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान और इन्द्रियों पर एवं इन्द्रियों के विषयों पर ७६. वै.सू. ३.२.४-१३ ७७. न्यायसूत्र ३.१.१० ७८. भारतीय दर्शन :- डॉ. राधाकृष्णन् भाग २ पृ. १४५ ७९. न्यायभाष्य १.१.१० ८०. न्यायभाष्य १.१.३ ८१. भारतीय दर्शन:- डॉ. एन. के. देवराज पृ. ३०० ८२. न्यायवा. पृ. ३४१ .८३. ता. टी. ५०१ ७२ For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमशः विचार किया तथा उन सभी को अनित्य और अनात्म घोषित कर दिया। वे अपने श्रोताओं को भी प्रश्नोत्तर की शैली में युक्तिपूर्वक विश्वास करवा देते थे कि सब कुछ अनात्म है और आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है।" ___बुद्ध के अनुसार जन्म, मरण, कर्म, विपाक, बन्ध और मोक्ष-सब कुछ है, परन्तु इनका स्थायी आधार नहीं है। ये समस्त अवस्थाएं अपने पूर्ववर्ती कारणों से उत्पन्न होती रहती हैं और एक नवीन कार्य को उत्पन्न करके नष्ट होती रहती हैं। इस प्रकार संसार चक्र चलता रहता है। उत्तरवर्ती अवस्था पूर्ववर्ती अवस्था से न सर्वथा भिन्न है और न अभिन्न, अतः अव्याकृत है। ५ न कोई कर्म का कर्ता है और न फर्मफल का भोक्ता, मात्र शुद्ध थर्मों की प्रवृत्ति होती है, यही सम्यग्दर्शन है। ये 'कर्म' और 'फल' पौर्वापर्य से संबन्ध रहित बीज और वृक्ष की तरह अनादिकाल से एक-दूसरे पर आश्रित हैं और अपने-अपने हेतुओं पर अवलम्बित होकर प्रवृत्त होते हैं। यह परम्परा कब निरुद्ध होगी, यह भी नहीं बताया जा सकता। जीव के विषय में कुछ शाश्वतवाद का और कुछ उच्छेदवाद का अवलम्बन लेते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रखते हैं।६ बुद्ध आत्मा के शाश्वत और अशाश्वत के प्रश्न पर मौन रहते थे, क्योंकि शाश्वत कहते तो उसका समर्थन होता जो मत स्थिरता में विश्वास रखता है और अशाश्वत कहते तो उनका समर्थन होता जो शून्यवाद में विश्वास करते हैं। नागसेन और राजा मिलिन्द के प्रश्नोत्तर में भी आत्मा के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। राजा मिलिन्द पूछता है-आत्मा क्या है? तब नागसेन समाधान के स्थान पर प्रश्न करते हैं कि क्या डंडे को, धुरा को, पहिये को और ढांचे को रथ ८४. संयुक्तनिकाय १२.७०.३२-३७ ८५. संयुक्तनिकाय १२.१७.२४, मिलिन्दप्रश्न २.२५.३३ ८६. गणधारवादः- प्रस्तावना पृ. ९२ ८७. मज्झिम निकाय मूलपण्णासक ३५.३.५-३४ ८८. भा. दर्शन डॉ. राधाकृष्णन् भाग एक पृ. ३८४ ८० For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं? मिलिन्द ने कहा- भगवन् ! ये सब रथ के भाग हैं, रथ नहीं । तब नागसेन ने कहा- उसी प्रकार से एक साथ उपस्थित स्कन्धों का नाम ही सत् या आत्मा है । ९ बौद्ध दर्शन में क्षणिक संवेदनाओं को ही आत्मा कहते हैं। बौद्धों के अनुसार, इनके अतिरिक्त आत्मा की पृथक् सत्ता उपलब्ध नहीं होती । " हीनयानी वसुबन्धु ने स्पष्ट कहा है कि पञ्चस्कन्धी के अलावा आत्मा कोई तत्त्व नहीं है । १ बुद्ध ने बिना किसी आधार के भी संसार की अविच्छिन्नता की व्याख्या कारणकार्यभाव से की है। इस कारणकार्यभाव को ही संसार की अविच्छिन्नता का कारण बताया । “परिवर्तन युक्त तत्त्व अस्तित्व रखता है ।" यह सत्य है कि जो कुछ विद्यमान है वह सब कारणों एवं अवस्थाओं से ही प्रादुर्भूत हुआ है और प्रत्येक स्थिति में अस्थिर है । १२ बुद्ध ने यह भी स्पष्ट किया कि चेतना मात्र क्षणिक है, वस्तुएं नहीं। यह प्रत्यक्ष है कि यह शरीर एक वर्ष, सौ या इससे भी अधिक समय तक रह सकता है, परन्तु जिसे मन, बुद्धि, प्रज्ञा या चेतना कहते हैं, वह दिन-रात एक प्रकार के चक्र के रूप में परिवर्तित होती रहती है। १३ बुद्ध न आत्मा की स्वीकृति देते हैं न आत्मा से संबन्ध रखने वाली अन्य किसी वस्तु की। उनके अनुसार आत्मा की नित्यता, अपरिवर्तनशीलता आदि मूर्खो की बकवास है । ४ बुद्ध ने इस पुल को क्षणिक और नाना कहा है। यह चेतन तो है, पर मात्र चेतन है, ऐसा नहीं है । वह 'नाम' और 'रूप' • इन दोनों का समुदाय रूप है । B ८९. मिलिन्द २.१.१ ९०. मज्झिमनिकाय उपरिपण्णासक २.२.१-६ ९१. अभिधर्मकोष ३.१८ ९२. भा. दर्शन भाग १. डॉ. राधा. पृ. ३४१ ९३. संयुक्त २-९६ ९४. मज्झिमनिकाय १.१३८ ८१ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक या अभौतिक का मिश्र रूप कहना चाहिये । इसमें भी भगवान् बुद्ध का मध्यम मार्ग झलकता है। चार्वाक और आत्माः चार्वाक के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश अतिरिक्त आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है । इन पाँच महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इन्हीं में विलीन हो जाती है।९६ प्राचीन चार्वाक चार महाभूत ही मानते थे, परन्तु अर्वाचीन चार्वाकों ने प्रसिद्ध होने से पाँचवें आकाश को भी महाभूत मान लिया। - आगे वे कहते हैं कि इन पाँच महाभूतों के अतिरिक्त कोई तत्त्व नहीं है। क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, अच्छा, बुरा, सिद्धि, असिद्धि, नरक या अन्य गति आदि इनसे ही हैं।९७ इन पाँच महाभूतों को न किसी ने बनाया है और न बनवाया है; न तो ये कृत हैं, न कृत्रिम और न ही किसी से अपनी उत्पत्ति की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँच महाभूत आदि-अन्त रहित हैं, स्वतन्त्र एवं शाश्वत हैं।९८ पाँच महाभूत ही जीव हैं । ये ही अस्तिकाय हैं। ये ही जीवलोक हैं। संसार का कारण ये ही हैं । तृण का कम्पन तक इनके कारण ही होता हैं। इन पृथ्वी आदि पाँच महाभूतों के शरीर रूप में परिणत होने पर इन्हीं भूतों से अभिन्न ज्ञानस्वरूप चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे गुड़, महुआ आदि मद्य की सामग्री के संयोग से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है, वैसे ही पाँच भूतों के संयोग से शरीर में चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है। जैसे जल में बुलबुले उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं, वैसे ही पाँच महाभूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है ।१०० ९५. संयुक्तनिकाय १.१३५ ९६. सूत्रकृतांग १.१.७,८ ९७. सूत्रकृतांग २.१.६५५ ९८. वही ६६५ ९९. वही ६५७ १००. षड्दर्शन समुच्चय ८४, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ११५ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर से अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं है, जो लोक परलोक जाकर शुभ अशुभ का फल भोगे। जो कुछ है शरीर है, और वह भी बिजली की तरह चंचल है, इसलिए खाओ, पीओ और मस्ती से रहो । ०१ सांख्य दर्शन में आत्माः सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति-ये दो मुख्य तत्त्व हैं । वैसे तो सांख्य दर्शन २५ तत्त्व मानता है। इनमें प्रकृति और उसके २३ विकारों का एवं पुरुष का समावेश ___ सांख्य के अनुसार यह चैतन्य ‘शरीर' नहीं है, और न तत्त्वों से उत्पन्न पदार्थ है, यह उनके अंदर अलग-अलग विद्यमान भी नहीं है, अत; उन सबमें एक साथ नहीं हो सकता। यह इन्द्रियों से भिन्न है ।१०३ इन्द्रियाँ दर्शन के साधन अवश्य हैं, दृष्टा नहीं। पुरुष बुद्धि से भी भिन्न है, क्योंकि बुद्धि अचेतन है। हमारे अनुभवों की एकता आत्मा के कारण है। विशुद्ध आत्मा ही पुरुष है जो प्रकृति से भिन्न है।१०४ पुरुष का प्रकाशमय स्वरूप कभी परिवर्तित नहीं होता ।१०५ यह सुषुप्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है । १०६ यह पुरुष न किसी का कार्य है और न कारण ।१०७ ___ बुद्धि, मन आदि तत्त्व चैतन्य पुरुष की दासता में है। सांख्य का पुरुष चैतन्यमय है । यह न सुखमय है और न दुःखमय ।१०८ यह आनन्दमय भी नहीं है, क्योंकि आनन्द तो सत्त्वगुण के कारण होता है, जिसका संबन्ध प्रकृति से है जो त्रिगुणात्मिका है। सांख्य का पुरुष गुणरहित है। तथा यह न परिमित है न अणुरूप। यह पुरुष प्रकृति की किसी क्रिया में भाग नहीं लेता अर्थात् यह निष्क्रिय है। " सांख्य के अनुसार भी आत्माएँ अनेक हैं। इनकी इन्द्रियाँ, कर्म, जन्म, मरण सभी भिन्न-भिन्न हैं । १०९ काई स्वर्ग में जाती हैं तो कोई नरक में। १०१. षड्दर्शन समुच्चय टीका ८२. ५६४ १०२. सांख्यप्रवचनसूत्र ५.१२९ १०३. वही २.२९ १०४. सा. प्र. सू. ६.१.२ १०५..सांख्य प्रवचनभाष्य १.७५ १०६. सां. प्र. सू. १.१४८ १०७. सां. प्र. सू. १.६१ For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य के पुरुष का आदि है और न अन्त । यह निर्गुण, सूक्ष्म, सर्वव्यापी, नित्यदृष्टा, इन्द्रियातीत तथा मन की पहुंच से बाहर है। यह व्यवहारिक अर्थों में सब वस्तुओं को नहीं जानता, क्योंकि शारीरिक सीमा में सीमित इन्द्रियों और मन के द्वारा ही ज्ञान संभव है। जब आत्मा इस सीमा से मुक्त होता है तब इसे परिवर्तन का बोध नहीं रहता, अपितु यह अपने स्वरूप में रहता है। ११० पुरुष प्रकृति से संबद्ध नहीं है, मात्र दर्शक है, उदासीन है, अकेला है और निष्क्रिय पुरुष और प्रकृति परस्पर प्रतिकूल लक्षण वाले हैं। प्रकृति परिवर्तनशील है। पुरुष अमूर्त, चेतन, नित्य, सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, भोक्ता,निर्गुण, सूक्ष्म आत्मा है। जबकि प्रकृति त्रिगुणात्मक (सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण) प्रमेय है, अहंकार सहित है और जीव है । १२ सांख्य दर्शन में पुरुष और आत्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। अहंकार सहित पुरुष हीजीव है ।११३ विशुद्ध आत्मा बुद्धि से परे है जबकि बुद्धि के अंदर पुरुष का प्रतिबिम्ब अहंभाव के रूप में प्रतीत होता है, जो हमारी सभी अवस्थाओं का, जिसमें सुख दुःख भी सम्मिलित हैं, बोध प्राप्त करने वाला है। जब तक हम आत्मा को बुद्धि से भिन्न नहीं समझते, जो लक्षण और ज्ञान में बुद्धि से भिन्न है, तब तक हम बुद्धि को ही आत्मा समझते रहते हैं।११४ प्रत्येक अहंभाव एक ऐसा सूक्ष्म शरीर रखता है जो इन्द्रिय सहित मानसिक उपकरण से निर्मित है, और यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है ।११५ १०८. भा. दर्शन डॉ. राधा. भाग २ पृ. २७९ १०९. सा. प्र. सू. ६.४५ ११०. सा. प्र. सूत्र वृत्ति ६.५९ १११. सां. का. १९ ११२. सा. प्र. सू. वृत्ति ६.६३ ११३. सां. प्र. भाष्य ६.६३ ११४. योगसूत्र २.६ ११५. सां. प्र. सू. ३.१६ ४ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष विशुद्ध चेतन स्वरूप है, परन्तु जब तक यह रजोगुण और तमोगुण से आच्छन्न रहता है तब तक यथार्थ का भूल जाता है । मोक्ष तथा बन्धन रूप परिवर्तन का संबन्ध सूक्ष्म शरीर के साथ है जो पुरुष के साथ संलग्न है । लौकिक जीवात्मा, पुरुष और प्रकृति का मिश्रण है। जब रजोगुण प्रधान होता है तो पुरुष मानवीय जगत् में प्रवेश करता है। वहाँ वह बैचेन होकर दुःख से छुटकारा पाने व मुक्ति के लिए प्रयन्तशील होता है। जब सत्त्वगुण की अधिकता हो जाने पर रक्षापरक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तब प्रकृति अहं को और अधिक जीवन की आपदा से बांधकर नहीं रख पाती । उस अवस्था में मृत्यु के बाद प्रकृति और पुरुष का बन्धन टूट जाता है और आत्मा मुक्त हो जाती है। जीवस्तिकाय के लक्षण : द्रव्य के जितने भी लक्षणों पर द्वितीय अध्याय में विमर्श किया गया है, वे समस्त लक्षण जीव में पाये जाते हैं, अतः जीव भी द्रव्य है। जैन आगमों में 'जीव' शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध हैं; जीवास्तिकाय, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, पुद्गल, मानव, कत्ता, विकर्ता, जगत्, जन्तु, योनि, शरीर और अन्तरात्मा।११६ ।। ___जीव का लक्षण उपयोग है ।१९७ ‘उपयोग' शब्द व्यापक अर्थवाला है। वह 'ज्ञान' और 'दर्शन' दोनों को समाहित करता है । यह उपयोग दो प्रकार का है। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में एवं हरिभद्रसूरि ने षड्दर्शन समुच्चय में ११९ जीव का लक्षण 'चेतना' किया है। उत्तराध्ययन में जीव का लक्षण ‘उपयोग' उपलब्ध होता है ।१२०पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव का लक्षण ‘उपयोग' और 'चेतना' उभय रूप से किया है । १२१ इससे यह प्रतीत होता है कि 'चेतना' और 'उपयोग' दोनों एकार्थक हैं। चेतना जीव की योग्यता एवं उपयोग उसकी क्रियान्विति है। .. ११६. भगवती २०.२.७ - ११७. उपयोगो लक्षणम्-त.सू.२.८, भगवती १३.४.२७., जीवो उवओगमओ- बृ.द.स.२. ११८. स.सा. ४८ ११९. षड्दर्शनसमु. ४९ १२०. उत्तरा. २८.७० १२१. पं. का. १६ प For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग के प्रकार :___उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग ।१२२ इसे गुणरत्नसूरि ने षड्दर्शन की टीका में साकार चैतन्य (ज्ञान) और निराकार चैतन्य (दर्शन) भी कहा है ।१२३ बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका में इसे सविकल्पक भी कहा गया है ।१२४ पंचास्तिकाय में जीवा को ज्ञानदर्शन से युक्त बताकर इन्हें जीव के साथ अनन्य व सर्वकाल भी कहा गया है, अर्थात् जीव में ज्ञानदर्शन रूप उपयोग तीनों कालों में रहता है। १२५ जो विशेष को ग्रहण करता है वह ज्ञान और जो सामान्य को ग्रहण करता है वह दर्शन है।९२६ जीव का लक्षण ज्ञान-दर्शनमय है। ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोगः___ दर्शन की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- “पश्यति, दृश्यते दृष्टिमानं वा दर्शनम्" अर्थात् जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है अथवा देखनामात्र ही दर्शन है।१२७ जंब विषय और विषयी का सन्निपात होता है तब दर्शन होता है। विशेषण से शून्य 'कुछ' है, यह ग्रहण होना दर्शन है ।१२९ अभिप्राय यह है कि जब कोई ज्ञायक किसी पदार्थ को मात्र देखता है, उस प्रक्रिया में जब तक वह कोई विकल्प न करे, तब तक जो सत्तामात्र का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं, और जैसे ही दृष्ट पदार्थ के शुक्ल, कृष्ण इत्यादि विशेषणों से युक्त विकल्प रूप की प्रतीति होने लगती है, तब उसे ज्ञान कहते हैं । १३० ___ज्ञान की परिभाषा देते हुए पूज्यपाद ने कहा है कि, जो जानता है, जिसके द्वार जाना जाता है, वह ज्ञान है ।१३१ १२२. स.सि. २.८.२७३ १२३. षडद. टी. ४९.९७., बृ.त.कृ. २.८.१५.८६ १२४. बृ.द.स.टी. ४.१५ १२५. पं.का. ४० १२६. पं. का.टी. ४०.७५ १२७. स.सि. १.१.६.४ १२८. वही १.१५.१९०.७९ १२९. २.भ.त. ४७.९ १३०. बृ.द्र.सं. ४३.२१६ १३१. स. सि. १.१.६४ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान और दर्शन की संयुक्त व्याख्या: सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्यतापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं । १३२ ज्ञान और दर्शन में अंतर : - ज्ञान और दर्शन जीव के स्वभाव हैं, अतः दोनों अभिन्न हैं, परन्तु कथंचित् भिन्न भी हैं। जिसके द्वारा देखा जाये और जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं - इस प्रकार के लक्षण से, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रहेगी तथा चक्षुरिन्द्रिय और आलोक भी दर्शन हो जायेंगे ।' यदि कोई ऐसी शंका करे, तो उसका समाधान है कि नहीं! ऐसा नही है । अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं। देखने में सहकारी कारण होते हुए भी आलोक और चक्षु दर्शन नहीं हो सकते, क्योंकि चंक्षु और आलोक आत्मा के स्वभाव नहीं हैं । १३३ दर्शन मात्र सामान्य का ही ग्राहक नहीं है, इसी प्रकार ज्ञान मात्र विशेष का ही ग्राहक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सामान्य-विशेषात्मक हैं, और सामान्य विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है । दूसरी बात यह भी है कि सामान्य को छोड़कर मात्र विशेष अर्थक्रिया करने में असमर्थ है । अर्थक्रिया में जो समर्थ नहीं होती, वह अवस्तु होती है। उस अवस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं होता । तथा मात्र विशेष का ग्रहण भी तो नहीं होता, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में कर्त्ता-कर्म रूप व्यवहार नहीं बन सकता। जब विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं बनता तो मात्र सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन भी नहीं बनता । १३४ दर्शन व ज्ञान में स्वपर - ग्राहकता का समन्वय : ज्ञान को बहिर्मुख प्रकाशक और दर्शन को अन्तर्मुख प्रकाशक कहा गया है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ज्ञान मात्र पर - प्रकाशक ही है और दर्शन मात्र स्व-प्रकाशक हैं । और केवल इसी विधि से आत्मा स्व-पर प्रकाशक दोनों १३२. स्याद्वादमं. १.८ १३३. धवला ९.१.४. १४५ १३४. बृ.द्र. स. ४४.२१५ - २१५ - २१८ एवं ध. १.१.१.४.१४६.३ ८७ For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। १३५ यदि 'ज्ञान' मात्र पर प्रकाशक हो तो बाह्यस्थिति के कारण आत्मा का ज्ञान से संपर्क ही नहीं रहेगा, तब स्व को जानने का उसका स्वभाव होने पर सर्वगतभाव नहीं रहेगा! इसी प्रकार दर्शन भी मात्र अन्तः रूप को ही देखे, बाह्यस्थित पदार्थ को न देखे, यह संभव नहीं है, अतः ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है!१३६ यदि ज्ञान को मात्र पर-प्रकाशक मानें तो संपूर्ण सृष्टि चेतनमय बन जाएगी, क्योंकि ज्ञान पर-प्रकाशक होने के कारण द्रव्य से पृथक् प्रकाशक होगा, तब या तो शून्यता की आपत्ति होगी या जहाँ-जहाँ वह पहुँचेगा वे सारे द्रव्य चेतना हो जायेंगे। १३७ आत्मा न केवल ज्ञानमय है, और न केवल दर्शनमय है, अपितु, वह उभय है। जिस प्रकार अग्नि में दाहकता भी है और पाक गुण भी ! १३८ उपयोग के प्रकार : वह ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है!१३९ । बृहद्र्व्य संग्रह में भी व्यवहार नय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन कहा गया है, परन्तु इसे सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा गया है। शुद्ध नय की अपेक्षा से तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन ही जीव का लक्षण हैं!१४° पञ्चास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्य ने भी ज्ञान-दर्शन के इसी संख्याभेद की पुष्टि की है तथा नामोल्लेख किये हैं-मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान -ये ज्ञान के एवं चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये चार दर्शन के भेद बतलाए हैं।१४१ ज्ञान के अंतिम तीन भेदों को विभाव ज्ञान भी कहते हैं । १४२ १३५. नियमसार १६१ १३६. नि.सा.ता.वृ. १६१ १३७. नियमसार १६२ १३८. नि.सा.ता.वृ. १६२ १३९. त.सू. २.९ १४०. बृ.द्र.सं.६ १४१. पं. का. ४१-४२, स. सि. २.९.२३७ १४२. नि.सा.ता.बृ. १० For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय को विभाव ज्ञानोपयोग और केवलज्ञान को स्वभाव ज्ञानोपयोग कहते हैं ! १४३ यह ज्ञान इन्द्रिय-निरपेक्ष और असहाय है !१४४ चक्षु अचक्षु, अवधि ये दर्शन विभाव दर्शन, और केवल दर्शन स्वभाव दर्शन है । १४५ उपयोग में क्रम:- यह ज्ञान-दर्शनमय उपयोग छद्मस्थ कर्मयुक्त आत्मा को क्रम से, और केवली को युगपत् होता है! १४६ नियमसार में सूर्य का उदाहरण देते हुए इसे और स्पष्ट किया है, जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञानी को ज्ञान और दर्शन एक साथ वर्तते हैं । १४७ सहवादी और क्रमवादी :- द्रव्य और गुण अनन्य हैं, वे एक दूसरे से अभिन्न होते हैं । १४८ ज्ञान जीव का स्वरूप या लक्षण है, अतः आत्मा, आत्मा को जानता ही है । १४९ परन्तु केवली को वह उपक्रम पूर्वक होता है या एक साथ, इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद है । ✔ श्वेताम्बर परम्परा के आगमपाठ यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ज्ञान और दर्शन एकसाथ संभव नहीं हैं। इस विषय में गौतम गणधर और महावीर स्वामी का संवाद भगवतीसूत्र में पठनीय है। गौतम जिज्ञासु भाव से पृच्छा करते हैं, प्रभु ! क्या परम अवधिज्ञानी मनुष्य जिस समय परमाणु पुद्रलस्कन्ध को जानता है, उस समय देखता है? प्रभु ने समाधान में कहा- नहीं । गौतमस्वामी स्वामी ने पुनः पूछा- ऐसा क्यों? तब भगवान् ने कहा- परम अवधिज्ञानी का ज्ञान साकार (विशेषग्राहक) है और दर्शन अनाकार है, अतः जानना और देखना एक समय में संभव नहीं है। यही प्रश्न पुनः केवलज्ञानी के बारे १४३. नि.सा. १० १४४. नि. सा. १२ १४५. नि.सा. १३.१४ १४६. स. सि. २.९.२७३ १४७. नि.सा. १६० १४८. प. का. ४५ १४९. नि.सा. १७० ८९ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पूछा, तो परमात्मा ने ज्ञान और दर्शन एक ही काल में असंभव बताए और वा कारण दोहराया।१५० ____ गौतम और महावीर की इसी प्रकार की चर्चा प्रज्ञापना में भी उपलब्ध हों। गौतम - जिस समय केवली रत्नप्रभा नरक को देखते हैं, उस समय जाना . हैं या नहीं? महावीर - यह संभव नहीं है। गौतम - इसका क्या कारण है कि ज्ञान और दर्शन युगपत् नहीं होता? महावीर - चूँकि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार । अतः एक साथ दोन . . उपयोग नहीं होते ।१५१ परन्तु इसके विपरीत, श्वेताम्बर परम्परा के ही प्रखर तार्किक आचार्य सिद्धसेन अपनी युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्मक्षय से उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान जैसे उत्पन्न होता है वैसे ही दर्शनावरणीय कर्मक्षय से केवल दर्शन भी उत्पन्न होता है ।१५२ ___ कर्मोपशम के कारण छद्मस्थ में दर्शन और ज्ञान में क्रम सम्भव हो पाता है, किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-इन चार घातीकम का जब युगपत् क्षय होता है तब ज्ञान और दर्शन में क्रम की कल्पना नहीं की जा सकती; अन्यथा कालमात्रा तक एक केवलज्ञानी के शेष तीन घातीकों की सत्ता मानी पड़ेगी, दूसरे शब्दों में यह कहना होगा कि मोहनीय और अन्तराय कर्मों की उपस्थिति में भी केवलज्ञान और केवलदर्शन सम्भव हैं। इसी प्रकार की अन्य आपत्तियाँ आ पड़ेंगी। जब ज्ञान के आवरण क्षय हो जाते है तो अज्ञान नहीं रह जाता; उसी क्षण ज्ञान हो जाता है, वैसे ही दर्शन अवरोधक आवरण का क्षय होने पर दर्शन गुण भी १५०. भगवती १८.८.२१.२२ १५१. प्रज्ञापना ३०.३१९ पृ. ५३१ १५२. सं. त. २.५ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगट हो जाता है; ज्ञानावरण आदि चारों घातीकर्मों का क्षय युगपत् होने से ज्ञान और दर्शन में कालभेद मानना उचित नहीं है ।१५३ व्यक्त और अव्यक्त का भेद सामान्य आत्मा में होता है, परन्तु केवली आत्मा में नहीं होता । व्यक्त दर्शन और व्यक्त ज्ञान-ये दोनों केवली के लिए एकसाथ संभव हैं!१५४ यदि ऐसा न माना जाये, तो सर्वज्ञता भी क्रमवाद से खंडित हो जाएगी। सर्व जानना और सर्व देखना ही सर्वज्ञ की परिभाषा है ।१५५ ___ श्वेताम्बर परम्परा के ही आचार्य जिनभद्रसूरि के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ नहीं होते ।१५६ वस्तुतः यह क्रम उपयोग की अपेक्षा से कहा गया हो सकता है, जैसे किसी के स्वर्ण खचित पादुका और स्वर्णखचित आसन दोनों विभूतियाँ एक साथ स्वामित्व में हों, फिर भी वह या तो आसन ग्रहण कर सकता है या गमन कर सकता है; दोनों कार्य एक साथ न होने पर भी स्वामित्व में तो दोनों एक साथ हो सकते हैं। दिगम्बर परम्परा में यद्यपि यह प्रचलित है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं, परन्तु दिगम्बर साहित्य में ही कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिनसे यह तथ्य पुष्ट होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी ज्ञान और दर्शन में वे क्रमवादी हैं। गुणधराचार्य के कषायपाहुड की मूल १५-२० की गाथाओं में जिन मार्गणओं के अल्प-बहुत्व के रूप में जघन्य उत्कृष्ट काल कहा गया है, वहाँ उत्कृष्ट काल में अल्प-बहुत्व में कहा गया है- “चक्षुदर्शनोपयोग के उत्कृष्ट काल से चक्षुज्ञानोपयोग का काल दुगुना है।" उससे श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, इन्द्रियों का ज्ञानोपयोग, मनोयोग, वचनयोग, काययोग आदि स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञानोपयोग से अवायज्ञान का उत्कृष्ट काल दुगुना है। इससे ईहा ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे श्रुतज्ञान का, श्रुतज्ञान से श्वासोच्छ्वास का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक १५३. वही २.६ १५४. वही २.११ १५५. वही.२.१३ १५६. विशेषावश्यक भाष्य ३०९६ For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान, केवलदर्शन और कषाय सहित जीव की शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट काल स्वस्थान में समान होते हुए भी प्रत्येक का उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास से विशेष अधिक है। केवलज्ञान के उत्कृष्ट काल से एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इनसे पृथक्त्व वित्तर्क सविचार ध्यान का काल दुगुना है। इससे प्रतिपाती सूक्ष्मसंपराय उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले का; सूक्ष्म संपराय, क्षपक संपराय का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। सूक्ष्म सांपरायिक जीव के उत्कृष्ट काल से मान कषाय का उत्कृष्ट काल दुगुना है। इससे क्रोध, मान, माया, लोभ, क्षुद्रभवग्रहण, कृष्टिकरण, संक्रामक का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। इससे उपशान्त कषाय का काल दुगुना है। इससे क्षीण कषाय का, इससे चारित्र मोहनीय के उपशामक का, इससे चारित्रमोहनीय के क्षपक का काल विशेष अधिक है । १५७ इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि दर्शनोपयोग संबन्धी सभी इन्द्रियों, मन, वचन, काया, अवाय, ईहा, व श्रुतज्ञान इनका उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है । केवलज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल एक श्वासोच्छ्वास से अधिक और दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। अर्थात् इस समय तक में उपयोग बदल जाता है। अतः जहाँ केवलज्ञान व केवलदर्शन के उपयोग का समय अन्तर्मुहूर्त दिया है, वहाँ यह अन्तर्मुहूर्त से श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम ही समझें ।१५८८ __ केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे लगता है, केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ।१५९ ____टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इसे इन शब्दों में पुष्ट किया है-“कार्यरहित 'शुद्ध जीव' प्रदेशों से घनीभूत दर्शन और ज्ञान में अनाकार और साकार रूप से उपयोग रखने वाले होते हैं, यह सिद्धात्मा का लक्षण है ।१६० १५७. कषायपाहुड १५-२० १५८. कुसुम अभि. ग्रन्थ-कन्हैयालाल लोढा खं. ४ पृ. २८८ १५९. कषायपाहुड पृ. ३१९ १६०. धवला २.९.५६ पृ. ९८ ९२ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर उपयोग युगपत् होता तो इनका काल अनन्त उत्कृष्ट काल होना चाहिए था, परन्तु कषाय-पाहुड की मूल गाथा में केवलज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल दो श्वास से कम बताया गया है, जो क्रमवाद मानने पर ही संभव दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति एक साथ होती है, परन्तु दोनों उपयोग एक साथ नहीं हो सकते ।१६१ इससे यही सारांश निकलता है कि गुण तो एक साथ रहते हैं, पर उपयोग क्रमपूर्वक होता है । गुण उपलब्धि है। उपयोग का अर्थ है उस गुण में प्रवृत्त होना। उपयोग और उपलब्धि भिन्न हैं। एक व्यक्ति अनेक विषयों का ज्ञाता है, पर वह उस समय एक ही दर्शन में उपयोग लगाए हुए है, पर इससे अन्य विषय के ज्ञान का अभाव नहीं है। ____ परन्तु, सिद्धान्त की चर्चा के बाद, यदि तार्किक सारांश देखा जाये तो सिद्ध जीवों के उपयोग में भेद होने का कारण ही नहीं होता, इसलिए ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति की युगपत् उपस्थिति के कारण सिद्ध जीवों के दोनो उपयोग (ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग) एक साथ मानना अधिक तर्कसंगत जान पड़ता जैन दर्शन का अनेकात्मवाद :• तत्त्वार्थ सूत्र में “जीवाश्च" १६२ सूत्र उपलब्ध होता है। इससे जैन दर्शन का अनेकात्मवाद प्रकट होता है। ___अकलंक ने इसकी व्याख्या इस प्रकार है- जीवों की अनन्तता और विविधता सूचित करने के लिये “जीवाश्च" बहुवचन का प्रयोग किया है। संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीव स्थानों के विकल्पों से अनेक प्रकार के हैं। मुक्त जीव भी एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात, समयसिद्ध, शरीराकार अवगाहना के भेद से अनेक प्रकार के हैं । १६३ १६१. कषायपाहुड १३७ पृ. ३२११ १६२. त.सू. ५ १६३. त. वा. ५.३.४४२ ९३ For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक शरीर में अनेक आत्मा रह सकती हैं, परन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती। गणधरवाद में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । जब गौतम स्वामी ब्राह्मण पंडित के रूप में भगवान् महावीर से चर्चा करने जाते हैं और पूछते हैं कि उपनिषद् की अगर यह मान्यता स्वीकार कर लें कि सब ब्रह्म ही हैं तो क्या हानि . महावीर-गौतम! ऐसा संभव नहीं हैं; क्योंकि आकाश की तरह सभी पिण्डों में एक आत्मा संभव नहीं। सभी पिण्डों में लक्षण भेद है। प्रत्येक पिण्ड में भिन्न लक्षण प्रतीत होने से वस्तु भेद स्वीकार्य है । १६४ आत्मा एक हो तो सुख, दुःख, बन्ध, मोक्ष की भी व्यवस्था संभव नहीं है। हम देखते हैं- एक सुखी है, एक दुःखी है, एक बद्ध है, एक मुक्त है । एक ही जीव का एक ही समय में बन्ध और मोक्ष दोनों संभव नहीं हैं। १६५ ... जीव का लक्षण उपयोग है । वह उपयोग प्रत्येक आत्मा का समान नहीं होता। उत्कर्ष, अपकर्ष अवश्य पाया जाता है, अतः जीव अनन्त मानने चाहिए।१६६ एक ही जीवात्मा मानने से न कोई कर्ता होगा, न भोक्ता, न मननशील, न कोई सुखी होगा, न कोई दुःखी, क्योंकि शरीर का यदि अधिकांश भाग पीड़ित हो तो सुखी नहीं होता, वैसे ही संसार का अधिकांश भाग बंधा हुआ हो तो एक अंश मुक्त और सुखी कैसे हो सकता है । १६७ प्रत्येक पिंड की आत्मा के अपने सुख, दुःख, स्मृति और ज्ञान (उपयोग) होते हैं । अतः आत्मा की अनेकता व्यवहार में भी स्पष्ट है। सूत्रकृतांग सूत्र में भी एकात्मवाद का विरोध किया गया है । जो यह मानता है कि एक आत्मा ही नाना रूपों में दिखाई देती है, वह प्रारभ्म में आसक्त रहकर पाप कर लेता है, फिर अकेले उसे ही दुःख और पीड़ा भोगनी पड़ती है; संपूर्ण जगत् को नहीं। १६८ १६४. गणधरवाद १५८१ १६५. वही १५८२ १६६. वही १५८३ १६७. वही १५८४-८५ १८८. सूत्रकृतांग १.१.९.१० For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का परिमाण : देहप्रमाण : आत्मपरिमाण के संबन्ध में विविध वाद प्रचलित हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग आत्मा को व्यापक मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा अमूर्त है, अतः आकाश की तरह व्यापक है।१६९ गीता भी यही मानती है । १७० _ रामानुज, वल्लभाचार्य, माधवाचार्य व निम्बार्काचार्य आत्मा को अणु परिमाण मानते हैं। इनके अनुसार आत्मा बाल के हजारवें भाग बराबर है और हृदय में निवास करती है ।९७१ उनका कथन है-यदि आत्मा को अणु परिमाण न माना जाय तो उसका परलोक गमन नहीं होगा। - जैन दर्शन आत्मा को न व्यापक मानता है, न अणुपरिणाम, वह आत्मा को देहपरिणाम मानता है। आत्मा सर्वव्यापी नहीं, अपितु शरीरव्यापी है। जिस प्रकार घट गुण घट में ही उपलब्ध है, वैसे ही आत्मा के गुण शरीर में उपलब्ध हैं। शरीर से बाहर (संसारी) आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर में ही उसका निवास है।१७२ कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष आदि युक्तियुक्त तभी बनते हैं, जब आत्मा को अनेक और शरीरव्यापी माना जाय । १७३ __.आत्मा कथंचित् व्यापक है, पर वह सामान्य अवस्था में नहीं है। केवलीसमुद्घात अवस्था में आठ समय में चौदह राज परिमाण लोक में व्याप्त होने की अपेक्षा वह व्यापक है, परन्तु यह स्थिति कभी-कभी होती है, नियत नहीं। मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । यह समुद्घात सात प्रकार का हैं । १७४ (१) तीव्र वेदना होने के समय मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर जाने की वेदना को वेदना समुद्घात कहते हैं। .१६९. तर्कभाषा पृ. १४९ ।। १७०. गीता २.२० । १७१. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ६९२ १७२. गणधरवाद १५८६ १७३ः वही १५८७ १७४. भगवती २.२.१, पण्ण वणा भा. १ पृ. २३७ एवं स्याद्वामंजरी ९.७५ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) तीव्र कषाय के उदय से दूसरे का नाश करने के लिये मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने का कषायसमुद्घात कहते हैं। (३) जिस स्थान में आयु का बन्ध किया हो, मरने के अंतिम समय उस स्थान के प्रदेशों को स्पर्श करने के लिये मूल शरीर को न छोड़ते हुए आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं। . . (४) तैजस् समुद्घात दो प्रकार को होता है- शुभ और अशुभ । जीवों को किसी व्याधि या दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर मूल शरीर को नं छोड़ते हुए मुनियों के शरीर से बारह योजन लम्बे सूच्यगुंल के असंख्येय भाग, अग्रभाग में नौ योजन, शुभ आकृति वाले पुतले के बाहर निकल जाने को शुभ तैजस् समुद्घात कहते हैं । यह पुतला व्याधि, दुर्भिक्ष आदि को नष्ट करके वापस लौट आता है। किसी प्रकार के अपने अनिष्ट को देखकर मुनियों के शरीर को बिना छोड़े ही मुनियों से उक्त परिमाण वाले अशुभ पुतले के बाहर निकल कर जाने को अशुभ तैजस् समुद्घात कहते हैं। यह अशुभ पुतला अपने अनिष्ट को नष्ट करके मुनि के साथ स्वयं भी भस्म हो जाता है। (५) मूल शरीर को न छोड़ते हुए किसी प्रकार की विक्रिया करने के लिये आत्मा के प्रदेशों के बाहर जाने को वैक्रिय समुद्घात कहते हैं। (६) ऋद्धिधारी मुनियों को किसी प्रकार की तत्त्वसंबन्धी शंका होने पर उनके मूल शरीर को बिना छोड़े शुद्ध स्फटिक के एक हाथ के बराबर का पुतला मस्तक के बीच से निकलकर शंका की निवृत्ति के लिये केवली भगवान् के पास भेजा जाना आहारक समुद्घात कहलाता है। यह पुतला केवली भगवान् के पास अन्तर्मुहूर्त काल में पहुँच जाता है और शंका की निवृत्ति होने पर अपने स्थान पर आ जाता है। (७) वेदनीय कर्म के अधिक रहने पर और आयु कर्म के कम रहने पर आयु कर्म को बिना भोगे ही आयु और वेदनीय कर्म बराबर करने के लिये आत्मप्रदेशों का समस्त लोक में व्याप्त हो जाना केवलीसमुद्घात है। इस अपेक्षा से आत्मा व्यापक है। सद For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार रूपादि घट में ही उपलब्ध होते हैं, उसी प्रकार आत्मा शरीर में ही उपलब्ध होती है ।१७५ तथा शरीर के संपूर्ण प्रदेशों में व्याप्त रहती है। आत्मा को सर्वगत मानने से वह सर्वज्ञ हो जायेगी, फिर अपने सुख-दुःख का संवेदन कैसे करेगी, क्योंकि आत्मा को सुख दुःख होते हैं । १७६ __ केवलीसमुद्घात के अतिरिक्त एक और कारण से भी आत्मा व्यापक हैवह है उसका ज्ञान गुण । ज्ञान समस्त पदार्थों को जानने से सर्वगत और व्यापक है। इस अपेक्षा से भी आत्मा सर्वव्यापक है । ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। उसे और आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता। इसी दृष्टि से ज्ञानियों ने द्रव्य (आत्मा) को विश्वरूप भी कहा है ।१७८ ज्ञानी (आत्मा) को ज्ञान से भिन्न माने पर दोनों के अचेतन होने की आपत्ति आ पड़ेगी।१७९ दूसरे, ज्ञान को और ज्ञानी को भिन्न मानने मे हमें अपना ही ज्ञान नहीं होगा।१८० - आत्मप्रदेशों की अपेक्षा समस्त लोकाकाशप्रमाण होने पर भी संसारी जीव को कर्मानुसार जिस प्रकार का शरीर प्राप्त होता है, वह उसी शरीर के अनुसार अपने प्रदेशों में संकोच विस्तार कर लेता है। शरीर का कोई अंश ऐसा नहीं होता, जहाँ आत्मप्रदेशों का अभाव रहे। उसमें यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह शरीर को व्याप्त कर ले ।१८१ केवलीसमुद्धात के समय वह लोक में व्याप्त होता है, जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप लेते हैं। १८२ १७५. अन्ययो व्य. ९ १७६: कार्तिकेयानुप्रेक्षा १७७ १७७. प्रवचनसार २३-२८ १७८. पं. का ४३. १७९. पंचास्तिकाय ४८ १८०. स्याद्वादमं पृ. ६७ १८१. स. सि. ५.८. ५४१ १८२. वही - ९७ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार की टीका में 'अमूर्त आत्मा का संकोच विस्तार कैसे संभव है' - यह प्रश्न उठाकर स्वयं समाधान कर दिया कि “यह तो अनुभवगम्य है, जैसे जीव स्थूल तथा कृश शरीर में बालक तथा कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।" निश्चयदृष्टि से सहजशुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यप्रदेशी जीव होने पर भी व्यवहार से अनादिबंध के कारण पराधीन शरीर नामकर्म उदय के कारण संकोच विस्तार युक्त होकर घटादि पात्र में दीपक की तरह स्वदेह प्रमाण है । १८४. नित्यता तथा परिमाणी अनित्यता (परिणामीनित्यात्मवाद) :___आचारांग सूत्र का प्रारंभ ही इस सूत्र से हुआ है कि आत्मा परिणमनशील है। जैसे कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती कि “मैं पूर्व दिशा से आया हूँ 'पश्चिम दिशा से आया हूँ' उत्तर, ऊर्ध्व, अधः, या किसी अन्य दिशा से आया हूँ या अनुदिशा से आया हूँ।"१८५ इसी प्रकार नित्य परिणमनशील आत्मा को अपने परिणमन का अनुभव नहीं होता। ___इस अनुसंचरण का इतना महत्त्व बताया कि इसे 'आत्मवादी' का लक्षण तक बता दिया।१८६ पर्याय की दृष्टि से आत्मा अनित्य है, परन्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य है । जैसे संसारी पर्याय की दृष्टि से नष्ट, मुक्त के रूप में उत्पन्न और द्रव्यत्व की दृष्टि से अवस्थित है ।१८७ जैन दर्शन ध्रौव्य के प्रतिक्षण परिमणन स्वरूपी होने से आत्मा को परिणामी नित्य मानता है । इसके विपरीत सांख्य आत्मा (पुरुष) को सर्वथा अपरिणामी मानता है ।१८८ मनुष्यत्व से नष्ट हुआ जीव देवत्व को उपलब्ध होता है, पर इसमें जीवन उत्पन्न होता है, न नष्ट ।१८९ पर्याय परिणमन रूप क्रिया से आत्मा अनित्य और १८३. प्र.सा.ता.वृ. १३७ १८४. बृ.द्र.सं.टी. २.९.१० १८५. आचारांग सूत्र १.१.१ १८६. वही १.१.५ १८७. गणधरवाद १८४३ १८८. सांख्यकारिका १७ १८९. पं. का १७ ९८ For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यत्व या जीवत्व में सदैव स्थायी होने से नित्य है । तत्त्वार्थसूत्र में धर्म, अधर्म, आकाश और काल को निष्क्रिय बताया गया है। इससे यह भली प्रकार से अनुमान लगाया जा सकता है। कि पुद्गल और जीव सक्रिय हैं। क्रिया की व्याख्या पूज्यपाद ने इस प्रकार की है। “अंतरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है। १९०यह गतिक्रिया संसारी जीवों में होती है, इसीलिए यह विभाव क्रिया कहलाती है और सिद्धों में मात्र स्वभाव क्रिया है, जो ऊर्ध्वलोक लोक की ओर ही ले जाती है जबकि संसारी जीवों की क्रिया छह दिशाओं में होती है ।१९१ द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणाम युक्त सत् (नित्य) है। १९२ आत्मा द्रव्य है, अतः वह भी अन्य द्रव्यों की तरह नित्य है और परिणामी भी। परिणामी क्या है? इसका समाधान तत्त्वार्थसूत्र में दिया गया है- द्रव्य का प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है । १९३ ___ परिणाम स्वाभाविक और प्रायोगिक दो प्रकार से होता है । ९४ जीव और पगल इनमें स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों पर्यायें (परिणमन) पायी जाती हैं।१९५ इस परिणमन की अपेक्षा जीव अनित्य है। द्रव्य की अपेक्षा नित्य व अपरिणामी एवं पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य और परिणामी है। आत्मा कर्ता और भोक्ता है (आत्मकर्तृत्व-भोक्तृत्ववाद):- : उत्तराध्ययन में आत्मा को नानाविध कर्मों का कर्ता कहा है ।१९६ आत्मा ही उन कर्मों के फल के भोक्ता के रूप में अनेक जाति, योनि में जन्म लेता है ।१९७ १९०. स.सि. ५.७.५३९ एवं त.वा. ५.७.४४६ १९१. नि.सा.ता.वृ. १८४, ३६६ १९२. प्र.सा.८ १९३. त.सू. ५.४२ . १९४. न्यायवि.टी. १.१० १९५. भगवती १.३.७ १९६. उत्तराध्ययन ३.२ १९७. उत्तराध्ययन ३.३ २५ For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापकर्म का कर्ता उसके फल का भोक्ता बने बिना मुक्त नहीं हो सकता ।१९८ ___भगवती सूत्र में जीव स्वकृत कर्म के फल का भोक्ता है या नहीं, इस विषय में स्पष्ट विवेचन है। ... गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि “जीव स्वकृत कर्म का भोक्ता है या नहीं?" तब महावीर स्वामी प्रश्न का समाधान करते हैं- किसी को भोगता है, किसी को नहीं। गौतम की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। उन्होंने पुनः पूछा-ऐसा क्यो? तब महावीर स्वामी ने कहा-जो वर्तमान में उदय अवस्था में हैं, उन्हें भोगता है; जो सत्ता में (संचित) हैं, उन्हें नहीं। इससे यह न समझे कि वे भविष्य में भोगने नहीं पड़ेंगे। भोगने तो उसको पड़ेंगे ही जो उनका कर्ता हैं । १९९ भगवान महावीर के ही समय में बौद्ध विचारधारा प्रचलन में आ चुकी थी। बौद्धसिद्धान्त 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद' ने उस समय जनता में कुछ ऐसा विश्वास उत्पन्न कर दिया था कि कर्म करनेवाला क्षणिकविज्ञान-आत्मा कोई अन्य है तथा फल का भोक्ता क्षणिकविज्ञानात्मा कोई अन्य ही होता है। इसी प्रकार न्यायदर्शन ने दार्शनिक आधार पर यह सिद्ध कर दिया था कि कर्म करने में तो जीव स्वतन्त्र है किन्तु फल के भोगने में वह ईश्वर के अधीन है, अर्थात् ईश्वर चाहे तो पुण्य-पाप कर्मों का फल दे और चाहे तो न भी दे; ईश्वर की कृपा हो जाये तो अशुभ का परिणाम भुगतना नहीं पड़ेगा। इस प्रकार सांख्य के आत्मकर्तृत्वभोक्तृत्ववाद में संशय उत्पन्न हो गया था। श्रावकों के इस भ्रम को दूर करने के लिए गौतमस्वामी ने उसका समाधान भगवान् महावीर के द्वारा करवाया था। भगवान् के समाधान से यह व्यावहारिक असंतुलन भी समाप्त हो गया कि कर्म कोई करे और भोक्ता कोई बने । ____ आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व से ही जीव मात्र के कर्मों की विषमता स्थापित होती है। अनेकात्मवाद एक यथार्थवादी सिद्धान्त है। इसके अनुसार विभिन्न प्राणी हैं, उन सभी के कर्मबन्ध भी विभिन्न (असमान) हैं। अतः उनके फल भी असमान ही हैं। भगवतीसूत्र में समानत्व और असमानत्व को लेकर लम्बी चर्चा है ।२०० १९८. उत्तराध्ययन ३.४ १९९. भगवती १.२.२.३ २००. भगवती १.२.५-१० १०० For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में नयशैली से, व्यवहार नय से, आत्मा को ज्ञानावरणीय कर्म, औदारिकादि शरीर, आहारादि पर्याप्ति के योग्य पुद्गलरूप नोकर्म का और बाह्य पदार्थ घटपटादि का कर्ता कहा है, परन्तु अशुद्ध निश्चय नय से वह आत्मा राग-द्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है, तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध चेतन ज्ञान-दर्शन स्वरूप शुद्ध भावों का कर्ता है ।२०१ - यही तत्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रगट हुआ है कि संसार एवं मोक्ष-इन दोनों का कर्ता एवं भोक्ता जीव स्वयं ही हैं । २०२ . समयसार में संपूर्ण द्वितीय अधिकार कर्ता और कर्म प्रकरण से व्याप्त है। समयसार के अनुसार व्यवहार नय से आत्मा अनेक पुद्गल कर्मों का कर्ता एवं अनेक कर्मपुद्गलों का भोक्ता है ।२०३ ... इन कर्मों का आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से ही कर्ता नहीं, निमित्त नैमित्तिकभाव से भी आत्मा कर्ता नहीं है। इसी प्रकार बाह्य पदार्थ घट, पट अथवा अन्य किन्हीं द्रव्यों का कर्त्ता आत्मा नहीं है, परन्तु घटादि द्रव्य और क्रोधादि विभावभावों को उत्पन्न करने वाले योग व उपयोग का कर्ता है आत्मा।२०४ संक्षेपतः यह कहा जा सकता है कि आत्मा कर्ता और भोक्ता उपचार (व्यवहार) से है, परमार्थ से नहीं । जीव निमित्तभूत होने पर कर्मबन्ध का परिणाम होता हुआ देख कर जीव ने कर्म किया, यह उपचार मात्र से कहा जाता है ।२०५ - इस तत्थ को एक दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है- युद्ध में सेना ही संघर्ष करती है, पर कथन यही होता कि राजा ने युद्ध किया'। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव ने किये, यह कथन भी उपचार से ही है।०६। निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा पर-पदार्थों का कर्ता नहीं है। जो यह मानता है कि मैं दूसरों को मारता हूँ, दूसरे मुझे मारते हैं, वह अज्ञानी है। जो यह मानता .२०१. समयसार ९८ २०२. कार्तिकेयानुपेक्षा १८८ २०३. समयसार ८४ २०४. समयसार १०० २०५. समयसार १०५ २०६. समयसार १०६ १०१ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि मैं दूसरों को सुखी हूँ, दूसरे मुझे सुखी करते हैं, वह मूर्ख है। इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है; क्योंकि कर्मोदय से ही जीव सुखी-दुःखी होते हैं।२०७ जीव का स्वरूप और वर्गीकरण :___ कोई भी कथन सत्य तभी कहा जा सकता है जब वह स्याद्वादशैली में कहा गया हो, अर्थात् कोई भी तत्थ किसी एक अपेक्षा से ही कहा जा सकता है; निरपेक्षरूप से नहीं। जैनागम में जीवादि के विषय में जो भी कथन प्राप्त हैं, वे किसी न किसी अपेक्षा से कहे गये हैं। यदि अनेकान्तवाद के कथंचिद् एकान्तपक्ष के अनुसार जीव का स्वरूप कहना हो तो वह चेतनागुण है। समयसार जीवाजीव अधिकार में परमार्थतः जीव का स्वरूप बताते हुए ४९ वीं कारिका में कहा गया है कि जीव का गुण चेतना है, किन्तु उसका कोई ऐसा चिह्न नहीं है जो पौगलिक हो अर्थात् वह किसी भी लिंग से गृहीत नहीं होता; वह अलिंगग्रहण है। यहाँ पर अलिंगग्रहण को समझाते हुए पौगलिक गुणों की अपेक्षा से कहा गया है कि वह रस-रूप-गन्ध-शब्द से रहित अव्यक्त (इन्द्रियातीत) है। क्योंकि समस्त जगत् दो प्रकार के पदार्थों का समूह है, जीव एवं अजीव । इन दोनों के भेदविज्ञान पर आधारित जीव द्रव्य का स्वरूप या तो उसके निज गुण के माध्यम से बताया जा सकता है या फिर उसके विपरीत गुणधर्मों से युक्त पुद्गल द्रव्य के गुणों के अभाव के माध्यम से। उपर्युक्त स्वरूप कर्मसाक्षेप नहीं है किन्तु कर्मनिरपेक्ष और पारमार्थिक है। पारमार्थिक स्वरूप तो अनुभवगोचरमात्र है। समस्त जीवराशि के जीव चूंकि कर्मरहित या कर्मसहित ही व्यवहारातः देखे जाते हैं, कर्ममुक्तिसापेक्ष शुद्ध आत्मा में कर्मोपाधि जन्य अशुद्धि का अभाव विशेषण के रूप में प्रतिपादित करते हुए जीव का लक्षण बताया जाता है। अनादिकर्मबन्ध से युक्त जीव मुक्ति के पूर्व तक कर्म से बद्ध रहता हुआ संसरण करता रहता है, इसे संसारी जीव कहते हैं, और जब वही जीव कर्मबन्धन से रहित हो जाता है तब उसे मुक्त कहते हैं। इस प्रकार, जीवों का मुख्य वर्गीकरण संसारीजीव और मुक्तजीव के रूप में किया गया है।२०८ २०७. समयसार २४७-२५८ २०८. त.सू. २.१० ठाणांग २.४०९ १०२ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्त आत्मा: आत्मा ज्ञानमय, दर्शनमय, अतीन्द्रिय, महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध है । २०९ आत्मा ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । यह काल की अपेक्षा से आत्मा के लक्षण हैं, भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श हैं । २१० आचारांग में कर्मयुक्त आत्मा का स्वरूप इस प्रकार प्राप्त होता है - शुद्धात्मा अवर्णनीय, अगम्य, शरीर रहित, ज्ञाता, न दीर्घ, न ह्रस्व, न वृत्त, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न परिमंडल, न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीत, न शुक्ल, न सुगंधित, न दुर्गंधयुक्त, न तिक्त, न कटु, न कषाय, न अम्ल, न मधुर, न कर्कश, न मृदु, न गुरु, न लघु, न शीत, नैं उष्ण, न स्निग्ध, न रूक्ष है । वह शरीरमुक्त, कर्ममुक्त, अलेप, स्त्री-पुरुष - नपुंसक आदि वेद रहित है। वह मात्र परिज्ञा है, संज्ञा है, चैतन्यमय है, अनुपमेय व अमूर्त है, वह पदातीत, शब्दातीत, रूपातीत, रसातीत, स्पर्शातीत है । " २११ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा को निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञायकमात्र कहा है । वह न प्रमत्त है, न अप्रमत्त, न ज्ञान-दर्शन- चारित्र स्वरूप है । २१२ वह तो मात्र अन्यय, शुद्ध, उपयोग स्वरूप है । २१३ नियमसार कुन्दकुन्द ने नियमसार में आत्मा का भावात्मक स्वरूप बताते हुए कहा कि केवलज्ञान स्वभाव, केवलदर्शन स्वभाव, अनन्तसुखमय, और अनन्तवीर्यमयह आत्मा है । २१४ यही लक्षण उत्तराध्ययन में मिलता है । २१५ - २०९. प्र. सा. १९२. २१०. ठाणांग ५.१७३ २११. आचारांग ३.१२३ -४० व समयसार ५०-५५ २१२. समयसार २१३. नि. सा. ४४ २१४. नि.सा. ९६ २१५. उत्तराध्ययनं २८.११ १०३ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयुक्त आत्मा : जब तक आत्मा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से बंधा हुआ है, तब तक वह संसारी कहलाता है । ज्योंहि ये कर्म समाप्त होते हैं या जीव से कर्मों का संबन्ध विच्छिन्न होता है, उसका शुद्ध और उज्ज्वल स्वरूप प्रकट हो जाता है । २१६ इसे परमात्मा या सिद्धात्मा भी कहते हैं। शुद्ध आत्मा का स्वरूप चैतन्य है - जैसा पूर्व में पारमार्थिक जीवस्वरूप विवरण में कह आये हैं। जीव में ज्ञान - दर्शन गुण की धारा निरन्तर बहती रहती है । संसारी अवस्था में जैसा - जैसा बाह्य और अन्तरंग निमित्त मिलता है, उसके अनुसार वह धारा न्यूनाधिक और मलिन, मलिनतर या मलिनतम होती है; मात्र केवली अवस्था में परिपूर्ण विशुद्ध हो पाती है क्योंकि केवली में बाह्य व अंतरंग कारण अपेक्षित नहीं रहते । २१७ कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मा का स्वरूप पंचास्तिकाय में बताते हुए कहा है कि आत्मा चैतन्य, उपयोग स्वरूप, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त, व कर्मसंयुक्त है । २१८ षड्दर्शनसमुच्चय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने जीव का स्वरूप बताते हुए कहा. है कि-जीव चैतन्यस्वरूप, ज्ञान-दर्शन आदि गुणों से भिन्न-भिन्न, मनुष्यादि विभिन्न पर्यायों को धारण करने वाला, शुभ अशुभ कर्म का कर्त्ता और फल का भोक्ता है । २१५ जीव अनादिनिधन है और चेतना उसका सहज स्वभाव है । २२० भगवतीसूत्र में 'जीव' और प्राणी को भिन्न-भिन्न बताया गया है । गौतमस्वामी ने जब जीव और चैतन्य की भिन्नता विषयक जिज्ञासा प्रगट की, महावीर स्वामी ने जीव और चैतन्य को एकार्थक बताया । २२१ परन्तु जब प्राणी २१६. पं.का. २० २१७. स.मि. २.८.२७३ २९८. पं.का. २७ २१९. षड्दर्शन समुच्चय ४८-४९ २२०. अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ४ पृ. १५१९ २२१. भगवती ६.१०.२ १०४ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जीव की भिन्नता में पूछा तो महावीर स्वामी कहा- जो प्राण धारण करता है, वह तो जीव है, परन्तु जो जीव है उसके लिये प्राण धारण करना अनिवार्य नहीं है। शुद्धात्मा के प्राण नहीं होते । २१२ तात्पर्य यह है कि जीव और प्राणी में यह भेद है कि प्राणी उस जीव की (उस अवस्था की) संज्ञा है जिसके द्रव्यप्राण और भावप्राण हों; ये संसारी जीव में ही होते हैं, संसार से मुक्त जीव के शरीर के अभाव में प्राण का अस्तित्व नहीं होता; वह केवल अपने जीवत्व गुण के साथ जीव संज्ञा पाता है । सांख्य दर्शन आत्मा को उपचार से कर्मों के सुखादि फल का वास्तविक भोक्ता मानता है । २२३ यद्यपि आत्मा शुद्धनय से निर्विकार है! परम आह्लाद जिसका लक्षण है ऐसे सुखामृत का भोक्ता है तो भी अशुद्धनय से सांसारिक सुख दुःख का भी भोक्ता होता है । २२४ जीव को वास्तविक भोक्ता न कहकर अगर उपचार से कहा जाय तो सुख दुःख का संवेदन निराधार हो जायेगा । २२५ संसारी और मुक्त आत्मा और अत्मिकभाव : समस्त संसारी जीव कर्ममल से लिप्त हैं । कर्मशक्ति के कारण जीव की स्वाभाविक शक्ति का आविर्भाव रुक जाता है। जीव की शक्ति कर्मशक्ति के अनुपात में अधिक होती है। जैसे एक छोटी चादर से शरीर को ढँकने पर शरीर कोई न कोई भाग अनावृत रह ही जाता है, उसी प्रकार अनादि संसारी जीव के चेतनगुण को कर्मशक्ति द्वारा पूर्णरूप से आवृत नहीं किया जा सकता । जैन सिद्धान्त में अशुद्धात्मा और शुद्धात्मा के भावों के आश्रय से जीव द्रव्य के स्वरूप का कथन किया जाता है । जीव की १४ अवस्थाओं (विकास की भूमिकाओं) में होने वाले इन भावों को पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। भगवतीसूत्र में इन्हें छह वर्गों में व्यवस्थित किया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र में वाचक उमास्वाति के द्वारा निर्दिष्ट आत्मा के औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदरिक २२२. भगवती ६.१०.६ २२३. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ४९.९६ २२४. बृ.द्र. स. ९ २२५. स्याद्वादमं. १५.२२९ १०५ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत है। और पारिणामिक-इन पाँच भावों२२६ की संक्षिप्त व्याख्या पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्ध टीका में निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होती है। औपशमिक भावः जैसे कतक आदि द्रव्य के संबन्ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना या कुछ समय के लिये रोक देना उपशम है । जीव के जिस भाव के प्रगट होने का निमित्त कारण कर्मशक्ति का 'उपशम' है, वह औपशमिक भाव है ।२२७ इसे स्पष्ट करते हुए क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने लिखा है-कर्मों के दबने को उपशम और उस उपशम से उत्पन्न जीव के परिणामों को औपशमिक भाव कहते हैं। उमास्वाति ने औपशमिक भाव के दो भेद किये हैं-सम्यक्त्व और चारित्र ।२२८ सम्यक्त्व के साथ पठित होने से यहाँ पर चारित्र का अर्थ सम्यक् चारित्र है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इनमें से दर्शनमोहनीय के तीन उत्तरभेद हैं: सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, और चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं : कषायमोहनीय और अकषायमोहनीय । कषायमोहनीय के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, और दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व-इन सात कर्मप्रकृतियों के उपशम से औपशमिक भाव होता है ।२२९ सम्यग्दर्शन का घात उपर्युक्त सात कर्मप्रकृतियों के कारण ही होता है । इसके विपरीत, इन सातों प्रकृतियों के उपशम से तत्त्वरुचि प्रकट होती है, उस औपशमिक सम्यक्त्व (सम्यगदर्शन) कहते हैं । शुभ और अशुभ क्रियाओं में क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म की अकषाय(नोकषाय) एवं कषाय(क्रोध-मान-मायालोभ) नामक उत्तरप्रकृति के भेद प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के उपशम से औपशमिक चारित्र प्रकट होता है ।२३० २२६. त.सू. २.१ २२७. स.सि. २.१.२५२ २२८. त.सू. २.३ २२९. स.सि. २.३.२५७ २३०. सभाष्यताधिगम सूत्र २.३.७७ १०६ For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षायिक भाव : कर्मों का सर्वथा आत्मा से अलग हो जाना, क्षय है। कतक (फिटकरी) डालने से निर्मल हुए पानी को दूसरे बर्तन में डालने से जैसे कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है ।२३१ ...यह क्षायिक भाव नवभेद युक्त है। ज्ञान दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र!२३२ समग्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय, दर्शनमोह व चारित्र मोह के आत्यान्तिक क्षय होने पर इन क्षायिक भावों का प्रकटीकरण होता है। दानादि लब्धियों के कार्य के लिए शरीर नामकर्म व तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा होती है। चूँकि सिद्धों में इनका उदय नहीं है, अतः उनमें ये लब्धियाँ अव्याबाध अनन्तसुख रूप से रहती है, जैसे-केवलज्ञान रूप में अनन्तवीर्य ।२३३ ये नौ क्षायिकभाव चारघातीकर्मों से रहित सशरीर (सकल परमात्मा) और अशरीर (मुक्त-निकल परमात्मा), दोनों में प्रगट रहते हैं। ___औपशमिकसम्यग्दर्शन, औपशमिकचारित्र और क्षायिक भाव भव्य जीव में ही पाये जाते हैं ।२३४ . मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव:___ इसे क्षायोपशमिक भाव भी कहते हैं। क्षायोपशमिक भाव कर्मों के आंशिक उपशम और आंशिक क्षय से पैदा होता है। जिस प्रकार फिटकरी आदि के प्रयोग से जल में कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है।२३५ क्षायोपशमिकभाव के १८ भेद हैं-चार ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवंज्ञान), तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, अवधिज्ञान), तीन दर्शन (चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन), पाँच लब्धियाँ २३१. स.सि. २.१.२५२ २३२. त.सू. २.४ २३३. त.रा.वा. २.४.१-७.१०५-१०६ २३४. स.सि. २.१.२५३ २३५. स. सि. २.१.२५२ १०७ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दान,लाभ, भोग,उपभोग और वीर्य),सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ।२३६ उदयप्राप्त सर्वघाती कर्मस्पर्धकों क्षय होने से और अनुदय प्राप्त सर्वघाती कर्मस्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होने पर तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय होने पर मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव होता है । २३७ औदयिक भाव :___ मन, वचन और काय की विभिन्न क्रियाओं को करने से शुभ, अशुभ कर्मों का संचय आत्म प्रदेशों में होता रहता है। ये कर्म काललब्धि से पक कर जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से फल प्रदान करते हैं, तब यह उनकी. उदय अवस्था है ।२३८ इस कर्मोदय से होनेवाली जीव की अवस्था को औदयिक भाव कहते हैं। ___ औदयिक भावों के इक्कीस भेद'३९ बतलाये हैं-चार गति-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक; चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ; तीन लिंग-स्त्री लिंग, पुरुष लिंग और नपुंसकलिंग; मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व एवं छः लेश्याकृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । भगवती सूत्र में जीव के भावों को छः भावों में वर्गीकृत करते हुए छठे 'सान्निपातिक' २४० भाव का भी उल्लेख किया गया है। वहाँ औदरिक भाव को दो प्रकार का बताया गया है-उदय और उदयनिष्पन्न । उदय का अर्थ आठ कर्म प्रकृतियों का फल प्रदान करना है। उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं-जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न ।२४१ कर्म के उदय से जीव में होने वाले नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न एवं कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलतो हैं । जैसे औदारिकादि शरीर और औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि । ये औदारिक शरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने से अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। २३६. त.सू. २.५ २३७. त.रा.वा. २.५.३.१०६ (विस्तृत विवेचन हेतु तत्त्वार्थ टीका देखें) २३८. स.सि. २.१.२५२ २३९. त.सू. २.६ २४०. भगवती १७.१.२८ २४१. भगवती १७.१.२८ १०८ For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः कर्म तो असंख्य प्रकार के हैं, वर्गीकरण की दृष्टि से उन्हें आठ मूल प्रकृतियों एवं तिरानवें (९३) उत्तर प्रकृतियों में वर्गीकृत किया गया है। इसी प्रकार भावों के भेदों के विषय में भी समझना चाहिए। अर्थात् भावों के पाँच भेदों की एकत्र स्थिति की अवस्था को सान्निपातिक भाव कहा जाता है। पारिणामिक भावः · आत्मा का पारिणामिक भाव ही उसे अजीव से पृथक् सिद्ध करता है। पारिणामिक भाव आत्मा का स्वभाव है। अन्य सारे भाव कर्मसापेक्ष हैं जबकि पारिणामिक भाव कर्म उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिये ये ‘पारिणामिक' हैं।२४२ पंचास्तिकाय में जीव को परिणामी भाव के कारण ही अनादि-अनन्त कहा गया है।२४३ अनादि-अनन्त जीव औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव से सादि सांत हैं, क्षायिक भाव से सादि अनंत है।२४४ भगवतीसूत्र में भावों की अपेक्षा से आत्मा के आठ प्रकार बताये गये हैं। जिस समय आत्मा जिस परिणाम (भाव) से युक्त हो, उस समय उसी भाव के आधार पर आत्मा को नाम दिया जाता है, यथा-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चरित्रात्मा और वीर्यात्मा।४५ इसका विस्तृत विवेचन भगवती सूत्र में प्राप्त होता है ।२४६ ___ द्रव्य की अपेक्षा से सभी जीवों को द्रव्यात्मा कहा जाता है। उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय के अतिरिक्त सभी कषाययुक्त जीवों को कषायात्मा कहा जाता है। अयोगीकेवली और सिद्धों के अतिरिक्त सभी जीवों में कोई न कोई योग (मनोयोग, वचनयोग, या काययोग) रहता है, ऐसे जीवों को योगात्मा कहा जाता है। जीवमात्र का लक्षण उपयोग है, इसलिए सभी जीवों को उपयोगात्मा नाम दिया जाता है। सम्यग्दृष्टि जीवों के ज्ञानगुण की अपेक्षा से उन्हें ज्ञानात्मा कहा जाता है, ज्ञान यहाँ सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से कहा है। २४२. स.सि. २.७.२६८ २४३. पंचास्तिकाय ५३ २४४. पं.का.ता.वृ. ५३ २४५. भगवती १०.१०.१ २४६.. भगवती १२.१०.२-८ १०९ For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षुदर्शन आदि दर्शनों की अपेक्षा से आत्मा को दर्शनात्मा कहा जाता है। सभी जीवों में न्यूनाधिक रूप से दर्शन गुण पाया जाता है। एकदेशचारित्र या सर्वदेश चारित्र धारण करने वाले श्रावकों और मुनियों को चारित्रत्मा कहा जाता है । संसारी जीव सकरण वीर्य से युक्त होने के कारण और सिद्ध जीव अकरण वीर्य से युक्त होने के कारण जीव को वीर्यात्मा भी कहा जाता है। 1 तत्त्वार्थ सूत्र में पारिणामिक भाव के तीन भेद किये हैं- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । २४७ ये तीनों भाव मात्र जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं । जीवत्व का अर्थ 'चैतन्य' है । जिसमें सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है, उसे 'भव्य' एवं इससे विपरीत को अभव्य कहते हैं । २४८ इन तीनों भावों को शुद्ध पारिणामिक और अशुद्धपारिणामिक में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। संसारी जीवों का वर्गीकरण ( त्रस और स्थावर की अपेक्षा) : काय दो प्रकार की है- सकाय और स्थावर काय । २४९ 'काय' शब्द का अर्थ शरीर है । सभी सम्मूर्छनजन्म, गर्भजन्म और उपपादजन्म भेद से जनित जीवों के तत्तत् शरीरजन्य क्षुधादि वेदनाएँ होती है एवं जो जीव क्षुधादि के कारण भोजनादि के लिए त्रस्त होते रहते हैं, वे त्रस हैं, और जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हुए भोजनादि प्राप्त कर लेते हैं, वे स्थावर हैं। सरल शब्दों में कहा जाये तो जो चल फिर सकें वे त्रस हैं, एवं जो चल फिर न सकें; स्थिर रहें, वे स्थावर हैं । इस प्रकार, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति को स्थावर कहा जाता है, शेष संसारी जीवस हैं। दूसरे शब्दों में एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर और शेष द्वीन्द्रियादि जीवों को त्रस कहा जाता है। वनस्पतिकाय की कुछ जातियों के जीव भोजनादि के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते देखे जाते हैं, अतः वे त्रस हैं या स्थावर ? ऐसी शंका का समाधान कर्मसिद्धान्त के आधार पर समझना चाहिएजिनके नाम कर्म का उदय है, वे त्रस हैं एवं जिनके स्थावर नाम कर्म का उदय है, वे स्थावर हैं । २५० २४७. त.सू. २.७ २४८. स. सि. २.७.२६८ २४९. ठाणांग २.१६४ एवं उत्तराध्ययन ३६.६८, त.सू. २.१२ २५०. स. सि. २.१२.२८४ ११० For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता आया है। इसलिए जीवों का जिस प्रकार से सूक्ष्म विवेचन जैनसिद्धान्त में किया गया है, आज तक वैसा विश्लेषण और वर्गीकरण किसी सिद्धान्त लिए संभव नहीं हो सका। जिस सूक्ष्मस्थिति की कल्पना भी अन्यत्र नहीं की जा सकी, वहाँ जैनसिद्धान्त में जीवों का स्थान बताकर उनकी संपूर्ण आहार आदि क्रियाओं को विश्लेषित किया गया है । आचारांग के प्रथम अध्ययन में स्थावर जीवों का सूक्ष्म चिंतन होता है । स्थावर पाँच हैं- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और वनस्पतिं । २५१ अनेक प्रकार से आतुर मानव पृथ्वीकाय के जीवों को संतप्त करता है, उन जीवों की हिंसा करना, कराना व उसका अनुमोदन करना जीव के लिये घातक होता है । २५२ जिस प्रकार से व्यक्त वेदना-बोध जन्म से अन्ध, बधिर, मूक और पंगु मनुष्य को होता है, उसी प्रकार से अव्यक्त वेदना-बोध पृथ्वीकाय के जीवों को भी होता है । २५३ २५६ और इसी प्रकार से अप्काय २५४ का, तेज: :काय का२५५, वायुकाय २५६, वनस्पतिकाय २५७ का विवेचन भी आचारांग में प्राप्त होता है । स्थावर के आहार स्थिति आदि की चर्चा : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजः काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष की है। इन सभी स्थावर जीवों का श्वसन कार्य विषम अर्थात् अनिश्चित् है । २५१. जीव विचार. २५२. आचारांग - १.२.१५.१७ २५३. वही १.२.२८ २५४. वही १.३.३९-५३ २५५. वही १.४.७३.८४ उपलब्ध २५६. वही १.७.१५२ - १६८ २५७. वही १.५.१०१-११२ १११ For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी स्थावर आहार के अभिलाषी प्रतिक्षण रहते हैं । २५८ द्रव्य स्वरूप से अनन्तप्रदेशी होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से छहों दिशाओं में रहते हैं। काला, नीला, पीला, लाल, सफेद वर्ण के, सुरभि गंध - दुरभिगंध के, तिक्तिादि पाँचों रसों के, कर्कशादि आठों स्पर्शों से युक्त आहार लेते हैं। स्थावरजीवों के स्पर्शन इन्दिय होती है। सभी स्थावर जीव असंख्यातवें भाग का आहार लेते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श करते हैं। आहार किये हुए पुद्रल साता असाता में विविध प्रकार से र-बार परिणत होते रहते हैं । २५९ बार इन सभी की वेदना समान होती है। ये असंज्ञी होते हैं अर्थात् मन रहित होते हैं । मायी और मिथ्यादृष्टि होने के कारण इन्हें नियम से आरंभिकी आदि पाँचों क्रियाओं का दोष लगता रहता है। संज्ञा की अपेक्षा संसारी जीवों को संज्ञी और असंज्ञी अर्थात् मन रहित (अमनस्क) और मन सहित (समनस्क) - ऐसे दो वर्गों में विभक्त किया गया है । २६० वनस्पतिकाय: विशेष विमर्श 'आचारांग' में मनुष्य और वनस्पति की स्पष्ट तुलना की गयी है। ''मैं कहता हूँ मनुष्य भी जन्मता है, वनस्पति भी जन्मती है । मनुष्य भी बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य भी चेतनयुक्त है, वनस्पति भी चेतनयुक्त है । छिन्न होने पर मनुष्य और वनस्पति दोनों म्लान होते हैं। मनुष्य और वनस्पति दोनों आहार करते हैं। मनुष्य भी अनित्य है, वनस्पति भी अनित्य है, दोनों अशाश्वत हैं । १२६१ वनस्पति सजीव है, हजारों वर्ष पूर्व की भगवान् महावीर की इस घोषणा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने सन् १९२० में प्रमाणित किया था । आज वनस्पति के विषय में जीवविज्ञान की आधुनिक शाखा स्वतन्त्र रूप से स्थापित हो चुकी है । आधुनिक विज्ञान द्वारा जीवित पदार्थ (Living organism) के सामान्य लक्षण प्रतिपादित किये हैं, वे सभी वनस्पतियों में भी पाये जाते हैं जो स्पन्दन (Movement) :- साधारण: वनस्पतियाँ अपने स्थान पर ही २५८. भगवती १.१.१२, १३ पृ. २७.२८ २५९. भगवती १.२.७ पृ. ४७-४८ २६०. त.सू. २.११ २६१. आचारांग सूत्र १.५.५६ ११२ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहती हैं। उनकी गति, तने, पुष्प, पत्रादि की वृद्धि के रूप में या संवेदन से होने वाले हलन चलन के रूप में होती है। किन्तु कुछ पौधों में यह विशेष रूप से दिखायी देता है-छुईमुई के पौधे को छूते ही उसमें हलन चलन प्रारंभ हो जाता है, सूर्यमुखी सदैव सूर्य की ओर ही मुँह रखता है । सनड्रयू और वीनस फ्लाइ-ट्रेप के पौधे अपने फूलों पर कीट-पतंगों के बैठते ही अपने नागपाश में ले लेते हैं। यह क्रिया एक सेकिण्ड के शतांश में ही हो जाती है ।२६२ शारीरिक गठन (Organisation) :- जो वनस्पति एक ही जाति के हैं, उनका निश्चित आकार-प्रकार रूप रंग होता है। एक ही जाति के वनस्पति का रूप, पत्ते, फल, फूल आदि का गठन एक जैसा होता है। २६३ भोजन और उसका स्वीकरण (food & its assimilation):-भोजन की क्रिया जीवधारी में ही पायी जाती है। वनस्पति में यह क्रिया प्रत्यक्ष देखी जाती है। वह मिट्टी, पानी, पवन आदि से भोजन प्राप्त करके अपने अंगों को पुष्ट करता है । ये भी दुग्धाहारी, मांसाहारी, निरामिषाहारी विभिन्न प्रकार के होते हैं। प्रवर्धन (Growth):- बढ़ना ! वह भी अनुपात में सजीव में ही होता है। नन्हा-सा बीज वटवृक्ष के आकार का हो जाता है। उसके फल, फूल, पत्ते एक निश्चित सीमा में बढ़ते हैं। श्वसन (Respiration) :- जीवों में श्वसन क्रिया अनिवार्य है। यह प्रक्रिया वनस्पति में पत्तों द्वारा संपन्न होती है। हमारी वनस्पति से सबसे अधिक निकटता का मुख्य कारण श्वसन है। हम श्वास द्वारा जिस वायु (कार्बन-डाइ-आक्साइट) को छोड़ते हैं) पेड़-पौधे उसे ग्रहण करते हैं और पेड़-पौधे ऑक्सीजन को छोड़ते हैं, उसे हम ग्रहण करते हैं। इसे अपने लेख "जैन आगमों में वनस्पति विज्ञान” में कन्हैयालाल लोढ़ा ने प्रयोगों द्वारा भी स्पष्ट किया है।२६४ दोनों उपचित और अपचित होते हैं। मनुष्य और वनस्पति दोनों ही विविध अवस्था को प्राप्त होते हैं।२६५ २६२. विज्ञान लोक, अप्रेल १९६२ पृ. १४ २६३. मरुधर केसरी अभिनंदन ग्रन्थ खण्ड २ पृ. १४७ २६४. मरुधर केसरी अभिनंदन ग्रंथ खंड २ पृ. १४७ ११३ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस संपूर्ण विवेचन को बसु ने अपने शोध यंत्र के द्वारा प्रत्यक्ष किया। उन्होंने एक ऐसे यन्त्र का निर्माण किया जो वनस्पति की सजीवता को अभिव्यक्त करता है। वह यन्त्र पौधों की गतिविधियों को एक करोड़ गुणा बड़ा करके दिखाता था। समय का बोध भी एक सेकण्ड के सहस्रवें भाग तक होता था। पौधों की संपूर्ण क्रिया, प्रतिक्रिया स्वतः अंकित हो जाती थी। इन यन्त्रों से उन्हें स्पष्ट विश्वास हो गया कि वनस्पति और मनुष्यों पर नींद, ताप, वायु और आहार का लगभग समान ही प्रभाव पड़ता है ।२६६ । . बसु ने सिद्ध कर दिया कि सचेतनता, स्पन्दनशीलता, शारीरिक गठन, भोजन, वर्धन, श्वसन, प्रजनन, अनुकूलन, विसर्जन, मरण (Irritability, Movement, Organisation, Food, Growth, Respiration, Resproduction, Adaptation, Excreation and Death) आदि समस्त गुण वनस्पति में भी विद्यमान हैं। ___ वनस्पति में आहार संज्ञा प्रयोगसिद्ध है। तत्क्षण तोड़ गये डंठल सहित सफेद या अन्य गुलाब को लाल पानी में डंठल सहित डुबाकर रखिये। कुछ समय बाद पत्तियों पर लाल रंग स्पष्ट दिखेगा।२६७ प्यासे केले के पौधे को जल मिलते ही पीने लगता है, जिसकी आवाज भी पास बैठा व्यक्ति सुन सकता है । मुरझाये पौधों को मुस्कुराते प्रतिदिन हम देखते वनस्पति प्रकाश से भी प्रभावित होती है। पौधों के तने सदा प्रकाश की ओर मुड़ते जाते हैं तथा उसकी जड़ विरुद्ध दिशा में जमीन में गहराई में बढ़ती जाती है। प्रजनन(Reproduction):- जीवधारी में ही प्रजनन शक्ति पायी जाती है। वनस्पति भी प्रजनन करती है। सेचन क्रिया द्वारा परागकण योनिनली के मार्ग से गर्भागय (Ovary) में पहुंचते हैं। वहाँ प्रत्येक परागकण एक रजकण से जुड़ता है। जितने रजकण होंगे उतने ही बीज बनकर गर्भाशय में पैदा होते हैं। सेचतन २६५. आचारांग १.५.११३ २६६. नवनीत फरवरी १९५७ पृ. ३७ २६७. प्रारंभिक जीव विज्ञान, पृ. १९७ ११४ For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतः भी होता है और परतः भी। ___ वनस्पति स्त्रीलिंगी, पुल्लिंगी और उभयलिंगी होते हैं। जब किसी उभयलिंगी वनस्पति के पुष्प का परागकण उसी पुष्प के अवयव योनिछत्र तक पहुँचता है, तो वह स्वसेचन कहलता है। जैसे कृष्णकोली, सूर्यमुखी आदि फूलों का स्वसेचन होता है। पुंल्लिंगी वनस्पति के पुष्प का पराग-कण अन्य कीट, पतंग, वायु, जल आदि के माध्यम से उसी जाति के स्त्रीलिंगी वनस्पति के पुष्पावयव योनिच्छत्र पर पहुँचता है तो परसेचन कहलाता है। भ्रूण विज्ञान (वनस्पति विज्ञान की उपशाखा) इसी विषय पर आधारित है। भारतीय वैज्ञानिक प्रो. पंचानन माहेश्वरी भ्रूण वैज्ञानिकों में अग्रणी है, जिन्होंने अनेकों प्रयोग इस विषय पर किये हैं ।२६८ अनुकूलन (Adaptation) :- प्राणियों की तरह वनस्पति भी अपने आप को परिस्थिति के अनुसार ढाल लेती हैं। रेगिस्तानी पौधों की पत्तियाँ सजल स्थानों के पौधों की अपेक्षा छोटी होती हैं ताकि उनसे भाप बनकर पानी कम उड़े। विर्सजन(Excreation):- श्वसन की तरह इनमें विसर्जन क्रिया भी पत्तों द्वारा संपन्न होती है। . मृत्यु (Death):- जीवित पौधे प्रारम्भ में तेजी से वृद्धि करते हैं, परन्तु बाद में यह गति धीमी हो जाती है और अन्त में वे पौधे मुरझा जाते हैं, जो उनका मरण कहलाता है। त्रैमासिक, षण्मासिक, एकवर्षीय, द्विवर्षीय, बहुवर्षीय भेद से वनस्पति अनेक प्रकार की आयु वाले होते हैं। वनस्पति के भेद :___जैन दर्शन के अनुसार वनस्पति के दो भेद हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकाय और बादर वनस्पतिकाय ।२६९ .. प्रत्येक वनस्पति अर्थात् एक शरीराश्रित एक ही आत्मा। जैसे सरसों के अनेकों दोनों को गुड़ मिश्रित कर लड्डू बनाते हैं। लड्डू एक पिण्ड होने पर भी दानों का आस्तित्त्व अलग-अलग होता है, वैसे ही बाहर से एक दिखने पर भी २६८. जैन आगमों में वनस्पति विज्ञान, पृ. १५-१६ २६९. पनवणा सूत्र १.३६ ११५ For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जीव अपने शरीर का भिन्न अस्तित्व रखें, उसे प्रत्येक वनस्पतिकाय कहते हैं।२७० साधारण वनस्पति अर्थात् निगोद के जीव । वे इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु से अग्राह्य हैं। इनके एक दो तीन संख्यात व असंख्यात जीवों का पिण्ड नहीं दिखता, अपितु अनन्तजीवों का पिण्ड ही देखा जा सकता है ।२७१ . जैनागमों में निरूपित सूक्ष्म स्थावर जीवों की तुलना वायरस और बैक्टीरिया से की जा सकती है। वायरस के बारे में वैज्ञानिकों का कथन है कि ये इतने छोटे हैं कि सूक्ष्म यन्त्रों से भी इनका पता लगाना कठिन है। संसार में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ ये न हों । बहुत से कीटाणु तो प्रत्येक तापक्रम पर रह सकते हैं ।२७२ ये वायरस और बैक्टीरिया अनेक प्रकार की आकृतिवाले हैं। इनमें से सूक्ष्म गोलाकार आकृति के कीटाणु, जिन्हें कोकाई कहते हैं तथा चक्करदार आकृति के कीटाणु, जिन्हें स्पाइरल कहते हैं,२७३ सूक्ष्म या निगोद वनस्पतिकाय में गर्भित किये जा सकते हैं। प्राणी मात्र में आहारसंज्ञा, निद्रासंज्ञा, भयसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा होती है ।२७४ सब प्राणियों में वनस्पति भी आ जाती है । वनस्पति कब ज्यादा-कम आहार करती है, इसका भगवतीसूत्र में इस प्रकार उल्लेख आता है-वर्षा ऋतु में वनस्पति अधिक आहार करती है। तदनन्तर अनुक्रम से शरद, हेमन्त, वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में अल्प से अल्प आहार करती है ।२७५ पृथ्वी, जल और वनस्पति में कृष्ण, नील, कापोतं और तेजस्ये चार लेश्याएँ पायी जाती हैं।२७६ इस प्रकार हम पाते हैं कि वनस्पति की प्रत्येक क्रिया, जो शताब्दियों पूर्व घोषित की गई थी, वह प्रयोगशाला में प्रमाणित हो चुकी है। इन स्थावर जीवों २७०. पनवणा १.५६ २७१. सुहमा आणागिजा....णिगोअजीवाणंताणं-पन्नवणा १.गा. १०३ पृ. ६३ २७२. कृषिशास्त्र पृ. १२५ २७३. कृषिशास्त्र पृ. १२६४ २७४. ठाणांग ४.२३ २७५. भगवती ७.३.१ २७६: “एगिदियाणं.....वणस्सइकाइयाववि" पन्नवणा १७.२- १५९-६१ ११६ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ के स्पर्शन इन्द्रिय, काय, श्वासोच्छ्वास और आयु ये चार प्राण पाये जाते हैं। स- जीवों के भेद : द्रव्येन्द्रियों के विकास की अपेक्षा त्रस जीव चार प्रकार के हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, एवं पंचेन्द्रिय । २७८ जिनके स्पर्शन और रसनेन्द्रिय हो वे जीव द्वीन्द्रिय होते हैं । इनमें छह प्राण होते हैं - स्पर्शन, काय (बल), आयु, श्वासोच्छ्वास, रसना और वचन (बल) । त्रीन्द्रिय के प्राण इन्द्रिय बढ़ने से सात प्राण होते हैं । चक्षुरिन्द्रिय मिलने से चतुरिन्द्रिय के आठ प्राण, और श्रोत्रेन्द्रिय मिलने से असंज्ञी पंचेन्द्रिय के नौ प्राण होते हैं, एवं मनोबल के मिलाने से संज्ञी पंचेन्द्रिय के दस प्राण होते हैं। २७.९ स जीवों के उदाहरण : २८० कृमि, सीप, शंख, गंडोला, अरिष्ट, चन्दनक, शंबुक आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं। जूँ, लीख, खटमल, चींटी, इंद्रगोप, दीमक, झींगर, इल्ली आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं । २८९ मकड़ी, पतंगा, डांस, भौंरा, मधुमक्खी, गोमक्खी, मच्छर, टिड्डी, ततैया, आदि चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं । २८२ तिर्यंच, मनुष्य, देव और नारक पंचेन्द्रिय संसार समापन्नक ये पंचेन्द्रिय जीव हैं । २८३ पंचेन्द्रिय जीवों का वर्गीकरण : समस्त पंचेन्द्रिय जीवराशि को चार भेदों में वर्गीकृत किया है। ये भेद संसारी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से हैं - १. तिर्यंच, २. मनुष्य, ३. देव, ४. नारक और ५. पंचेन्द्रिय संसार समापन्नक । २८४९ २७७. स. सि. २.१३.२८६ • २७८. त.सू. २.१४ २७९. स.सि. २.१४.२८८ २८०. जीवविचार १५ २८१: वही १६, १७ २८२. जीवविचार १८ २८३. प्रज्ञापना १.५९ एवं ठाणांग ४.६०८ २८४. वही ११७ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. तिर्यंच :- समस्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय तीन प्रकार के हैं- जलचर, थलचर और खेचर । २८५ जो जल में रहते हैं, वे जलचर हैं। जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कछुए, ग्राह, मगर और संसुमार । मत्स्य पाँच, कच्छप दो, ग्राह पाँच, मगर दो, एवं सुमार एक ही प्रकार के बताये गये हैं । २८६ ये सभी तिर्यंचयोनिक एक अपेक्षा से दो प्रकार के भी हैं - संमूर्च्छिम और गर्भज। इनमें जो संमूर्च्छिम हैं, वे नपुंसक एवं गर्भज स्त्री, नपुंसक तीनों होते हैं। २०७ जो माता-पिता के बिना संयोग के अपने आप उत्पन्न हों, वे संमूर्च्छिम और जो माता-पिता के वीर्य या संयोग से उत्पन्न हो, वे गर्भज होते हैं । जो जलरहित स्थान पर अर्थात् पृथिवी पर रहते हैं, उन्हें थलचर या स्थलचर कहते हैं । स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय चार प्रकार, के हैं - एक खुर वाले, दो खुर वाले, गण्डीपद (सुनार की एरण जैसे पैर वाले) और नखपाद (पैर) वाले । २८८ जीवविचार में स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय को अन्य अपेक्षा से तीन प्रकार का कहा गया है । वे ये हैं- चतुष्पद - गाय आदि, उरः परिसर्प - पेट के बल चलने वाले सर्प आदि और भुजपरिसर्प-भुजा के बल चलने वाले नोलिये आदि । २८९ 1 प्रज्ञापना में आगे एकखुर, द्विखुर, गण्डीपद, एवं नखपाद के भेद और नाम बताये हैं । २९० इनमें जो संमूर्च्छिम हैं, वे नपुंसक हैं, जो गर्भज हैं, वे स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों हैं । २९९ २८५. प्रज्ञापना १.६१ तथा जीवविचार २० २८६. प्रज्ञापना १.६२-६७ २८७. प्रज्ञापना १.६८ २८८. प्रज्ञापना १.६९ २८९. जीवविचार २१ २९०. प्रज्ञापना १.७१.७४ २९१. प्रज्ञापना १.७५ ११८ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना में स्थलचर को उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से दो भेद वाला भी कहा है और उनके नाम बताये हैं ।२९२ . ये भी संमूर्छिम और गर्भज दोनों प्रकार के हैं तथा संमूर्छिम नपुंसक एवं गर्भज स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं । २९३ खेचर तियेच पंचेन्द्रिय चार प्रकार के हैं- चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गक पक्षी, विततपक्षी ।२९४ - जिनकी पाँख चमड़े की हो, वे चर्मपक्षी हैं, जैसे-चमागादड आदि। जिनकी पाँखें रोंएदार हो, वे रोमपक्षी या लोमपक्षी हैं, जैसे-चटक आदि। जिनकी पाँखें उड़ते समय पेटी जैसी रहें, वे समुद्गक पक्षी हैं, जैसे-हंस, कलहंस आदि। और जिनके पंख फैले ही रहें, वे विततपक्षी हैं (ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं हैं)। ये भी संमूर्छिम तथा गर्भज दो प्रकार से निरूपित किये गए हैं, तथा जो संमूर्छिम हैं, उन्हें नपुंसक और जो गर्भज हैं, उन्हें स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से विभक्त किया है ।२९५ २.मनुष्यः- मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। संमूर्छिम और गर्भज ।२९६ तीनों लोकों में ऊपर, नीचे और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्छन है। इसका अभिप्राय है, चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर अवयवों की रचना होना । नारी के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर ग्रहण को गर्भ कहते हैं ।२९७ संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के चौदह स्थान होते हैं। पन्द्रह कर्मभूमियाँ, पन्द्रह अकर्मभूमियाँ और छप्पन अन्तर्वीप में गर्भज मनुष्यों के विष्ठा में, मूत्र में, नाक के मेल में, वमन में, पित्त में, पूय, रक्त में, वीर्य में, पूर्व में सूखे शुक्र के बाद में भीगे पुद्गलों में मरे हुए जीवों के कलेवर में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, ग्राम के २९२. प्रज्ञापना १.७६.८३.८५ २९३. प्रज्ञापना १.८४.८५ २९४. प्रज्ञापना १.८६ एवं जीवविचार २२ २९५. प्रज्ञापना १.८७.९० २९६. प्रज्ञापना १.९२ २९७. स.सि. ३.३१ ३२२ - ११९ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' हा गटर में, शहर के गटर अथवा संपूर्ण अपवित्र स्थानों में ये पैदा होते हैं।२९८ आधुनिक भाषा में यदि कहा जाये तो गर्भज मनुष्यों के शरीर की कोशिकाओं (Body cells) से पुद्गलों का ग्रहण करके इनका जन्म होता है। गर्भज मनुष्य कर्मभूमि, अकर्मभूमि एवं अन्तर्वीप में पैदा होते हैं।२९९ अन्तीपज ५८ प्रकार के, कर्मभूमिज १५ प्रकार के एवं अकर्मभूमिज ३० प्रकार के होते हैं ।३०० ३. देव :- देवों के चार निकाय होते हैं। भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । ३०१ इनमें कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्या पायी जाती हैं ।३०२ . भवनवासी देव दस प्रकार के हैं३०३, व्यन्तर आठ प्रकार के और ज्योतिषी पाँच प्रकार के हैं । वैमानिक देव दो प्रकार के हैं- कल्पोपन्न और कल्पातीत ।२०४ कल्पोपन्न देव बारह प्रकार के हैं, एवं कल्पातीत देव ग्रैवेयकवासी और अनुत्तरवासी भेद से पुनः दो प्रकार के हैं । ग्रैवेयक नौ प्रकार के एवं अनुत्तरवासी पाँच प्रकार के हैं।३०५ __भवनपति देव मनुष्यलोक से नीचे रहते हैं। इनके निवास का विस्तृत विवेचन प्रज्ञापना सूत्र १७७-१८६ में देखा जा सकता है। व्यन्तर और ज्योतिष्क क्रमशः विषम और तिरछे रूप से रहते हैं ।३०६ वैमानिक क्रमशः ऊपर-ऊपर रहते हैं।३०५ वैमानिक ऐशान अर्थात् द्वितीय विमानवासी देवों तक के देव शरीरसंपर्क द्वारा विषयभोग भोगते हैं।३०८ शेष देव २९८. प्रज्ञापना १.३९ २९९. प्रज्ञापना १.९४ ३००. प्रज्ञापना १.९५-९७ ३०१. ठाणांग ४.१२४ एवं त.सू. ४.१ ३०२. त.सू. ४.२ ३०३. त.सू. ४.११ ३०४. त.सू. ४.११.१२.११ त.सू. ४.१६.१७ एवं प्रज्ञापना १.१४३ ३०५. प्रज्ञापना १.१४४-१४७ ३०६. स.सि. ४१८-४७७ ३०७. त.सू. ४.१९ ३०८. त.सू. ४.८ १२० For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमशः स्पर्श द्वारा, रूप द्वारा, शब्द द्वारा और मन से विषय भोग लेते हैं । यह स्थिति भी कल्पोपपन्न देवों तक रहती है । कल्पातीत देव तो विषयभोगों से पूर्णत: विरत रहते हैं । ३०९ स्थिति, प्रभाव, सुख, चमक, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविशुद्धि, अवधिविषय आदि की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव क्रमशः अधिक हैं । ३१० देव एवं नैरयिक जीव नियम से औपपातिक जन्म वाले होते हैं । ३११ ४. नारक:- नरक सात हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमः प्रभा । ३१२ सातों नरकों के जीव नपुसंक होते हैं । ३१३ गति की अपेक्षा नारकी, इन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय, कषाय की अपेक्षा चारों कषायों से युक्त, लेश्या की अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले होते हैं । योग की अपेक्षा इनमें मनोयोग, वचनयोग, काययोग-तीनों योग पाये जाते हैं। उपयोग की अपेक्षा से ये ज्ञान और दर्शन दोनों से युक्त होते हैं। ज्ञान की अपेक्षा से इनमें मति, श्रुत, अवधि या मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान पाया जाता है । दर्शन की अपेक्षा से ये सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। समस्त नारकी चरित्र की अपेक्षा न तो चारित्री हैं, न चारित्राचारित्री हैं, अपितु अनिवार्यतः अचारित्री हैं । वेद की अपेक्षा से समस्त नारकी नपुसंक वेदी हैं । ३१४ इन सातों नरकों की भूमियाँ क्रमशः नीचे-नीचे और घनाम्बु तथा वायु और आकाश के सहारे स्थित है। ३१५ इन नारक भूमियों में क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक हैं। इन नारको में लेश्या, परिणाम, शरीर प्रमाण, वेदना और विक्रिया क्रमशः ३१६ ३०९. त. सू. ४.८-९ ३१०. त.सू. ४.२१ एवं स. सि. ४. २०.४८१ ३११. त.सू. २.३५ एवं स. सि. ४. २०.४८१ ३१२. प्रज्ञापना १.६० त. सू. ३.१ ३१३. त. सू. २.५० ३१४. प्रज्ञापना १३.९३८ ३१५. त.सू. ३.१ ३१६. त.सू. ३.२ (दिगम्बर परम्परानुसार) १२१ For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुभ, अशुभतर और अशुभतम होते जाते हैं तथा वेदना, शरीरप्रमाण आदि वृद्धिंगत होते हैं । ३१७ ये नारक परस्पर उत्पन्न किये गये दुःख वाले होते हैं और तीन नरकभूमियों तक संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये दुःख वाले भी होते हैं । ३१८ . भयंकर पीड़ा भोगने पर भी इनका अकाल-मरण नहीं होता।३१९ इनकी उत्कृष्ट आयु क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बावीस, और तैंतीस सागरोपम है।३२० जीव और शरीर : जब तक राग-द्वेष की स्थिति रहती है, अभी तक आत्मा शरीर के बंधन में निवास करता है ।३२१ शरीर पाँच प्रकार के होते हैं-१. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आहाराक, ४. तैजस और ५. कार्मण ।३२२ १. औदारिक शरीर : विशेष शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर गलते हैं, उन्हें शरीर कहते हैं। ये औदारिक आदि कर्मप्रकृति विशेष के उदय से प्राप्त होता है। इसका गलना, सड़ना और विध्वंस होना स्वभाव है।३२३ जो शरीर प्रतिघात युक्त हो अर्थात् पुद्गलस्कन्ध के द्वारा अवरुद्ध हो सके और पुद्गल समूह को अवरुद्ध कर सके, वह औदारिक शरीर कहलाता है। औदारिक शरीर गर्भ से उत्पन्न होता है । इन औदारिक शरीरों (शरीरावयवों) के आश्रय से उत्पन्न सम्मूर्छिम जीवों की भी तत्सदृश जाति होने से सम्मूर्छिम जीवों का शरीर भी औदारिक शरीर की कोटि में आता है। इसी प्रकार स्थावरों का शरीर भी औदारिक शरीर की कोटि में आता है। अन्यदर्शनों की भाषा में ३१७. त.सू. ३.३ ३१८. त.सू. ३.४-५ ३१९. स.सि. ३.५.३७५ ३२०. त.सू. ३.६ ३२१. ठाणांग २.१६३ ३२२. प्रज्ञापना १२.९०१ एवं त.सू. २.३७ ३२३. पैंतीस बोल बिवरण, पृ. १० १२२ For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाये तो स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं। गर्भज प्राणी तीन प्रकार के होते हैं-जरायुज, अण्डज, और पोतज ।३२४ जरायुवाले स्त्रीगर्भ से उत्पन्न जरायुज हैं, स्त्रीगर्भ में निर्मित (अण्डे) से उत्पन्न अण्डज हैं, एवं जरायुरहित स्त्रीगर्भ से उत्पन्न पोतज हैं। मनुष्य, गाय, बैल, बकरी आदि जरायुज । सर्प, गोह, गिरगिट, कबूतर आदि अण्डज एवं हाथी, खरगोश, भारण्डपक्षी आदि पोतज कहलाते हैं ।३२५ जरायु से पैदा होने वाले जरायुज, अण्डों से पैदा होने वाले अण्डज, पोत से पैदा होने वाले पोतज कहलतो हैं ।३२६ जरायु, अण्ड और पोत- ये तीनों शब्द प्राचीन भ्रूण विज्ञान के पारिभाषिक शब्द हैं। _पुंल्लिगी और स्त्रीलिंगी जीवों की शरीर रचना में विशेषता होती है। स्त्री जाति में गर्भाशय नामक अवयव होता है। लौंगिक प्रजनन में एक ही जाति के पंल्लिंगी और स्त्रीलिंगी जीवों के संयोग से स्त्री गर्भ में शक्र और शोणित के एकीकरण द्वारा प्राणिशरीर की उत्पत्ति सम्भव होती है। __ कुछ प्राणियों के गर्भविकास में गर्भ की सुरक्षा के लिए मांसधातु से निर्मित एक आवरण का विकास होता है, इसमें एक द्रव भरा रहता है और गर्भ इसके अन्दर तैरता सा रहता है; यह आवरण गर्भ को घर्षण आदि से बचाता है। इसी आवरण को जरायु कहते हैं। जातिगत स्वभाव के कारण कुछ प्राणियों में एक किंचित् कठिन आवरण से रक्षित शुक्रशोणितसंयोग के द्वारा निर्मित गर्भ गर्भाशय से बाहर कर दिया जाता है, इसे अण्डज (अण्डा) कहते हैं। यह गर्भ बाहर ही विकास को प्राप्त होकर आवरण को भेद कर बाहर आ जाता है। ऐसे प्राणियों को अण्डज कहते हैं। ___जिन जातियों में गर्भ के आवरण के बिना ही गर्भाशय में गर्भ का विकास होता है तथा जो योनि से निकलते ही चलने फिरने में समर्थ होता है उसे पोतज कहते हैं। ३२४. त. सू. २.३४ ३२५. सं. सि. २.३४, ३२६ ३२६ः सभाष्य तत्त्वार्थधिगम २.३४.१०८ १२३ For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. वैक्रिय शरीर :____ अणिमा आदि आठ, ऐश्वर्य- संबन्ध से स्वयं के शरीर को एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार के शरीर की संरचना करना विक्रिया है। यह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है, वह वैक्रिय है।३२७ वैक्रिय शरीर देवों और नारकियों के होता है । विक्रियाऋद्धि इससे भिन्न है, जो औदारिक शरीर के आश्रय से होती है। ३. आहारक शरीर : सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनि जिस शरीर की रचना करता है, वह आहारक शरीर है।३२८ ४. तेजस शरीर : जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है, उसे तैजस शरीर कहते हैं ।३२९ ग्रहण किए हुए आहार को यही शरीर पचाता है ।३३०० ५. कार्मण शरीर : कर्मों (ज्ञानावरणादि आठ कर्मप्रकृतियों) से उत्पन्न शरीर कार्मण शरीर है। यद्यपि सारे शरीर कर्म के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, तो भी रूढ़ि से विशिष्ट शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं।३१ यहाँ पर कर्मसमूह उपादान कारण के रूप में होता है, अर्थात् यह शरीर कर्मप्रकृतियों का ही बना होता है, जबकि अन्य शरीरों में शरीर नाम कर्म आदि विशिष्ट कर्मप्रकृतियाँ निमित्त कारण मात्र होती हैं। ३२७. स.सि. २.३६.३३१ ३२८. वही ३२९. वही ३३०. पैंतीस बोल विवरण पृ. ११ ३३१. स.सि. २.३६.३३१ १२४ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव के शरीरों की सहस्थिति (किसके कितने शरीर होते हैं):___ एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने के पूर्व तक एक जीव के केवल दो शरीर होते हैं-तैजस और कार्मण । ये दोनों अप्रतिघाती होते हैं, अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, और अनादिकाल से संसारी जीव के साथ सम्बद्ध हैं। जिन जीवों के जन्म गर्भ से या सम्मूर्छन से होते हैं, उनके शरीर औदारिक होते हैं। इसलिए, औदारिक शरीर के साथ तैजस और कार्मण शरीर मिलने पर इनके तीन शरीर होते हैं। नारकियों के एवं देवों के औपपातिक जन्म होता है। औपपातिक शरीर वैक्रियिक होता है, इसलिए नारकियों में स्वभाविक रुप से वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये तीन शरीर होते हैं। __विक्रियाऋद्धिकारी के औदारिक शरीर के आश्रय से शरीर में विक्रिया करने की शक्ति होती है। विक्रिया करने तक अधिकतम चार शरीर होते हैं- औदारिक, तैजस, कार्मण और वैक्रियिकआहारक। .. प्रमत्तसंयत मुनि के औदारिक शरीर के आश्रय से आहारक शरीर की रचना होती है, इसलिए आहारक शरीर की उपस्थिति तक प्रमत्तसंयत मुनि के अधिकतम चार शरीर होते हैं-औदारिक, तैजस, कार्मण और आहारक। आत्मा और चारित्र : चारित्र परिणाम पाँच प्रकार का होता है- (१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र, (३) परिहारविशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्मसंपराय चारित्र, (५) यथाख्यात चारित्र ।३३२ (१) सामायिक :- राग-द्वेष की विषमता को मिटाकार शत्रु-मित्र के प्रति समभाव को धारण करना सामायिक है। इससे ज्ञान, ध्यान और संयम का लाभ होता है। इसकी जघन्य अवधि ४८ मिनट एवं उत्कृष्ट अवधि छह माह की होती है।३३३ सामायिक दो प्रकार की है-नियतकाल सामायिक स्वाध्याय आदि और ३३२. प्रज्ञापना १३.९३६ त.सू. ९.८ तथा ठाणांग ५.१३९ ३३३. पैंतीस बोल वितरण पृ. ५१.५२ १२५ For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईर्यापथ का विवेक अनियतकाल सामायिक है ।३३४ (२) छेदोपस्थापनीय :- यह संयमधारी साधु-साध्वी में पाया जाता है। छोटी दीक्षा के पर्याय का छेद करके बड़ी दीक्षा के अनुष्ठान को छेदोपस्थापनीय कहते. हैं ।३३५ अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोस्थापनीय चारित्र है ।३३६ . (३) परिहारविशुद्धि :- प्राणी वध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। इससे युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है३३७ अथवा विशिष्ट श्रुतपूर्वधारी साधु संघ से अपने को अलग करके आत्मा की विशुद्धि के लिए जिस अनुष्ठान को करता है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है । ३३८ (४) सूक्ष्म संपराय :- जिस चारित्र में कषाय अति अल्प या सूक्ष्म हो जाय, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र है ।३३९ (५) यथाख्यात चारित्र :- मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है, उस अवस्थास्वरूप अपेक्षा लक्षण से जो चारित्र होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं । ३४० लेश्या और जीव : लेश्यासिद्धान्त जैनदर्शन का प्रतितन्त्र सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों में इसका कोई परिचय प्राप्त नहीं होता । सशरीर संसारी जीव के कषायसापेक्ष आत्मपरिणाम को लेश्या कहते हैं । अर्थात् आत्मा के जो भाव कषाय के भाव और अभाव को प्रगट करें, वह लेश्या हैं । कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) के तरतमभाव से भी लेश्याभेद होता है और कषाय के अभाव से भी । सयोगी केवली के कषायों का अभाव होने पर शुक्ललेश्या होती है । अयोगी केवली के शरीर भी नहीं होता ३३४. स.सि. ९.८.८५४ ३३५. पैंतीस बोल विवरण पृ. ५२ ३३६. स.सि. ९.८.८५४ ३३७. स.सि. ९.८.८५४ ३३८. पैंतीस बोल विवरण पृ. ५२ ३३९. स.सि. ९.८.८५४ ३४०. वही १२६ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कषाय भी नहीं, अतः ऐसे जीव के कोई लेश्या नहीं मानी गयी है, वह परमपारिणामिक भाव से युक्त होता है। लेश्या छह प्रकार की होती है- कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल ।३४१ लेश्या भावना विशेष को कहते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार विभिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न प्रकार से लेश्यास्थिति होती है जिसका दिग्दर्शन आगे के अनुच्छेदों में कराया जा रहा है। _ नैरयिकों में कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या होती हैं। तिर्यंच योनि में छहों लेश्याएं होती हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती हैं । ३४२ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तेजःकाय और वायुकाय में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ पायी जा सकती हैं।३४३ तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में छहों लेश्याएँ पायी हैं।३४४ संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ पायी जाती हैं ।३४५ गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कृष्ण, लेश्या से शुक्ल लेश्या पर्यंत छहों लेश्याएँ पायी जाती हैं ।३४६ ____संमूर्छिम मनुष्य में कृष्ण, नील, कापोत,-ये तीन२४७ और गर्भज मनुष्य में छहों लेश्या पायी जाती हैं ।३४८ ___भवनवासी निकाय के देवों में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या, व्यन्तर देवों में भी ये चार, ज्योतिषी देवों में मात्र तेजोलेश्या और वैमानिक देवों में तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्याएँ पायी जाती हैं। अन्य सभी स्थानों ३४१. ठाणांग ६.४७ ३४२. प्रज्ञापना १७.११५९-६१ ३४३. प्रज्ञापना १७. ११६२ ३४४. प्रज्ञापना १७. ११६३ . ३४५. प्रज्ञापना १७. ११६३ (२) ३४६. प्रज्ञापना १७. ११६३ (३) ११६४ (१) ३४७. प्रज्ञापना १७. ११६४ (२) ३४८. प्रज्ञापना १७. ११६४ (२) ३ प्रज्ञापना १७.११६४ (३) १२७ For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर पुलिंग और स्त्रीलिंग में समान लेश्या हैं, पर वैमानिक देवियाँ इसका अपवाद हैं। उनमें मात्र तेजोलेश्या ही पायी जाती है।३४९ ये लेश्याएँ सभी में संख्यानुसार होना अनिवार्य नहीं है। जीवों के अपनेअपने पुरुषार्थ की अपेक्षा उस-उस लेश्या तक पहुँचे की क्षमता हो सकती है। लेश्याओं को समझने के लिए मनुष्य को उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है कृष्णलेश्या वाला अत्यंत रौद्र, मत्सर, नित्यक्रोधी, धर्मरहित, दयाहीन और गहरी दुश्मनी वाला होता है। नीललेश्या वाला प्रमादी, मूढमति, स्त्रीलुब्ध, ठगनेवाला, कायर, डरपोक, सदा अभिमानी वाला होता है। कापोतलेश्या वाला चिन्ता, आकुलता से पीड़ित, परनिंदा, स्वप्रशंसा और रुष्ट स्वभाव वाला होता है। तेजोलेश्या वाला विद्वान, दयालु, कार्य का अनुचित/उचित विचारक, विवेकी आदि होता है। पद्मलेश्या वाला क्षमाशील, त्यागी, देव गुरु भक्त, निर्मल चित्त एवं सदानंदी स्वभाव वाला होता है। शुक्ललेश्या वाला राग-द्वेष रहित, शोक और निद्रामुक्त, परमात्मवैभव से युक्त होता है । ३५० कर्म और जीव :___ कर्मसिद्धान्त और उस पर सूक्ष्म चिन्तन जैन दर्शन की अभूतपूर्व देन है। कर्मसिद्धान्त से संबन्धित विपुल साहित्य जैन दर्शन की अनमोल संपत्ति है। भारतीय वाङ्मय में अनेक वादों का दिग्दर्शन हुआ है, जिनके अनुसार काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, योनि, पुरुष आदि को संसार की उत्पत्ति का कारण एवं सुख-दुःख का कारण माना जाता है ।३५१ जैन दर्शन ने सुख-दुःख का कारण जीव के कर्म को माना है। ३४९. प्रज्ञापना १७.११६६-६९ ३५०. पैंतीस बोल विवरण ४०.४१ ३५१. काल स्वभावो नियति-सुखदुःख हेतो - श्वेताश्वर उप. १२ १२८ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के आन्तरिक विकास या न्यूनता का कारण कर्म हैं । कर्म-संयोग से आत्मा की शक्ति आवृत्त होती है और कर्म-वियोग से प्रकट होती है। शुद्ध आत्मा पर कर्मप्रभाव नहीं होता। जैन दर्शन स्याद्वाद को स्वीकार करता है। जैन दर्शन किसी भी कार्य के लिये पाँच तत्त्वों को अनिवार्य मानता है- काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ और कर्म । ये पाँचों मिलकर कार्य निष्पन्न होने में कारणभूत होते हैं। इन पाँचों में कर्म मुख्य हैं, पर इन चारों का भी अस्तित्व है। जैन दर्शन कर्म को पुद्गल मानता है ।३५२ इन कर्मपुद्गलों के कारण ही परतन्त्रता और दुःख है । आत्मा अरूपी होते हुए भी कर्म के कारण रूपी और मूर्त है । ३५३ ___ जीव मिथ्यादर्शनादि परिणामों के द्वारा जिन्हें उपार्जित करता है, वे कर्म कहलाते हैं ।३५४ . ___ कर्म दो प्रकार के हैं- द्रव्यंकर्म और भावकर्म । द्रव्य कर्म मूल-प्रकृति के भेद से आठ प्रकार है, तथा उत्तर-प्रकृति के भेद से एक सौ अट्ठावन प्रकार का है। तथा उत्तरोत्तर भेद से तो अनेक प्रकार का है। __भाव कर्म चैतन्य परिणामरूप हैं; क्योंकि क्रोधादिकर्मों के उदय से होने वाले क्रोधादि आत्मपरिणाम यद्यपि औदयिक हैं तथापि वे कथंचित् अभिन्न हैं, लेकिन ज्ञानरूपता नहीं है; क्योंकि ज्ञान औदयिक नहीं है। अतः क्रोधादि आत्मपरिणाम आत्मा से अभिन्न होने के कारण कथंचित् चैतन्य परिणामात्मक हैं।३५५ ___आत्मगुणों की प्रधानता के आधार पर कर्मों की आठ मूल प्रकृतियों का क्रम इस प्रकार है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । किन्तु मोहनीय कर्म अतिबलवान् है, जब तक दर्शनमोहनीय पर नियन्त्रण न हो तब तक संसारोच्छेद की प्रक्रिया आरम्भ नहीं होती, क्योंकि ३५२. तं. सू. ८.२ ३५३. भगवती अभय. वृत्ति पत्र ६२३ ३५४. परीक्षामुख ११४. २९६ ३५५, परीक्षामुख का. १११५ एवं टीका २९६-२९७१ - १२९ For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनमोहनीय ही वह कर्मप्रकति है, जो सम्यग्दर्शन नहीं होने देती। . ___मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । कषाय और नो कषाय के भेद से चारित्र मोहनीय दो प्रकार का एवं दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है।३५६ दर्शन मोहनीय के तीन भेद ये हैं१. सम्यक्त्व २. मिथ्यात्व और ३. सम्यग्मिथ्यात्व। ___ चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का है- १. अकषायमोहनीय और २.कषायमोहनीय । किंचित् अर्थात् अत्यल्प मात्रा में कषाय के उदय को अकषाय चारित्र मोहनीय कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसंकवेद, इस प्रकार अकषायमोहनीय के नौ भेद हैं । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, और संज्वलन भेद विकल्प वाले क्रोध, मान, माया, लोभ-ये १६ कषाय भेद कषायमोहनीय के हैं ।३५७ चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का चारित्र गुण प्रकट नहीं होता। १. सम्यक्त्व:- जब 'मिथ्यात्व' शुभ परिणामों के कारण अपने विपाक को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। २. मिथ्यात्व :- जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धान करने में निरुत्सुक एवं हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। ३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व :- जिसका उदय मिले परिणामों के होने में निमित्त है, जो न केवल सम्यक्त्व रूप कहे जा सकते हैं और न केवल मिथ्यात्व रूप, किन्तु उभयरूप होते हैं, वह मिश्रमोहनीय कर्म है। इसके लिए उदाहरण जल से धोने आदि के कारण अर्धशुद्ध मन्दशक्ति वाले कोदों का दिया जाता है ।३५८. यहाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय:५९ मूल प्रकृति के आठ भेदों के स्वरूप को संक्षिप में प्रस्तुत किया ३५६. उत्तराध्ययन ३८.८.१० ३५७. त.सू. ८.९ व उत्तराध्ययन ३३.११ ३५८. स.सि. ८.९.७४९ ३५९. त.सू. ८.४ व ठाणांग ८.५ तथा उत्तराध्ययन ३३.२.३ १३० For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा रहा है - ज्ञानावरणीय : आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला आवरण ज्ञानावरणीय कहलाता है । ३६० जैसे आँख पर पट्टी बाँधने के कारण नेत्रों की पदार्थों को जानने की जो शक्ति जाती है, वैसे ही आत्मा को आवृत्त करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कहते हैं । ३६१ यह कर्म ज्ञान को आच्छादित करता है, समाप्त नहीं । मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं । ३६२. दर्शनावरणीय : पदार्थ के सामान्य धर्म का बोध जिसके कारण रुक जाय, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । ३६३ जिस प्रकार पहरेदार शासक को देखने के लिए उत्सुक व्यक्ति को रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर उसे रोक देता है । ३६४ चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरण की नौ उत्तरकर्मप्रकृतियाँ हैं । २६५ 'वेदनीय जिस कर्म के कारण सुख - दुःख का संवेदन आत्मा को होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । वेदनीय कर्म की साता और असाता दो प्रकृतियाँ होती हैं । ३६६ सातावेदनीय कर्म के कारण जीव को शरीर और मन संबन्धी सुख मिलता है । असातावेदनीय के उदय से मन, वचन और काय संबन्धी पीड़ा भोगनी पड़ती है । ३६७ -: ३६०. स.सि. ८.३.७३६ ३६१ : गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) गा. २१ ३६२. त. सू. ८.६ एवं उत्तराध्ययन ३३.४ ३६३. अनानालोकनम् - स. सि. ८.३.७३६ ३६४. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. २१ ३६५. उत्तराध्ययन ३३.५.६१ ३६६. वेदस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःख संवेदनम् - स. सि. ८.३.७३६, उत्तराध्ययन ३३.७ ३६७. स. सि. ८.८.७४६ १३१ For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहनीय : मोहनीय कर्म को संसार का मूल कारण माना जाता है। इसी कारण कर्म विषयक विवेचक के आरम्भ में इसका परिचय दिया गया है। यह आत्मा का शत्रु है क्योंकि इसी के कारण समस्त दुःख हैं। इसे शराब की उपमा दी गई है। आयु कर्म : किसी विवक्षित शरीर में जीव के रहने की अवधि को आयु कहते हैं। इसकी तलना कारागार से की गयी है। जिस प्रकार न्यायाधीश अपराधी को कारागार में डाल देता है, तब न चाहते हुए भी उसे वहाँ रहना पड़ता है।३६८ आयु कर्म चार प्रकार का है - नरकायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और देवायु।३६९ अधिक परिग्रही, आसक्त, हिंसक, कृतघ्न, उत्सूत्ररूपक आदि स्वरूप वाला जीव नरकायु का बन्ध करता है। इसी प्रकार कपटी, मायावी, प्रपंची आत्मा तिर्यंचायु का, अल्प कषायी, दानरुचि, सौम्य, मनुष्यायु का एवं पंचमहाव्रत धारी साधु, व्रतधारी, श्रावक, देवायु का बन्ध करते हैं । ३७० नाम कर्मः - जिसका निमित्त पाकर आत्मा गति, जाति, संस्थान, शरीर आदि प्राप्त करता है, वह नाम कर्म है । ३७१ इसके मुख्य दो भेद हैं- शुभ और अशुभ । शुभ और अशुभ के अनेकों उत्तरभेद भी होते हैं । ३७२ गोत्र कर्म: गोत्र कर्म के मुख्य दो भेद हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र ।३७३ जिसके उदय से पूजनीय कुल में जन्म होता है, वह उच्च गोत्र कर्म है, और जिसके उदय से निंदनीय ३६८. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ११ ३६९. त.सू.८.१० एवं ठाणांग ४.२८६ ३७०. पैंतीस बोल विवरण पृ. २.३ ३७१. स.सि. ८.११.७५५ ३७२. उत्तराध्ययन ३३.१३ ३७३. त.सू. १२ १३२ For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल में जन्म होता है, उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं । ३७४ - गोत्र कर्म से तात्पर्य जीव के आचार विचार से है, शरीर या रक्त से नहीं। इसीलिये गोत्र को जीवविपाकी कहा है ।३७५ अन्तराय कर्म : . जो कर्म विघ्न या बाधा उत्पन्न करता है, प्राप्ति की इच्छा होते हुए भी प्राप्त नहीं करने देता, देने की इच्छा होते हुए भी नहीं देने देता, भोग और उपभोग की इच्छा होते हुए भी भोगने नहीं देता, उत्साहित नहीं होने देता, इनके कारणों को अन्तराय कर्म कहते हैं ।३७६ इसके पाँच भेद हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । ३७७ जीव और पर्याप्ति :__पर्याप्ति छः प्रकार की होती है- आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ।३७८ प्रज्ञापनासूत्र में भाषा और मन दोनो को संयुक्त मानकर पाँच पर्याप्तियों का निरूपण किया गया है । ७९ . मृत्यु के पश्चात् संसारी जीव दूसरा जन्म लेने के लिये योनिस्थान में प्रवेश करते ही अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है, इसी को आहार कहते हैं । इस आहार वर्गणा को शरीर, इन्द्रिय आदि में परिणत करने की जीव शक्ति का पूर्ण हो जाना पर्याप्ति है। जीवों के चौदह भेद होते हैं ।३८° प्रत्येक जीवों में पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो भेद होते हैं। वे पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, इन पर्याप्तियों की पूर्णता और अपूर्णता से होते हैं। शरीर आदि पूर्ण रहने पर जीव पर्याप्त और अपूर्ण रहने पर अपर्याप्त ३७४. स.सि. ८.१२.७५७ ३७५. स.सि. ८.१२ का “विशेषार्थ' पृ. ३०८ ३७६. स.सि. ८.१३.७५९ ३७७. त. सू. ८.१३ एवं उत्तराध्ययन ३३.१५ ३७८. नवतत्त्व प्रकरण ६ ३७९. प्रज्ञापना २८.१९०४ ३८०. समवायांग १४.१ १३३ For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहलाते हैं, इन्द्रिय आदि अपूर्ण हो तो भी शरीर की पूर्णता से पर्याप्तक कहलायेंगे। अपर्याप्तक जीव शरीर पर्याप्त पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं। एक श्वास में १८ जन्म मरण करने वाले जीव अपर्याप्तक कहलाते हैं ।३८१ आहार पर्याप्तिः- मृत्यु के बाद शरीर के योग्य पुद्गलवर्गणा ग्रहण करना आहार कहलाता है। उस आहार को रसरूप परिणमन करने की शक्ति की पूर्णता को आहार पर्याप्ति कहते हैं ।३८२ शरीर पर्याप्ति:- जिसके पूर्ण होने पर आहार पर्याप्ति के द्वारा परिणत खरभाग हड्डी आदि कठोर अवयवों में, रस खूना वसा और वीर्य आदि तरल अवयवों में परिणत हो जाता है, उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं । ३८३ इन्द्रिय पर्याप्ति:- दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों को ग्रहण करने वाली शक्ति की उत्पत्ति के कारणभूत पुद्गलप्रचय की प्राप्ति इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है।३८४ अथवा “खून, मांस, मेद, मजा, अस्थि और वीर्य-इन सात धातुओं से स्पर्श और रसन आदि द्रव्येन्द्रियों को बनाने की जो शक्ति है, उसे इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं।३८५ श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति:- आहार वर्गणा से ग्रहण किये पुद्गल स्कन्धों को उच्छ्वास-निःश्वास रूप में परिणत करने वाली शक्ति को श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं ।३८६ भाषा पर्याप्ति:- जिस शक्ति की पूर्णता से वचन रूप पुद्गल स्कन्ध वचनों में परिणमित होते हैं, वह भाषा पर्याप्ति कहलाती है ।३८७ मनःपर्याप्ति:- जिस शक्ति के पूर्ण होने से द्रव्यमन योग्य पुद्गल स्कन्ध द्रव्यमन के रूप में परिणत हो जाते हैं, उसे मनःपर्याप्ति कहते हैं ।२८८ ३८१. उदये डु अपुण्णस्स.....अपजत्तगो सो दु-गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २२ ३८२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्त्वदीपिका ११८ ३८३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्त्वप्रदीपिका ११९ ३८४. वही ३८५. पैंतीस बोल विवरण पृ. ८ ३८६. वही पृ. ८.९ एवं धवला १.१.३४ ३८७. वही ३८८. वही १३४ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा और गुणस्थान :. जीव के विकास सोपान चौदह माने गये हैं ।३८९ मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त, क्षीणमोह, सयोगकेवली, और अयोगकेवली।३९० १) मिथ्यात्व :- मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं ३९१, एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान। २) सास्वादन :- उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहर्तमात्र काल में जब जघन्य एक समय उत्कृष्ट छः आवली प्रमाण काल शेष रहे, उतने काल में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी के उदय से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यग्दर्शन गुण की जो अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धारूप परिणति होती है, उसको सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। ३) मिश्र गुणस्थान :- जिस प्रकार दही और गुड़ को अच्छी तरह मिलाने पर न उसका स्वाद खट्टा होता है न मीठा, अपितु मिश्रित होता है, उसी प्रकार मिश्र में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित परिणाम होता है और एक ही जीव में एक साथ दोनों संभव भी हैं। जैसे एक ही व्यक्ति एक का मित्र है, एक का अमित्र है, वैसे ही एक व्यक्ति सर्वज्ञप्ररूपित वचनों में एवं असर्वज्ञकथित सिद्धान्तों में एक साथ श्रद्धान रखता है ।३९२ . इस गुणस्थान में न चारित्र ग्रहण करता है, न श्रावकत्व । इसमें आयु बन्ध भी नहीं पड़ता है और न इसमें व्यक्ति की मृत्यु हो सकती हैं। ३९३ (४) अविरत सम्यग्दृष्टिः- इस गुणस्थान में जीव सम्यग्गदृष्टि होते हुए भी व्रतधारी नहीं बन सकता । यह श्रद्धान (सर्वज्ञ प्ररूपित वाणी में) अवश्य रखता ३८९. समवायांग १४.५ ३१०. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ९.१० तथा द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २ ३९१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. १५.१६.१७ ३९२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २१.२२ ३९३. वही गा. २३.२४ १३५ For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, परन्तु प्रवृत्ति नहीं कर सकता । ३९४ (५) देशविरत गुणस्थान :- इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने के कारण पूर्व संयम नहीं हो पाता, परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय न होने से देशविरत (आंशिक व्रत) ले सकता है । २९५ इसे विरताविरत या संयमासंयम भी कहते हैं । १६ इस गुणस्थान में त्रसहिंसा से विरत, परन्तु उसी स्थावरहिंसा से अविरत होता है, इसीलिए उसे विरताविरत कहते हैं । ३९७ इसमें क्षायोपशमिक भाव होता है । (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान :प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से. पूर्ण संयम तो हो चुका होता है, परन्तु उस संयम के साथ संज्वलन चतुष्क और नोकषाय के उदय से संयम में बाधा उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है, इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं । यद्यपि इस गुणस्थान में जीव मूलगुण और शील से युक्त होता है, परन्तु व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमादों को करने से वह संयम में भी संपूर्ण संयममय नहीं बनता । ३९८ (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान :- जब संज्वलन और कषाय मन्द हो जाते हैं, सकल संयम से युम्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है। इसलिए इस गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहते हैं । ३९९ इसके भेद और उपभेद की गोम्मटसार में विस्तृत चर्चा है । ४०० -- (८) अपूर्वकरण गुणस्थान प्रथम कभी न उत्पन्न परिणाम की उत्पत्ति इस गुणस्थान में होती है । इस गुणस्थान में भिन्नसमयवर्ती जीवों के विशुद्ध परिणाम विसदृश ही होते हैं, परन्तु एकसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों होते हैं । ४०१ इसका काल मात्र अन्तर्मुहूर्त होता है । ४०२ ३९४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २९ ३९५. वही ३० ३९६. त. वा. २.५.८ ३९७. गोम्मटसार (जीवकाण्ड ) ३१ ३९८. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गा. ३२.३३ ३९९. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ४५ ४००. वही गा. ४९ ४०९. वही ५१.५२ ४०२ . वही ५२ १३६ For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान :- इस गुणस्थान में विशुद्ध परिणामों का भेद समाप्त हो जाता है । अन्तर्मुहूर्त मात्र अनिवृत्ति के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीवों में शरीर के आकार, वर्ण आदि की अपेक्षा भेद होता है। जिन विशुद्ध परिणामों द्वारा उनमें भेद नहीं होता, वे अनिवृत्तिकरण परिणाम कहलाते हैं। इसमें विशुद्ध परिणाम एक जैसे ही पाये जाते हैं तथा ये परिणाम ध्यान रूपी अग्नि से कर्मकाष्ठ जलाने में समर्थ होते हैं । ४०३ ।। (१०) सूक्ष्मसंपराय :- इस गुणस्थान में अत्यन्त सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय रहता है। रंग से रंगे वस्त्र की ललिमा धोने पर जैसे फीकी हो जाती है, वैसे ही इस गुणस्थान में राग अत्यन्त अल्प होता है। मात्र सूक्ष्म लोभ होने के कारण यथाख्यात चारित्र उदय में नहीं आता।०४ . (११) उपशांतकषाय :- निर्मल फल से युक्त जल की तरह अथवा शरदऋतु में होने वाले सरोवर के जल की तरह संपूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को उपशांत कषाय गुणस्थान कहते हैं।०५ (१२) क्षीणमोह :- मोहनीय कर्म के क्षीण होने से जिस निर्ग्रन्थ का हृदय स्फटिक के निर्मल पात्र में रखेगयेजल के समान निर्मल हो जाता हैं, उसे क्षीणमोह कषाय गुणस्थान कहते हैं।०६ । (१३) सयोगकेवली :- केवलज्ञान रूपी प्रकाश से जिसके अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो गया है, जिसे परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इन्द्रियों के सहयोग की अपेक्षा न रखने वाले काययुक्त को सयोगकेवली कहते हैं । ४०० (१४) अयोगकेवली :- जिसके कर्मों का आस्रव (आगमन) सर्वथा रुक गया है, कर्मरुपी रज की पूर्णतया निर्जरा कर चुके योगरहित (मन वचन और काय-इन तीन योगों से रहित) जीव को अयोगीकेवली गुणस्थान होता है।०८. ४०३. वही ५६.५७ ४०४. वही ५८.६० ४०५. वही गा. ६१ ४०६. वही गा. ६२ एवं त. वा. ९.१.२२.५९० ४०७. गोम्मटसार जीवकाण्ड ६४ ४०८. वही ६५ १३७ For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरक्षेत्र में रहते हुए भी इसमें आत्मप्रदेशों का शरीर से सम्बन्ध नहीं रह जाता। इसका काल पाँच ह्रस्व वर्ण अ, इ, उ, ऋ और लृ के उच्चारण में लगने वाले समय के बराबर है । शास्त्रीय भाषा में इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त्त भी कहा जाता है । इस गुणस्थान में उपान्त्य और अन्त समय में शेष बची हुई १२ और १३ प्रकृतियों Short हो जाता है । इन प्रकृतियों का क्षय हो जाने के बाद जीव 'सिद्ध भगवान्' संज्ञा पाता है और एक समय में लोकान्त पहुँच जाता है । जीव की परिपूर्णता और उत्कृष्टता इसी गुणस्थान में प्राप्त होती है । इन गुणस्थानों के विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा उत्तरोत्तर विकास करती हुई. अंत में संपूर्ण कर्म क्षय करके अपने शुद्धरूप को उपलब्ध करती है । मोह और योग के कारण जीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं । इसे ओघ और संक्षेप भी कहते हैं । ४०९ पुण्य-पाप और जीव : मुख्य तत्त्व तो इस संसार में दो ही हैं- जीव और अजीव । ४१० जीव का प्रयोजन संसार के दुःखों से छूट कर मुक्ति प्राप्त करना है। इस प्रयोजन की पूर्ति संसार के कारण और उनका निवारण समझे बिना नहीं होती। इसलिए जैनदर्शन ने जीव और अजीव- इन दो पदार्थों का विस्तार मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत सात तत्त्वों में किया है - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष । परन्तु ऐसा भी नहीं है कि मात्र इनको समझते ही मुक्ति प्राप्त हो सके; ऐसे बहुत कम जीव हैं जो निगोद (ऐकेन्द्रिय पर्याय) से सीधे ही मनुष्यत्व को प्राप्त कर उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर सकें। मोक्ष की प्रक्रिया में आचरण ( चारित्र) का महत्त्व है। जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्चारित्र की उत्कृष्ट अवस्था अनेक सोपानों में प्राप्त होती है । इस प्रक्रिया में, जब तक पूर्णता न हो, सांसारिक सुख और दुःख के कारणभूत कर्मों का आस्रव और बन्ध होता ही रहता है । यद्यपि पुण्य और पाप, दोनों प्रकार के कर्म संसार के कारण हैं, और इनका नाश ही जीव का लक्ष्य होना चाहिए, परन्तु फिर भी जब तक उच्छेद न हो तब तक पुण्य कर्मों का आस्रव और बन्ध ही उपादेय है । ४०९. संखेओ ओद्यो त्ति य गुणसण्णा.. सकम्मभवा- - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ३ ४१०. उत्तराध्ययन ३६ १३८ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक पुण्य और पाप को न समझा जाये तब तक क्या छोड़ा जाये और क्या ग्रहण किया जाये- इस समस्या का समाधान करने के लिए आस्रव और बन्ध के प्रकार पुण्य और पाप को स्वतन्त्र विषय बनाकर भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार इनका विस्तार करने पर जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-ये नौ तत्व होते हैं। ११ जीव का विवेचन हम आगे के पृष्ठों में कर आये हैं। अजीव दो प्रकार का है- मूर्त और अमूर्त । जिसमें वर्ण, बन्ध, गन्ध, रस, स्पर्श हो उसे रूपी या मूर्त कहते हैं और जिसमें ये चारोंन हों वे अमूर्त हैं । १२ इसका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में करेंगे। पुण्य-पापः____ ठाणांग में नौ प्रकार से पुण्य बताया गया है। अन्न देने से, पानी देने से, वस्त्रदान से, लयनदान से, शयनसाधन देने से, मन, वचन, काय की शुभ प्रवृति से एवं नमस्कार से पुण्य होता है । १३ - षड्दर्शन समुच्चय में हरिभद्रसूरि ने पुण्य की परिभाषा दी- “सत्कर्मों द्वारा लाये गये कर्म पुगलों को पुण्य कहते हैं।" ४१४ ठाणांग में पाप के स्थान भी नौ बताये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ । ४१५ महावीर स्वामी के गणधर अचलभ्राता का तो संदेह ही पुण्य, पाप के अस्तित्त्व और उसके स्वरूप से संबन्धित था। उनके मन में पुण्य पाप से संबंधित पाँच प्रश्न थे। १. मात्र पुण्य ही है। पाप के अस्तित्त्व की कोई आवश्यकता नहीं है। पुण्य बढ़ता है, सुख बढ़ता है, पुण्य घटता है, सुख घटता है । फिर पाप के स्वतन्त्र अस्तित्त्व की क्या आवश्यकता है।४१६ ४११. नवतत्त्व १ ४१२. उत्तराध्ययन ३६.४ ४१३. ठाणांग ९.२५ ४१४. षड्दर्शनसमुच्चय ४९ ४१५. ठाणांग ९.२६ ४१६. गणधारवाद १९०८.९ - १३९ For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. यह भी हो सकता है कि पाप का ही अस्तित्त्व माना जाये; पाप घटा सुख मिला, पाप बढ़ा, दुःख बढा। १७ ३. या पाप और पुण्य, इन दोनों का संयुक्त अस्तित्त्व है । १८ ४. चौथा मत यह है कि पुण्य और पाप, दोनों स्वतन्त्र हैं। ५. पाँचवा मत यह है कि पुण्य-पाप कुछ भी नहीं हैं। - इन सभी प्रश्नों को महावीर स्वामी ने अनुभव एवं तर्क से समाहित कियादेहादिका जो कारण है वह कर्म है। १९ कर्म दो प्रकार के हैं, पुण्य और पाप । शुभ कार्यादि से पुण्य का और अशुभ कार्यादि से पाप का अस्तित्त्व सिद्ध होता है । २० पुण्य और पाप स्वतन्त्र हैं । सुख के अनुभव का कारण पुण्य एवं दुःख के अनुभव।४२१ सुख के अत्यन्त उत्कर्ष का कारण पुण्य को और दुःख के अत्यन्त उत्कर्ष का कारण पाप को मानना होगा। पाप को पुण्य से सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः पुण्य और पाप दोनों मानने चाहिये ।२२ जिस प्रकार दुःख के लिए पाप की कल्पना अनिवार्य है, उसी प्रकार सुख के लिए पुण्य की कल्पना भी अनिवार्य है। चाहे जहर कम हो या ज्यादा, वह हानि पहुँचा ही सकता है, उससे अमृत की कल्पना संभव नहीं। पाप तो दुःख का ही कारण बनता है।४२३ . जैसे एक समय में एक ही ध्यान होता है उसी प्रकार एक समय में कर्मोदय एक ही प्रकार का होता है, अतः इन्हें स्वतन्त्र ही मानेंगे।२४ पुण्य और पाप दोनों ४१७. गणधरवाद १९१०४ ४१८. गणधरवाद १९११४ ४१९. गणधरवाद १९१९ ४२०. गणधरवाद १९२० ४२१. गणधरवाद १९२१ ४२२. गणधरवाद १९३० ४२३. गणधरवाद १९३३ ४२४. गणधरवाद १९३७ - १४० For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल हैं, पर न अत्यन्त स्थूल हैं न अत्यन्त सूक्ष्म । २५ आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप दोनों को जीव का बन्धन बताते हुए एक को सोने की बेड़ी तथा एक को लोहे की बेड़ी कहा है। इतना ही नहीं, परन्तु उन्होंने तो यह भी कहा कि जीव को इन दोनों का त्याग करना चाहिये। इन दोनों के योग से जीव कर्म का बन्ध करता है, और इनसे विरक्त आत्मा कर्ममुक्त बनती है। - भगवती सूत्र में पाप और पुण्य के संबन्ध में जिज्ञासा के समाधान में महावीर द्वारा किया गया विस्तृत विवेचन उपलब्ध है- “जिस प्रकार से सर्वथा सुंदर, सुसजित थाली में, अठारह प्रकार का भोजन हो, परन्तु वह विषमिश्रित हो तो भोजन करने में आनन्द तो आयेगा पर उसका परिणाम अशुभ होगा। उसी प्रकार पापों का सेवन तो अच्छा लगता है पर उसका परिणाम खतरनाक होता है।४२६ . पुण्यबन्ध का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है--एक व्यक्ति औषधिमिश्रित भोजन करता है, यद्यपि स्वाद उसे रुचिकर नहीं लगेगा, परन्तु उसका परिणाम अच्छा होगा।२७ पुण्यकर्म में सुख यारुचि नहीं होती, पर उसका परिणाम रुचिकर अवश्य होता है । २८ तत्त्वार्थ सूत्र में पुण्य को शुभयोग वाला और पाप को अशुभयोग वाला कहा है।४२९ . हिंसा, चोरी, मैथुन आदि अशुभ काययोग है; कठोर, असत्य वचन, आदि अशुभ वचनयोग है; मारने का विचार, अहितकारी विचार आदि अशुभ मनोयोग है। इनसे विपरीत शुभ काययोग, शुभ वचनयोग, शुभमनोयोग हैं।१० जो आत्मा को पवित्र करे वह पुण्य, और जो आत्मा को शुभ से दूर करे वह पाप है। पुण्य का उदाहरण सातावेदनीय एवं पाप का उदाहरण असातावेदनीय ४२५. गणधारवाद १९४० ४२५. समयसार १४६ ४२६. स.सा. १४७.५० ४२८. भगवती ७.१०.१५-१८ ४२९. त.सू. ६.३ ४३०. स.सि. ६.३.६१४ १४१ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भगवतीसूत्र में बन्ध का कारण कांक्षामोहनीय कर्म को माना है। प्रमाद और योग के निमित्त से जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधता है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है, योग वीर्य से, एवं वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । (जब जीव नामकर्म से युक्त हो तभी शरीर उत्पन्न करता है।) जब बन्ध का कारण शरीर है तो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम भी जीव से ही होता है । ४३२ . आम्रव.... आम्रव का अर्थ है द्वार! कर्मों के आगमन या प्रवेश द्वार को आसवं कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में ४३३ उमास्वाति ने पाँच भेद बताये हैं--मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में ४३४ आस्रव के चार भेद बताये हैं; प्रमाद का समावेश इन्हीं में हो जाता है। द्रव्यास्रव एवं भावास्रव भेद से आस्रव दो प्रकार का है। आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है उसे भावास्रव कहते हैं, एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के याग्य पुद्गलों के आस्रव को द्रव्यास्रव कहते हैं।४३५ ___ श्रीमद् नेमिचन्द्र ने आस्रव पाँच माने हैं और उनके क्रमशः पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद भी किये हैं!४३६ . ठाणांग सूत्र में इन आस्रवों का अर्थ करते हुए लिखा है- मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा, अविरति-व्रतरहित जीवन, प्रमाद-आत्मिक अनुत्साह,कषाय-आत्मा का रागद्वेषात्मक उत्ताप, योग-मन, वचन और काय का व्यापार । ४३७ . हरिभद्र सूरि ने भी कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व आदि को आस्रव कहा है।४३८ ४३१, वही . ४३२. भगवती १.३.८.९ ४३३. त.सू. ८.१ ४३४. स.सा. १६४ ४३५. बृ.द्र.सं. २९ ४३६. बृ.द्र.सं. ३० ४३७. ठाणांग ५.१०९ ४३८. षड्दर्शनसमुच्चय का ५० १४२ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों के आगमन के जैसे पाँच द्वार हैं, वैसे ही आते हुए उन कर्मों को रोकने के भी पाँच द्वार हैं- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, और अयोग।४३९ तत्त्वार्थसूत्र में संवर की परिभाषा दी गयी है- “जो आस्रव का निरोध करे/ रोके वह संवर है।"४४० ..यह संवर दो प्रकार का है- द्रव्यसंवर एवं भावसंवर । संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर है, एवं इसका निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्म-पुगाले के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्यसंवर है।४४१ यही परिभाषा नेमिचन्द्र ने दी है।४२ . हरिभद्र सूरि ने “संवरस्तनिरोधः” ४४३ - आस्रव के निरोध का नाम ही संवर ____ गुणरत्नसूरि ने इसे सर्वसंवर और देशसंवर के नाम से भी विभक्त किया है। जिस समय मन, वचन और काय का सूक्ष्म और स्थूल दोनों व्यापारी का सर्वथा निषेध हो जाये, उसे सर्वसंवर कहते हैं । यह अयोगी केवली गुणस्थान में अर्थात् सिद्धात्मा में होता है । मन, वचन, काय की संयतप्रवृत्ति रूप चारित्र से देशसंवर होता है । ४४ आस्रव और संवर जैन दर्शन के महत्वपूर्ण बिन्दु हैं । ग्यारह अंगों में प्रथम आचारांग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भी आसव-संवर की व्याख्या उपलब्ध होती है। __ आचारांग में बताया गया है कि क्रिया करना, करवाना और उसका अनुमोदन करना आस्रव (का कारण) है।४५ और यही आस्रव संसार परिभ्रमण का कारण ४३९. ठाणांग ५.११० ४४०. त.सू. ९.१ ४४१. स.सि. ९.१.७८५ ४४२. बृ.द्र.सं. ३४ ४४३. षड्दर्शनसमुच्चय ५१ ४४४. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ५१.२२९ ४४५. आचारांग १.१.६ १४३ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ४४६ अतः सभी कर्म समारंभों को जानकर त्यागना, यही संवर है। इसे साधने वाला ही मुनि होता है। कर्म और आस्रव :- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म हैं। इन आठ कर्मों के आस्रवों को अलग-अलग इस प्रकार से समझा जा सकता है। प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात-ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं। ४८ ___ श्री पूज्यपाद ने निह्नव आदि का अर्थ किया है- तत्त्वज्ञान मोक्ष का साधन है, उसका गुणगान करने पर उस समय नहीं बोलने वाले के भीतर जो पैशुन्यरूप परिणाम है वह प्रदोष है। किसी कारण से ‘ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता'इत्यादि कहकर ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है। ज्ञान का अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है, फिर भी जिस कारण (ईर्ष्या) से नहीं दिया जाता वह मात्सर्य है। ज्ञान का विच्छेद करना अन्तराय है। दूसरा कोई ज्ञान का प्रकाश फैला रहा हो उस समय शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादन है। प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है।४९ ____ अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, और परिवेदन- ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव (के कारण) हैं। १५०० प्राणी-अनुकंपा, व्रती-अनुकंपा, दान, सरागसंयम आदि का योग, क्षान्ति (क्षमा) और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।०५९ केवली, श्रुत, संघ, धर्म, और देव, इन पाँच का अवर्णवाद बोलना (गुणी पुरुषों/तत्त्वों में दोषों की अविद्यमानता होने पर भी उन में उन दोषों का उद्भावन करना) दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।५२ ४४६. आचारांग १.१.८ ४४७. वही १.१.७.१२ ४४८. त.सू. ६.१० ४४९. स. सि.६.१०.६२८ ४५०. त.स. ६.११ ४५१. त.सू. ६.१२ ४५२. त. सू. ६.१३ १४४ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय के उदय से होने वाले तीव्र आत्मपरिणाम को चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव कहते हैं । ४५३ धवला में इसे और भी स्पष्ट किया गया है--मिथ्यात्व, असंयम और कषाय- ये पाप की क्रियाएं हैं। इन पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। जो कर्म इस चारित्र को आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय आस्रव कहते ___ अत्यन्त आरभ्म और परिग्रह का भाव नरकायु के आस्रव का; कपट (माया) तिर्यंचायुका; अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह का भाव एवं स्वभाव की मृदुता मनुष्यायु के आस्रव का; सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप देवायु के आस्रव का कारण हैं । ५५ योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के आस्रव का कारण हैं, तथा योग की सरलता और अविसंवाद ये शुभनामकर्म के आस्रव के कारण हैं । ५६ शुभनामकर्म अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील, सदाचार, व्रतों का अतिचार रहित पालन, ज्ञान में सतत् उपयोग, सतत् संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य, अरिहंतभक्ति, आचार्य भक्ति बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये १६ कारण तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के हैं। ५७ परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन, और असद्गुणों का उद्भावन ये नीचगोत्र के आसव के कारण हैं ।५८ अकलंक ने उच्छादन और उद्भावन का अर्थ किया है-प्रतिबान्धक कारणों से वस्तु का प्रकट नहीं होना उच्छादन है और प्रतिबन्धक के हट जाने पर प्रकाश में आ जाना उद्भावन है।५९ ४५३. त.सू. ६:१४ ४५४. धवला २२.६.१.९-११ पृ. ४० ४५५. त.सू. ६.१५-१७.१९ ४५६. त.सू. ६:२२.२३ ४५७. त.सू. ६.२४ ४५८. त.सू. ६.२५ ४५९. त.रा.वा. ६.२५.५३० For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिंदा, सद्गुणों का उद्भावन, असद्गुणों का उच्छादन, नम्रवृत्ति और अनुत्सेक - ये उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं । ४६ अनुत्सेक अर्थात् 'अहंकार रहित होना' । गोत्र शब्द की व्युत्पति है - गूयते यत् तद् गोत्रम् । अर्थात् जो शब्दव्यवहार में आवे, वह गोत्र है । ४६९ ज्ञान, सत्कार, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, स्थान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन आदि में विघ्न करना आदि अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं । ४६२ संवर : इन आठों कर्मों के कर्म प्रवेशद्वार रूप आस्रव को रोकना संवर है। इस प्रकार संवर का तात्पर्य हुआ - कर्मद्वार को बन्द करना । जीव जो कर्मबन्ध पूर्व में (अतीत में) कर चुका है उससे मुक्त होने को निर्जरा कहते हैं । हरिभद्रसूरि ने इसी परिभाषा दी है - "बंधे हुए कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं । १४६३ 1 निर्जरा दो प्रकार से होती है- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । कर्मों को झड़ा देने की इच्छा से जो साधु दुष्कर तप तपते हैं; श्मशान में रात्रि के वक्त खड़े होकर ध्यान करते हैं; भूख, प्यास, सदी, गर्मी आदि विविध परिषहों को सहन करते है; बाधाएँ सहते हैं; लोच करते हैं; अठारह प्रकार के शील को धारण करते हैं; बाह्य तथा आभ्यन्तर राग-द्वेष का त्याग करते हैं, उन उग्र तपश्चरण करने वाले शरीरासक्ति रहित मुनियों के कर्मों की निर्जरा सकाम निर्जरा है । वे कर्मों को नियंत्रित कर उन्हें झाड़ते हैं। यह निर्जरा पुरुषार्थ से होती है । 1 जो शान्त परिणामी व्यक्ति कर्मों के उदय से होने वाले लाखों प्रकार के तीव्र शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को साता से भोग लेते हैं, वह अकाम निर्जरा है ४६०. त. रा. वा. ६.२५.५३० ४६१. त.रा.वा. ६.२५.५३१ ४६२. त. रा. वा. ६.२७.५३१ ४६३. षड्दर्शन समुच्चय का. ५१ १४६ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् उदय में आये हुए कर्मों को शान्ति से भोगना, परन्तु उनके हाथ झड़ाने की इच्छा से छेड़छोड़ न करना ।४६४ । ___ तत्त्वार्थसूत्र में तप को निर्जरा का कारण बताया बताया है। पूज्यपाद ने निर्जरा दो प्रकार की बतायी है- अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से होने वाली निर्जरा को अबुद्धिपूर्वा निर्जरा कहते हैं, तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा होती है।४६५ तत्त्वार्थसूत्र में परिषह २२ माने गये हैं। इन परिषहों को सहन करना कर्मों की निर्जरा है। क्षुधा, प्यास, शीत, गर्मी, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन । ६६ तप बारह प्रकार का होता है-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता, यह छः प्रकार बाह्य एवं प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग-यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप कहलाता है।४६७ इन बारह प्रकार के तप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है।४६८ ___ अबुद्धिपूर्वा निर्जरा में वेदना तो अत्यधिक होती है, परन्तु निर्जरा अल्प होती है । भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर चर्चा उपलब्ध होती है- “भगवन्! नैरयिकों को जो वेदना है, क्या वह निर्जरा कही जा सकती है? नहीं गौतम! यह संभव नहीं है; क्योंकि वेदना कर्म है और निर्जरा नोकर्म है।” ४६९ बंध और मोक्ष : जीव और कर्मपुद्गल का परस्पर एकमेक (एकक्षेत्रावगाही) होकर मिल जाना बन्ध है और सर्वथा वियोग हो जाना मोक्ष है।४७० ४६४. षड्दर्शन समुच्चय टीका ५२.३३६ ४६५. स.सि. ९.७.८०७ ४६६. त.सू. ९.९ एवं नवतत्त्व प्र. २७.२८ ४६७. नवतत्त्व प्रकरण ३५.३६ ४६८. बारसविंह तवो णिजराय-नवतत्त्वप्र. ३५ ४६९. भगवती ७.३.११ ४७०. षड्दर्शन समु. ५१ १४७ For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिले भगवतीसूत्र के अनुसार "जीव और पुद्गल परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं,. हुए हैं, परस्पर चिकनाई से जुड़े हुए हैं और परस्पर गाढ़ हो कर रह रहे हैं । जैसे लबालब भरे तालाब में कोई व्यक्ति दो सौ छिद्रों वाली जहाज (नौका) डाल दे, उसमें जैसे पानी भर जाता है, वैसे ही जीव और पुद्गल परस्पर एकमेक हो कर रहते हैं । ४७१ भगवतीसूत्र में बन्ध के दो प्रकार बताये हैं-- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबंध । ४७२ जो जीव के प्रयोग से बन्धता है, वह प्रयोगबन्ध और जो स्वाभाविक रूप से बंधता है, वह विस्रसाबन्ध है । यह भगवतीसूत्र के ८ वें शतक के नौवें उद्देशक बन्ध की चर्चा से संबन्धित है । जीव और कर्म के बनने योग्य पुद्गल स्कंध का परस्पर अनुप्रवेश - एक का दूसरे में घुस जाना ही बन्ध है । यह पानी और दूध की उपमा से उपमित किया गया है । ७३ यद्यपि यह केवल लौकिक दृष्टान्त है। एकक्षेत्रावगाह को लोहे के तप्त गोले से समझा जा सकता है - जैसे लोहे के गोले को गर्म करने पर लोहे के क्षेत्र में ही आग भी प्रवेश कर जाती है। यह उदाहरण भी पूर्णत: समान नहीं है, क्योंकि लोहे को गर्म करने पर वह भी किंचित् फैल जाता है । बन्ध के कारण पाँच हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । ४७४ बंध के प्रकार चार हैं- प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश । ४७५ योग से प्रकृति और प्रदेश का बन्ध का तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग का बन्ध होता है । ४७६ प्रकृतिबन्ध: - इसे श्री पूज्यपाद ने यों समझाया है -- जिस प्रकार नीम की प्रकृति में कड़वापन है, गुड़ की प्रकृति में मीठापन है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय ४७१. भगवती १.६.२६ ४७२. भगवती ८.९.१ ४७३. षड्दर्शन समुच्चय टीका ५१.२३० ४७४. त.सू. ८.१ ४७५. त.सू. ८.३ ४७६. बृ.द्र.सं. ३३ १४८ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की प्रकृति है- ज्ञान नहीं होने देना, दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति है- अर्थ का अवलोकन नहीं होने देना, वेदनीयकर्म की प्रकृति है- साता और असाता का संवेदन कराना, दर्शनमोहनीय की प्रकृति है- तत्त्व की श्रद्धा नहीं होने देना, चारित्रमोहनीय की प्रकृति है- असंयमभाव में रहना, आयुकर्म की प्रकृति हैभवधारण करना, नामकर्म की प्रकृति है- नारक आदि नामकरण, गोत्रकर्म की प्रकृति है- उच्च और नीच स्थान की प्राप्ति और अंतरायकर्म की प्रकृति है- दान आदि में विघ्न करना ।४७७ स्थितिबन्धः- कर्म की स्थिति दो प्रकार की है- जघन्य और उत्कृष्ट । ७८ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय- इन चारों की उत्कृष्ट स्थिति तीन कोटाकोटि सागरोपम है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपम है। यह उत्कृष्ट स्थिति मात्र मिथ्यादृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक को ही प्राप्त होती है। नाम और गोत्र की बीस, आयु कर्म की तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।८१ . .. इन सभी कर्मबन्धों की जघन्य स्थिति इस प्रकार है- वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त और अवशिष्ट कर्मों की एक अन्तर्मुहूर्त है।४८२ : बकरी, गाय, भैंस, आदि के दूध में जिस प्रकार दो प्रहर तक मधुर रस रहने की कालमर्यादा है, उसी प्रकार कर्मों की स्थिति भी समझना चाहिये । जीव के प्रदेशों में जितने काल तक कर्म संबन्ध रूप से स्थिति है, उसे स्थितिबन्ध कहते जैसे दूध में तारतम्य से रस संबन्धी शक्ति विशेष होती है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों पर लगे कर्म के स्कन्धों में भी सुख अथवा दुःख देने की शक्ति विशेष .४७७. स.सि. ८.३.७३६ एवं बृहद् द्र. सं. ३३, पृ. १०६ ४७८. स.सि. ८.१३.७६० ४७९. त.सू. ८.१४.१५ ४८०. स.सि. ८.१४.७६० ४८१. त.सू. ८.१६.१७ ४८२. त.सू. ८.१८.२० • ४८३. बृ.द्र.सं.टी. ३३ पृ. १०७ १४९ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को अनुभागबन्ध कहते हैं ।४८४ आत्मा के एक-एक प्रदेश पर सिद्धजीवराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण और अभव्य जीवों की संख्या से अनन्तगुणे अनन्तानन्त परमाणु प्रतिक्षण बंधते हैं, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं।४८५ कुन्दकुन्दाचार्य ने बन्ध का कारण जीव के मिथ्यादृष्टियुक्त (रागादिरूप . होने से) अध्यवसाय को कहा है। "मैं जीवों को सुखी दुःखी करता हूँ- यह दृष्टि की मूढ़ता ही शुभाशुभ कर्म को बांधती है।८६ वस्तुतः बाह्य वस्तु बन्ध का कारण नहीं, अपितु अध्यवसाय ही बन्ध का कारण है।४८७ . बंध और आस्रव में भेद :___ प्रथम क्षण में कर्म स्कन्धों का आगमन आस्रव है, और आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षण में जीव के प्रदेशों में उन कर्मों का एकक्षेत्रावगाही रूप से रहना बन्ध है।४८८ मोक्ष का स्वरूप :___'मोक्ष' शब्द का शाब्दिक अर्थ है- मुक्त होना । जैनदर्शन में यह पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि अन्य दर्शनों में भी मोक्ष अवस्था को स्वीकार किया गया है, किन्तु जैनदर्शन में स्वीकृत मोक्ष के स्वरूप में बहुत भिन्नता है। इतना ही नहीं, मोक्ष अवस्था को प्राप्त जीव के स्वरूप में भी भिन्नता है, यो यथास्थल विवेचित की गयी है। तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि जीव का सभी कर्मों से सम्बन्ध का आत्यन्तिक अभाव हो जाना (मुक्त हो जाना) मोक्ष है। पूज्यपाद के अनुसार- “जब आत्मा कर्म मैल रूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है, तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप ४८४. बृ.द्र.सं.टी. ३३ १०७ एवं त.सू. ८.२१ ४८५. त.सू. ८.२४ एवं बृ.द्र.सं.टी. १०७ ४८६. स.सा २५९ ४८७. स.सा. २६५ ४८८. बृ.द्र.सं.टी. १०८ १५० For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । ४८९ कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार “आठों कर्मों को क्षय करने वाले, अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य सूक्ष्मत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, अगुरलघुत्व और अव्याबाधत व इन आठ गुणों से युक्त परम लोक के अग्रभाग में सिद्ध मुक्तात्मा स्थिर हैं । ४९० व्यवहार नय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्ध भगवान् चैतन्यघन से ठोस चूड़ामणि रत्न की तरह हैं, निश्चय नय से सहजपरमचैतन्य चिंतामणि स्वरूप नित्यशुद्ध निज रूप में रहते हैं । ४९१ मोक्ष में जीव का शुद्ध स्वरूप ही रहता है। दीपक बुझने पर जैसे प्रकाश के परमाणु अन्धकार में बदल जाते हैं, उसी प्रकार समस्त कर्मक्षय होने पर आत्मा शुद्ध चैतन्य अवस्था में बदल जाती है । ४९२ बौद्धों के शून्यवाद को दृष्टि में रख कर पंचास्तिकाय में, आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष में आत्मा का सद्भाव सिद्ध किया है- “यदि जीव का मोक्ष में अदस्भाव हो तो शाश्वत - उच्छेद, भव्य - अभव्य, शून्य - अशून्य और विज्ञान - अविज्ञान भावों का अभाव हो जायेगा, जो अनुचित हैं । १४९३ . उत्तराध्ययन के अनुसार, सिद्धात्मा के शरीर की अवगाहना अन्तिम भव पें जो शरीर की ऊँचाई थी, उससे तृतीय भाग हीन होती है । ४९४ सिद्धों के अन्तिम शरीर से कुछ कम होने का कारण यह है कि चरम शरीर के नाक, कान, नाखून आदि खोखले हैं । शरीर के कुछ खोखले भागों में आत्मप्रदेश नहीं होते । मुक्तात्मा छिद्ररहित होने के कारण पहले शरीर से कुछ कम, मोमरहित सांसे के बीच आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के आकार वाली होती है। ४९५ ४८९. स. सि. ९.४.१८ ४९०. नि.सा. ७२ ४९१. स.सा.ता. बृ. १०१ ४९२. तरा. वा. १०.४ पृ. ६४४ ४९३. पं. का. गा. ४६ ४९४. उत्तराध्ययन ३६.६४ ४९५. बृ.द्र. सं. टीका ५१ पृ. १०६ १५१ For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध बनने के पश्चात् उनमें पुनः संसार या कर्मबन्ध की संभावना नहीं होती, क्योंकि बन्धन रूप कार्य का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। कारण समाप्त होने के बाद भी यदि कार्य हो तो जीव का मोक्ष नहीं हो सकता ।४९६ भगवतीसूत्र में भी इसी प्रकार की चर्चा है जिसने संसार का निरोध किया है, वह पुनः मनुष्यभव को धारण नहीं करता।४९७ सिद्धों के अवगाहन शक्ति होती है । अल्प अवगाह में भी अनेक सिद्धों का अवगाह हो जाता है। जब मूर्त्तिमान् दीपकों का भी अल्पाकाश में अविरोधी अवगाह हो सकता है, तब सिद्धों के अमूर्त होने कारण विरोध का प्रश्न ही नहीं है। सांसारिक सुख सादि-सान्त तथा उतार-चढ़ाव वाला है, परन्तु सिद्धात्मा का सुख परम अनन्त है। सांसारिक सुख और मोक्ष सुख में सूक्ष्म समानता भी नहीं है, क्योंकि सांसारिक सुख विषयभोगजन्य होता है जबकि मोक्षसुख आत्मानुभवजन्य होता है। मुक्त जीव का लोकान्तगमन:- संपूर्ण कर्मों का उच्छेद हो जाने पर, ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है । ९९ वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में ऊर्ध्वगमन के चार कारण बताये हैं-पूर्व के संस्कार से ,कर्म के संगरहित हो जोने से, बन्धन के उच्छेद से, और ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने के कारण मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन ही करते हैं ।५०० "हा १. पूर्व के संस्कार:- जिस प्रकार कुम्हार अपना हाथ हटा ले तो भी पूर्व प्रयोग के कारण संस्कारक्षय तक चक्र घूमता रहता है, वैसे ही संसारी आत्मा ने अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया है, परन्तु कर्मसहित होने के कारण बिना नियम गमन करता है और कर्ममुक्ति होने के कारण नियमपूर्वक गमन करता है।५०१ ४९६. तत्त्वार्थ रा.वा. १०.४.४.६४२ ४९७. भगवती ४९८. त.रा.वा.१०.४.९.११ पृ. ६४३ ४९९. त.सू. १०.५ ५००. त.सू. १०.६ ५०१. त.सू.वा. १०.७.२.६४५ १५२ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. कर्म से असंग:- मिट्टी के लेप से वजनदार तुम्बी पानी में डूब जाती है; परन्तु ज्योंहि मिट्टी का लेप हटता है, तुम्बी ऊपर आ जाती है, उसी तरह कर्म से भारी आत्मा भटकता रहता है, पर अकर्ममुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन कर जाता ३. बंधच्छेहः- जिस प्रकार बीजकोश से बन्धन टूटने से एरण्डबीज ऊपर की ओर जाता है, वैसे ही गति नामकर्म आदि कर्मों के बन्धन के हटते ही मुक्तात्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है ।५०३ ... ४. अग्निशिखावत्:- जैसे तिरछी बहने वाली वायु के अभाव दीपदिखा स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही मुक्तात्मा भी नाना विकारों के कारण कर्म के हटते ही ऊर्ध्वगतिस्वभाव से ऊपर को ही जाती है । ५०४ . - इस प्रकार चारों कारणों को तत्त्वार्थसूत्र में वाचक उमास्वाति ने चारों उदाहरणों को सूत्र द्वारा स्पष्ट भी किया है।५०५ ... .. मुक्त जीवों का लोकाग्र तक ही गमन होने में कारण:- लोकाग्र तक ही... सिद्धात्मा जाता है; उससे आगे नहीं जा पाता; क्योंकि गमन का कारण धर्म द्रव्य है जिसका अलोक में अभाव हैं ।५०६. .: मुक्त जीवों के क्षायिकभावः- मोक्षावस्था में भी केवल सम्यक्त्व,.. केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन चार भावों का क्षय नहीं होता।५०७ उन्हें पुनः संसार में आकर जन्म-मरण करने की बाधा भी हीं है। मूर्त अवस्था में ही प्रीति, परिताप आदि बाधाओ की संभावना थी।५०८..... ५०२. त.रा.वा. १०.७.३.६४५ ५०३.त.रा.वा. १०.७.५.६४५ ५०४. त.रा.वा. १०.७.६.६४५ ५०५. त.सू. १९.७ ५०६. त.सू. १०.७ ५०७. त.सू. १०.४ ५०८. यस्मिन्नेव देशे कर्मविप्रपोक्षस्तस्मिन्ने प्राप्षनीज्ञेति पुनर्गतिकाराभावदिति, तन्नः किं कारणम् साध्यत्वात्- त.वा. १०.४.१९.६४४ १५३ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति की प्राप्ति के भेदः- क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अंतर संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्धों में भेद पाया जाता है ।५०९ मुक्ति का साधनः- तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र को माना है ।५९० - समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार जो आत्मा को और बन्ध को जानकर बन्ध से विरक्त होता है, वही मोक्ष की प्राप्ति करता है । ११ । - आत्मा और बन्ध प्रज्ञारूपी छेनी द्वारा भिन्न किये जाते हैं ।५१२ प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया हुआ (बन्ध और चैतन्य) शुद्ध आत्म-स्वरूप ही मेरा है, अन्य सब परद्रव्य हैं, ऐसा मानना चाहिये । ५९२ कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में आगे यह भी स्पष्ट किया है कि मात्र जानना ही पर्याप्त नहीं है । बन्ध, स्थिति, स्वभाव आदि को जानने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, परन्तु उन बन्धनों को काटने की अनुकूल प्रक्रिया अपनाने पर ही, अर्थात् रागादि भाव से जीव जब शुद्ध होने पर ही उसे मुक्ति प्राप्त होती है।५९४ संसार में जीवों की संख्या एवं जैनसिद्धान्त:.. अनन्त जीव आज तक मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं, परन्तु संसार में आत्माएँ फिर भी बनी रहती हैं, उसमें कोई कमी नहीं आयी क्योंकि जीव अनादि अनन्त हैं। गणित का भी यह नियम है कि अनन्त में से अनन्त निकालें, फिर भी बाकी अनन्त ही रहेंगे। जितने जीव मोक्षजाते हैं, उतने ही जीव निगोद से निकलते हैं । अतः संसार में जीव जितने हैं, उतने ही रहते हैं । निगोद का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है ५०९. त.सू. १०.९ ५१०. त.सू. १.१ ५११. स.सा. २९४ ५१२. स.सा. २९४.५ ५१३. स.सा. २९६ ५१४. स.सा. २८८.९ १५४ For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल असंख्यात हैं, एक गोल में असंख्यात निगोद रहते हैं। जितने जीव व्यवहार राशि से निकल कर माक्ष जात हैं, उतने ही जीव अव्यवहार राशि से निकल कर व्यवहार राशि में आ जाते हैं ।५१५ जीव के अनेक नामों के कारण :____जीव श्वास और निःश्वास में प्राणवायु लेता और छोड़ता है इसीलिए वह प्राणी कहलाता है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, अतः उसे भूत कहना चाहिये । वह जीवन जीता है, जीवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, अतः उसे सत्त्व कहना चाहिये । वह रसों का ज्ञाता है, अतः उसे विज्ञ कहना चाहिये । वह सुख-दुःख का वेदन करता है, अतः उसे वेद कहना चाहिये।५१६ ५१५. स्याद्वादमंजरी २९ पृ. २५९ पर उद्धृत ५१६. भगवती २.१.८ (२) १५५ For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : चतुर्थ अजीव का स्वरूप ... जीव से विपरीत स्वभाव वाले पदार्थ अजीव हैं। अजीव समूह में पाँच अस्तिकाय आते हैं--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । अस्तिकाय का अर्थ है बहुप्रदेशी। जिनके टुकड़े न हो सकें एसे अविभागी प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं। इस अध्याय में सभी अजीवास्तिकाय द्रव्यों का क्रम से विवेचन किया जा रहा है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायः धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय- दोनों द्रव्य मात्र जैनसिद्धान्त द्वारा ही प्रतिपादित किये गये हैं। यहाँ प्रयुक्त 'धर्म' और 'अधर्म' दानों ही पारिभाषिक शब्द हैं जो दो पृथक्-पृथक् द्रव्यों के अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं; साधारण बोलचाल की भाषा हो या धर्म साहित्य हो, 'धर्म' शब्द लोक में बहुप्रचलित स्वभाव, सुख-दुःखनिमित्तक आचरण, मोक्षप्राप्ति के उपाय, पुण्य-पाप, शुभअशुभ, प्रशस्त-अप्रशस्त, उचित-अनुचित व्यवहार आदि अर्थों में प्रचलित है। किन्तु यहाँ 'धर्म' और 'अधर्म' शब्द इन वाच्यार्थों से भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हैं। जैनदर्शन ने जीवद्रव्य की तरह धर्मास्तिकाय को भी द्रव्य माना है तथा उसे भी गुण और पर्याय से युक्त कहा है। धर्म द्रव्य वह है जो गति में सहायक कारण हैं अधर्म द्रव्य वह है जो स्थिति (अवस्थान-ठहरना) में सहायक कारण हैं। यहाँ सर्वप्रथम कारण के स्वरूप को जानना आवश्यक है, इसके बिना धर्म और अधर्म की कारणता नहीं समझी जा सकती। कारणों के प्रकार :- षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने कारण तीन प्रकार के बताये हैं-परिणामिकारण, निमित्तकारण और निवर्तककारण । १. भगवती २.१०.१ एवं ठाणांग ५.१७० २. षड्दर्शन के बताये हैं- परिणामिकारण, निमित्तकारण और निवर्तकारण। १५६ For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिकारण:- जो स्वयं कार्यरूप से परिणमन करे, कार्य के आकार में बदल जाये वह परिणामी कारण है, जैसे-घड़े में मिट्टी (इसे उपादान कारण भी कहते हैं।)। निमित्तकारण:- निमित्त कारण वे हैं जो स्वयं कार्यरूप में परिणत तो न हों, पर कर्ता को कार्य में सहायक हों, जैसे-घड़े की उत्पत्ति में दण्ड, चक्र आदि। निर्वर्तक कारण:- कार्य का कर्ता निर्वर्तक कारण होता है, जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार । तत्त्वार्थसूत्रभाष्य में उद्धृत इस पद्य से भी इसकी पुष्टि होती निर्वतकं निमित्तं परिणामी च त्रिधेष्यते हेतुः। ___ कुंभकारो धर्वा मुच्चेति समसंख्यम् ।। निमित्तकारण के प्रकार :- निमित्तकारण दो प्रकार के हैं-- एक तो शुद्ध निमित्तकारण तथा दूसरा अपेक्षा निमित्तकारण । स्वाभाविक तथा कर्ता के प्रयोग से जहाँ क्रिया होती है, वह शुद्ध निमित्तकारण है, एवं जहाँ स्वाभाविक परिणमन मात्र होता हो, वह अपेक्षा निमित्तकारण कहलाता है। धर्मास्तिकाय का स्वरूपः धर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है, काल की अपेक्षा वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, अतः ध्रुव निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है । गुण की अपेक्षा गतिनिमित्त गुण है; जीव और पुद्गल द्रव्य की गति में उदासीन सहायक है। उत्तराध्ययन में भी धर्मास्तिकाय के गमननिमित्त गुण की पुष्टि की गई है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने भी धर्मास्तिकाय को गमन में उपकारी बताया है।५ १२. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ४९.१६७ १३. उद्धृतेयं त.भा.टी. पृ. ५१७ १४. षड्.दर्शन समुच्चय टीका ४९.१६८ ३. ठाणांग ४. गइ लक्खणो धम्मो।-उत्तराध्ययन २८.९ ५. त.सू. ५.१७ १५७ For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद ने गति की व्याख्या की है- एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने को गति कहते हैं । टीकाकार गुणरत्नसूरि के अनुसार धर्मद्रव्य आकाश के असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश भाग के सभी प्रदेशों में पूरी तरह से व्याप्त है । इसके भी लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेश हैं । यह स्वयं गमन करने वाले जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षित कारण है; अपेक्षित कारण से तात्पर्य है कि यह प्रेरणा करके इनको चलाता नहीं है, यदि चलते हैं तो चलने में सहकारी कारण अवश्य बनता है । ७ पंचास्तिकाय के अनुसार धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण, अशब्द, लोकव्यापक, अखण्ड, विशाल और असंख्यात प्रदेशी है। ' स्पर्शादि से रहित होने के कारण ही धर्मास्तिकाय अमूर्त स्वभाववाला है और इसीलिए अशब्द भी है। संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त रहने के कारण लोकव्यापक है । अयुत सिद्ध प्रदेशी होने के कारण अखंड है। स्वभाव से ही सर्वतः विस्तृत होने से विशाल है। निश्चयनय से एक प्रदेशी होने पर भी व्यवहार नय से असंख्यात प्रदेशी है । " द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है । यह लक्षण धर्मास्तिकाय में भी प्राप्त होता है । धर्मास्तिकाय अगुरुलघु रूप से सदैव परिणमित होता है, फिर भी नित्य है, गतिक्रिया में कारणभूत होने पर भी स्वयं अकार्य है । " जैसे मछलियों को पानी चलने में सहयोग देता है वैसे ही धर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गल को उदासीन सहयोग करता है । " अन्य द्रव्यों की तरह धर्म में भी सामान्य और विशेष, दोनों गुण उपलब्ध होते हैं। अमूर्त्त, निष्क्रिय, द्रव्यत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य गुण हैं, एवं इसका विशेष गुण 'गति' प्रदान करना है । १५ ६. स. सि. ५.१७.५५९ ७. षड्दर्शन समुच्चय टीका ४९.१६६ ८. पंचास्तिकाय ८३ ९. पं.का.टी. ८३ १०. वही ८४ १९. वही ८५ १५. गमणणिमित्तं धम्मं । नियमसार ३० १५८ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मास्तिकाय को तत्त्वार्थसूत्र में निष्क्रिय द्रव्य६ कहा है, क्योंकि क्रिया की परिभाषा है-अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है। यहाँ प्रश्न होता है, जब धर्मास्तिकाय निष्क्रिय है तो इसमें उत्पाद आदि संभव नहीं हैं, और उत्पाद आदि लक्षणों के अभाव में इसे द्रव्य नहीं कहा जा सकता? इस शंका का समाधान पूज्यपाद ने इस प्रकार से दिया है-यद्यपि धर्म द्रव्य निष्क्रिय है, तथापि इसमें उत्पादादि द्रव्य के लक्षण घटित होते हैं। इनमें क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है, तथापि अन्य प्रकार से उत्पाद है, क्योंकि उत्पाद दो प्रकार का है- स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद । आगम में प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अगुरुलघु गुण स्वीकार किये गये हैं, जिनका षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से होता है। इसी प्रकार परप्रत्यय उत्पाद भी होता रहता है। जैसे ये धर्मादि द्रव्य गति आदि के कारण होते हैं, इनके गति, स्थिति आदि में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है, अतः इनका कारण भिन्न-भिन्न होना चाहिये । इस प्रकार धर्मादि द्रव्य में परप्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद-व्यय है, और जो उत्पाद-व्यययुक्त है वह द्रव्य - धर्म,अधर्म, आकाश और काल-इनमें निष्क्रिय होने के कारण स्वभावपर्याय ही पायी जाती है; विभावपर्याय नहीं। स्वभावपर्याय में परिणमन परद्रव्यों की अपेक्षा से रहित होता है और जो परिणमन स्कन्ध रूप से होता है वह विभाव परिणमन कहलाता है। विभाव परिणमन जीव और पुद्गल में पाया जाता है। १६. निष्क्रियाणिच । त.सू.-५.७ १७. स.सि. ५.७.५३९ १८. स.सि. ५.७.५३९ .१९. नियमसार २८ १५९ For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मास्तिकाय की उपयोगिता :. जीव और पुद्गल-दोनों ही इस लोकाकाश में इधर से उधर भ्रमण करते हैं। स्थूल गतिक्रिया तो इन्द्रियग्राह्य है, परन्तु सूक्ष्म गतिक्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। सूक्ष्म और स्थूल, इन दोनों प्रकार की गतिक्रिया में धर्म द्रव्य सहायक बनता है। धर्मास्तिकाय को मानने के दो कारण हैं: १. गति का सहयोगी कारण एवं २. लोक-अलोक की विभाजक शक्ति यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होता तो जीव और पुद्गल की गति का अभाव हो जाता या सदा ही गति होती रहती। जीवादि सभी पदार्थों के अस्तित्व से युक्त समूह को लोक कहते हैं । जहाँ जीवादि का संपूर्ण अभाव हो वह अलोक है। यदि जीव-पुद्गल को बहिरंग निमित्त धर्मादिन मिले तो अलोक में उनके गमन को रोका नहीं जा सकता। धर्मास्तिकाय के कारण ही गति व्यवस्था नियंत्रित होती है और लोक-अलोक के मध्य विभाजक रेखा भी बनती है। ___धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व पृथक् है, अतः भिन्न हैं, पर दोनों एक ही क्षेत्रावगाही होने के कारण अविभक्त भी हैं। साथ ही संपूर्ण लोक में गति आदि में अनुग्रह करते हैं, अतः लोकप्रमाण भी हैं। भगवतीसूत्र के अनुसार लोक के तीनों भागों का धर्मास्तिकाय स्पर्श करता है। अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से अधिक भाग को तिर्यग्लोक असंख्येय भाग को ऊर्ध्वलोक कुछ कम धर्मास्तिकाय के आधे भाग का स्पर्श करता है। भगवंतीसूत्र में गौतमस्वामी पूछते हैं कि धर्मास्तिकाय द्वारा जीवों की क्या गतिविधि होती है? भगवान् कहते हैं- धर्मास्तिकाय द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, (नेत्र खोलना) मनोयोग, वचनयोग, और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसके अतिरिक्त भी जितने चलभाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है।२२ गति में उदासीन सहायता धर्म द्रव्य का लक्षण है, परन्तु यह स्वयं प्रेरित नहीं २०. पं. का. गाथा ८७ २१. भगवती १३.४.२४ २२. वही १६० For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता । जैसे बिजली के तार बिजली को, रेल की पटरी रेल को चलने के लिए प्रेरित नहीं करती अपितु उदासीन भाव से सहायक मात्र होती है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी उदासीन सहायक मात्र बनता है। प्रमेयकमलमार्तण्ड के अनुसार अनेक द्रव्य की एक साथ प्रवृत्ति या गति होना ही धर्मद्रव्य की यथार्थता और द्रव्यता को प्रमाणित करता है। उनके अनुसार सभी जीवों और पुद्गल द्रव्यों की पृथक्-पृथक् गतियों के लिए एक सामान्य और आन्तरिक परिस्थिति पर निर्भर होना अनिवार्य है। जैसे एक तालाब के पानी पर असंख्य मछलियों की गति निर्भर है।२३ । ___ जिस प्रकार स्वयं चलने में समर्थ लंगड़े को लाठी सहारा देती है या दर्शनसमर्थ नेत्र को दीपक का सहारा होता है उसी प्रकार स्वयं गतिमान जीवों को व पुद्गलों को धर्म द्रव्य गति में सहायता प्रदान करता है। लंगड़े व्यक्ति को लाठी न तो गति में प्रेरणा देती है, न कर्ता बनती है और न दर्शन शक्ति के अभाव में दीपक दर्शन की शक्ति उत्पन्न कर सकता है, लाठी और दीपक तो मात्र सहयोगी बनते हैं।२४ - जिस गतिसहायक पदार्थ को जैन दर्शन ने धर्मास्तिकाय कहा है, आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धान के आधार पर उसी के समान गुण वाले द्रव्य को ‘Ether' (ईथर) कहते हैं। ईसा की १८ वीं/१९वीं शताब्दी में भौतिक विज्ञानवेत्ताओं के सामने एक बात स्पष्ट हो गयी कि यदि प्रकाश की तरंगों का अस्तित्व है तो उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिए, ठीक वैसे ही, जैसे पानी सागर की तरंगों को पैदा करता है और हवा उन कंपनों को जन्म देती है जिन्हें हम ध्वनि कहते हैं । जब यह लगा कि 'प्रकाश' शून्य से भी होकर विचरण करता है, तब वैज्ञानिकों ने 'ईथर' तत्त्व की कल्पना की, जो उनके अनुसार समस्त आकाश और ब्रह्माण्ड में व्याप्त . बाद में फैरेड ने एक अन्य प्रकार के 'ईथर' की कल्पना की जो विद्युत् एवं चुंबकीय शक्तियों का वाहक माना गया। अन्ततः यह 'ईथर' की निश्चित और २३. प्रमेयकमल मार्तण्ड परि. ४.१० पृ. ६२३ २४. त.वा. ५.१७.२४.४६३ १६१ For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट मान्यता मेक्स्वेन वैज्ञानिक के बाद सिद्धान्त रूप में स्वीकार कर ली गयी । उन्होंने प्रकाश को 'विद्युत चुंबकीय विक्षोभ' (Electromagnatic disturbance) के रूप में मान्यता दी। अब ईथर का स्वरूप और अस्तित्त्व निश्चित सा हो गया । अमेरिकन भौतिक विज्ञानवेत्ता ए. ए. माइकेलसन और ई. डब्ल्यू मोरले ने क्लीवलेण्ड में सन् १८८१ में ईथर के संबन्ध में एक भव्यपरीक्षण किया । उस परीक्षण के पीछे उनका तर्क था कि यदि संपूर्ण आकाश केवल ईथर का गतिहीन सागर है तो ईथर के बीच पृथ्वी का ठीक उसी तरह पता लगना चाहिये और पैमाइश होना चाहियेजैसे नाविक सागर में जहाज के वेग नापते हैं। नाविक जहाज की गति का माप सागर में लट्ठा फेंककर और उससे बंधी रस्सी की गांठों के खुलने पर नजर रखकर लगाते हैं। अत: मोरले और माइकेलसन ने लट्ठा फेंकने की क्रिया की । यह लट्ठा प्रकाश की किरण के रूप में था । यदि प्रकाश सचमुच ईथर में फैलता है तो उसकी गति पर पृथ्वी की गति के कारण उत्पन्न ईथर की धारा का प्रभाव पड़ना चाहिये। विशेष तौर पर पृथ्वी की गति की दिशा में फेंकी गयी प्रकाश - किरण में ईथर की धारा से उसी तरह हल्की ब्राधा पहुँचनी चाहिये, जैसी बाधा का सामना एक तैराक को धारा के विपरीत तैरते समय करना पड़ता है । इसमें अंतर बहुत थोड़ा होगा; क्योंकि प्रकाश का वेग एक सेकेण्ड में १,८६,२८४ मील है जबकि सूर्य के चारों ओर अपनी धुरी पर पृथ्वी का वेग केवल बीस मील प्रतिसेकण्ड होता है । अतएव ईथर धास को विपरीत दिशा में फेंके जाने पर प्रकाशकिरण की गति १,८६, २६४ मील होनी चाहिए और सीधी दिशा में फेंकी जाये तो १,८६,३०४ मील। इन विचारों को मस्तिष्क में रखकर माइकेलसन और मोरले ने एक यंत्र का निर्माण किया । इस यंत्र की सूक्ष्मदर्शिता इस हद तक पहुँची हुई थी कि वह प्रकाश के तीव्र वेग में प्रति सेकेण्ड एक-एक मील के अंतर को भी अंकित कर लेता था। इस यंत्र को उन्होंने व्यतिकरण मापक (Interferometer) नाम दिया। कुछ दर्पण इस तरह लगाये हुए थे कि एक प्रकाश किरण को दो भागों में बांटा जा सकता था और एक ही साथ दो दिशाओं में उन्हें फेंका जा सकता था । यह सारा परीक्षण इतनी २५. डॉ. आइन्स्टीन और ब्रह्माण्ड - लिकंन बारनेट पृ. ४२ १६२ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधानी से आयोजित किया गया कि संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। इसका निष्कर्ष सरल भाषा में यह रहा कि प्रकाश-किरणों के वेग में चाहे वे फेंकी गयी हों, कोई अंतर नहीं पड़ता।२६ ___ आइंस्टीन के अनुसार इस निष्कर्ष से वैज्ञानिक-जगत में हलचल प्रारंभ हो गयी; क्योंकि इस निष्कर्ष से भी अधिक मान्य कोपरनिकस सिद्धान्त, जिसमें यह सिद्ध किया था कि 'पृथ्वी स्थिर नहीं, गतिशील है' को छोड़े या ईथर सिद्धांत को। बहुत से भौतिकविज्ञान वेत्ताओं को यह लगा कि यह विश्वास करना अधिक आसान है कि पृथ्वी स्थिर है बनिस्पत इसके कि तरंगें, प्रकाश तरंगें, विद्युतचुंबकीय तरंगें बिना किसी सहारे के अस्तित्व में रह सकती हैं। इन्हीं विभिन्न मतधाराओं के कारण पच्चीस वर्ष पर्यंत एक मत नहीं बन पाया। नयी कल्पनाएँ हुईं, परीक्षण हुए, परन्तु निष्कर्ष यही रहा कि 'ईथर' में पृथ्वी का प्रत्यक्ष वेग शून्य - ईथर प्रकाश की गति को प्रभावित नहीं करता, इसलिए आइंस्टीन ने उसके अस्तित्व का निरसन किया। परन्तु यह तो स्वीकार करना ही होगा कि गतिनियामक तत्त्व के अभाव में पदार्थ अनन्त में भटक जाते और एक दिन वर्तमान विश्व प्रकाश शून्य हो जाता। .'ईथर' के विषय में भौतिक विज्ञानवेत्ता डॉ.ए.एस. एडिंगटन लिखते हैं Nowadays, it is agreed that ETHER is not a kind of matter, being non material, its properties are quite unique characters such as mass and rigidity which we meet with in matter will naturally be absent in ETHER will have new definite characters of its own non-material ocean of ETHER. आजकाल यह स्वीकार कर लिया गया है कि "ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है। भौतिक की अपेक्षा उसकी प्रकृति भिन्न है । भूत में प्राप्त पिण्डत्व और घनत्व गुणों २६. जैन दर्शन और अनेकांत:- युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ. २५-२६ . २७. डॉ. आइंस्टीन और ब्रह्माण्ड पृ. ४३-४६ १६३ For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ईथर में अभाव होगा, परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे।"२८ __प्रोफेसर जी. आर. जैन. एम. एससी., धर्म और ईथर की तुलना करते हुए लिखते हैं "Thus it is proved that science and Jain Physics agree absolutely so far as they call Dharm (ETHER) nonmaterial, nonatomic, non-discrete, continuous, co-extensive with space in divisible and as a necessary medium for motion and one which does not itself move." अर्थात् यह सिद्ध हो गया है कि "विज्ञान और जैनदर्शन दोनों यहाँ तक एकमत हैं कि धर्मद्रव्य या ईथर अभौतिक, अपारमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड आकाश के समान व्यापक, गति में अनिवार्य माध्यम, और अपने आप में स्थिर वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत यह 'ईथर' गतिनिमित्त तत्त्व का ही दूसरा नाम हैं। ईथर संबंधी ये सारी मान्यताएँ मध्ययुगीन वैज्ञानिक युग से संबंधित हैं। ___ यदि धर्मास्तिकाय की सत्ता नहीं होती तो पुद्गल और जीव की गति में निमित्त कौन होता? क्योंकि जीव और पुद्गल तो स्वयं उपादान कारण हैं। वायु स्वयं गतिशील है तो पृथ्वी, और जल लोक में सर्वत्र व्याप्त नहीं है। अतः हमें ऐसी शक्ति की अपेक्षा है जो स्वयं गतिशून्य हो और संपूर्ण लोकं में व्याप्त हो, साथ ही अलोक में नहीं।२९ अधर्मास्तिकाय का स्वरूपः अधर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, अर्थात् अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोक प्रमाण है, एवं जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक तत्त्व है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी अधर्म को स्थिति लक्षण वाला सूचित किया है।३१ २८. ------- २९. प्रज्ञापना वृ.प.१ ३०. भगवती २.१०.२ एवं ठाणांग ५.१७१ ३१. अधम्मो ठाण लक्खणो।- उत्तरा. २८.९ १६४ For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी जीव और पुद्गल की स्थिति उदासीन सहायक को अधर्मास्तिकाय कहा है। ___ श्री पूज्यपाद ने अधर्मास्तिकाय का उदाहरण देते हुए बताया कि जिस प्रकार घोड़े को ठहरने में पृथ्वी साधारण निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल को ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है।३३ लघु द्रव्यसंग्रह के अनुसार स्थित होते जीवों और पुद्गलों को जो स्थिर होने में सहकारी कारण हैं उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं, जैसे छाया यात्रियों को स्थिर होने में सहकारी है, परन्तु वह गमन करने वाले जीव और पुद्गल को स्थिर नहीं करती।४ षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में भी अधर्मास्तिकाय के इसी लक्षण को पुष्ट किया गया है।३५ अधर्मास्तिकाय का अपना कोई स्वतन्त्र कार्य नहीं है। स्थूल रुकना तो स्पष्ट दृष्टिगत होता है, सूक्ष्म स्थिति दृष्टिगत नहीं होती है। परन्तु सूक्ष्म ठहरना पदार्थ के मुड़ने के समय होता है । चलता-चलता ही पदार्थ यदि मुड़ना चाहे तो उसे मोड़ पर जाकर क्षणभर ठहरना पड़ेगा। यद्यपि रुकना दृष्टिगत नहीं होता, पर होता अवश्य है। इस सूक्ष्म तथा स्थूल अवस्थान में जो सहायक तत्त्व - है, उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं।२६ . इस पर से यह न समझना चाहिए कि जो सदा सर्वदा से रुका हुआ है उसमें भी अधर्मास्तिकाय का सहयोग है। अधर्मास्तिकाय उसे सहयोग करता है, जो चलते-चलते ठहरे। जो चलता ही नहीं, उसे ठहराने का प्रश्न ही नहीं है। जैसे आकाश चलता ही नहीं तो उसे ठहराने का प्रश्न ही नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार न धर्मास्तिकाय गमन करता है और न अधर्मास्तिकाय स्थिर करता है । जीव और पुद्गल स्वयं अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। ३२. त.सू. ५.१७ ३३. स.सि. ५.१७.५५९ ३४. लघु द्रव्य संग्रह ९ ३५. षड्दर्शन समुच्चय टीका ४९. १६९ ३६. पदार्थ विज्ञान :- जिनेन्द्र वर्णी पृ. १९० ३७. पं. का. ८९ १६५ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर प्रश्न होता है कि तब धर्म और अधर्म को मानने का क्या कारण है? इसका समाधान अमृतचन्द्राचार्य देते हैं। उनके अनुसार यदि 'धर्म' और 'अधर्म' गति और स्थिति के मुख्य हेतु मान लिये जायें तो जिन्हें गति करनी है वे गति ही करेंगे, और जिन्हें स्थिति रखनी है वे स्थिति ही रखेंगे। दोनों गति और स्थिति एक पदार्थ में नहीं पायी जाती, जबकि गति और स्थिति दोनों ही एक धर्मी में पाये जाते हैं। अतः अनुमान है कि ये व्यवहारनय द्वारा स्थापित उदासीन कारण हैं।"३८ अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता:____ गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा-भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीव को क्या लाभ होता है? भगवान् ने कहा-यदि अधर्मास्तिकाय नहीं होता तो जीव खड़ा कैसे होता? बैठना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट लेना आदि जितने भी स्थिर भाव हैं, वे अधर्मास्तिकाय के कारण हैं ।३९ सिद्धसेन दिवाकर धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय के स्वतन्त्र द्रव्यत्व को आवश्यक नहीं मानते, वे इन्हें द्रव्य की पर्याय मात्र स्वीकार करते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व की सिद्धिः प्रश्न है कि चूँकि आकाश सर्वगत है, अतः उसे ही गति और स्थिति में सहायक मान लेना चाहिये । पृथक् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को मानने का क्या औचित्य है? इसका समाधान है कि 'आकाश' धर्म और अधर्म आदि सभी द्रव्यों का आधार है, जैसे-नगर समस्त भवनों का आधार है। आकाश का उपकार अवगाहन निश्चित है तो उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते, अन्यथा तरलता और उष्ण गुण भी पृथ्वी के मान लेने चाहिए। यदि आकाश को गति और स्थिति का सहायक माना जाये तो जीव और पुद्गल की गति अलोकाकाश में भी होनी चाहिए। और तब, लोक और अलोक की विभाजन रेखा ही समाप्त ३८. पं.का. ता. वृ. ८९ ३९. भगवती १३.४.२५ ४०. प्रयोगविस्त्रसाकर्म, तद्भाविस्थितिस्तथा । लोकानुभाववतांत, किं धर्माधर्मयोः फलंनि.द्वा.२४ १६६ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जायेगी। लोक से भिन्न अलोक का होना तो अनिवार्य है, क्योंकि वह . 'अब्राह्मण' की तरह नञ्युक्त सार्थक पद है। जिस प्रकार मछली की गति जल में ही संभव है, जल रहित पृथ्वी पर नहीं, उसी तरह आकाश की उपस्थिति होने पर भी धर्म-अधर्म हों तो ही जीव और पुद्गल की गति और स्थिति हो सकती है।४९ पूर्वपक्ष के रूप में सांख्यमत की शंका को रखते हुए समाधान करते हैं कि यदि आकाश से ही धर्माधर्म का कार्य लिया जाता है तो सत्त्व गुणों से ही प्रसार और लाघव की तरह रजोगुण के शोष और ताप तथा तमोगुण के सादन और आवरण रूप कार्य हो जाना चाहिये। शेषगुणों का मानना निरर्थक है । इसी तरह सभी आत्माओं में एक चैतन्यतत्त्व समान है, तब एक ही आत्मा माननी चाहिये, अनन्त नहीं। ____ बौद्धमत रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान- ये पाँच स्कन्ध मानते हैं। यदि एक में ही अन्य के धर्मों को माना जाये तो विज्ञान के बिना अन्य स्कन्धों की प्रतीति नहीं होती, अतः एक विज्ञान स्कन्ध ही मानना चाहिए, उसी से सारे कार्य संपन्न हो जायेंगे। शेष स्कन्धों की निवृत्ति होने पर निरावलंबन विज्ञान की भी स्थिति नहीं रहेगी और तब सर्वशून्यता उत्पन्न हो जायेगी। अतः व्यापक होने पर भी आकाश में गति और स्थिति के उपकारक धर्म-अधर्म की योग्यता नहीं मानी जा सकती। ... धर्म और अधर्म चूँकि अमूर्त होने के कारण दृष्टिगत नहीं होते, परन्तु इससे खरविषाण की तरह इनकी अनुपलब्धि नहीं माननी चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में तीर्थंकर, पुण्य, पाप, आदि सभी पदार्थों का अभाव हो जायेगा। साथ ही धमृ और अधर्म की उपलब्धि प्रसिद्ध हैं, क्योंकि तीर्थंकर परमात्मा आदि द्वारा प्रणीत आगमों में धर्म और अधर्म की उपलब्धि होती है। अनुमान से भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त के रूप में उपलब्धि होती है।३।। . ४१. तत्त्वार्थराजवार्तिक ५.१७.२०.२२ पृ. ४६२ ४२. वही ५.१७ २३ पृ. ४६३ ।। ४३. त.रा.वा. ५.१७.२८.४६४ - १६७ For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दही आदि पुद्गल परिणामों की उत्पत्ति परस्पराश्रित है, उसके लिए धर्म और अधर्म जैसे किसी अतीन्द्रिय द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। उसी प्रकार से गति और स्थिति के लिये धर्म और अधर्म की कहाँ आवश्यकता हैं? अकलंक उनके समाधान में कहते हैं- ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति के लिए जैसे 'काल' नामक साधारण बाह्यकारण की आवश्यकता है, उसी तरह धर्म और अधर्म की भी गति और स्थिति के लिए आवश्यकता है। ___ आचार्य अकलंक तत्त्वार्थराजवार्तिक में सांख्य, बौद्ध और वैशेषिक को उत्तर देते हुए कहते हैं- अमूर्त होने से ही धर्म और अधर्म का अपलाप नहीं किया जाता क्योंकि अमूर्त प्रधान अहंकार (सांख्य के अनुसार) आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष के भोग में निमित्त होता है, विज्ञान (बौद्धसम्मत) अमूर्त होकर भी नाम-रूप की उत्पत्ति का कारण होता है । अदृष्ट (वैशेषिकसम्मत) अमूर्त होकर भी पुरुष के उपभोग और साधनों में निमित्त होता है, उसी तरह धर्म और अधर्म अमूर्त होने पर भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त माने जाने चाहिए।४५ इस प्रकार अगर धर्म और अधर्म की मान्यता नहीं होती तो शुद्धात्मा आज तक उड़ान ही भरती रहती और उसकी इस अनन्त यात्रा का कभी अन्त नहीं होता। क्योंकि आकाश का कहीं अन्त नहीं है- यह तो और भी बड़ी परतन्त्रता हो जाती; और भी बड़ा दुःख हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं है। धर्म और अधर्म के अस्तित्त्व के कारण मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थिर हो जाती है, क्योंकि गतिसहायक धर्मास्तिकाय की अलोक में अनुपस्थिति है और ग्रहउपग्रह आदि का परस्पर घर्षण भी अधर्मास्तिकाय के कारण संभव नहीं है; क्योंकि अपनी ही परिधि में निरन्तर भ्रमणशील इनका संतुलन अधर्मास्तिकाय स्थापित कर देता है। आकाशस्तिकाय का लक्षण और स्वरूप :___ अस्तिकाय अजीव द्रव्यों में तीसरा अस्तिकाय द्रव्य आकाश है। ठाणांग में इसका विवेचन और लक्षण इस प्रकार बताया है- आकाशस्तिकाय अवर्ण, ४४. वही ५.१७.३६.४६५ ४५. वही ५.१७.४१.४६६ १६८ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगंध, अरस, अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोक तथा आलोक प्रमाण है। काल की अपेक्षा अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों में शाश्वत है। भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है । गुण की अपेक्षा अवगाहन गुण वाला है।४६ ___ उत्तराध्ययन में भी आकाश के अवगाहन गुण को ही पुष्ट किया है। - यहाँ प्रबुद्ध वर्ग में एक समस्या उभर सकती है कि हम आकाश कहें किसे? जो हमें नीला, पीला दिखायी देता है, वह आकाश है? परन्तु नीला-पीला तो आकाश हो नहीं सकता, क्योंकि आकाशास्तिकाय का लक्षण तो अवर्ण है तथा अमूर्त है । वह तो इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता। यह सर्दी/गर्मी जो कुछ हमें प्रतीत होती है वह वायु की है, आकाश की नहीं। यह वायु आकाश में व्याप्त है। गंध चाहे वह सुगन्ध हो या दुर्गन्ध आदि पुद्गल स्कन्धों की है, आकाश की नहीं। नीला-पीला दिखता है ये भी वायुमंडल में तैरने वाले क्षुद्र अणुओं के रंग हैं और सूर्य की किरणों को प्राप्त करके इस रंग में रंग जाते हैं। वैशेषिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं और इसे सिद्ध करने के प्रयास भी करते हैं, परन्तु शब्द आकाश का गुण न होकर पौगलिक है। क्योंकि वैशेषिकों ने जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे असिद्ध हैं।" शब्द आकाश का गुण न होकर पुद्गल का गुण है; क्योंकि अनेक पुद्गलों के टकराने से शब्द उत्पन्न होता है और वायुमण्डल में एक कंपन विशेष उत्पन्न करता है। - हमारे चारों और जो भी खाली जगह (Vaccum) दिखायी देती है, वही आकाश है, जिसे अंग्रेजी भाषा में Space कहा जाता है । Sky और में Space ४६. ठाणांग ५.१७२ एवं भगवती २.१०.४ ४७. भायणं सव्वद्रव्वाणं, नहं ओगाह लक्खणं, - उत्तराध्ययन २८.९ ४८. वैशेषिक सूत्र २२.१.२७., २९-३२ एवं तत्र आकाशस्य गुणाअशब्द संख्यापरिमाण पृथक्त्वं संयोग विभागा.....प्रशस्त - भा.पृ. २३-२५ ४९. स्याद्वादमंजरी १४ पृ. १२७-१२८ १६९ For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर है । Sky तो वह है जो पुद्गल के रूप में विवेचित किया है अर्थात् रंगबिरंगा दिखता है और रिक्त सथान Space है। आकाश का उपकार है- धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल को अवाह देना ।५१ धर्म और अधर्म आकाश का अवगाहन करके रहते हैं, यह एक औपचारिक प्रयोग है। जिस तरह हंस जल का अवगाहन करके रहता है, यह इस तरह का . मुख्य प्रयोग नहीं है। आधार और आधेय में जहाँ पौर्वापर्य संबन्ध हो, वह मुख्य प्रयोग होता है। संपूर्ण लोकाकाश धर्म और अधर्म की व्याप्ति है ।५२ .. धर्मास्तिकायादि को अवगाहन देने वाला लोकाकाश है, ५२ परन्तु आकाश का अपना कोई आधार नहीं है, क्योंकि आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है जिसमें आकाश आधेय बन सके। अतः यह अनन्त आकाश स्वप्रतिष्ठ है। आकाश का आधार अन्य, फिर उसका कोई अन्य आधार मानने में अनवस्था होती है।५४ केवल अवस्था के भय से ही अन्य आधार का निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है। एवंभूतनय की दृष्टि से सारे द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं, इनमें आधार-आधेय भाव नहीं है। व्यवहार नय से आधार-आधेय की कल्पना होती है । व्यवहार से ही वायु का आकाश, जल का वायु, पृथ्वी का जल, सभी जीवों का पृथ्वी, जीव का अजीव, अजीव का जीव, कर्म का जीव और जीव का कर्म, धर्म-अधर्म तथा काल का आकाश आधार माना जाता है। परमार्थ से तो वायु आदि समस्त स्वप्रतिष्ठित हैं।५५ .. धर्म और अधर्म को भी आकाश ही अवगाहन देता है, परन्तु इनमें पौर्वापर्य संबंध नहीं है, जैसा कुण्ड और बोर में है। इनका संबन्ध शरीर और हाथ जैसा है। ५०. पदार्थ विज्ञान पृ. १६८ ले. जिनेंद्र वर्णी ५१. सभाष्यतत्त्वार्थधिगम सूत्र ५.१८ पृ. २६२ ५२. त.रा.वा. ५.१८.२.४६६ ५३. लोकाकाशेवगाहः त.सू. ५.१२ ५४. त.रा.वा. ५.१२.२-४, ४५४ ५५. वही ५.१२.५, ६, ४५४, ५५ १७० For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ और शरीर में आधार-आधेय भाव है, फिर भी न तो पूर्वापर काल हैं, न युतसिद्धि । दोनों युगपत् उत्पन्न होते हैं और अयुतसिद्ध होते हैं ।५६ ।। 'धर्म' और 'अधर्म' संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहता है जैसेतिलों में तेल । वस्तुतः तिल और तेल का उदाहरण भी स्थल है क्यों कि उसमें खली और तेल अलग-अलग किये जा सकता हैं। इससे भी सूक्ष्म उदाहरण होगा- ‘शक्कर में मधुरता'। ___अवगाह दो प्रकार का माना गया है- एक पुरुष के मन की तरह और दूसरा दूध में पानी की तरह । अथवा, जैसे आत्मा संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहती है, वैसे ही धर्म और अधर्म भी संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं ।५८ . जीव और पुद्गल तो जिस प्रकार से जल में हंस अवगाहन करता है, वैसे ही लोकाकाश में करते हैं। ये अल्पक्षेत्र और अंख्येय भाग को रोकते हैं और क्रियावान् हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अतः इनके अवगाह में संयोग और विभाग द्वारा आकाश उपकार करता है।"५९ । धर्म और अधर्म के अनादि संबन्ध और अयुतसिद्धत्व के विषय में अनेकान्त है। पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता होने पर व्यय और उत्पाद नहीं होता, और पर्यायार्थिकनय की मुख्यता और द्रव्यार्थिकनय की गौणता होने पर सादिसंबन्ध और युतसिद्धत्व होते हैं, क्योंकि आकाश भी द्रव्य है और इस अपेक्षा से उत्पाद, व्यव और ध्रौव्य युक्त होना इसका लक्षण है।६० आकाश एवं लोक का अनन्यत्व :___जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, तथा काल लोक से अनन्य हैं। इसी प्रकार लोक इन पाँचों द्रव्यों से अनन्य है । लोक के बिना अवशिष्ट पाँचों द्रव्यों का अस्तित्व ५६. वही ५.१२.८.९. ४५५ ५७. त.सू. ५.१३ ५८. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र ५.१३.२५७ ५९. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र ५.१८.२६२ ६०. त.रा.वा.५.१८.५.४६६,६७ For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है और लोकाकाश भी इनसे रहित नहीं होता।६९, धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों अस्तिकायों का एक क्षेत्रावगाही और समान परिमाण वाले होने के कारण एकत्व है, फिर भी इन तीनों के लक्षण भिन्न हैं और स्वरूपः भी भिन्न हैं, अतः अन्यत्व भी हैं।६२ विज्ञान की भाषा में इसे इस प्रकार कहा जाता है कि द्रव्य का अस्तित्व आकाश और काल सापेक्ष है। विज्ञान के इस सिद्धान्त को Theory of Relativity of time & space' नाम से जाना जाता है। अन्य द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, परन्तु आकाश अनंतप्रदेशी है।६२ .. रिक्त स्थान को आकाश कहते हैं। यद्यपि इस खाली जगह में वायु होने के कारण इसे वायुमण्डल कहा जाता है, परन्तु वायु और आकाश अलग-अलग हैं। वायु जिसमें रहती है, संचार करती है, वह आकाश है। ऊपर अन्तरिक्ष जहाँ आज के भेजे गये वैज्ञानिक उपग्रह यन्त्र स्पुतनिक आदि घूम रहे हैं वहाँ वायु नहीं है, परन्तु आकाश अवश्य है। जिस खाली जगह में ये वैज्ञानिक-उपकरण घूम रहे हैं वह आकाश है। चतुष्टयी की अपेक्षा लोक : लोक आदि है या अनादि, एवं लोक सान्त है या अनन्त ! इस संबन्ध में स्कन्दक को जिज्ञासा हुई। वे महावीर के पास पहुंचे और इस संबन्ध में समाधान चाहा। भगवान् महावीर ने कहा “लोक चार प्रकार का है- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । द्रव्यलोक की अपेक्षा लोक एक है और अन्तवाला है। क्षेत्रलोक की अपेक्षा असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन विस्तार वाला है; असंख्य कोड़ाकोड़ी परिधि वाला है, फिर भी सान्त है। काललोक की अपेक्षा भूत, भविष्य और वर्तमान, इन तीनों कालों में शाश्वत, ध्रुव, नियत, अक्षय, अवस्थित, अव्यय और नित्य है। भावलोक की अपेक्षा अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, - ६१. पं. का. ९१ ६२. पं. का. ९६ ६३. लोयालोयप्पमाणमंते अणंते चेव- भगवती २.१०.४ एवं “आकाशस्यानंताः”-त.सू. ६४. भगवती २.१.२४ १७२ For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसपर्यायरूप और स्पर्शपर्यायरूप है। इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप, एवं अनन्त अगुरु - लघुपर्यायरूप है । इसका अन्त नहीं है। इस प्रकार द्रव्यलोक एवं क्षेत्रलोक अन्तसहित है, काल एवं भावलोक अंतरहित । ६४ आकाशस्तिकाय के भेदः - भगवतीसूत्र एवं ठाणांग के अनुसार आकाश दो प्रकार का है - लोकाकाश और अलोकाकाश । ६५ लोकाकाश और अलोकाकाश में क्या भिन्नता है? यह पूछे जाने पर भगवान् महावीर ने कहा- लोकाकाश में जीव, जीव के देश और जीव के प्रदेश हैं, अजीव भी है, अजीव के देश और अजीव के प्रदेश भी हैं। उन जीवों में नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय हैं। अजीव भी रूपी और अरूपी दोनों हैं। रूपी के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल-इस प्रकार चार भेद हैं। जो अरूपी हैं उनके पाँच भेद हैंधर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, और धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय है । ६६ अलोकाकाश में न जीव है न जीवप्रदेश हैं । वह एक अजीवद्रव्य देश है, अंगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है । अनन्तभागन्यून सर्वाकाशरूप है । ६७ यह अलोक न तो धर्मास्तिकाय से, न अधर्मास्तिकाय से, न लोकाकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है। आकाशस्तिकाय के देश और प्रदेश से ही स्पृष्ट है। पृथ्वीकाय अथवा अद्धाकाल से भी स्पृष्ट नहीं है । ६८ जबकि लोक धर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेशों से स्पृष्ट है, इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेशों से स्पृष्ट है। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश से स्पृष्ट है। पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से वनस्पतिकाय पर्यन्त से स्पृष्ट है, त्रसकाय से ६५. दुविहे आगेसे पझणते तं जहा लोयागासे य अलोयागासे य-भगवती २.१०.१०, ठाणांग - २.१५२ ६६. भगवती २.१०.११ ६७. भगवती २.१०.१२ १७३ For Personal & Private Use Only " Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथंचित् स्पृष्ट है कथंचित् स्पृष्ट नहीं भी है (जब केवली समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली त्रसकाय के अंतर्गत आते हैं)। अद्धासमय देश से स्पृष्ट होता भी है और नहीं भी। (अद्धाकाल ढाई द्वीप में ही है, आगे नहीं।) बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार जो धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल को अवकाश दे, वह लोकाकाश और उस लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश है।७० लोक का विवेचन बौद्ध मत में :__ आचार्य वसुबंधु ने लोक के संबन्ध में इस प्रकार मंतव्य स्पष्ट किया है लोक के अधोभाग में सोलह लाख योजन ऊँचा अपरिमित वायुमण्डल है। उसके ऊपर ११ लाख २० हजार योजन ऊँचा जलमण्डल है। उसमें तीन लाख बीस हजार योजन कंचनमय भूमण्डल है। जलमंडल और कंचनमंडल का विस्तार १२ लाख ३ हजार ४५० योजन तथा परिधि ३६ लाख १० हजार ३५० योजन प्रमाण है।७२ वायुमंडल के मध्य में कंचनमय मेरु पर्वत है। यह ८० हजार योजन नीचे जल में डूबा हुआ है तथा इतना ही ऊपर निकला हुआ है। इससे आगे ८० हजार योजन विस्तृत और दो लाख चालीस हजार योजन प्रमाण परिधि से संयुक्त प्रथम समुद्र है जो मेरु को घेर कर अवस्थित है। इससे आगे चालीस हजार योजन विस्तृत युगंधर पर्वत वलयाकार से स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार से एकएक समुद्र को अन्तरित करके आधे-आधे विस्तार से संयुक्त क्रमशः युगंधर, ईशाधर, खदीरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक और निर्मिधर पर्वत हैं। समुद्रों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा होता गया है।७५ ६८. प्रज्ञापना १५.१.१००५ ६९. प्रज्ञापना १५.१.१००२ ७०. बृहद् द्रव्य संग्रह २२ ७१. अभिधर्मकोष ३.४५ ७२. अभिधर्मकोष ३.३६ ७३. अभिधर्मकोष ३.४७, ४८ ७४. अभिधर्मकोष ३.५० ७५. अभिधर्मकोष ३.५१, ५२ १७४ For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त पर्वतों में से मेरु चाररत्नमय, शेष सात स्वर्णमय हैं। सबसे बाहर अवस्थित महासमुद्र का विस्तार तीन लाख बाईस हजार योजन प्रमाण है। अंत में लौहमय चक्रवाल पर्वत स्थिर है। निमिंधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु ये चार द्वीप हैं। इनमें जम्बूद्वीप मेरु के दक्षिण भाग में है । उसका आकार शकट के समान है। उसकी तीन भुजाओं में से दो भुजाएँ दो-दो हजार योजन की ओर एक भुजा तीन हजार पचास योजन की है।७६ जम्बूद्वीप में उत्तर की ओर बने कीटादि और उनके आगे हिमवान् पर्वत अवस्थित हैं । हिमवान् पर्वत से आगे उत्तर में पाँच सौ योजन विस्तृत अनवतप्त नाम का अगाध सरोवर है। इससे गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये चार नदियाँ निकली हैं । इस सरोवर के समीप जम्बूवृक्ष है। इससे इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है । ७७ नरकलोक :- जम्बूद्वीप के नीचे बीस हजार योजन विस्तृत अवीचि नरक है। उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन, तपन, महारौरव, रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीव नाम के सात नरक और हैं । ७८ ज्योतिर्लोक :- मेरु पर्वत की भूमि से चालीस हजार योजन ऊपर चन्द्र और सूर्य परिभ्रमण करते हैं । चन्द्रमण्डल का प्रमाण पचास योजन और सूर्य मंडल का प्रमाण इक्यावन योजन है । जिस समय जम्बूद्वीप में मध्याह्न होता है, उस समय उत्तरकुरु में अर्धरात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में सूर्योदय होता है । ७९ के: भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की नवमी से रात्रि की वृद्धि और फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की नवमी से उसकी हानि प्रारभ्म होती है। रात्रि की वृद्धि दिन की हानि और दिन की वृद्धि रात्रि की हानि होती है। सूर्य के दक्षिणायन में रात्रि की ७६. . गणितानुयोग भूमिका पृ. ८३ ७७. अभिधर्मकोष ३.५७ ७८. अभिधर्मकोष ३.५८ ७९. अभिधर्मकोष ३.६० १७५ For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धि और उत्तरायण में दिन की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक :- मेरु के शिखर पर स्वर्गलोक है। इसका विस्तार अस्सी हजार योजन है। यहाँ पर त्रायस्त्रिंश देव रहते हैं। इसके चारों विदिशाओं में वज्रपाणि देवों का निवास है। - त्रायस्त्रिंश लोक के मध्य में सुदर्शन नामक नगर है। वह सुवर्णमय है। इसका एक-एक पार्श्व भाग ढाई हजार योजन विस्तृत है। इसके मध्य भाग में इन्द्र का ढाई सौ योजन विस्तृत वैजयन्त नामक प्रासाद है। नगर के बाहरी भाग में चारों ओर चैत्ररथ, पारुष्य, मिश्र और नन्दनवन- ये चार वन हैं। त्रायस्त्रिंश लोक के ऊपर विमानों में देव रहते हैं। कुछ देव मनुष्यों की तरह कामसेवन करते हैं और कुछ क्रमशः आलिंगन, हस्तमिलाप, हसित और दृष्टि द्वारा तृप्ति प्राप्त करते हैं।८३ बौद्ध और जैन मत में विवेचित लोक की तुलना :___ बौद्धों ने दस लोक माने हैं- नरक, प्रेत, तिर्यक्, मनुष्य और छः देवलोक। प्रेतों को जैनों ने देवों के अन्तर्गत माना है (इसका विवेचन जीवास्तिकाय में हम कर आये हैं)। प्रेतलोक को देवयोनि के अन्तर्गत मानने पर नरक, तिर्यक्, मनुष्य और देव चार लोक ही सिद्ध होते हैं। जैन इसे चार गति के रूप में स्वीकार करते हैं। __ बौद्धों ने प्रेत योनि की पृथक् योनि मानकर पाँच योनियाँ स्वीकार की हैं। वैदिक धर्मानुसार लोक वर्णन: विष्णुपुराण के द्वितीयांश के द्वितीयाध्याय में बताया गया है कि इस पृथ्वी पर जम्बू, लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच शाक और पुष्कर नाम वाले सात द्वीप हैं। ८०. अभिधर्मकोष ३.६१ ८१. अभिधर्मकोष ३.६५ ८२. अभिधर्मकोष ३.६६.६७ ८३. अभिधर्मकोष ३.३९ ८४. “नरक प्रेत तिर्यंचो मानुषाः षड् दिवौकसः” अभिधर्मकोष ३.१ ८५. "नरकादिस्वनालोका गतयः पंच तेषु ताः" अभिधर्मकोष ३.४ १७६ For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सभी चूड़ी के समान गोलाकार और क्रमशः सात समुद्रों से वेष्टित हैं । इन सभी के मध्य जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एकलाख योजन है। इसके मध्यभाग में ८४ हजार योजन ऊँचा स्वर्णमय मेरुपर्वत है। इसकी नींव पृथ्वी के भीतर १६ हजार योजन है। मेरु का विस्तार मूल में १६ हजार योजन है, फिर क्रमशः बढ़कर शिखर पर ३२ हजार योजन हो गया है।८६ . आगे जाकर हिमवान् आदि छः वर्षपर्वतों से इस जम्बूद्वीप के सात भाग हो जाते हैं। मेरु पर्वत के पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः मन्दर, गंधमादन, विपुल और सुपार्श्व नाम वाले चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमशः ११०० योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बू, पीपल और वटवृक्ष हैं। इनमें से जम्बूवृक्ष के नाम से यह जम्बूद्वीप कहलाता जम्बूद्वीप के इन पर्वतों द्वारा भी सात भाग होते हैं- भारतवर्ष, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्यक, हिरण्मय और उत्तरकुरु।८ ... इन सात क्षेत्रों में से मात्र जम्बूद्वीप में ही काल परिवर्तन होता है। किंपुरुषादिक में काल परिवर्तन नहीं होता । यहाँ के निवासियों को किसी प्रकार के शोक, परिश्रम, क्षुधा आदि की बाधा नहीं होती। स्वरूप-सुखी, आतंक रहित इनका जीवन होता है। यह भोगभूमि है। यहाँ पर पाप आदि भी नहीं है। स्वर्ग, मुक्ति, आदि की प्राप्ति के लिए की जानेवाली तपश्चर्या व्रतादि भी यहाँ नहीं हैं। मात्र भारतवर्ष के लोग ही मुक्ति आदि को पाने का प्रयास कर सकते हैं। यहाँ के लोग असि, मषि आदि कर्म करते हैं, अतः यह कर्मभूमि भी कहलाती है। यह सभी क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र माना गया है।९० ८६. विष्णु पुराण द्वितीयांश द्वितीय अध्याय श्लोक ५.९ ८७. विष्णु पुराण द्वितीयांश द्वितीय अध्याय श्लोक १७-१९ ८८. विष्णु पुराणं द्वितीयांश द्वितीय अध्याय श्लोक १०-१५ ८९. कर्मभूमिरयं स्वर्गमपवर्गच गच्छताम्-अग्निपुराण अध्यायन २ गाथा ११८ ९०. उत्तर यत्समुद्रस्य हिमादेश दक्षिणम् । वर्षं तद्भारतं नाम, भारती यत्र संतति । · नवयोजनसाहस्रो, विस्तारोस्य महामुने । कर्मभूमिरियं स्वर्गमवर्गच गच्छताम् ।। अतः संप्राप्यतिस्वर्गो, मुक्तिमस्मात् प्रायान्ति वै। तिर्यक्त्वं नरकं चापि, यान्त्यतः पुरुषामुने ।। इतः स्वर्गश्च मोक्षश्न, मध्यं चान्तश्व गम्यते । तत्खल्वन्यत्र मानां, कर्मभूमौ विधीयते ।।. विष्णुपुराण द्वितीयांश का तीसरा अध्ययन गा. १९.२२ १७७ For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भूमण्डल के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं । यहाँ उत्तम भवनों से युक्त भूमियाँ हैं तथा दानव, दैत्य, यक्ष और नाग आदि यहाँ रहते हैं।" पाताल के नीचे विष्णु भगवान् का शेष नामक तामस शरीर स्थित है, जो अनन्त कहलाता है। यह सहस्रफणों से संयुक्त होकर समस्त पृथ्वी को धारण करके पाताल मूल में स्थित है। कल्पान्त के समय इसके मुँह से निकली संकर्षात्मक रुद्र विषाग्नि-शिखा तीनों लोकों का भक्षण करती है ।२२ नरकलोक:- पृथ्वी और जल के नीचे रौरव, सूकर रोध, लाल विशासन महाज्वाल, इत्यादि नाम वाले अनेक महान् भयानक नरक हैं। पापी जीव मृत्यु पाकर इन नरकों में जन्म ग्रहण करते हैं। नरक से निकलकर ये जीव क्रमशः स्थावर, कृमि, जलचर, मनुष्य, देव आदि होते हैं। जितने जीव स्वर्ग में हैं, उतने ही जीव नरक में भी हैं।१४ ज्योतिर्लोकः- भूमि से एक लाख योजन की दूरी पर सौरमण्डल है। इससे एक लाख योजन ऊपर नक्षत्रमंडल, इससे दो लाख योजन ऊपर बुध, इससे दो लाख योजन ऊपर शुक्र, इससे दो लाख योजन ऊपर मंगल, इससे दो लाख योजन पर बृहस्पति, इससे दो लाख योजन पर शनि, इससे एक लाख योजन पर सप्तर्षिमण्डल तथा इससे एक लाख योजन ऊपर ध्रुवतारा है।९५ महर्लोक (स्वर्गलोक):- ध्रुव से एक योजन ऊपर महर्लोक है। वहाँ कल्पकाल तक जीवित रहने वाले कल्पवासियों का निवास है। इससे दो करोड़ योजन ऊपर जनलोक है । यहाँ नन्दनादि से युक्त ब्रह्माणी के पुत्र रहते हैं। इससे आठ करोड़ योजन ऊपर तपोलोक है, जहाँ वैराज देव निवास करते हैं। इससे बारह करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है, यहाँ कभी न मरने वाले अमर रहते हैं। इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। भूमि और सूर्य के मध्य में सिद्धजनों और मुनिजनों से सेवित स्थान ९१. विष्णुपुराण दि. अ. पंचम अध्याय गा. २.४ ९२. विष्णुपुराण दि. अ. पंचम अध्याय ९३-९६ ९३. विष्णुपुराण दि. अ. पंचम अध्याय गा. १-६ ९४. विष्णुपुराण दि. अ. पंचम अध्याय गा. ३४ ९५. विष्णुपुराण दि. अंश सप्तम अध्याय गा. २-९ १७८ For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनलोक कहलाता है। सूर्य और ध्रुव के मध्य चौदह लाख योजन प्रमाण क्षेत्र स्वर्लोक नाम से प्रसिद्ध है । ९६‍ समीक्षा : 1 वैदिक और जैनदर्शन द्वारा मान्य लोक के विवेचन में समानता और असमानता दोनों हैं । वैदिक दर्शन भोगभूमि व कर्मभूमि मानता है और जैन दर्शन भी यही मानता हैं । द्वीपों में समानता और असमानता दोनों हैं । समुद्र, क्षेत्र, पर्वत आदि की अपेक्षा से भिन्नता भी है और समानता भी । " भारतवर्ष को दोनों ने कर्मभूमि मानते हुए सर्वश्रेष्ठ भूमि बताया है । लोक के भेद प्रभेदः - क्षेत्रलोक तीन प्रकार का होता है- अधोलोक क्षेत्रलोक, तिर्यक्कलोक क्षेत्रलोक एवं ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक । " अधोलोक क्षेत्रलोक:- सात प्रकार का है: - रत्नप्रभापृथ्वी, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, महातमः प्रभापृथ्वी अधोलोक । तिर्यग्लोक क्षेत्रलोकः - यह असंख्यात प्रकार का है।" इसमें जम्बूद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप और लवणोद आदि शुभनामवाले समुद्र हैं। ° लोक में जितने की शुभनाम हैं, उन सभी नामों वाले वे द्वीप - समुद्र हैं। जम्बूद्वीप से स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीप - समुद्र इस तियक् क्षेत्रलोक में हैं । ' सभी द्वीप और समुद्र दुगुणे- दुगुणे व्यास वाले पूर्व - पूर्व द्वीप और समुद्र htag करने वाले और चूड़ी के आकारवाले हैं।' अर्थात् इन द्वीपों और समुद्रों का विस्तार और रचना नगरों की तरह न होकर उत्तरोत्तर वे द्वीप और समुद्र एक दूसरे को घेरे हुए हैं। * ९६. विष्णुपुराण द्वितीय अंश षष्ठम अध्याय १२.१८ ९७. गणितानुयोग प्रस्तावना ल. ८८ ९८. भगवती ११.०३ एवं त.सू. ३.१ ९९. भगवती ११.१० १००. त. सू. ३.७ १. स. सि. ३.६.३८१ २.. ३. द्विद्विविष्कममाः पर्व पूर्व परिक्षेपिका वलयाकृतय..... - त. सू. ३.८ स. सि. ३.८.३८१ १७९ For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन सभी के बीच गोल और लाख योजन विस्तार युक्त जम्बूद्वीप है जिसके मध्य में नाभि की तरह मेरु पर्वत स्थित है। जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं और उन सात क्षेत्रों में एक भरत क्षेत्र भी है। (जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार इसी भरतक्षेत्र के हम निवासी हैं।) इस भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस योजन और एक योजन का छह बटा उन्नीस भाग है।६ इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है। (इसका विवेचन काल के अन्तर्गतं किया जायेगा।) इसका तात्पर्य यह नहीं कि क्षेत्र की न्यूनाधिकता होती है, अपितु इस क्षेत्र के निवासियों की आयु, अनुभव, प्रमाण आदि की अपेक्षा से हानि वृद्धि होती है। ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक :- ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक पन्द्रह प्रकार का होता है। सौधर्मकल्प ऊर्ध्वलोक से लेकर अच्युतकल्प क्षेत्रलोक, ग्रैवेयक, अनुत्तर विमान, एवं ईषत्प्राग्भार पृथ्वी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक पर्यंत ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक होता प्रशमरति में लोक का विवेचन इस प्रकार उपलब्ध होता है। यह लोक पुरुषाकार है। अपने दोनो हाथ कमर पर रखकर दो पैर फैलाकर खड़े पुरुष की तरह है। लोक को कुल चौदह रज्जु प्रमाण बताया है। सुमेरु पर्वत के तल से नीचे सात रज्जु प्रमाण अधोलोक बताया है और तल के ऊपर से सात रज्जु ऊध्वलोक बताकर कुल चौदह रजु प्रमाण लोक बताया है। मध्यलोक की ऊंचाई को ऊध्वलोक में सम्मिलित किया है, क्योंकि सात रन्जु प्रमाण के क्षेत्रफल में एक लाख चालीस योजन का क्षेत्रफल ठीक उसी प्रकार महत्व रखता है. जैसे पर्वत की तुलना में राई। ४. त.सू. ३.९ ५. त.सू. ३.१० ६. त.सू. ३.२४ (दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य) ७. भगवती ११.१०.६ ८. प्रशमरति गा. २१० ९. कातिकेयानुप्रेक्षा गा. १२७ १८० For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक का परिमाप:- अब हम यह समझें कि ‘रज्जु' का माप क्या हैं? क्योंकि यह भी जैनदर्शन का अपना विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है । ‘रज्जु' से तात्पर्य रस्सी नहीं है । अपितु तीन करोड़ इक्यासी लाख सत्ताईस हजार नौ सौ सत्तर मण वजन का एक भार और ऐसे हजार भार का अर्थात् अड़तीस अरब बारह करोड़ उन्यासी लाख सत्तर हजार मण वजन का एक लोहे का गोला छः माह, छः दिन, छः प्रहर और छः घड़ी में जितनी दूरी तय करे, उतनी दूरी को एक रज्जु कहते हैं। लोकसंस्थान के प्रकार : जैन साहित्य में जिस प्रकार से लोक रचना का विश्लेषण किया गया है उसी प्रकार उसके आकार का भी विवेचन किया गया है। __अधोलोक का संस्थान किस प्रकार का है? गौतम स्वामी के इस प्रश्न पर भगवान् महावीर ने कहा- अधोलोक क्षेत्रफल का संस्थान तिपाई के समान है। तिर्यग् लोक क्षेत्रलोक का आकार झालर के आकार का है। अधोलोक के क्षेत्रफल का आकार मृदंग के समान है ।११ ___ लोक का संस्थान सकोरे के आकार का है। वह नीचे से चौड़ा, ऊपर से मृदंग जैसा है। प्रशमरति में उमास्वाति ने भी लोक की आकृति इसी प्रकार से बतायी है । अधोलोक का आंकार सकोरे के समान (ऊपर संक्षिप्त नीचे विशाल), तिर्यक्लोक आकार थाली के जैसा है एवं ऊध्वलोक का आकार खड़े रखे गये सकोरे के ऊपर उलटे रखे गये सकोरे के जैसा है।१२ - अलोक का संस्थान पोले गोले के समान है ।१३ भगवतीसूत्र में व्याख्याकार ने लोक का प्रमाण इस प्रकार से बताया है- सुमेरु पर्वत के नीचे अष्टप्रदेशी रुचक है। उसके निचले प्रतर के नीचे नौ सौ योजन तक तिर्यग्लोक है। उसके आगे अधःस्थित होने से अधोलोक है, जो सात रज्जु से कुछ अधिक है तथा . रुचक प्रदेश की अपेक्षा नीचे और ऊपर नौ सौ-नौ सौ योजन तिरछा होने से १०. गणितानुयोग संपादकीय पृ. ६ ११. भगवती ११.१०.१ एवं वही ७.१.५ १२. प्रशमरति प्रकरण २.११ १३. भगवती ११.१०.११ १८१ For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्लोक है। तिर्यग्लोक के ऊपर कुछ कम सात रज्जु प्रमाण ऊर्ध्वभागवर्ती होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है । ऊर्ध्व और अधोदिशा में कुल ऊँचाई चौदह रज्जु जैनदर्शन की तरह विशाल जगत ने भी आकाश को स्वीकार किया है। डॉ.हेनसा के अनुसार "These four elements (Space, Matter, Time and Medium of motion) are all separate in mind. We can not imagine that the one them could depend on another or converted into another." आकाश, पुद्गल, काल और गति का माध्यम (धर्म) ये चारों तत्त्व हमारे मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न हैं । हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहते हों या एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हों । इससे जैनदर्शन के सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि सभी द्रव्य स्वतन्त्र परिणमन करते हैं और कोई द्रव्य किसी द्रव्य में द्रव्यान्तर नहीं करता। जैनदर्शन लोक को परिमित मानता है और अलोक को अपरिमित ।१६ इसकी पुष्टि वैज्ञानिक एडिंग्टन ने भी की है: "The World is closed in space dimensions. I shall use the phrase arrow to expresss this one way properly which has on analogue in space." दिग् आयामों में ब्रह्माण्ड परिबद्ध है । एक दिशता को ठीक प्रकार से प्रस्तुत करने के लिए मैं तीर संकेत (मुहावरे) को प्रयुक्त करूंगा, जिसका दिक् में कोई सादृश्य नहीं है। ____ विश्व विख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, डी. सीटर पीइनकेर आदि की लोक-अलोक के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। इन मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का समन्वय कर देने पर जैनदर्शन में वर्णित लोकालोक का स्वरूप स्वतः फलित होने लगता है। १४. भगवती ११.१०.५१ पृ. ५३ १५. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा १६. आगासं वजिता सव्वे लोगाम्मि चेव णत्थि वर्हि-गो.जी. ५८३ १८२ For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइंस्टीन के सिद्धान्तानुसार विश्व बेलनाकार, वक्र, एकबद्ध आकार को धारण करने वाला व सान्त है । जैनदर्शन भी लोक आकाश को वक्र तथा सान्त मानता है। आइंस्टीन के मंतव्यानुसार समस्त आकाश स्वयं सान्त और परिबद्ध है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार समस्त आकाश द्रव्य तो अनन्त, असीम और अपरिमित है, मात्र लोकाकाश सान्त व बद्ध है। क्योंकि लोकाकाश में व्याप्त धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय सान्त परिमित तथा बद्धाकार वाले हैं। इस कारण लोक भी सान्त परिमित तथा बद्धाकार वाला हो जाता है।१७ आइंस्टीन के विश्व व्यापक सिद्धान्त में समस्त आकाश अवगाहित है, परन्तु इच ज्योति वैज्ञानिक “डी. सीटर" ने इसे स्वीकार नहीं किया है । शून्य (पदार्थ रहित) आकाश की विद्यमानता को संभावित सिद्ध किया है।१८ इस प्रकार जहाँ आइंस्टीन का विश्व आकाश संपूर्ण रूप में अवगाहित है, वहाँ डी. सीटर का विश्वाकांश संपूर्ण रूप में अवगाहित शून्य है। जैनदर्शन लोकाकाश को अवगहित मानता है और अलोकाकाश को अगाहित शून्य । इससे यह कहा जा सकता है कि विश्व समीकरण में मूलभूत पद 'लोकाकाश का, व परिवर्द्धित पद 'अलोकाकाश' का सूचक है। आइंस्टीन का विश्व लोकाकाश है और डी. सीटर का विश्व अलोकाकाश । इन दोनों के विश्व का समन्वित रूप जैनदर्शन के विश्व लोकालोकाकाश में अभिव्यक्त होता है ।१९ विश्व की वक्रता के विषय में समीकरण के हल वैज्ञानिकों के सामने यह समस्या खड़ी कर देते हैं कि वक्रता धन है अथवा ऋण? धन वक्रता वाला सान्त और बद्ध तथा ऋण वक्रतावाला विश्व अनन्त और खुला पाया जाता है। आइंस्टीन का विश्व धन वक्रता वाला है, अतः सान्त और बद्ध है। ऋण वक्रता वाले विश्व की संभावना भी विश्व समीकरण के आधार पर हुई है। इस प्रकार धन और वक्रता के आधार पर क्रमशः ‘सान्त और बद्ध' तथा “अनन्त और खुले” विश्व की संभावना होती है। लोकाकीश की वक्रता धन और अलोकाकाश की ऋण मानने पर जैन दर्शन का विश्व सिद्धान्त पुष्ट हो सकता है। लोकाकाश का आकार १७. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा १८. फ्रेम युक्लीड टू एर्डिग्टन पृ. १२६ १९. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा . १८३ For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन वक्रता वाला है, यह क्षेत्र लोक के गणितीय विवेचन से स्पष्ट है। अलोकाकाश का आकार इससे स्वतः ऋण वक्रता वाला हो जाता है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त धन और ऋण वक्रता स्वीकार करने वाले विश्व सिद्धान्त का समन्वय है । २०. आकाश को सान्त माना गया है, फिर भी हम उसकी सीमा को नहीं पा सकते । इस सिद्धान्त को 'पोइनकेर' ने स्पष्ट किया है- "अपना विश्व एक अत्यन्त विस्तृत गोले के समान है और विश्व में उष्णतामान का विभागीकरण इस प्रकार हुआ है कि गोले के केन्द्र में उष्णतामान अधिक है. और इस गोले की सतह की ओर क्रमशः घटता हुआ विश्व की सीमा (गोले के अंतिम सतह) पर वह वास्तविक शून्य को प्राप्त होता है। सभी पदार्थों का विस्तार उष्णतामान के अनुपात से होता है । अत: केन्द्र की ओर से सीमा की ओर हम चलेंगे तो हमारे शरीर का तथा जिन पदार्थों के पास से हम गुजरेंगे, उन पदार्थों का भी विस्तार क्रमशः घटना प्रारम्भ हो जायेगा, परन्तु हमें इस परिवर्तन का कोई अनुभव नहीं होगा । यद्यपि हमारा वेग वही दिखेगा, परन्तु वस्तुतः वह घट जायेगा और हम कभी सीमा तक नहीं पहुँच पायेंगे। अतः यदि अनुभव के आधार पर कहें तो हमारा विश्व अनन्त है, परन्तु वस्तुवृत्या हम अन्त को पा नहीं सकते । हमारी पहुँच एक सीमा तक है, उसके बाद आकाश अवश्य है, परन्तु हमारी पहुँच से बाहर है । १२९ पोइनेकर ने यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे विश्व के उष्णतामान का विभागीकरण इस प्रकार है कि ज्यों-ज्यों हम सीमा के समीप जाने का प्रयत्न करते हैं, त्यों-त्यों हमारे वेग में और विस्तार में कमी होती है। परिणामत: हम सीमा को प्राप्त नहीं कर सकते । ठाणांग में आये सूत्र को हम इससे जोड़ सकते हैं- “लोक के सब अन्तिम भागों में अबद्ध, पार्श्व, स्पष्ट, पुद्गल होते हैं । लोकान्त तक पहुँचते ही सब पुद्गल स्वभाव से ही रूक्ष हो जाते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संगठित नहीं हो सकते, इसलिये लोकान्त से आगे पुगलों की गति नहीं हो सकती । यह एक लोक स्थिति है । २२ २०. जैन भारती १५ मई १९६६ २१. दी नेचर ऑफ दी फिजीकल रियालिटी पृ. १६३, फाउंडेशनन्स ऑफ साइंस पृ. १७५ २२. सर्ववसु विणं लोगत्तेषु अवद्ध पासपुट्टा पोग्गला लुक्खताए केज्जांति जेणं, जीवा य पोग्गला य णो संचायंति बहिया लोगंता गमणयाए- एवंप्पेगा लोगाट्ठिता पण्णत्ता -ठाणांग ०.१० १८४ For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूक्षत्व परमाणुओं का मूलगुण माना गया है। कुछ प्रमाणों के आधार पर यह एक प्रकार का (ऋण अथवा धन) विद्युत् आवेश हो ऐसा लगता है। पोइनेकर के अभिमत को यदि जैनदर्शन के विवेचित सिद्धान्त का केवल शब्दान्तर ही माना जाय तो अबद्ध, पार्श्व, स्पष्ट, पुद्गल का अर्थ वास्तविक शून्य तापमान वाले पुद्गल हो सकता है। कुछ भी हो, दोनों उक्तियों के बीच साम्य है । यह स्पष्ट है कि पोइनेकर ने आकाश की सान्तता और परिमितता के अन्तर को स्पष्ट करने के लिये उक्त विचार दिया है, जबकि जैनदर्शन ने लोकाकाश की सान्तता और अलोकाकाश में गति, स्थिति, अभाव के कारण के रूप में उक्त तथ्य बताया __भाव यह है कि आधुनिक विज्ञान जैनदर्शन में वर्णित आकाश के स्वरूप को स्वीकार करता है तथा दोनों में समानता भी है। लोकालोक का पौर्वायपर्य :___ आर्य रोह ने पूछा-भगवन् ! प्रथम लोक और फिर अलोक बना या प्रथम अलोक फिर लोक बना। भगवान् ने कहा-रोह ! ये दोनों शाश्वत हैं। इनमें पहले पीछे का क्रम संभव नहीं है ।२४ ___ आकाशास्तिकाय द्रव्य से जीवों और अजीवों पर क्या उपकार होता है? • गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा। भगवान् महावीर ने कहा-- आकाशास्तिकाय से ही तो पाँचों द्रव्य आधार प्राप्त करते हैं। आकाश में ही तो धर्म-अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं। जीवों को अवगाहन भी आकाश देता है। काल भी आकाश में ही बरतता है। पुद्गलों का रंगमंच भी आकाश बना हआ दिक् : आकाश के जिस भाग से वस्तु का व्यपदेश या निरूपण किया जाता है, वह दिशा कहलती है।२६ २३. जैन भारती १५ मई, १९६६ २४. भगवती १.६.१७.१८ २५. भगवती १३.४.२५ २६. दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वादितया वस्तवनयेति दिक्-स्था. वृत्ति ३.३ १८५ For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुदिशा और दिशा की उत्पत्ति तिर्यग्लोक से होती है। दिशा का प्रारम्भ आकाश के दो प्रदेशों से शुरु होता है। उनमें दो-प्रदेशों की वृद्धि होते-होते वे असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती हैं । अनुदिशा केवल एक देशात्मक होती हैं । ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारम्भ चार प्रदेशों से होता है। बाद में उनमें वृद्धि नहीं होती। आचारांग का प्रारम्भ ही दिशा की विवेचना के साथ हुआ है। आचारांग में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः दिशाओं का नामोल्लेख प्राप्त होता है।२८ जिस व्यक्ति के जिस ओर सूर्योदय होता है, वह उसके लिये पूर्व 'जिस तरफ अस्त होता है; वह पश्चिम दिशा है । दाहिने हाथ की ओर दक्षिण बाईं ओर उत्तर दिशा होती है। इन्हें ताप दिशा कहा जाता है। निमित्त कथन आदि प्रयोजन के लिये दिशा का एक प्रकार और होता है। प्रज्ञापक जिस ओर मुँह किये होता है उसे पूर्व, उसके पृष्ठ भाग में पश्चिम दोनों ओर दक्षिण तथा उत्तर दिशा होती हैं, इन्हें प्रज्ञापक दिशा कहते हैं।" जैनदर्शन के अनुसार 'दिशा' स्वतन्त्र द्रव्य आकाश का एक काल्पनिक विभाग है। ठाणांग में दिशाएं छह बतायी गयी हैं एवं एक अपेक्षा से दिशाएं दस भी बतायी गयी हैं-पूर्व, पूर्व-दक्षिण, दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम, पश्चिम, पश्चिमउत्तर, उत्तर, उत्तर-पूर्व, ऊर्ध्व, अधस् ।३२ दो दिशाओं के मध्य कोने में होने से विदिशा दो दिशाओं के संयुक्त नाम से भी पुकारी जाती हैं। २७. आचारांग नियुक्ति ४२.४४ २८. आचारांग १.१.१ २९. आचारांग नियुक्ति ४७.४८ ३०. आचारांग नियुक्ति ५१ ३१. ठाणांग ६.३७ ३२. ठाणांग १०.३१ १८६ For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः दिशा का कोई स्वतन्त्र अस्तित्त्व या स्वतन्त्र संख्या नहीं है। उपर्युक्त भेद व्यवहार में प्रचलित होने से दस है। गणितीय व्यवहार में ३६० अंशों में विभाजित परिधि को भी दिशा नाम से कहा जा सकता है । यह विभाग भी स्थूल ही है, क्योंकि गणित में एक-एक अंश के भी दस-दस विभाग किये गये हैं। ये दस-दस विभाग भी गणितीय व्यवहार पर आधारित हैं; वास्तव में इनकी गणना नहीं की जा सकती। इतर दर्शनों के अनुसार आकाश :- . जैन दर्शन की मान्यतानुसार आकाश का विवेचन करने के पश्चात् अन्य भारतीय दर्शनों ने आकाश को किस प्रकार से विश्लेषित किया है, यह जानने का प्रयास किया जा रहा है। न्याय वैशेषिक और आकाशः' वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, देश, आत्मा और मन को द्रव्य माना गया है। इन द्रव्यों के अन्तर्गत आकाश को भी स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता दी गयी है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार इनके अन्दर शरीरधारी और अशरीरी वस्तुओं का समावेश हो जाता है।३ . आकाश सर्वव्यापक बृहत्तम विस्तार युक्त है। आकाश सर्वव्यापक होते हुए भी शब्द का उत्पादक है।३५ - आकाश एक सकाम, निरन्तर, स्थायी, तथा अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है। यह रंग, गंध और स्पर्श से रहित है। अपनयन की प्रक्रिया द्वारा यह सिद्ध किया जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। यह निष्क्रिय है। समस्त भौतिक द्रव्य इसके साथ संयुक्त माने जाते है। परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म हैं। परमाणु एक दूसरे के पास आकर या संयुक्त होकर किसी बड़े पदार्थ का निर्माण नहीं करते । वे एक दूसरे से अलग रहते हैं फिरभी किसी प्रकार से मिलकर एक ३३. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७ ३४. प्रशस्तपादकृत पदार्थ धर्म संग्रह पृ. २२ ३५. तर्कदीपिका पृ. १४ ३६. वैशेषिक दर्शन २.१.२७.२९.३१ ३७. न्यायसूत्र ४.२.२१.२२ १८७ For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था को स्थिर रखते हैं तो मात्र आकाश के कारण। परमाणु परस्पर संयुक्त होते हैं, परन्तु निरन्तर नहीं। वह जो परमाणुओं को परस्पर संयुक्त किये रहता है, आकाश है, परन्तु यह आकाश परमाणुओं द्वारा निर्मित नहीं है। आकाश नित्य है, सर्वत्र उपस्थित है, इन्द्रियातीत है, जोड़ने तथा पृथक् करने का व्यक्तिगत गुण रखता है।३८ ... पाँचो तत्त्वों का मिश्रण ही प्रकृति है जो हमारे सामने आती हैं। इनमें आकाश भी एक तत्त्व है, जिसका विशेष गुण एकमात्र शब्द है। शब्द गुण का आश्रय दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। शब्द आकाश का अनुमापक भी है। आकाश विभु जैनदर्शन भी आकाश को सर्वगत, नित्य, व्यापक, रूप, रस, गंध और स्पर्श रहित मानता है, परन्तु शब्द को पुद्गल मानता है न कि आकाश का गुण । आज विज्ञान ने रेडियो, टी.वी. आदि द्वारा शब्द तरंगों को पकड़कर स्थानान्तरित करके यह सिद्ध भी कर दिया है। सांख्य क अनुसार आकाश : सांख्य दर्शन प्रकृति के विकार मात्र को आकाश कहता है। प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार तथा अहंकार से सोलह तत्त्व-पाँच द्रव्येन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द पैदा होते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्द इन्हें तन्मात्राएँ भी कहते हैं। इन पाँच तन्मात्राओं में से शब्द से आकाश की उत्पत्ति होती है। पाँच तन्मात्राओं के अनुरूप पाँच इन्द्रियों के प्रत्यक्ष के विषय हैं। ये भौतिक तत्त्व रूप हैं, परन्तु साधारण प्राणियों के दृष्टि का विषय नहीं बनती। इन अदृश्य ३८. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १९२ ३९. न्यायसूत्र ३.१.६०.६१ ४०. भारतीय दर्शन : डॉ. एन. के. देवराज प. ३२६ ४१. षड्दर्शनसमुच्चय का. ३७.३९ ४२. “स्वरान्नभः" -षड्दर्शनसमुच्चय का. ४० एवं शब्द तन्मात्रादाकाश सा. कात्ति मात. पृ.३७ ४३. भारतीय दर्शन, भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ३६९ १८८ For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारतत्त्वों का अनुमान दृश्यमान पदार्थों से होता है । तन्मात्राएँ तब तक इन्द्रियों के लिये उत्तेजक नहीं बनतीं जब तक कि वे परमाणुओं का निर्माण करने के लिये एक दूसरे में संयुक्त न हो जायें । तमोगुण निष्क्रिय एवं पुंज के अतिरिक्त सभी लक्षणों से रहित भी होता है । रजोगुण के सहयोग से यह परिवर्तित होकर सूक्ष्मद्रव्य कम्पनशील तेजोमय और शक्ति से परिपूर्ण हो जाता है। तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गन्ध की तन्मात्राएं उत्पन्न होती हैं। भूतादि तथा तन्मात्राओं के मध्य आकाश संक्रमण की कडी बनती है। आकाश के दो भेद करते हैं-कारणाकाश और कार्याकाश । कारणाकाश आणविक नहीं है तथा सर्व व्यापक है। कार्याकाश आणविक है, जो भूतादि अथवा पुंज इकाईयों और शब्द के सारतत्त्वों के मेल से बना है । शब्द के सारतत्त्व कारणाकाश में रुके हुए रहते हैं तथा वायु के अणुओं के लिये विकास का माध्यम बनते हैं ।" जैनदर्शन सांख्य की आकाश विवेचना से असहमत है। उसके अनुसार आकाश को प्रकृति का विकार मानना उचित नहीं है । नित्य और निष्क्रिय अनन्त प्रकृति के आत्मा की तरह विकार हो नहीं सकता । आकाश का न आविर्भाव होता है न तिरोभाव । जिस प्रकार घड़ा प्रकृति का विकार होकर अनित्य, मूर्त्त और असर्वगत होता है, उसी तरह आकाश को भी होना चाहिये। या आकाश की तरह घट को नित्य अमूर्त और सर्वगत होना चाहिये। एक कारण से दो परस्पर अत्यन्त विरोधी विकार नहीं हो सकते । अद्वैत वेदान्त और आकाश : यह मत द्वैत को स्वीकार नहीं करता । द्वैतपरक जगत् केवल माया है । ब्रह्म एक ही है, अनेक जीवों में विभक्त प्रतीत होना अध्यासमात्र है। अद्वैत वेदान्त में आत्मा की तुलना सर्वव्यापी देश (आकाश) से की गयी है और जीव की तुलना घड़े में सीमित देश (आकाश) के साथ की गयी है। जब ढंकनेवाला बाह्य आवरण नष्ट हो जाता है तो सीमाबद्ध देश (घटाकाश) व्यापक देश (महाकाश) में मिल जाता है। भेद केवल ऐसे आनुषंगिक पदार्थों में रहते हैं, जैसे-आकृति, क्षमता, नाम । परन्तु स्वयं व्यापक आकाश में यह भेद नहीं होता। जैसे हम यह नहीं कह सकते कि सीमाबद्ध आकाश व्यापक आकाश का अवयव है या विकार है। ये दोनों एक ही हैं, भेद प्रतीति मात्र हैं । ५ इसी प्रकार 'जीव' आत्मा का अवयव या ४४. पोजेटिव साइंसेस ऑफ दी हिन्दूज शील, उद्धृत भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन पृ. २६९-७० ४५. त. रा. ५.१८.१३.४६८ १८९ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकार है-ऐसा हम नहीं कह सकते । ये दोनों एक हैं, भेद प्रतीतिमात्र है, हाँ! व्यावहारिक भेद अवश्य है।६ आचार्य शंकर ने ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण माना है। इसी ब्रह्म से आकाशादि भूतप्रपंच की उत्पत्ति होती है। आकाश एक है, अनन्त है, लघु और सूक्ष्म है, क्रियारहित, सर्वव्यापक और सबसे प्रथम उत्पन्न पदार्थ है।४८ .. - जैनदर्शन वेदान्त की आकाश व्यवस्था से सहमत नहीं है, क्योंकि चेतन से अचेतन तत्त्व कैसे उत्पन्न हो सकता है? आकाश शाश्वत और विभु है, फिर वह समय-विशेष में उत्पन्न कैसे माना जा सकता है? आकाश स्वयं स्वतन्त्र और षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य है। . बौद्ध मत और आकाश :- बौद्ध दर्शन के अनुसार तत्त्व चार हैं, पृथ्वी जो कठोर है, जल जो शीतल है, अग्नि जो उष्ण है, वायु जो गतिमान् है । आकाश को वे नहीं मानते, परन्तु कई वाक्यों में निरपेक्ष आकाश को भी जोड़ देते हैं। बुद्ध का कहना था “हे आनन्द! यह महान् पृथ्वी जल पर आश्रित है, जल वायु पर आश्रित है और वायु आकाश पर आश्रित है”। आकाश का विवेचन एक अन्य अपेक्षा से भी आता है। “नागसेन! इस संसार में ऐसे प्राणी पाए जाते हैं जो कर्म के द्वारा इस जन्म में आये हैं, दूसरे ऐसे हैं जो किसी के परिणाम के रूप में आये हैं, परन्तु दो वस्तुएँ ऐसी हैं जो इन दोनों की श्रेणी में नहीं आती- एक है आकाश और दूसरा है निर्वाण ।"५१ . परन्तु वैभाषिक और सौत्रान्तिक दो लोक मानते हैं और इनमें परस्पर भेद करते हैं-भाजनलोक जो वस्तुओं का आवास स्थान है और सत्त्वलोक जोजीवित प्राणियों का संसार है। भाजनलोक सत्त्वलोक की सेवा के लिए है।५२ ४६. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ४५५ ४७. भारतीय दर्शन डॉ. एन. के. देवराज पृ. ४९५ ४८. शांकरभाष्य २.३.७ ४९. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ३५० ५०. दीघनिकाय २०७ ५१. मिलिन्द ४ ५२. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ५६७-६८ १९० For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश सभी प्रकार के भेद से स्वतन्त्र एवं अनन्त है । यह नित्य, सर्वव्यापक और भावात्मक पदार्थ है । यद्यपि इसका कोई रूप नहीं है फिर भी यह सत् है । यह भौतिक पदार्थ भी नहीं है । ५३ जैनदर्शन की मान्यता है कि आकाश आवरण भावमात्र नहीं है, किन्तु वस्तुभूत है । जिस प्रकार से नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी सत् है । उसी प्रकार आकाश भी सत् है । ५४ आकाशस्तिकाय की सिद्धि लोक की दो प्रकार से व्युत्पत्ति की जाती है । जहाँ पुण्य पाप कर्मों का सुख-दुःखरूप फल देखा जाता है, वहलोक है। इस व्युत्पत्ति में लोक का अर्थ हुआ-आत्मा एवं जो पदार्थों को देखे / जाने वह लोक अर्थात् आत्मा । इन दोनों ही व्युत्पत्तियों से 'जीव' को ही लोकसंज्ञा प्राप्त होती है, तथापि अन्य द्रव्यों को न तो अलोक कहा जायेगा और न छः द्रव्यों का समूह लोक । इसका विरोध होगा, क्योंकि परम्परा में क्रिया व्युत्पत्ति का निमित्त मात्र होती है, जैसे'गच्छतीति गौः ' - इस व्युत्पत्ति से न तो सभी चलने वाले गाय कहे जा सकते हैं और न बैठी हुई गाय गाय रूप से भिन्न कही जा सकती है । इसी तरह 'लोक' शब्द की उपरोक्त व्युत्पत्ति करने पर भी धर्मादि द्रव्यों का लोकत्व नष्ट नहीं होता । आत्मा स्वयं के स्वरूप का लोकन करता है । और सर्वज्ञ बाह्य पदार्थों का एवं स्वयं के स्वरूप का लोकन करता है । ५५ · - जो देखा जाय वह लोक, ऐसी व्युत्पत्ति करने में अलोक को भी लोक कहना चाहिये क्योंकि अलोक को भी सर्वज्ञ देखता है। इस प्रश्न का समाधान यह है कि लोकसंज्ञा रूप है, व्युत्पत्ति मात्र निमित्त है । अथवा यह समाधान भी होता है कि “जहाँ बैठ कर सर्वज्ञ देखे वह लोक" ऐसी व्युत्पत्ति करने में भी कोई दोष नहीं है। क्योंकि अलोक में बैठकर तो केवली लोक को देखता नहीं है । ५६ 1 ५३. वही पृ. ५६८ ५४. त. रा. वा. ५.११.४६७-६८ ५५. त. रा. वा. ५.१२.१०-१४४५५ ५६. त. रा. वा. ५.१२.१५-१६४५५-५६ १९१ For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह प्रश्न ही सकता हैं कि आकाश उत्पन्न नहीं होता, अतः खरविषाण की तरह उसका अभाव ही होना चाहिये । इसका समाधान यह है कि आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है, क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होने पर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्वप्रत्यय उत्पाद-व्यय और अवगाहक जीवपुद्गलों के परिणमन के अनुसार परप्रत्यय आकाश में उत्पाद-व्यय होते रहते हैं। जैसे कि अन्तिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य की सर्वज्ञता उत्पन्न हुई तोजो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही बाद में उपलभ्य हो गया। अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ। इस तरह उसमें परप्रत्यय भी उत्पाद-विनाश करते रहते हैं।५० काल द्रव्य : जैनदर्शन षड्द्रव्यसिद्धान्त मानता है। काल चौथा अजीव द्रव्य है जिसका विवेचन यहाँ हम करने जा रहे हैं। जैनदर्शन की श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं ने कालद्रव्य को स्वीकार तो किया है, परन्तु कालद्रव्य की स्वतन्त्रता पर मतभेद है। जैनदर्शन में दो प्रकार की विचारधारा काल के संबन्ध में पायी जाती है, कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मानते हैं और कुछ आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते । इन दो विचारधाराओं के बावजूद इसमें सभी एकमत हैं कि 'काल' द्रव्य अवश्य है। ___ प्रथम विचारधारा के समर्थक कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी, नेमीचन्द्र एवं आगमों में भगवतीसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र हैं, तो द्वितीय विचारधारा के समर्थक आचार्यों में उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि आदि और आगमग्रन्थों में ठाणांग और जीवाभिगम हैं। इन दोनों विचारधाराओं का एवं काल के स्वरूप का हम विवेचन करेंगे। ___ठाणांग के टिप्पण के ८ अनुसार काल वास्तविक द्रव्य नहीं है, वह औपचारिक द्रव्य है । वस्तुतः वह जीव और अजीव का पर्याय है। इसलिए उसे ५७. त.रा.वा. ५.१८.१०.४६७ ५८. ठाणांग टिप्पण नं.१२२ पृ. १४० १९२ For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और अजीव दोनों कहा है।५९ ___पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्य ने काल की दूसरी विचारधारा को ही पुष्ट किया है। काल परिणाम से उत्पन्न होता है और परिणाम द्रव्यकाल से उत्पन्न होता है। काल क्षणभंगुर भी है और नित्य भी।६० इसे अमृतचन्द्राचार्य ने विशेष स्पष्ट किया है-व्यवहारकाल जीव और पुदल के द्वारा स्पष्ट होता है और निश्चयकाल जीव पुद्गलों के परिणाम की अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा (जीव और पुद्गल के परिणाम अन्यथा नहीं बन सकते इसलिए) निश्चित होता है। काल नित्य और क्षणिक क्यों और कैसे हैं? इसे भी कुन्दकुन्दाचार्य ने स्पष्ट किया है- 'काल' यह कथन सद्भाव का प्रेरक है, अतः नित्य है (यह निश्चयकाल की अपेक्षा से है)। उत्पन्नध्वंसी व्यवहारकाल (यद्यपि क्षणिक है, फिर भी) प्रवाह अपेक्षा दीर्घस्थिति-युक्त भी कहा जाता है ।६१ कुन्दकुन्दाचार्य ने अगले श्लोक में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव की तरह काल को भी द्रव्य तो माना है, परन्तु काय नहीं।६२ आचार्य उमा स्वाति ने यद्यपि अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत काल को नहीं गिनाया था, पर आगे जाकर उन्होंने सूत्र में 'च' शब्द का प्रयोग करते हुए काल को भी द्रव्य के रूप में मान्यता दे दी।६३ प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने स्पष्ट किया है कि एक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य काल में सदा पाये जाते हैं। अतः कालाणु का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है।६४ भाष्यकार अकलंक ने 'काल' “द्रव्य क्यों है?" इसका कारण भी बता दिया है। “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्"और “गुणपर्यायवद्रव्यं"-इन लक्षणों से युक्त होने से आकाश आदि की तरह काल भी द्रव्य है। काल में ध्रौव्य तो ५९. ठाणांग २.३८७ ६०. पंचास्तिकाय वृत्ति १०० ६१. पं. का. १०१ ६२. पं. का. १०२ ६३. त.सू. ५.१६ ६४. प्रवचनसार १४३ १९३ For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्रत्यय है ही; क्योंकि वह स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहता है । व्यय और उत्पाद अगुरुलघुगुणों की हानि - वृद्धि की अपेक्षा स्वप्रत्यय है तथा पर द्रव्यों में वर्तनाहेतु होने से परप्रत्यय भी है। काल में अचेतनत्व, अमूर्त्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं । व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं; अतः वह द्रव्य है । ६५ यहाँ एक अन्य प्रश्न और होता है कि यदि 'काल' द्रव्य है तो उसे धर्म और अधर्म आदि के साथ क्यों नही स्पष्ट किया? पूज्यपाद ने इसका समाधान इस प्रकार दिया है- “यदि वहाँ काल द्रव्य का कथन करते तो इसे काययुक्त मानना पड़ता और कालद्रव्य में मुख्य अथवा उपचार दोनों रूप से प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है । धर्मादि को मुख्यरूप से प्रदेशप्रचय कहा है और अणु को उपचार से । परन्तु काल में दोनों नहीं हैं अतः काल नहीं है । " दूसरा समाधान यह है कि “निष्क्रियाणि च ६६ इस सूत्र द्वारा धर्म से लेकर आकाश तक के अजीव द्रव्यों को निष्क्रिय कहने पर जैसे अवशिष्ट बचे जीव और पुद्गल को स्वतः सक्रियत्व प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार काल के सक्रियत्वं की अपत्ति होती । आकाश से पहले भी काल को नहीं रख सकते । “आकाश तक एक द्रव्य है”६७ - इस सूत्र के अनुसार यदि काल को आकाश से पहले रखते तो काल भी 'एक' द्रव्य होता, जब कि जैनसिद्धान्त के अनुसार काल द्रव्य संख्या में अनन्त । इन सभी दोषों से बचने के लिए 'काल' का अलग से ग्रहण करेने के लिए पृथक् सूत्र बनाया गया है । ६८ काल का लक्षण : उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना बताया गया है ।" तत्त्वार्थसूत्र में स्वाति ने काल के लक्षण वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व माने हैं। ६५. त. रा. वा. ५.३९१-२५०१ ६६. त.सू. ५-७ ६७. त. सू. ५.६ ६८. स. सि. ५.३९६०२ ६९. उत्तराध्ययन सूत्र २८.१० ७०. वर्तना परिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य । - त. सू. ५२२ १९४ For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तना का स्वरूप :___ “प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है, उसे वर्तना कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का अनुभव करता है। धर्मादि द्रव्य अपने अनादि या आदिमान् पर्यायों में उत्पादव्यय-ध्रौव्य रूप से परिणत होते रहते हैं। यही स्वसत्तानुभूत वर्तना है। सादृश्योपचार से प्रतिक्षण ‘वर्तना' - ऐसा अनुगत व्यवहार होने से यद्यपि वह एक कही जाती है, पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य की अपनी-अपनी वर्तना अलग होती है।७१ वर्तना का अनुमान हम इस प्रकार से लगा सकते हैं- जैसे चावल को पकाने के लिए बर्तन में डाला, वह आधा घण्टे में पक गया तो यह नहीं समझना चाहिये कि २९ मिनिट तक तो वह ज्यों का त्यों रहा, मात्र अन्तिम समय में पक कर भात बन गया। उसमें प्रथम समय से ही सूक्ष्मरूप से पाकक्रिया प्रारम्भ थी, यदि प्रथम समय में पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे क्षणों में संभव ही नहीं हो सकता था, और इस तरह पाक का अभाव हो जाता। यह वर्तनालक्षणयुक्त काल परमार्थ काल है।७३ .. द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य हो जाता है, जैसे शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय पढ़ाते हैं, यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है। पूज्यपाद इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं- यह कोई दोष नहीं है क्योंकि निमित्तमात्र में हेतु कर्त्तारूप कथन (व्यपदेश) देखा जात है “जैसे कुंडे को अग्नि पकाती है" यहाँ कुंडे की अग्नि निमित्तमात्र है, उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है। परिणाम का स्वरूप : - अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को न छोड़ते हुए द्रव्य में जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते हैं । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है, फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक की प्रधानता में ७१. त.रा.वा. ५.२२.४.४७७ ७२. त.रा.वा. ५.२२.५.४७७ ७३: परमार्थकालो वर्तनालक्षणः -स.सि. ५.२२.५६९ ७४. स.सि. ५.२२.५६९ For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका व्यवहार पृथक् हो जाता है। परिणाम का तात्पर्य है- अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हए पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना। परिणाम दो प्रकार का होता है- एक अनादि, दूसरा आदिमान् । लोक की रचना, सुमेरुपर्वत आदि के आकार अनादि परिणाम है । आदिमान् परिणाम दो प्रकार का है- एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक । चेतन द्रव्य के औपशमिकादिभाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं; जिनमें पुरुषप्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वाभाविक परिणाम कहलाते हैं। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु के उपदेश से होते हैं। अतः ये प्रयोगज परिणाम हैं। इसी प्रकार मिट्टी आदि में कुम्हार द्वारा होने वाला अचेतन परिणमन प्रयोगज अचेतन परिणमन है । इन्द्रधनुष आदि परिणमन स्वाभाविक अचेतन परिणमन क्रिया का स्वरूप : ___ बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से द्रव्य में होने वाला परिस्पन्दात्मक परिणमन 'क्रिया' है । वह दो प्रकार की है- प्रायोगिक और स्वाभविक । बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा बादल आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है।७६ परत्व तथा अपरत्व का स्वरूपः परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं औ गुणकृत भी। क्षेत्र की अपेक्षा 'पर' का अर्थ दूरवर्ती एवं 'अपर' का समीपवर्ती कहां जाता है । गुण की अपेक्षा से अहिंसा आदि प्रशस्त गुणों के कारण धर्म को 'पर', और अधर्म को 'अपर' कहा जाता है। इसी प्रकार कालकृत परत्व-अपरत्व भी होता है। जैसे सौ साल का वृद्ध 'पर' और सोलह साल का युवक 'अपर' है। इन तीन प्रकार के परत्वापरत्व में से कालकृत परत्वापरत्व ही लिया जाना चाहिये। तर्कभाषा में भी परत्वापरत्व की चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें परत्व और अपरत्व को दो प्रकार से माना गया है- कालिक परत्व और कालिक अपरत्व ७५. त.वा. ५.२२.१०.४७७.७८ ७६. रा.वा. ५.२२,१९.४८१ एवं स.सि. ५.२२.५६९ ७७. रा.वा. ५.२२ २२.४८१ ७८. कालोपकारणात् कालकृतेऽय परत्वापत्वे गृहत्वेते।- त.रा.वा. ५.२२.२२.४८१ १९६ For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा देशिक परत्व और देशिक अपरत्व । कालिक अर्थात् समय से संबन्ध रखनेवाला तथा देशिक अर्थात् स्थान से संबन्ध रखने वाला। जैसे आयु का बड़पन्न काल का द्योतक होता है, अत: कालिक परत्व कहा जाता है और आयु में छोटेपन को कालिक अपरत्व कहा जाता है। इसी तरह देशिक परत्व तथा देशिक अपरत्व को समझा जा सकता है। परिणाम के संबंध में कुछ तर्क : कुछ शंकाकार यहाँ परिणाम जो कि काल का दूसरा लक्षण है, को लेकर प्रश्न करते हैं कि बीज अंकुर में है या नहीं? यदि है तो वह अंकुर नहीं कहा जा सकता, यदि नहीं है तो यह मानना होगा कि बीज अंकुर रूप से परिणत नहीं हुआ; क्योंकि उसमें बीज स्वभावतः नहीं है। इस प्रकार अस्तित्व-नास्तित्व दोनों पक्ष में दोष आयेंगे। ___आचार्य अकलंक इसका समाधान करते हैं कि कथंचित् अस्तित्व-नास्तित्व में दोषों का आगमन संभव नहीं है। 'सदसद्वाद' नरसिंह की तरह जात्यन्तर रूप है। इसे शालिबीजादि के उदाहरण द्वारा और भी स्पष्ट किया है। जैसे शालिबीजादि द्रव्यार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज हैं, यदि उसका संपूर्णतः विनाश हो गया होता तो शालि का अंकुर क्यों कहलाता ? शालिबीज और शाल्यंकुर रूप पर्यायार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज नहीं है; क्योंकि बीज का यदि परिणमन नहीं हुआ होता तो अंकुर कहाँ से आता? बीज अंकुर से भिन्न है या अभिन्न? यदि भिन्न है तो वह बीज़ का परिणमन नहीं कहा जा सकता। अगर अभिन्न है तो उसे अंकुर नहीं कह सकते। कहा भी है- यदि बीज स्वयं परिणत हुआ है तो अंकुर बीज से भिन्न नहीं हो सकता; परन्तु ऐसा नहीं है। यदि भिन्न है तो उसे अंकुर नहीं कह सकते, इस प्रकार परिणाम सिद्ध नहीं हो सकता।९. - इसका समाधान तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रकार उपलब्ध होता है- इसका समाधान भी स्याद्वाद में प्राप्त हो जाता है कि अंकुर की उत्पत्ति के पहले बीज में अंकुर पर्याय नहीं थी, बाद में उत्पन्न हुई। अत: पर्याय की दृष्टि से अंकुर बीज से भिन्न है, और चूँकि शालिबीज की जातिवाला ही अंकुर उत्पन्न हुआ है, अन्य ७९. तर्क भाषा पृ. १८८ एवं प्रशस्तपादकृत पदार्थ धर्म संग्रह पृ. १६४ से आगे। १९७ For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, अतं द्रव्य की दृष्टि से अभिन्न भी। 1 परिणाम माना जा सकता है, परन्तु परिणाम में वृद्धि नहीं माना जा सकती । यदि बीज अंकुर रूप से परिणत होता है तो दूध के परिणाम दही की तरह अंकुर को बीजमात्र ही होना चाहिये बड़ा नहीं। कहा भी है- यदि बीज अंकुरत्व को प्राप्त होता है तो छोटे बीज से बड़ा अंकुर कैसे बन सकेगा? यदि पार्थिव और जलीय रस से अंकुर की वृद्धि कही जाती है तो कहना होगा कि वह बीज का परिणाम नहीं होगा। पार्थिव और जलीय तथा अन्य रस द्रव्यों के संचय से वृद्धि की कल्पना भी ठीक नहीं है । जैसे लाख के लपेटने से भी काष्ठ मोटा अवश्य हो जाता है और रस बढ़ते हैं तो फिर बीज क्या करते हैं। इस बीज वृद्धि का समाधान यह है कि जैसे मनुष्यायु और नामकर्म के उदय से उत्पन्न बालक बाह्यसूर्यप्रकाश और माँ के दूध आदि को अपनी भीतरी पाचनशक्ति से पचाता हुआ आहारादि द्वारा बढ़ता है, उसी प्रकार वनस्पति भी आयु कर्म और नामकर्म के उदय से बीचाश्रित जीव अंकुररूप से उत्पन्न होकर भी पार्थिव और जलीय रसभाग को खींचता हुआ बाह्यसूर्यप्रकाश और आंतरिक पाचनशक्ति के अनुसार उन्हें जीर्ण करता हुआ अपने खाद के अनुसार बढ़ता है । परिणमन संबन्धी वृद्धिदोष भी एकान्तवादियों में आता है । अनेकान्तवाद अंकुरादि सभी द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं, परन्तु पर्यायदृष्टि से अनित्य । १ यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि जब परिणमन और वर्तना दोनों ही परिवर्तन को ही सूचित करते हैं तो उन्हें अलग-अलग मानने की क्या तुक है? इसका समाधान वर्तना और परिणाम में अन्तर को स्पष्ट कर के दिया जा सकता है। वर्तना और परिणाम में भेद : १. स्थूलता एवं सूक्ष्मता - वर्तना और परिणाम यद्यपि परिवर्तन को ही सूचित करते हैं फिर भी इनमें सूक्ष्मता और स्थूलता का अंतर है । वर्तना सूक्ष्मता को इंगित करती है और परिणमन स्थूलता को, जैसे बालक से युवक । ८०. त. रा. वा. ५.२२.११.४७८ ८१. त. रा. वा. ५.२२.१५.१६.४७९.८० १९८ For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. भिन्नप्रमाणग्राह्यत्व - वर्तना और परिणाम में प्रमाण का भी अन्तर हैं । वर्तना को प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं जान सकते, अपितु उसका अनुमान करना पड़ता है, जबकि परिणाम को हम प्रत्यक्ष प्रमाण से जान सकते हैं। जैसे मिट्टी का घट के रूप में परिणमन परिणाम है और मिट्टी का अस्तित्व में बने रहना वर्तना है । गति और स्थिति क्रिया का जब परिणाम में अन्तर्भाव होता है तो परिस्पन्दात्मक क्रिया भी उसी के अन्तर्गत आ सकती है। ऐसे में मात्र परिणाम का निर्देश करना चाहिये । क्रिया की अलग से क्या आवश्यकता है? इसका समाधान तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रकार दिया है कि परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक- दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिये क्रिया का पृथक् ग्रहण करना आवश्यक है । परिस्पन्द क्रिया है और अन्य परिणाम । ८२ वर्तना आदि द्वारा काल का अनुमान होता है। काल का लक्षण यही बताया है कि जिससे मूर्त्तद्रव्यों का उपचय और अपचय लक्षित होता है वह काल है । ८३ काल अखंडप्रदेशी नहीं है : आकाश की तरह काल अखंड और एक्प्रदेशी नहीं है, क्योंकि एक पुद्गल परमाणु एक आकाशप्रदेश से दूसरे आकाशप्रदेश पर जाता है और इसमें जो समय लगता है, अगर गहराई में जाकर देखें तो यह समय ही कालद्रव्य की पर्याय है । यह अतिसूक्ष्म होने से निरंश भी है । यदि कालद्रव्य को लोकाकाश के बराबर अखंड और एक माना जाता है तो इस अखंड समयपर्याय की निष्पत्ति नहीं होती, क्योंकि पुगल परमाणु जब एक कालाणु को छोड़कर दूसरे कालाणु के प्रति गमन करता है, तब वहाँ दोनों कालाणु पृथक्-पृथक् होने से समय का भेद बन जाता है और यदि एक अखंड लोक के बरोबर कालद्रव्य हो तो समय पर्याय की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती । यदि यह तर्क दिया जाय कि कालद्रव्य लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के प्रति जाने पर समय पर्याय की सिद्धि हो जायेगी ? ८२. त. रा. वा. ५.२२.२०, २१.४८१ ८३. "येन मूर्तानामुपचयाश्चापचयाश्च लक्ष्यन्ते स कालः” रा. वा. ५.२३ पृ. ४८१ ( उद्धृत ) १९९ For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका समाधान यह है कि एक अखंड द्रव्य के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने पर समय पर्याय का भेद नहीं बनता। अतः समय पर्याय में भेद सिद्ध करने के लिए काल द्रव्य को अणुरूप में स्वीकार किया गया है। काल दो प्रकार का है- व्यवहारकाल और निश्चयकाल । हम व्यवहार के स्वरूप भेद और प्रभेद को प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं, परन्तु निश्चयकाल की प्रकृति व्यवहारकाल द्वारा ही अनुमानित की जाती है। उसकी प्रकृति, स्वरूप सबकुछ इन्द्रियातीत हैं । एक-एक समय का समुच्चय आवलि, पल आदि काल का जो व्यवहार है, वह व्यवहारकाल है, इसे समयपर्याय भी कह सकते हैं। यह समयपर्याय ही निश्चयकाल का ज्ञान कराती है। ___यहाँ एक यह भी तर्क दिया जा सकता है कि कालाणु को न मानकर मात्र समयपर्याय रूप वृत्ति ही स्वीकार करें तो क्या कठिनाई है? इसका समाधान अमृतचन्द्राचार्य ने यह दिया है कि मात्र वृत्ति (समयरूप परिणति) काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्ति वृत्तिमान् के बिना नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि वृत्तिमान् के बिना भी वृति हो सकती है, तो यह प्रश्न होगा कि 'वृत्ति' तो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की एकता स्वरूप होनी चाहिये। अकेली ‘वृत्ति' उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है? अथवा यह कहा जाय कि अनादि अनन्त अनन्तर (परस्पर अन्तर हुए बिना एक के बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशों के कारण एकात्मता होती है इसलिए पूर्व-पूर्व के अंशों का नाश होता है और उत्तर-उत्तर अंशों का उत्पाद होता है तथा एकात्मकता रूप ध्रौव्य रहता है, इस प्रकार अकेली वृत्ति भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की एकतास्वरूप हो सकती है, परन्तु ऐसा संभव नहीं है। जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है, वे दो अंश एक साथ प्रवृत्त नहीं हो सकते । अतः उत्पाद और व्यय का ऐक्य संभव नहीं है, तथा नष्ट अंश के सर्वथा समाप्त होने पर और उत्पन्न होने वाले अंश का अपने स्वरूप को प्राप्त न होने से नाश और उत्पाद की एकता में प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँ से आयेगा? ऐसा होने पर त्रिलक्षणात्मकता नहीं रहेगी। ___ अतः इन दूषणों के परिहार के लिये वृत्तिमान् स्वीकार करना अनिवार्य है, ___८४. स. सि. ५.३९ पृ. २४१ का विशेष विवेचन - २०० For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वह वृत्तिमान प्रदेश ही है, क्योंकि जो अप्रदेश हैं उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य नहीं हो सकता । ५ अतः हमें काल को एक प्रदेशी के रूप में तो स्वीकार करना ही है, क्योंकि प्रदेश रहित द्रव्य तो शून्य होता है । ८६ काल अनन्त समययुक्त है : काल को अनन्तसमय युक्त कहा गया है। " काल अनन्तसमय वाला किस अपेक्षा से है इसे पूज्यपाद ने इस प्रकार स्पष्ट किया है- वर्तमान काल तो यद्यपि एक समय वाला है, परन्तु अतीत और अनागत तो अनन्त समय वाला है । अतः अतीत और अनागत की अपेक्षा काल अनन्तसमय युक्त और वर्तमान की अपेक्षा एक समययुक्त है ।" काल के प्रकार : काल के भेद की चर्चा भगवतीसूत्र में इस प्रकार उपलब्ध होती है। जब भगवान् से यह प्रश्न पूछा कि काल कितने प्रकार का है? सुदर्शन की इस शंका भगवान् ने काल के निम्न चार भेद बताते हुए समाधान किया १. प्रमाणकाल २. यथायुर्निवृत्ति काल ३. मरणकाल ४. और अद्धाकाल" १. प्रमाणकाल - प्रमाणकाल दो प्रकार का है, दिवस प्रमाणकाल और रात्रिप्रमाणकाल | जिससे रात्रि, दिवस, वर्ष, शतवर्ष आदि का प्रमाण जाना जाय, उसे प्रमाणकाल कहते हैं । २. यथायुर्निवृत्तिकाल - आत्मा ने जिस प्रकार की आयु का बन्ध बांधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना, भोगना, यथायुर्निवृत्ति काल है । ८५. प्र. सा.ता. पृ. १४४ ८६. प्र. सा. १४४ ८७. त. सू. ५.४० ८८. स. सि. ५.४०.६०४ ८९. स. सि. ११.११.७७ ९०. भगवती ११.११७.८ २०१ For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. मरणकाल- शरीर का जीव से या जीव का शरीर से वियुक्त होना, अलग होना मरणकाल है। ४. अद्धाकाल- अद्धाकाल अनेक प्रकार का है। सूर्यचन्द्र आदि की गति से संबन्ध रखने वाला अद्धाकाल है। काल का मुख्य रूप अद्धाकाल है, शेष तीनों इसके विशिष्ट रूप हैं। अद्धाकाल व्यावहारिक है, वह मनुष्यलोक में ही होता है, और इसलिए मनुष्यलोक को समयक्षेत्र कहा जाता है। निश्चयकाल-काल जीव-अजीव का पर्याय है, वह लोकालोक व्यापी है, उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल परावर्तन तक के जितने विभाग हैं, वेसब अद्धाकाल के हैं। समय उसे कहते हैं जो अविभाज्य हैं। इसको कमलशतपत्रभेदन्याय-कमलपत्रों के भेदन एवं वस्त्रविदारण द्वारा स्पष्ट समझा जा सकता है(क) एक दूसरे से सटे हुए सौ कमल के पत्तों को कोई बलवान् व्यक्ति सुई से छेद देता है, तब ऐसा ही लगता है कि सब पत्ते एक साथ छिद गये, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता कि सब पत्ते एक साथ्र छिद गये। जिस समय पहला पत्ता छेदा गया, उस समय दूसरा नहीं। सभी अलग-अलग समय में ही छेदे जाते हैं और यह क्रमशः होता है। (ख) एक कलाकुशल युवा और बलिष्ठ जुलाहा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र या साड़ी को शीघ्र ही फाड़ देता है और इतनी शीघ्र यह क्रिया होती है कि ऐसा लगता है कि एक ही समय में सारा वस्त्र फट गया, परन्तु ऐसा होता नहीं। वस्त्र अनेक तन्तुओं से बनता है, जब तक ऊपर के तन्तु नहीं फटते, तब तक नीचे के तन्तु नहीं फटते । अतः यह निश्चित है कि वस्त्र फटने में काल-भेद होता वस्त्र अनेक तन्तुओं का बना होता है। प्रत्येक तन्तु में अनेक रेशे होते हैं। उसमें भी ऊपर का रेशा पहले छिदता है, तब कहीं उसके नीचे का रेशा छिदता है। अनन्त परमाणुओं के मिलन का नाम संघात है । अनन्त संघातों का एक समुदाय और अनन्त समुदायों की एक समिति होती है और ऐसी ९१. भगवती ११.११.४६ २०२ For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त समितियों के संगठन से तन्तु के ऊपर का एक रेशा बनता है। इन सबका छेदन क्रमशः होता है। तन्तु के पहले रेशे के छेदन में जितना समय लगता है, उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश यानी असंख्यातवां भाग समय कहलाता काल का उपकार :- क्रिया मात्र काल के कारण ही संभव है। चाहे पदार्थ सजीव हों या निर्जीव हों, उनमें परिवर्तन तो काल के कारण ही संभव है। वह काल सूक्ष्म भी हो सकता है, स्थूल भी। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि यह किसी पदार्थ में बलपूर्वक परिवर्तन लाता है।९२ परिवर्तन दो प्रकार का होता है- क्षेत्रात्मक और भावात्मक । क्षेत्रात्मक परिवर्तन कभी-कभी और कहीं-कहीं संभव होता है, परन्तु भावात्मक परिवर्तन सर्वत्र और सदैव रहता है। क्षेत्रात्मक परिवर्तन किसी-किसी पदार्थ में होता है। परन्तु भावात्मक परिवर्तन सदा पदार्थों में होता है। चाहे वह मूर्तिक हो या अमूर्त्तिक ।१३ भावात्मक परिवर्तन,दो प्रकार का होता है- सूक्ष्म तथा स्थूल । सूक्ष्म परिवर्तन वह है जो प्रतिपल पदार्थों में होता है, स्थूल परिवर्तन प्रतीति में आ जाता है। हम इन्द्रियज्ञान से स्थूल परिवर्तन देख सकते हैं । परन्तु इससे यह नहीं समझें कि सूक्ष्म परिवर्तन होता ही नहीं। सूक्ष्म के अभाव में स्थूल परिवर्तन संभव नहीं है । स्थूल परिवर्तन जीव और पुद्गल में ही होता है, परन्तु सूक्ष्म परिवर्तन तो छहों द्रव्यों में पाया जाता है। क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त ही द्रव्य हो सकता है। सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों प्रकार के परिवर्तन में काल ही उपकारी या सहायक है। क्रिया में सहायक काल है:- जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब काल के कारण ही संभव हैं।१५ यदि काल न हो तो हमारी गतिक्रिया या आयु संबन्धी किसी प्रकार का अनुक्रम नहीं बन सकेगा। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि आकाश ९२. भगवती अ. वृत्ति पृ. ५३५ ९३. धवला ४.१.५.१.७.३.३१७ ९४. पदार्थ विज्ञान- ले. जिनेन्द्रवर्णी पृ. १९६.९७ ९५, जैनेन्द्र सिद्धांतकोष पृ. ८३ २०३ . For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेश से द्रव्यों में वर्तना होती है? (जैसे सुई का कांटा एक स्थान से आगे बढ़ता हुआ दूसरे कांटे तक पहुँचता है और दोनों कांटों के बीच जो दूरी है वह आकाश है।) तो काल को क्रिया का हेतु माने की क्या आवश्यकता है? आचार्य अकलंक समाधान देते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि पकाने के लिए बर्तन आधार है, परन्तु अग्नि होना भी तो अनिवार्य है अन्यथा पाक क्रिया कैसे संभव होगी? उसी प्रकार आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, परन्तु वर्तना की उत्पत्ति में सहायक तो काल ही होगा।९६ ____पंचास्तिकाय की वृत्ति में भी यही शंका उठायी गयी कि सूर्य की गतिक्रिया आदि में धर्मद्रव्य सहकारी कारण है, तब काल की क्या आवश्यकता है, परन्तु यह संभव नहीं लगता; क्योंकि गति परिणति के धर्मद्रव्य तथा काल दोनों सहकारी कारण होते हैं और सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं, जैसे-घट की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र आदि कई सहकारी कारण हैं । इसी प्रकार काल द्रव्य भी सहकारी है। काल के नयसापेक्ष भेद : नयों की अपेक्षा से काल दो प्रकार का माना गया है- निश्चयकाल और व्यवहारकाल। व्यवहार काल :- समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष आदि जो काल है, वह व्यवहार काल है, इसे पराश्रित काल भी कहते हैं। नियमसार में इसी व्यवहार काल की अपेक्षा से दो भेद बताये गये हैं और तीन भी। समय और आवलि के भेद से व्यवहार काल के दो भेद होते हैं । अतीत, अनागत और वर्तमान की अपेक्षा से तीन प्रकार भी होते हैं।९९ व्यवहारकाल की परिभाषा तात्पर्यवृत्ति में स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं- “एक आकाश प्रदेश में जो परमाणु स्थित हो, उसे दूसरा परमाणु मंदगति से ९६. त.रा.वा. ५.२२८.४७७ ९७. पं.का.ता.व. २५ ९८. पं.का. २५ ९९. नि.सा. ३१ २०४ For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लांचे उतना काल” समयरूप व्यवहार काल है।९०० ___ यह 'समय' अविभाज्य है और कालद्रव्य की सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर्याय है। 'समय' उत्पन्न होता है और नष्ट भी। जैसे आकाश द्रव्य के भाग करना संभव नहीं है, वैसे ही 'समय' भी निरंश है। - यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब पुद्गल परमाणु शीघ्र गति द्वारा एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाता है, तब वह चौदह राजू तक आकाश प्रदेशों में श्रेणीबद्ध जितने कालाणु हैं, उन सबको स्पर्श करता है। अतः असंख्य कालाणुओं को स्पर्श करने से समय के असंख्य अंश होने चाहिए। इसका समाधन यह है कि कोई परमाणु एक समय में असंख्य कालाणुओं का उल्लंघन करके, लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाता है, वह परमाणु के विशेष प्रकार के परिणमन के कारण ही है। इससे समय के असंख्य अंश नहीं होते। जैसे अनन्त परमाणु का कोई स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश में समाकर परिमाण में एक परमाणु जितना ही होता है, यह परमाणुओं के विशेष प्रकार के अवगाह के कारण है। गोम्मटसार के जीवकाण्ड में भी 'समय' की यही व्याख्या दी है। संपूर्ण द्रव्यों के पर्याय की जघन्य स्थिति एक क्षणमात्र की होती है। दो परमाणुओं के अतिक्रमण करने के काल का जितना प्रमाण है, उसको समय कहते हैं। सर्य गति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है, क्योंकि लोकाकाश के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं और बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित धवला में भी इसी बात की पुष्टि होती है कि त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से परिपूरित एक मात्र मनुष्यक्षेत्र संबन्धी सूर्यमंडल में ही काल है अर्थात् काल का आधार मनुष्य-क्षेत्र संबन्धी सूर्यमंडल है।' १००. नि.सा.ता. ३१ एवं प्र.सा.त.प्र. १३९ १. प्रवचनसार ता. वृत्ति १३९ । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड १७२ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५७७ ४. धवला ४.१५१.३२०.५ २०५ For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयकाल:- निश्चयकाल पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श से रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। जो निश्चय काल है, वही परिणमन करने में कारण होता है। __परिवर्तन रूप कोई भी कार्य बिना कारण हो नहीं सकता। इसलिए कोई न कोई सत्ताभूत पदार्थ इसका कारण होना चाहिये, यह सत्ताभूत पदार्थ ही निश्यचकाल है। व्यवहार और निश्चयकाल में अंतर:- मुख्य काल के अस्तित्व की सूचना देने के लिये स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया गया है। व्यवहारकाल पर्याय और पर्यायों की अवधि का परिच्छेद करता है। व्यवहारकाल जीव और पुद्गल के परिणमन का आधार होता है और निश्चयकाल अणुरूप और इन्द्रियानुभवातीत कालचक्र की अवधारणा :. जैनदर्शन में कालचक्र की अवधारणा दो भागों में विभक्त करके की गयी है। एक नीचे से ऊपर अर्थात् दुःख से सुख की ओर जाने वाला और दूसरा ऊपर से नीचे आने वाला अर्थात् सुख से दुःख की ओर आने वाला । जैसे गाड़ी का पहिया घूमता है अर्थात् पहिये का नीचे वाला भाग ऊपर आता है और पुनः नीचे जहाँ से चला था वहाँ पहुँच जाता है, इसी प्रकार काल का पहिया भी बराबर घूमता रहता है । सुख से दुःख की दिशा में जाने वाला अवसर्पिणी और दुःख से सुख की दिशा में जाने वाला भाग उत्सर्पिणी काल कहलाता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दोनों चक्रार्द्ध मिलकर पूरा एक कालचक्र बनाते हैं। इसे युग भी कहते हैं। __उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी- दोनों ही चक्राों को छह भागों में विभक्त करके पूरे कालचक्र को १२ विभागों में विभाजित किया गया है। उत्सर्पिणी काल क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ता है, अतः दुखमा-दुखमा, दुखमा, दुखमा ५. पंचास्तिकाय २४ ६. न.च.वृत्ति १३५ ७. त.रा.वा. १.८.२०.४३ ८. ठाणांग २.७४ २०६ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखमा, सुखमा-दुखमा, सुखमा, सुखमा-सुखमा ये छह चक्रार होते हैं। अवसर्पिणी काल ठीक इसके विपरीत चलता है; इसलिए इसमें चक्रारों का क्रम विपरीत हो जाता है-सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा और दुःखमा-दुःखमा। वर्तमान में अवसर्पिणी का पाँचवाँ भाग चल रहा है, इसमें उत्तरोत्तर नैतिक तथा आध्यात्मिक शान्ति की हानि होती जा रही है। काल के ज्ञान की आवश्यकता :___ काल हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। हम मृत्यु को भी काल कहते हैं,१० जो वास्तव में व्यावहारिक काल है। प्रत्येक पदार्थ काल के आश्रित है। परिवर्तन या क्रिया जो कुछ भी होती है और जिसके कारण सृष्टि का सौंदर्य और संतुलन है, वह सारा काल का ही उपकार है। दैनिक, मासिक, वार्षिक नित्य, नैमित्तिक, व्यवहारिक और चारित्रिक क्रियाओं में हमें काल की उपयोगिता स्पष्ट प्रतीत होती है। अन्य दर्शनों में काल का विवेचन : भारतीय दर्शनों में कालद्रव्य विषयक विवेचन किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है चाहे वह द्रव्य के रूप में हो या परिणाम के रूप में। आधुनिक विज्ञान ने भी दर्शनों के समकक्ष काल का विचार किया है। वैशेषिक दर्शन में काल :___ वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं, जिसमें काल भी एक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। वैशेषिक काल को आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं१२ तथा प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते । काल को ये भी सभी उत्पन्न पदार्थों के निमित्त कारण के रूप में स्वीकार करते हैं । १३ ९. ठाणांग ६.२३.२४ १०. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. २९१ ११. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७ १२. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७-८८ १३. प्रशस्तपाद कृत पदार्थ धर्मसंग्रह पृ. २५ २०७ For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति में होने वाला मृत परिवर्तन जैसे वस्तु की उत्पत्ति, विनाश स्थिरता के लिये भी काल का होना अनिवार्य है । यह वह शक्ति है जो अनित्य पदार्थों में परिवर्तन लाती है। यह समस्त गति की आवश्यक अवस्था है। काल स्वतन्त्र यथार्थ सत्तात्मक पदार्थ माना गया है जो समस्त विश्व में व्यापक है और वस्तुओं की गति को व्यवस्थित बनाता है। भिन्न-भिन्न समय में होने के संबन्धों और शीघ्र अथवा विलम्ब के भावों का आधार काल ही है। काल एक ही है जो विस्तार में सर्वत्र उपस्थित है। यह काल एक नित्य द्रव्य है और समस्त वस्तुओं का आधार है।१६ __ वैशेषिक के कालसिद्धान्त की अपेक्षा जैनदर्शन के कालसिद्धान्त में भिन्नता है। जैनदर्शन काल को एक और सर्वव्यापी न मानते हुए असंख्यात और अणुरूप मानते हैं। काल में भी अनेकान्तवाद सिद्धान्त निश्यचनय की दृष्टि से एक है एवं व्यवहारनय की दृष्टि से कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं । १८ सांख्य और काल: सांख्य में तो मात्र दो तत्त्वों की ही स्वीकृति है। वे तो इसके अतिरिक्त तीसरा द्रव्य मानते ही नहीं हैं। काल इनमें स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। फिर भी, प्राच्य सांख्य या ब्रह्मपरिणामवादी (अद्वैतवादी) दर्शन के सिद्धान्त के रूप में चरक संहिता में काल को 'परिणाम के रूप में व्याख्यात किया गया है- कालः पुनः परिणामः (चरक संहिता)। . विमर्श:- इस प्रकार, हम देखते हैं कि कोई भी क्रिया काल के अभाव में सिद्ध नहीं की जा सकती। प्रत्येक दर्शन काल को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकृति दे या नहीं दे, परन्तु व्यवहार के माध्यम से तो उसे स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि नया, पुराना, बच्चा, जवान आदि समस्त काल के ही उदाहरण हैं। काल की यह १४. वैशेषिक सूत्र २.२.६ १५. वैशेषिक सूत्र २.२.६ १६. अतीतादिव्यवहारहेतु- तर्कसंग्रह १५ . १७. द्रव्य संग्रह २२ १८. लघु द्रव्य संग्रह १२ १९. सांख्य तत्त्व कौमुदी ३३ पृ. २०९ २०८ For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता है कि परिणामी होने पर भी दूसरे द्रव्य रूप में स्वय परिणत नहीं होता और न दूसरे द्रव्यों का अपने स्वरूप अथवा भिन्न द्रव्य स्वरूप में परिणमन लाता है; परन्तु अपने स्वभाव से ही अपने-अपने योग्य परिणामों से परिणत होने वाले द्रव्यों के परिणमन में यह कालद्रव्य उदासीनता पूर्वक स्वयं बाह्य सहकारी निमित्त बन जाता है । इस प्रकार काल के आश्रय से प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने पर्यायों से परिणत होता है । " आधुनिक विज्ञान ने भी परिणमन में उदासीन सहयोगी काल के इस तथ्य को मान्यता दे दी है। आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि देश और काल भी घटनाओं में भाग लेते हैं । १ प्रसिद्ध वैज्ञानिक जिन्स का कथन है कि हमारे दृश्य जगत् की सारी क्रियाएं मात्र फोटोन और द्रव्य अथवा भूत की क्रियाएँ हैं तथा इन क्रियाओं का एक मात्र मंच देश और काल है । इसी देश और काल ने दीवार बनकर हमें घेर रखा है। २२ आज के विज्ञानयुग में समय की सूक्ष्मता आश्चर्यजनक नहीं लगती। इसका . व्यावहारिक उदाहरण टेलीफोन द्वारा भी समझा जा सकता है । कल्पना करें, दो हजार किलोमीटर दूर बैठे हुए किसी व्यक्ति से हम टेलीफोन पर बात कर रहे हैं । हमारी ध्वनि विद्युत् तंरगों में परिणत होकर तार के सहारे चल कर दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँढ़ती है और उसकी ध्वनि हम तक। इसमें जो समय लगा वह इतना कम है कि हमें उसका अनुभव नहीं हो रहा है और ऐसा लगता है मानों कुछ भी समय नहीं लगा हो और हम उस व्यक्ति के सामने बैठकर ही बात कर रहे हों । चार हजार मी तर को पार करने में तरंग को लगा समय भले ही आपको प्रतीत न हो रहा हो फिर भी समय तो लगता ही है। कारण कि वह तरंग तत्क्षण ही वहाँ नहीं पहुँचती है, अपितु एक-एक मीटर और मिलीमीटर को क्रमशः पारकर के आगे बढ़ती हुई वहाँ पहुँची है। अब हम अनुमान लगायें कि उस तरंग को टेलीफोन के तार के एक मीटर या मिलीमीटर को पार करने में कितना समय लगा होगा ? हम संपूर्णत: : अनुमान लगा सकें या नहीं, परन्तु तरंग को एक मिलीमीटर तार पार २०. गोम्मटसार जीवकाण्ड २६९-७० २१. स्वाध्याय शिक्षा अगस्त १९८९ पृ. ५५ २२. स्वाध्याय शिक्षा - अगस्त १९८९ पृ. ५५ २०९ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में समय तो लगता ही है। जैनदर्शन में वर्णित समय इससे भी असंख्यात गुणा अधिक सूक्ष्म है। इस प्रकार काल संबन्धी चर्चा के निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि जैनदर्शनिकों में काल के संबन्ध में दो मत प्रचलित हैं-एक मत काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाला है और दूसरा काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानने वाला, फिर भी ये दोनों विरोधी नहीं हैं। भगवतीसूत्र,२३ उत्तराध्ययनसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र२५ आदि में काल संबन्धी ये दोनों मान्यताएं स्वीकृत हैं। आचार्य उमास्वाति,२६ जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरि२८ आदि ने भी दोनों ही मत स्वीकार किये हैं। . उपरोक्त दोनों मत परस्पर अविरोधी हैं; क्योंकि सापेक्ष हैं । निश्चय नय से उसे जीव और अजीव की पर्याय मात्र मानने से ही सभी व्यवहार संपन्न हो सकते हैं। व्यवहार दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र और पृथक् द्रव्य माना जा सकता है। पुगलस्तिकाय :____ अब हम चौथे अध्याय के अंतिम शीर्षक पुद्गलास्तिकाय में पुद्गल क्या है और उसका स्वरूप क्या है? इसका विस्तृत विवेचन करने का प्रयास करेंगे। __षद्रव्यों में से एक पुद्गल ही ऐसा है जो रूपी या मूर्त है । संसारभ्रमण का मुख्य कारण शुद्धस्वरूपी आत्मा की पुद्गल से संगति होना है चाहे वह संगति कर्मबन्ध के रूप में हो या शरीर और आत्मा के एकक्षेत्रावगाह के रूप में हो। संसारभ्रमण से मुक्त होने पर इन दोनों संगतियों का उच्छेद हो जाता है। - इस लोक में मुख्य दो ही पदार्थ हैं जिनके द्वारा यह सृष्टि निर्मित है-जीव और पद्गल । अवशिष्ट चारों द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल सहयोगमात्र देने वाले उदासीन उपकारक होते हैं। २३. भगवती २५.४.७३४ २४. उत्तराध्ययन २८.७.८ २५. प्रज्ञापना १.३ २६. तत्त्वार्थसूत्र ५.३८,३९ पर सिद्धसेन की भाष्य व्याख्या २७. विशेषावश्यकभाष्य ९२६ एवं २०६८ २८. धर्मसंग्रहणी गाथा ३२ की मलयगिरि टीका २१० For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पुद्गल" यह जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। 'पुद्गल' एक विचित्र सा शब्द अवश्य लगता है, किन्तु यह केवल जैनदर्शन में ही नहीं अन्य दर्शनों में भी प्रयुक्त हुआ है। जैन दर्शन का पुद्गल आधुनिक विज्ञान के 'मैटर' के समकक्ष है। विज्ञान ने पुद्गल को ‘मेटर' कहकर ऊर्जा का मूल स्त्रोत स्वीकार किया है। __ पृथ्वी, अग्नि, वायु, कीड़े, मकोड़े आदि जो इन्द्रियगम्य है वह पुद्गल है। यद्यपि पुद्गल के अनेकों भेद हैं पर जैनदर्शन ने उसे षट्काय में विभक्त कर दिया है। यों तो षट्काय जीव के भेद हैं, पर इनका विभाजन काय या इन्द्रिय की अपेक्षा होता है और काय तथा इन्द्रियाँ पुद्गल हैं। जब तक इनके साथ जीव है तब तक जीवों के शरीर कहलाते हैं और जीव का वियोग होते ही ये पुद्गल कहलाते हैं। अनन्तकाल से जीव और पुद्गल क्षीर-नीर की तरह एकसाथ रहने पर भी 'पुद्गल' जीवरूप में परिणत नहीं हुआ और 'जीव' पुद्गल के रूप में परिणत नहीं हुआ। पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षण:- . 'पुद्गल' शब्द व्युत्पत्तिलभ्य पारिभाषिकशब्द है। जिस प्रकार से 'भा (संस्कृत-भास्)' को करने वाला 'भास्कर' कहलाता है, उसी तरह जो भेदसंघात से पूरण और गलन को प्राप्त हो वह पुद्गल है। यह शब्द पृषोदरादिगण से निष्पन्न होता है। परमाणुओं में भी शक्ति की अपेक्षा गलन और पूरण है तथा प्रतिक्षण अगुरुलघुगुण कृत गुणपरिणमन, गुणवृद्धि और गुणहानि होती रहती है। अतः उनमें भी पूरण और गलन व्यवहार मानने में कोई आपत्ति नहीं है। अथवा यह निर्वचन भी हो सकता है कि जिसे 'जीव' शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरण आदि के रूप में निगलें/ग्रहण करें, वह पुद्गल है। परमाणु भी स्कन्ध दशा में जीबों द्वारा ही निगले जाते हैं। यह “पुद्गल' शब्द दो आख्यातज शब्दों के मेल से व्युत्पन्न होता है- 'पूरणात् पुत् गलयतीति गलपूरण-गलानान्वर्थ संज्ञत्वात् पुद्गलाः, अर्थात् पूरण स्वभाव वाला होने से से 'पुत्', और गलन स्वभाव से 'गल', इन दो अवयवों के मेल से 'पुद्गल' शब्द बनता है । पूरण और गलन को प्राप्त होने से पुद्गल का व्युत्पत्तिपरक अर्थ घटित होता है; पुद्गल अर्थात् २९. भगवती ८.१०.३६१ ३०. त.रा.वा. ५.१२४-२६, ४३४ २११ For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुड़ना, टूटना और पुनः जुड़ना। “गलनपूरणस्वभावसनाथ: पुद्गलः, अर्थात् जो गलनपूरण स्वभाव सहित है (जो पृथक् होने और एकत्रित होने के स्वभाव वाला है) वह पुद्गल है। ____पुद्गल शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से इससे तीन बातें स्पष्ट होती हैं:- . १. पुद्गल गलन और पूरण स्वभाव वाला होता है। २. भेद और संघात के अनुसार जिसमें पूरण-गलन क्रियाएँ अन्तर्भूत होती हैं। ३. जीव जिन्हें शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरणादि के रूप में निगलता है या ग्रहण करता है वे पुद्गल हैं। जैनदर्शन में छहद्रव्यों की प्ररूणता है। उन षड्द्रव्यों में पाँच द्रव्य तो अरूपी और अमूर्त हैं, परन्तु पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो मूर्तिक/रूपी है। यह पुद्गल पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है ।२३ पुगल के भेद :- पुद्गल दो प्रकार के होते हैं- परमाणु पुद्गल और नो परमाणु पुद्गल अर्थात् . स्कन्ध। परमाणु के लक्षण: स्कन्ध का अन्तिम अविभागी भाग एक, शाश्वत, मूर्तरूप से उत्पन्न होने वाला और अशब्द है।३५ भगवतीसूत्र में भी परमाणु की व्याख्या इसी प्रकार से बतायी गयी है- एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श वाला परमाणु पुद्गल कहा गया है। एक वर्ण वाला या तो लाल, पीला, काला, नीला या सफेद होगा। एक गन्ध में या ३१. नियमसार वृत्ति ९ एवं बृहद्र्व्य संग्रह वनि १५ ३२. रूपिणः पुद्गलाः - त.सू. ५.४ ३३. ठाणांग ५.१७४ ३४. ठाणांग २.२२८ ३५. पंचास्तिकाय ७७ २१२ For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो सुगन्ध होती है या दुर्गन्ध । यदि एक रस हो तो या तो तीखा या कड़वा या कसैला या खट्टा या मीठा । दो स्पर्श में शीत-स्निग्ध या शीत-रुक्ष या उष्णस्निग्ध या उष्ण-रुक्ष होगा, (अर्थात् स्पर्श दो होंगे और वे विरोधी होंगे।) ___ महावीर ने हजारों वर्षों पूर्व ही परमाणु के संबन्ध में तलस्पर्शी समाधान दे दिये थे। आज वैज्ञानिक अणु के अन्वेषण करने में जुटे हुए हैं, किन्तु अणु के संबन्ध में जिस सूक्ष्मता से महावीर ने विवेचन किया, आज के वैज्ञानिक वहाँ तक नहीं पहुँच पाये हैं। आज के वैज्ञानिक जिसे अणु कहते हैं, महावीर उसे स्कन्ध कहते हैं। महावीर की दृष्टि में परमाणु इन्द्रियातीत है। वह स्कन्ध से भिन्न निरंश तत्त्व है । परमाणु पुद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य एवं अदाह्य है। ऐसा कोई उपचार या उपाधि नहीं, जिससे उसका उपचार किया जा सके।३७ परमाणु का वही आदि, वही मध्य और वही अन्त है।८ कहा भी है"अंतादि अन्तमज्झं, अंतंतं व इंदिए गेज्झं। जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं विजाणीहि ।”३९ . . ये परमाणु इन्द्रिग्राह्य नहीं होते। परमाणु मात्र ‘कारण' ही नहीं, कार्य भी है, क्योंकि वह स्कन्धों के भेद पूर्वक उत्पन्न होता है। परमाणु में स्नेह आदि गुण उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं । अतः कथंचित् वह अनित्य भी है । भगवतीसूत्र में गौतमस्वामी ने प्रश्न किया-क्या यह एक प्रदेशी परमाणु कांपता है? तब भगवान् . महावीर ने स्याद्वाद नय से इसका समाधान दिया-वह कांपता भी है और नहीं भी।४० जब गौतमस्वामी ने अगला प्रश्न पूछा-क्या परमाणु तलवार की धार या उस्तरे कीधार पर अवगाहन करके रह सकता है? भगवान् ने कहा- वह अवगाहन करके रह सकता है। २६. भगवती २०.५.? ३७. भगवती ५.७.३ (२) ३८. भगवती ५.७.१० (१) एवं त.सू. ५.२५ ३९. त.रा.वा. ४.५.२५ पृष्ठ ४९१ से उद्धृत । ४०. भगवती ५.७.३ (११) ४१. भगवती ५.७.३. (१) २१३ For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __अब हमें यह जिज्ञासा हो सकती है कि उपरोक्त लक्षणों से युक्त परमाण पुद्गल कितने समय तक रहता है। भगवान् महावीर ने कहा है कि परमाणुपुद्गल जघन्य एकसमय तक और उत्कृष्ट असंख्य काल तक रह सकता है।४२ . अगर वास्तव में देखा जाय तो मूल पदार्थ तो परमाणु ही है। यह परमाणु स्वतन्त्र है । यह न तो तोड़ा जा सकता है, न देखा जा सकता है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई नहीं है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि परमाणु निराकार हैं क्योंकि निराकार तो साकार के गुणों को धारण नहीं कर सकला। आकारवान् पदार्थ ही आकारवान् के गुणों को धारण करते हैं और गुणों के समुह को धारण करने के कारण ही द्रव्य माना जाता है। अब अगर यह प्रश्न हो कि वह आकार कैसा है, तो इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि वह परमाणु स्वयं ही अपना आकार है। यही उसकी लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई है। ___परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं; यद्यपि वे इन्द्रियों से जाने जा सकते हैं, परन्तु देखे नहीं जा सकते । वे मूर्तिक है, क्योंकि मूर्तिक का इन्द्रियों के माध्यम से देखा जाना मूर्तिक का लक्षण है। वैसे यह समझाने के लिये लक्षण किया गया है, वास्तविक नही। परमाणु का स्वभाव चतुष्टयः परमाणु चार प्रकार के होते हैं- द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु और भाव परमाणु। द्रव्य परमाणु चार प्रकार का होता है- उच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य । क्षेत्र परमाणु भी चार प्रकार का होता है- अनादि, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य । काल परमाणु भी चार प्रकार का होता है- अवर्ण, अगन्ध अरस और अस्पर्श । भाव परमाणु भी चार प्रकार का होता है- वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान्, स्पर्शवान् । ४२. भगवती ५.७.१४ (१) ४३. भगवती २०.५१६-१९ २१४ For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल के लक्षण: तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने पुद्गल का लक्षण स्पर्श रस, गन्ध और वर्ण युक्त किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में पुद्रल को पाँच लक्षणों से युक्त कहा गया है - वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान । ४५ वर्ण : गंध : रस : वर्ण पाँच प्रकार का होता है- काला, नीला, लाल, पीला, और सफेद । ४६ I गंध दो प्रकार की होती है । सुगंध और दुर्गंध ।४७ रस (स्वाद) पाँच प्रकार का होता है - तीखा, कड़वा, और मीठा । कसैला, खट्टा स्पर्श :- स्पर्श आठ प्रकार का होता है- कठोर, कोमल, हल्का, भारी ठंड़ा, गरम, चिकना और रूखा । ४९ संस्थान :- संस्थान (आकार) पाँच प्रकार का होता है । परिमण्डल संस्थान वृत्त (गोल) संस्थान, त्रयस्र संस्थान, समचतुरस्र (चौरस) संस्थान और आयत (लम्बा) संस्थान । ५० इन वर्ण, गंध, रस, स्पर्शं और संस्थान से युक्त ही पुद्गल हो सकता है। ऐसा नहीं कि एक भौतिक पदार्थ में वह गुण है, दूसरे में नहीं । वैशेषिक दर्शन की मान्यता ठीक इसके विपरीत है। वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं । इन नौ द्रव्यों के अपने-अपने गुण हैं । रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श गुण से युक्त जल रूप तथा उष्ण स्पर्श गुण से युक्त अग्नि और स्पर्शगुण से युक्त वायु है, १ परन्तु जैनदर्शन की यह मान्यता नहीं है । ४४. त.सू. ५.२३ एवं द्रव्य प्रकाश २.४ ४५. उत्तराध्ययन ३६.१५. ४६. उत्तराध्ययन ३६.१६ ४७. उत्तराध्ययन ३६.१७ ४८. उत्तराध्ययन ३६.१८ ४९. उत्तराध्ययन ३६.१९.२० ५०. उत्तराध्ययन ३६.२१ ५१. भारतीय दर्शन भाग २. डॉ. राधाकृष्णन् पृ. २०४ २१५ For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्क से भी इस बात की सिद्धि हो सकती है। प्रत्येक पदार्थ में चारों ही गुण पाये जाते हैं, चाहे वह पृथ्वी हो या जल । यदि ऐसा नहीं होता तो पृथ्वी को विज्ञान द्वारा जल बना दिये जाने पर उसमें से गंध गुण कहाँ जाता है ? और जल को पृथ्वी बनाने पर उसमें जल गुण कहाँ से आता है? क्योंकि यह तो निर्विवाद है कि किसी में किसी प्रकार का गुणोत्पाद नहीं किया जा सकता । अतः प्रत्येक पुद्गल स्कन्ध चारों गुण मानने ही होंगे । वास्तव में कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रहित हो । यह अलग बात है कि कोई गुण किसी में व्यक्त है किसी में अव्यक्त ।' यह विवेचन दो नय की अपेक्षा से चलता है । भगवतीसूत्र में गुड़ और भ्रमर के उदाहरण द्वारा यह विवेचन स्पष्ट किया गया है । व्यवहार दृष्टि से गुड़ मीठा है, परन्तु निश्चय नय की दृष्टि से गुड़ पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला होता है । भ्रमर काला है, तोते की पाँख हरी है, मजीठ लाल है, हल्दी पीली है, शंख सफेद है और पटवास (कपड़े में सुगन्ध देने वाली पत्ती) सुगन्धित है। मृतदेह दुर्गंध युक्त है, नीम कड़वा है, सौंठ तीखी है, कपित्थ कसैला है, इमली खट्टी है आदि । परन्तु ये सब व्यक्त गुण हैं और व्यवहार दृष्टि से है, परन्तु निश्चय दृष्टि से तो पाँचों वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श सब में होते ही हैं । ५२ पुद्गल के भेद .... पुद्गल के चार भेद होते हैं। या इसे यों भी कह सकते हैं कि पुगल के भेदसंघात की क्रिया चार प्रकार से होती है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश और परमाणु । ५३ १. स्कन्धः - अनेक परमाणुओं के पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं । २. स्कन्धदेश :- स्कन्ध के किसी कल्पित भाग को स्कन्धदेश कहते हैं । ३. प्रदेशः- स्कन्ध के निरंश अंश (अविभाज्य अंश) को प्रदेश कहते हैं । ४. परमाणुः - स्कन्ध से पृथक् हुए निरंश भाग को परमाण कहते हैं । ५४ ५२. भगवती १८.६.१.५ ५३. उत्तराध्ययन ३६.१० एवं पंचास्तिकाय ७४ ५४. पंचास्तिकाय ७५ २१६ For Personal & Private Use Only + Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन/चार भेदों में मुख्य भेद तो स्कन्ध और परमाणु ही हैं।५५ इन स्कन्ध और परमाणु की उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है- भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से ।५६ भेदः- अंतरंग और बहिरंग इन दोनों प्रकार के निमित्तों से संहत स्कन्धों के विदारण को भेद कहते हैं। संघात:- भिन्न हुए पदार्थों के बंध होकर एक हो जाने को संघात कहते हैं। भेद-संघात:- दो परमाणुओं के स्कंध से दो प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले स्कंध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनंतानंत अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशोंवाले स्कंध उत्पन्न होते रहते हैं। इन्हीं संख्यात आदि परमाणु वाले स्कंधों के भेद से दो प्रदेशवाले स्कंध तक होते हैं। इस प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेशवाले आदि स्कंध होते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कंध से भेद होता है और अन्य का संघात तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से स्कंध की उत्पत्ति होती है।५७ अणु या परमाणु की उत्पत्ति तो विभाजन से ही या भेद से ही होती है। जो चाक्षुष हैं वे भद-संघात से उत्पन्न होते हैं और जो अचाक्षुष हैं वे संघात से, भेद से और भेद-संघात, तीनों से उत्पन्न होते हैं। चाक्षुष का अर्थ है-चक्षुरिन्द्रिय का विषय। पुद्गल के सूक्ष्म और बादर भाव:.. पुद्गल के सूक्ष्म और बादर की अपेक्षा दो भेद होते हैं। साधारणतः बड़ा कहते हैं स्थूल को तथा सूक्ष्म कहते हैं छोटे को, परन्तु यह सामान्य अवस्था के ५५. त.सू. ५.२५ एवं भगवती २.१०.११ ५६. त.सू. ५.२६ ५७. स.सि. ५.२६ ५७६ 4८. त.सू. 4.२७ . त.सू. ५.२८ . ठाणांग २.२२९ २१७ For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ हैं, अन्यथा कई बार ऐसा होता है कि बड़ा पदार्थ सूक्ष्म हो सकता है और छोटा स्थूल, जैसे खसखस (पोस्ता) का दाना छोटा है और जल की बूंद बड़ी, परन्तु पानी वस्त्र से पार हो जाता है और दाना नहीं । वायु शीशे में से पार नहीं होती पर प्रकाश पार हो सकता है। अतः एक दूसरे में से पार करने की शक्ति को ध्यान में रखकर सूक्ष्म और स्थूल का विश्लेषण करना चाहिये। जो पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को न रोक सके, न किसी से स्वयं रुके अथवा एक-दूसरे में समाकर रह सके या एक दूसरे से पार हो जाय उसे सूक्ष्म कहते हैं तथा जो पदार्थ दूसरे को रोके अथवा दूसरे से रुक जाये और एक-दूसरे में न समा सके, वह स्थूल कहलाता है। इसमें भी तारतम्य होता है। कोई पदार्थ पूर्णतः सूक्ष्म है तो कोई कम स्थूल है। जो किसी से भी किसी प्रकार न रुके, वह पूर्ण सूक्ष्म है । जो हर पदार्थ से रुके वह पूर्ण स्थूल है। अंग्रेजी भाषा में सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान लगाने के लिए इन्हें तीन विभागों में विभाजित किया है, जैसे Positive degree, Comparative degree and Superlative degree.६१ . पुगल के पर्याय (अवस्थान्तर) :____ शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया एवं आतप ये सभी पुद्गल की पर्याय हैं।६२ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार शब्द, बंध, सूक्ष्म, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, तप एवं प्रकाश ये पुद्गल की पर्याय हैं।६३ द्रव्य का परिणमन पर्याय है। इन उपरोक्त पर्यायों में पुद्गल परिणत होता है। शब्दः 'शब्द' का प्रयोग 'ध्वनि' अर्थ में हुआ है। शब्द दो प्रकार के होते हैं(क) भाषात्मक (ख) अभाषात्मक। भाषात्मक शब्द अर्थों को संकेतित करता है, वह दो प्रकार का है- अक्षरकृत और अनक्षर। ६१. जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान ले. जिनेन्द्रवर्णी पृ. १५५ ६२. द्रव्य प्रकाश २०१० एवं उत्तराध्ययन २८.१२ ६३. त.सू. ५.२४ २१८ For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षरकृत शब्द :- अक्षरकृत शब्दों से वाग्यव्यवहार होता है और म्चेल्छ आदि जाति के मनुष्यों और देवों मध्य व्यवहार का साधनभूत शब्द ही है, इसी के माध्यम से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है। अनक्षर शब्द:- अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रिय आदि के जीवों के होते हैं। जड़ पदार्थों में संघर्ष के कारण उत्पन्न होने वाली ध्वनि को अभाषात्मक शब्द कहते हैं। इसके के भी दो भेद हैं-- १. प्रायोगिक और २. स्वाभाविक (वैनसासिक)। प्रायोगिक :- प्रायोगिक शब्द निम्नलिखित चार प्रकार का होता हैततः- पुष्कर, भेरी, तबला, ढोलक आदि में चमड़े के तनाव के शब्द जो होते हैं वे तत हैं। वितत :- वीणा, सुघोष, आदि से जो शब्द होता है वह वितत है। .. घन:- ताल, घंटा आदि से जो शब्द होता है वह घन है। सौषिर :- बांसुरी, शंख आदि से निकलने वाला शब्द सौषिर है।६४ स्वाभविक:- मेघ आदि के निमित्त से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे स्वाभाविक . या वैनसिक हैं।६५ . जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिसने शब्दादिको पुद्गल की पर्याय के रूप में स्वीकार किया है । वैशेषिक आदि शब्द को आकाश का नित्य गुण मानते हैं, परन्तु जैन शब्द को पुद्गल की पर्याय विशेष मानकर उसे नित्यानित्य मानते हैं। शब्द पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से नित्य और श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा सुनने योग्य पर्याय सामान्य की दृष्टि से कालान्तर स्थायी है और प्रतिक्षण की पर्याय की अपेक्षा क्षणिक है।६६ ... जैनदर्शन की शब्द विषयक मान्यता को पुष्ट करते हुए प्रो. ए. चक्रवर्ती ने लिखा है६४. त.रा.वा. ५.२४.२/४८५ एवं ठाणांग २.२१२-२१७ ६५. त.रा.वा. ५.२४ ५७२ ६६. त.रा.वा. ५.२४.५८८७ २१९ For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "The Jain account of sound is a Physical concept. All other Indian Systems spoke of sound as a quality of space. But explains in relation with material particles as absolute of concision of atmospheric molecules. To prove this the jain thinkers employed arguments which are now generally found in text book of physics." अन्य सब भारतीय विचारधाराएँ शब्द को आकाश का गुण मानती हैं, जबकि जैनदर्शन उसे पुद्गल मानता है। जैनदर्शन की इस विलक्षण मान्यता को विज्ञान ने प्रमाणित कर दिया । ध्वनि के विविध उपयोग: आज के युग में ध्वनि के उपयोग होने लग गये हैं । उच्च श्रवणोत्तर ध्वनि (Ultrasonic Sound) का उपयोग घड़ी की बिना खोले उसके कल पुर्जे साफ करने में किया जाता है। धातु के बने पुर्जे के दांते काटने तथा जोड़ने (वेल्डिंग) में भी इसका उपयोग होता है । चिकित्सालय में इसका विशेष उपयोग होता है, क्योंकि वस्त्र व औजार साफ होने के साथ-साथ इससे जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। कपड़े धोने में भी इसका उपयोग हो सकता है। धोने योग्य वस्त्रों को जल में डालकर जल में श्रवणोत्तर ध्वनि प्रवेश कराई जाती है। उस बुलबुलाहट से रासायिनक परिवर्तन द्वारा हाइड्रोजन पर आक्साइट पैदा हो जाता है जो उसके मैले रंग को साफ कर देता है । चिकित्सा क्षेत्र में इसके और भी महत्त्वपूर्ण उपयोग हैं। शरीर के अन्तः अंगों के चित्र लेने के लिए Ulterasonic Sound Sonography की जाती है; पथरी के रोगी को एक टेबल पर सुलाकर पथरी की ओर Ulterasonic Sound निश्चित मात्रा में केन्द्रित की जाती है, उस ध्वनि से मांस में तो कोई परिवर्तन नहीं होता किन्तु पथरी टूट-टूट कर चूर्णीभूत हो जाती है जो रोगी के मूत्र के माध्यम से बाहर आ जाती है । मोतियाबिंद का इलाज भी इससे संभव है। धातु की बनी एक बारीक नली की नोंक से ध्वनि आँख में लेंस जिसे मोतिया बिंद कहते हैं उस पर केन्द्रित की जाती है, उससे मोतियाबिंद तरल पदार्थ में रूपांतरित हो जाता है और तरल पदार्थ को नली के खोखले मार्ग से बाहर खींच लिया जाता है । अपराधियों को पकड़ने में ध्वनि कैसरा पर्याप्त सहयोगी बनता है । ध्वनि कैमरे में ध्वनि का चित्रांकन किया जाता है । अंगुलियों की छाप की तरह ध्वनि २२० For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाप भी प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न होती है । जैसे अंगुलियों की छाप अपराधियों को पकड़ने में सहायक बनती है वैसे ही यह ध्वनि की छाप भी उपयोगी बनती है I इसी प्रकार इलेक्ट्रोनिक संगीत में भी विशिष्ट उपयोग है। इलेक्ट्रोनिक संगीत यंत्र में एक ऐसा छान यंत्र होता है जो ध्वनि की अनावश्यक तीव्रता उतार चढाव आदि को छान कर अलग कर देता है। इस यंत्र में संश्लेषक (सिंथेसाइजर) का भी प्रयोग होता है । इसके द्वारा प्राकृतिक ध्वनियों को कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है । इस प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि शब्द पुगल है । शब्द की गति के विषय में पन्नवणा में विचार किया गया है “हे गौतम ! जो भाषा भिन्न रूप में निःसृत या प्रसारित होती है, वह अनंतगुणी वृद्धि को प्राप्त होती हुई लोक के अंतिम भाग को स्पर्श करती है अर्थात् व्याप्त होकर संसार के पार (लोकाकाश के छोर) तक पहुँच जाती है और जो भाषा अभिन्न रूप में निःसृत होती है, वह संख्यात योजन तक जाकर नाश को प्राप्त होती है तथा असंख्यात योजन जाकर भेद को प्राप्त होती है । १६७ इससे यह स्पष्ट होता है कि भाषा के दो रूप हैं- एक अभिन्नरूप और दूसरा भिन्नरूप । अभिन्नरूप भाषा के मूल रूप का द्योतक है, तथा भिन्नरूप भाषा मूल में परिवर्तित होकर रूपान्तरित होने का सूचक है । शब्दोत्पत्ति के कारण: दो कारणों से शब्द की उत्पत्ति होती है। पहला कारण है- जब पुगल संहति को प्राप्त हो जब, जैसे घड़ी का शब्द एवं दूसरा कारण है- जब पुगल भेद को प्राप्त हो तब, जैसे बांस के फटने का शब्द । १८ बन्ध: - पुद्रल का दूसरा अवस्थान्तर है बन्ध । जो बंधे या जिसके द्वारा बांधा जाय वह बन्ध है ।" बन्ध के दो भेद हैं: - प्रायोगिक एवं स्वाभाविक 1 ६७. पन्नवणा ११.४१ ६८. . ठाणांग २.२२० ६९. त. रा. वा. ५.२४.१.४८५ २२१ For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोगिक:- प्रायोगिक बन्ध वह है जो प्रयोगजन्य हो; जिनमें मन-वचनकाय का पुरुषार्थ हो । यह प्रायोगिक बन्ध भी दो प्रकार का है- अजीव-विषयक बन्ध, और जीवाजीवविषयक बन्ध । अजीवविषयक बन्धः- अजीव पदार्थों में होने वाला पारस्परिक बन्ध अजीव विषयक है, जैसे-लाख और काठ आदि का बन्ध । जीवाजीवविषयक बन्धः- पुद्गल और जीव का एक क्षेत्रावगाही बन्ध जीवाजीवविषयक बन्ध है। यह दो प्रकार का है- कर्मरूप परिणत पद्लाणुओं का जीवप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाही बन्ध कर्मबन्ध के नाम से जाना जाता है, और फर्मफल के परिणामस्वरूप औदारिक आदि शरीरों के साथ जीव का एकक्षेत्रावगाही बन्ध नोकर्मबन्ध के नाम से जाना जाता है।७० स्वाभाविक बन्धः- यह भी दो प्रकार का होता है- आदिमान् और अनादिमान् । आदिमान् बन्धः- स्निग्ध रुक्ष गुणों के निमित्त से बिजली, उल्का, जलधारा इन्दधनुष आदि रूप पुद्गल बंध आदिमान है। अनादिमान बन्धः- यह नौ प्रकार का है- धर्मास्तिकाय बन्ध, धर्मास्तिकाय देशबन्ध, धर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, अधर्मास्तिकाय बन्ध, अधर्मास्तिकाय देशबन्ध, अधर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, आकाशस्तिकाय बन्ध, आकाशस्तिकाय देशबन्ध, और आकाशस्तिकाय प्रदेशबन्ध। . बन्ध की प्रक्रिया: - तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने बंध को भी पुद्गल पर्याय बताया और साथ ही बंध की प्रक्रिया को भी स्पष्ट किया । बंध क्यों और कैसे होता है? उमास्वाति ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि स्निग्ध (स्नेह) और रूक्षता के कारण की बंध होता ... आचार्य अकलंक ने स्निग्धता और रूक्षता को समझाते हुए स्पष्ट किया है कि बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से स्नेह पर्याय की प्रकटता से जो चिकनापन है, ७०. त.रा.वा. ५.२४.९.४८७ ७१. त.रा.वा. ५.२४.७.४८७ ७२. त.सू. ५.३३ २२२ For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह स्नेह है उसके विपरीत रूक्षता है। दो स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं में बन्ध होने पर द्वयणुक स्कन्ध होता है । स्नेह और रूक्ष इन दोनों के अनन्त भेद हैं । अविभाग परिच्छेद एक गुणवाला स्नेह सर्वजघन्य प्रथम भेद है। इसी तरह दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण भेद से स्नेह-रूक्ष के अनन्त विकल्प हैं। जैसे जल से बकरी के दूध/घी में, बकरी के दूध से गाय के दूध और घी में अधिक स्निग्धता है । उसी तरह क्रमशः धूल से प्रकृष्ट रूखापन तुषखंड में और उससे भी प्रकृष्ट रूक्षता रेत में पायी जाती है। इसी तरह परमाणुओं में भी स्निग्धता और रूक्षता के प्रकर्ष और अपकर्ष का अनुमान होता है।७२ परन्तु सर्वजघन्य गुणवाले (अविभागी और एकगुणवाला सर्वजघन्य कहलाता है।) परमाणुओं में बन्ध नहीं होता। समान अंश, समान गुण (दो, चार, छः और केवल स्निन्ध या केवल रूक्ष सदृश परमाणु) रहने पर भी बन्ध नहीं होता।७५ स्निग्धता या रूक्षता में दो अंश आदि अधिक हों तो सदृश परमाणुं मिलकर स्कन्ध बना सकते हैं। जैसे दो परमाणुओं का चार परमाणुओं के साथ बन्ध हो सकता है।६ बन्ध होने पर अधिक गुणवाला न्यूनगुणवाले का अपने रूप में परिणमन करवा लेता है। इसको अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से अकलंक ने कहा- 'तात्पर्य यह कि दो गुण स्निग्ध परमाणु को चारगुण रूक्ष परमाणु पारिणामिक होता है, बन्ध होने पर एक तीसरी ही विलक्षण अवस्था होकर एक स्कन्ध बन जाता है। अन्यथा सफेद और काले धागे के संयोग होने पर भी दोनों पहले जैसे रखे रहेंगे। जहाँ पारिणामिकता होती है वहाँ स्पर्श, रस गन्ध, वर्ण आदि में परिवर्तन हो जाता है। जैसे शुक्ल और पीत रंगों के मिलने पर हरे रंग के पत्र आदि उत्पन्न होते हैं।७८ ७३ त.रा.वा. ५.३३. १.५, ४९७-९८ ७४. त.सू. ५.३४ ७५. त.सू. ५.३५ ७६. त.सू. ५.३६ ७७. त.सू. ५.३७ ७८. तारा.वा. ५.३७.२.५०० २२३ For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में कुछ असमानता है। इसका कारण तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के सूत्र ३७ में पाठभेद है । दिगम्बर परम्परा में "बन्धेधिकौ पारिणामिकौ च " है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में "बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ" पाठ है । इसका तात्पर्य है, स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष भी पारिणामिक होता है, जबकि दिगम्बर मान्यता है कि चाहे सदृश हो या विसदृश, दो अधिक गुणवाले का ही बन्ध होता है, अन्य का नहीं । जैसे दो का चार के साथ और तीन का पाँच के साथ । ७९ सूक्ष्मता - स्थूलता : सूक्ष्मता का अर्थ है छोटापन। यह दो प्रकार की है- अत्यन्तसूक्ष्मता और आपेक्षिक सूक्ष्मता । अत्यन्त सूक्ष्मता परमाणु में पायी जाती है और आपेक्षिक सूक्ष्मता दो वस्तुओं की तुलना द्वारा ज्ञात होती है, जैसे आँवले की अपेक्षा बेर अधिक सूक्ष्म है । स्थूलता का तात्पर्य है बड़ापन । यह भी दो प्रकार की होती है- अत्यन्त स्थूलता और आपेक्षिक स्थूलता । अत्यन्त स्थूल है- अचित्त महास्कंध, और आपेक्षिक स्थूल है - बेर की अपेक्षा आंक्ला । " संस्थान : संस्थान (आकृति) पर्याय दो प्रकार से है- १ इत्थंलक्षण और २. अनित्थंलक्षण । इत्यंलक्षण जिसको परिभाषित किया जा सके, जैसे गोल, तिकोना, चौकोर, लम्बा, चोड़ा आदि । - अनित्थंलक्षण:- जिसको परिभाषित नहीं किया जा सके। जैसे बादल की आकृति आदि ।" भेदः - पुद्रल की छठी अवस्था है भेद । भेद का अर्थ है विभाजन | यह अवस्था स्कन्ध के टूटने से होती है । यह छः प्रकार की है - उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, ७९. त. रा. वा. ५.३६.२.४९९ ८०. त.रा.वा. ५.२४ १०-११ ४८८ एवं स. सि. ५.२४५७२ ८१. त. रा. वा. ५.२४१२-१३४८८-८९ २२४ For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतर और अणुचरण । उत्करः- करोंत से लकड़ी आदि को जो चीरा जाता है, वह उत्कर है। चूर्ण :- जौ, गेहूँ आदि का सत्तु कनक आदि जो बनाया जाता है, वह चूर्ण है । खण्डः- घट आदि के जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते हैं, वे खण्ड हैं । चूर्णिका:- उड़द, मूंग के जो खण्ड (दाल) किए जाते हैं, वे चूर्णिका हैं । प्रतर:- बादल के बिखर-बिखर कर अलग-अलग जो पटल बन जाते हैं, वे प्रतर कहलाते हैं अणुचटण:- तपाये हु लोहे के गोले आदि को घन आदि से पीटने पर जो स्फुलिंग निकलते हैं वे अणुचटण हैं । २ अधंकारः जैन सिद्धान्त में अन्धकार को भी पुद्गल की पर्याय माना गया है । न केवल माना गया है, अपितु तार्किक आधार पर उसे सिद्ध भी किया गया है । दृष्टि प्रतिबन्धकर्त्ता अन्धकार है। दीपक उस अन्धकार को हटाने वाला होने के कारण प्रकाशक होता है । ३ कुछ दार्शनिक अन्धकार को पुद्गल की पर्याय न मानकर प्रकाश का अभाव कहते हैं और उसके चार कारण बताते हैं: १. इसमें कठोर अवयव नहीं है । २. यह अप्रतिघाती है। ३. इसमें स्पर्श का अभाव है । ४. इसमें खंडित अवयवीरूप द्रव्यविभाग की प्रतीति नहीं होती । परन्तु जैनदर्शन इन तर्कों का खंडन करते हुए कहता है कि अन्धकार भी प्रकाश की तरह चक्षु का विषय है। प्रकाश के परमाणु ही अन्धकार की पर्याय में परिणत होते हैं । यह दृष्टि का विषय भी बनता है, जो दृष्टि का विषय बनता है वह ८२. सं. सि. ५.२४ ५७३ ८३. त. रा. वा. ५.२४. १५.४८९ २२५ For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शयुक्त भी होता है, अतः अन्धकार भी स्पर्शवान् है; और चूँकि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण में से किसी एक के रहने पर बाकी के तीन गुण उसमें अवश्य रहते हैं, यही पुगल का लक्षण भी है । अतः प्रकाश के ही समान अन्धकार भी पुद्गल की अवस्था है, प्रकाश और अंधकार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि दीपक के परमाणु अन्धकार पर्याय (विसदृश ) में कैसे परिणत हो सकते हैं? निम्नलिखित उदाहरण से इस प्रश्न का समाधान हो जायेगा । प्रकाशवान् अग्नि से गीले ईंधन के सहयोग से अप्रकाशवान् धुएँ की उत्पत्ति होती है। अतः यह नियम नहीं हो सकता कि सदृश से सदृश कार्य ही उत्पन्न होता है। अत: यह नियम नहीं हो सकता कि सदृश से सदृश कार्य ही उत्पन्न हो । अमुक साम्रगी मिलने पर विसदृश कार्य भी उत्पन्न होते हैं । ४ विज्ञान ने भी अन्धकार को प्रकाश की तरह स्वतन्त्र पदार्थ माना है। विज्ञान के अनुसार अन्धकार में भी अवरक्त ताप किरणों का सद्भाव है जिनमें बिल्ली और उल्लू की आँखें तथा कुछ विशिष्ट अचित्रीय" पट (Photographic Plates) प्रभावित होते हैं। इससे स्पष्ट है कि अन्धकार का अस्तित्व दृश्य प्रकाश (visible light) से पृथक् है । छाया : प्रकाश पर आवरण पड़ने पर छाया उत्पन्न होती है । ६ प्रकाश पथ में अपारदर्शक पदार्थों (Opeque bodies) का आ जाना आवरण कहलाता है । छाया अन्धकार की कोटि का ही एक रूप है । यह भी प्रकाश का अभाव न होकर पुद्गल की पर्याय है । छाया दो प्रकार की होती है । दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्यों में आदर्श के रंग आदि की तरह मुखादि का दिखना, तद्वर्णपरिणत छाया कहलाती है, तथा दूसरी प्रतिबिम्ब मात्र होती है । ८७ विश्व में प्रत्येक इन्द्रियगोचर होने वाले मूर्त्त पदार्थ से प्रतिपल तदाकार प्रतिच्छाया प्रतिबिंब के रूप में निकलती रहती है और वह पदार्थ के चारों ओर ८४. स्याद्वादमंजरी ५.१६.१८ ८५. हजारीमल स्मृति ग्रन्थ पृ. ३८५ ८६. स. सि. ५.२४.५७२ ८७. त. रा. वा. ५.२४१६, १७.४८९ २२६ For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 निरन्तर आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में जहाँ उसे अवरोध मिलता है, वहाँ ही वह दृश्यमान होती है । प्रतिच्छाया के रश्मिपथ में दर्पणों (Mirrors) और अणुवीक्षों (Lenses) का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण है । इसी प्रकार के आवरण से वास्तविक (Real) और अवास्तविक (Virtual) प्रतिबिंब बनते हैं । ऐसे प्रतिबिंब दो प्रकार के होते हैं। वर्णादिविकारपरिणत और प्रतिबिंबमात्रात्मक ।“ वर्णादिविकारपरिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिंब लिये जा सकते हैं, जो विपर्यस्त (inverted) हो जाते हैं और जिनका परिमाण (Size) बदल जाता है । ये प्रतिबिंब प्रकाश - रश्मियों के वास्तविक (Actual) मिलन से बनते हैं । प्रतिबिंबात्मक छाया के अन्तर्गत विज्ञान के अवास्तविक प्रतिबिंब (Virtual images) रखे जा सकते हैं जिनमें केवल प्रतिबिंब ही रहता है । प्रकाश - रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिंब नहीं बनते । ८९ 4 आधुनिक विज्ञान ने ऐसे इलेक्ट्रानिक तोलमापी यंत्र तैयार किये हैं जिनकी सूक्ष्ममापकता 'अक्लपनीय है, जिनमें १००० पृष्ठों के ग्रन्थों के अंत में बढ़ाये हुए एक फुलस्टाप, परछाई जैसी 'न कुछ' वजनी वस्तुओं के भार भी ज्ञात किये जा सकते हैं ।" विज्ञानलोक का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि परछाई पदार्थ है । और वह इतना भारवान् भी है कि उसे तौला जा सकता है। 1 प्रतिबिंब कभी-कभी मृग मरीचिकाओं के रूप में भी प्रकट होते हैं। गर्मी में दोपहर के समय रेगिस्तान जहाँ मीलों तक पानी का नामोनिशान नहीं होता, वहाँ पानी से भरे जलाशय दिखते हैं। मृग अपनी प्यास बुझाने जाता है, पर उसे वहाँ पानी नहीं मिलता । वह दूसरी जगह जाता है, जहाँ उसे पानी नजर आता है, पर वहाँ भी नहीं मिलता । इसे ही मृगमरीचिका कहते हैं। इस प्रकार के सभी दृश्य जो सचमुच कुछ नहीं होते, केवल दिखायी देते हैं, वे मृगमरीचिका के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं । 'मृगमरीचिका' वस्तुओं का अस्तित्व न होने पर भी दिखायी देना, एक वस्तु होने पर भी उसके अनेक प्रतिबिंब दिखना, वस्तुओं का अदृश्य होना आदि अनेक रूपों में स्पष्ट होती है । ८८. सु.सि. ५.२४५७२ ८९. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ पृ. ३८५ ९०. विज्ञान लोक दिसम्बर १९६४ पृ. ४२ २२७ For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीमांसाक की मान्यता- “दर्पण में छाया नहीं पड़ती, परन्तु नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापस लौटती हैं और अपने मुख को ही देखती हैं” उचित नहीं है । क्योंकि नेत्र की किरणें जैसे दर्पण से टकरा कर मुख को देखती हैं, उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुख को ही देखना चाहिये। इस प्रकार जब किरणें वापस आती हैं तो पूर्व दिशा की तरफ जो मुख है, वह पूर्वाभिमुख है दिखना चाहिये, पश्चिमाभिमुख नहीं । मुख की दिशा बदलने का कोई कारण नहीं है । ९९ आतपः जैनदर्शन में आप को भी पुद्गल की ही अवस्था कहा गया है । ९२ 'आतप ' शब्द 'तप् सन्तापे' धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है - ताप उष्ण किरणें । अर्थसंकोच सिद्धान्त के आधार पर मात्र सूर्य की धूप को 'आतप' कहा जाता है। जैनदर्शन में अग्नि को आतप नहीं माना गया है, जबकि धूप को आतप माना गया है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि वस्तु में रही हुई उष्णता वस्तु या द्रव्य का गुण है और उष्णता का वस्तु से अलग अस्तित्व वस्तु या द्रव्य की पर्याय है। आग रूप कोयला, लकड़ी आदि ईंधन की उष्णता कोयला आदि वस्तुओं का उष्ण गुण है, यह आतप नहीं है । आतप है आग की आंच जो आग्नेय पदार्थों से भिन्न होकर चारों ओर फैलती है और जिसका अनुभव आग से दूर बैठा व्यक्ति करता है । यद्यपि यह आग से निकली है, फिर भी इसका अस्तित्व आग से अलग है, जैसे सूर्य से निकली किरणों का सूर्य से अलग अस्तित्व है । ताप या धूप पर्याय हाने के कारण स्थानांतरित होती है । जिस प्रकार इलेक्ट्रोन तथा प्रोट्रोन एक दृष्टि से पदार्थ हैं और दूसरे दृष्टिकोण वैद्युतिक तरंगों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, उसी प्रकार प्रकाश विकिरण के संबन्ध में हम कह सकते हैं कि वह पदार्थ का तरंग रूप है और पदार्थ के संबन्ध में कह सकते हैं कि यह विकिरण का बर्फ की तरह जमा हुआ रूप है । १३ ९१. त. रा. वा. ५.२४ १७.४८९ ९२. त. रा. वा. ५.२४ १८.४८९ ९३. नवनीत दिसम्बर १९५५ पृ. ३२ २२८ For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में 'आतप' के लिये सूर्य की धूप को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । विज्ञान ने भी सूर्य की धूप को ही आधार मानकर खोज की है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध खगोल शास्त्री विलियम हर्शेल ने एक प्रयोग किया था । उसने सूर्य किरणों के एक पुँज को प्रिज्म द्वारा झुकाकार थर्मामीटर की सहायता से यह जाना कि वर्णक्रम में लाल रंग के नीचे थर्मामीटर रखा जाता है तो वह सबसे अधिक गर्म होता है। इससे यह परिणाम सामने आया कि सूर्य से आती हुई अदृश्य किरणें जिन्हें अवरक्त किरणें कहा जाता है, यही किरणें आतप की किरणें हैं । जिस प्रकार प्रकाश ऊर्जा की तरंगें हैं, उसी प्रकार अवरक्त किरणें भी ऊर्जा की तरंगे हैं और आज तो इस आतप रूप ऊर्जा का उपयोग बहुत कार्यों में होने लगा है। जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित 'आप' पुद्गल हैं। फोटो खींचकर विज्ञान ने प्रमाणित कर दिया कि 'आतप' पदार्थ है । क्योंकि फोटो पदार्थ का ही खींचा ता है शून्य का नहीं । तापचित्र लेने के कैमरे भी तैयार हो गये हैं । इन्हें थर्मोग्राफ कहा जाता है । ताप यदि पदार्थ न होता तो इसका चित्र लेना असंभव था । तापचित्र के उपयोग से स्तन कैंसर को, भूमि में छिपी गैसों को, इंजन को खोले या बंद किये बिना ही उसकी खराबियों को ढूँढ़ा जा सकता है I आशय यह है कि आज आतप या ताप की किरणों को ग्रहण किया जा सकता है तथा अनेक कार्यों में उसका उपयोग किया जा सकता है। विज्ञान के इस प्रयोगात्मक प्रस्तुतीकरण से अब सामान्य बुद्धिजीवी भी यह समझने लग गया कि वास्तव में आतप पुद्गल की ही पर्याय है । अकलंक ने आतप की व्याख्या इस प्रकार की है- “ असातावेदनीय के उदय से जो अपने स्वरूप को तपता है या जिसके द्वारा तपाया जाता है या आतपमात्र को आतंप कहते हैं ।' ११९४ उद्योतः - जो निवारण को उद्योतित करता है या जिसके द्वारा उद्योतित करता है या उद्योतनमात्र को उद्योत कहते हैं । १५ ९४. तं. रा. वा. ५.२४.१.४८५ ९५. त.रा.वा. ५.२४.१.४८५ २२९ For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र, मणि, जुगनू आदि के प्रकाश को उद्योत कहते हैं।९६ प्रभा, उद्योत, प्रकाश ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। वर्तमान में विज्ञान ने प्रकाश संबन्धी पर्याप्त अन्वेषण किये हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोज है लेसर किरणें । लेसर रश्मियाँ प्रकाश का घनीभूत रूप है। लेसर रश्मियों की शक्ति के संबन्ध में अनुमान लगाया गया है कि एक वग सेंटीमीटर प्रकाशीय क्षेत्रफल में साठ करोड़ वॉट की शक्ति छिपी हुई है। सारी शक्ति की लैंस द्वारा जब एक सेंटीमीटर में घनीभूत कर दिया जाता है तो उससे निकलने वाली रश्मियाँ क्षण भर में मोटी से मोटी इस्पात की चादरों को गलाकर भेद देती लेसर किरणों के कितने ही उपयोग हैं। किसी भी स्थान पर इन किरणों से न्यूनतम मोटाई का सुराख करना इतना ही सरल है जितना कि राइफल की गोली का मक्खन की डली में से निकलना। इन किरणों से इंच के दस हजारवें भाग तक लघु छिद्र करना संभव है। क्षण भर में कठोर धातु को लेसर किरणों से पिघलाया जा सकता है। दो या अधिक धातुओं को पिघलाकर उन्हें जोड़ने की क्रिया सेकंडों में पूरी की जा सकती है। आँखों के पीछे लगे परदे (रटीना) के अपने स्थान से हट जाने से आदमी अन्धा हो जाता है। पहले इसका कोई उपचार नहीं था। अब लेसर किरणों से रेटीना को अपने स्थान पर जमा कर बड़ी ही सरलता से चिकित्सा की जाती है। मानव शरीर में भी लेसर किरणों से चीरफाड़ किये बिना शल्य चिकित्सा संभव है। यदि इन किरणों को पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर फेंकने का प्रयत्न किया जाय तो काश्मीर में स्थित उपकरण से निकलने वाली लेसर किरणें कन्याकुमारी में रखी पतीली में चाय उबाल सकती हैं। एक गतिमान् यान को पृथ्वी से ही लेसर किरणों द्वारा शक्ति पहुँचायी जा सकती है। जैसे कोई उपग्रह गति के मन्द होने के कारण नीचे गिरने लगे तो लेसर किरणों के दबाव से अपनी कक्षा में स्थापित किया जाता है । लेसर किरणों की ९६. त.रा.वा. ५.२४.१९.४८९ २३० For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक घड़ी भी बायी गयी है, जो अन्धों को मार्गदर्शन दे सकती है। घड़ी की नोक से लेसर किरणें निकलेंगी और मार्ग में रुकावट डालने वाली वस्तुओं से टकराकर पुनः उपकरण में लौट आयेंगी। लौटी हुई किरण द्वारा रुकावट डालने वाली वस्तुओं का ज्ञान थपकी द्वारा अन्धे की हथेली पर आयेगा, जिससे वह जान सके कि उधर जाना ठीक नहीं । आधुनिक विज्ञान ने प्रकाश को पदार्थ के साथ भारवान् भी स्वीकार किया है। प्रकाशविशेषज्ञों का कथन है सूर्य के प्रकाश विकिरण का एक निश्चित भार होता है, जिसे आज के वैज्ञानिकों ने ठीक तरह से नाप लिया है। प्रत्यक्ष में यह भार बहुत कम होता है। पूरी एक शताब्दी में पृथ्वी के एक मील के घेरे में सूर्य के प्रकाश का जो चाप पड़ता है, उसका भार एक सेकण्ड के पचासवें भाग में होने वाली मूसलाधार वर्षा के चाप के बराबर है। यह भार इतना कम इसलिए लगता है कि विराट् विश्व में एक मील का क्षेत्र नगण्य से भी नगण्य हैं । यदि सूर्य के प्रकाश के पूरे चाप का भार लिया जाय तो वह प्रति मिनिट २५,००,००,००० टन निकलता है । यह एक मिनिट का हिसाब है । घण्टा, दिन, मास, वर्ष, सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों वर्षों का हिसाब लगाइये, तब पता चलेगा कि प्रकाश विकिरण के चाप का भार क्या महत्व रखता है । ९७ विज्ञान द्वारा पुष्ट जैनदर्शन में स्वीकृत प्रकाश भारवान् और पुद्गल है । स्थूलता के आधार पर पुद्गल के छः भेदः - नियमसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने एवं गोम्मटसार के जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र ने पुद्गल के छः भेद बातये हैं- अतिस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म । १. अतिस्थूलः - जो स्कन्ध टूट कर पुनः जुड़ न सकें वे अतिस्थूल हैं, जैसेपृथ्वी, पर्वत आदि । ९ २. स्थूलः- जो स्कन्ध पृथक्-पृथक् होकर पुनः मिल सकें, वे स्थूल कहलाते हैं, जैसे घी, जल, तेल आदि । १०० ९७. नवनीत दिसम्बर १९५५ पृ. २९ ९८. नियमसार गा. २१ ९९. नियमसार गा. २२ पूर्वार्द्ध १००. नियमसार गा. २२ उत्तरार्द्ध २३१ - For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. स्थूलसूक्ष्मः- यह स्कन्ध देखने में आते हैं, परन्तु भेदे नहीं जा सकते या हाथ आदि से ग्रहण नहीं किये जा सकते वे, स्थूल सूक्ष्म हैं, जैसे प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि।१०१ ४. सूक्ष्मस्थूलः- चार इन्द्रियों से (चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त) जिसके विषयों को ग्रहण किया जा सके, परन्तु जिनका स्वरूप दिखायी दे, वह सूक्ष्मस्थूल . है, जैसे-शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श ।१०२ ५. सूक्ष्मः- जिनका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सके अर्थात् जो इन्द्रियों से अगोचर हैं, वे सूक्ष्म हैं- जैसे कर्मवर्गणा आदि।०३। ६. सूक्ष्मसूक्ष्मः- ये अत्यन्त सूक्ष्म स्कन्ध, जो कर्मवर्गणा से भी छोटे द्वयणुक पर्यंत पुद्गल होते हैं, इनको भी इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता, सूक्ष्मसूक्ष्म कहलाते हैं।१०४ पुद्गल परिणमन के हेतु:ठाणांग में पुद्गल परिणमन के तीन कारण स्पष्ट किये गये हैं:१. प्रयोग परिणत:- किसी भी जीवद्रव्य द्वारा पुद्गल, जैसे जीव शरीर आदि। २. मिश्र परिणत:- जीव के प्रयोग तथा स्वाभाविक रूप से परिणत पुद्गल जैसे मृत शरीर। ३. विस्रसा परिणत:- जिनका परिणमन या रूपान्तरण स्वभाव से ही हो जाता है- जैसे बादल, उल्कापात आदि।१०५ वर्गणा के आधार पर पुद्गल के प्रकार: जीवसंयोग के आधार पर पुद्गल राशि को दो वर्गों में रखा जा सकता है(क) जीव द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल, और (ख) जीव द्वारा ग्रहण नहीं किये हुए १०१. नियमसार गा. २३ पूर्वार्द्ध १०२. नियमसार गा. २३ उत्तरार्द्ध १०३. नियमसार गा. २४ पूर्वार्द्धल १०४. नियमसार २३ उत्तरार्द्धल १०५. ठाणांग ३.४०१ २३२ For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्रल । १०६ १०७ इनको पुनः अपेक्षा से २३ वर्गों में भी रखा जाता है " इन २३ भेदों में मुख्य आठ भेद हैं । इन भेदों को वर्गणा भी कहते हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्वास, वचन और मन । १. औदारिकवर्गणाः- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति - इनके द्वारा औदारिक शरीर का निर्माण होता है । २. वैक्रिय वर्गणाः- वैक्रिय का संस्कृत पर्याय 'वैकुर्विक' भी होता है। इसका अर्थ है विविध क्रिया । विशिष्ट क्रिया को करने में सक्षम विक्रिया है । उस. विक्रिया को करने वाला वैक्रिय शरीर है। इस शरीर के पुद्गल मृत्यु के पश्चात् कपूर की तरह उड़ जाते हैं । ३. आहारकवर्गणाः - विशिष्ट योगशक्ति संपन्न चौदह पूर्वधारी मुनि किसी विशिष्ट प्रयोजन विशेष से जिस शरीर की संरचना करते हैं, उसमें संहत पुद्गल राशि को आहार वर्गणा कहते हैं और उस शरीर को आहारक शरीर कहा जाता है । ४. तैजस वर्गणाः- जो दीप्ति का कारण है वह तैजस वर्गणा है, और जिस तैजस वर्गणा से निष्पन्न शरीर में आहार पचाने की क्षमता या सामर्थ्य होती है, वह तैजस शरीर है । इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते । यह शरीर आहारक शरीर से अधिक सूक्ष्म होता है । ५. कार्मण वर्गणाः- कर्म के रूप में परिणत होकर जीव से बद्ध होने योग्य पुद्गल को कार्मण वर्गणा कहते हैं । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मपुलों के समूह कार्मण शरीर बनता है । यह कर्मसमूह ही अन्य शरीरों के निर्माणका निमित्तकारण है। तैजस और कार्मण शरीर संसारी आत्मा के साथ सदा रहता है। तेरहवें गुणस्थान तक कर्मप्रकृतियों का सद्भाव रहता है। मुक्ति में ही इनका आत्यन्तिक अभाव होता है। इन दोनों शरीरों के छूटते ही आत्मा शुद्ध बन जाती है । १०८ १०६. ठाणांग २.२३२ १०७. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) ५९३.९४ १०८. प्रज्ञापना १२.९०१ २३३ For Personal & Private Use Only - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणाः- यह श्वास लेने और निकालने योग्य पुद्गल समूह है। आधुनिक विज्ञान में इसे आक्सीजन के नाम से जाना जाता है। ७. भाषा वर्गणाः- शब्द भी (वचन) पुद्गल की ही पर्याय है; क्योंकि बोलते समय भाषा का भेदन-बिखराव होता है। यह चार प्रकार की है- सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार भाषा ।१०९ ८. मनोवर्गणाः - मन भी पुद्गल का समूह है। यह मनन करते समय ही मन कहलता है । मन आत्मा नहीं है, अतः पुद्गल है। मन का भेदन होता है, अतः पुद्गल है। मन चार प्रकार का है- सत्य मन, असत्य मन, मिश्र मन, और व्यवहार मन ।११० पुद्गल का स्वभाव चतुष्टयः पुद्गल का विशद परिचय प्राप्त करने के लिए उसे चार दृष्टिकोणों से विश्लेषित किया गया है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा अनन्त द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है। काल की अपेक्षा शाश्वत है (परमाणु की अपेक्षा), और भाव की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श से युक्त है, और गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण की योग्यता वाला है ।१११ क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने इसे और ज्यादा स्पष्ट किया है-स्वभाव की धारणा करने वाला जो भी है, उसे द्रव्य कहते हैं। उसके आकार को क्षेत्र कहते हैं। उसके अवस्थान को काल कहते हैं तथा उसके धर्म और गुणं को भाव कहते हैं। स्वद्रव्य की अपेक्षा सामान्य रूप से पुद्गल द्रव्य एक है, परन्तु प्रदेशात्मक परमाणु अनन्तानन्त हैं। एक बालाग्र स्थान पर अनन्तानन्त परमाणु रहते हैं। स्वक्षेत्र की अपेक्षा सामान्यरूप से परमाणु एक प्रदेशी है, परन्तु विशेष रूप से छोटे-बड़े आकारों को धारण करने वाले स्कन्ध अनेक प्रकार के हैं, कुछ संख्यात, कुछ असंख्यात और कुछ अनन्तप्रदेशी हैं। १०९. भगवती १३.७.७.९ ११०. भगवती १३.७. १०-१४ १११. ठाणांग ५.१७४ २३४ For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकाल की अपेक्षा पुद्गल अनित्य हैं; क्योंकि वे उत्पाद, विनाश करते रहते हैं। स्वभाव की अपेक्षा पुद्गल मूर्तिक हैं, इन्द्रियगोचर हैं । गुण की अपेक्षा पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस, तथा स्पर्श गुण पाये जाते हैं। पुद्गल के उपकारः__ संसारी जीव पुद्गल के आभाव में रह ही नहीं सकते। उनकी समग्रता पुद्गल द्वारा ही संपन्न होती है। हमारा शरीर (जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है) पुद्गल की ही देन है। भाषा, मन, प्राण, अपान आदि सब पुद्गल का ही उपकार है ।११२ जीवन में प्राप्त सुख, दुःख, जीवन, मरण आदि समस्त पुद्गल के ही उपकार हैं। जैसे अनुचर अपने स्वामी की आज्ञा मानने को बाध्य रहता है वैसे ही पुद्गल द्वारा निर्मित इन्द्रिय आदि जीव की आज्ञा मानते ही हैं । ११३ . इस प्रकार इस अध्याय में पुद्गलस्तिकाय का नातिविस्तृत विवेचन किया। अब प्रश्न उठता है कि पुद्गल को जानने का प्रयोजन क्या है? इसका समाधान इस प्रकार है- मुख्य तत्त्व तो दो ही हैं- जीव और अजीव । जब तक जीव अजीव के स्वरूप, स्वभाव, और प्रकृति को नहीं समझ लेगा तब · तक वह अजीव से मुक्त होने का न तो प्रयास कर सकेगा और न मुक्ति की रुचि पैदा होगी। पुद्गल का चित्र-विचित्र रंग-बिरंगा आकर्षण जीव को मुग्ध करता रहेगा। जीव इस आकर्षण से मुक्ति हेतु तभी पुरुषार्थ करेगा, जब उसे हेय और उपादेय का सम्यक् ज्ञान हो जायेगा। वस्तुस्वरूप को जानकर ही जीव हेय (त्याज्य) का त्याग एवं उपादेय (ग्राह्य) का ग्रहण कर सकेगा।११४ इस पंचास्तिकाय के स्वरूप को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है, वही मुक्त होता है। यही पुद्गल द्रव्य को जानने का प्रयोजन है। ११२. जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान पृ. १६३.६४ ११३. तं.सू. ५.२० ११४. पं.का. १०३ २३५ For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन का लक्ष्यः जैनदर्शन मात्र विवेचनात्मक दर्शन ही नहीं है, वह उपयोगी सिद्धान्तों के प्रतिपादन द्वारा आचरण योग्य भी है। जैनदर्शन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और उसी मुक्ति की प्राप्ति में अवरोधों को जानने का और आचरण का उपदेश जैन दार्शनिकों ने दिया है ।११५ षड्द्रव्य को भी इसीलिए समझना चाहिये। जीव और पुद्गल का संबन्ध अनादि है, पर उसे समाप्त किया जा सकता है और शुद्ध आत्म स्वभाव प्रकट हो सकता है ।११६ -------- ११५. “आश्रवो भवहेतुः स्यात्.....प्रपञ्चनय्” सर्वदर्शन संग्रह पृ. ४.३९ ११६. रा.वा. ५.१९.२९.४७२ २३६ For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय : पञ्चम उपसंहार जैनदर्शन के सभी सिद्धान्तों में स्याद्वाद शैली स्पष्ट नजर आती है। वस्तुतत्त्व की मीमांसा भी जैनदर्शन में भेदाभेद की अपेक्षा से हुई है। प्रश्नों को स्याद्वाद के अन्तर्गत समाहित करने के प्रयास में जैनदर्शन को यद्यपि संशयवाद के आरोपों से घेरा गया, पर गहराई में जाकर यदि स्याद्वाद को समझा जाये तो यह भ्रान्ति निरर्थक और निर्मूल सिद्ध होगी। हम अपने व्यवहार में भी पदार्थ का सर्वथा-एकान्त स्वरूप स्वीकार नहीं कर सकते । पदार्थ का वास्तविक स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि यदि उसके अन्य धर्मों का सर्वथा विच्छेद करके मात्र एक ही धर्म का समग्र, मुख्य और सत्य मान लें तो व्यवहार ही खंडहर हो जाता है। जैनदर्शन के सामने भी यह कठिनाई खड़ी हो सकती थी यदि वह पदार्थ का एकांगी स्वरूप करता; क्योंकि एकांगी स्वभाव में या तो शाश्वतवाद रहेगा या शाश्वतवाद । पदार्थ मात्र शाश्वत है तो चारों ओर परिवर्तन क्यों दिख रहा है? हमारे स्वयं के अंतर्मन में पनपते, बदलते भावों को हम महसूस करते हैं। बाह्य जगत् में भी हमारे अत्यन्त समीप शरीर की अवस्थाओं में प्रतिपल परिवर्तन होता है, फिर भी शरीर के परिवर्तन में कोई ऐसा शाश्वत और अकम्प तत्त्व अवश्य है जिसके आधार पर परिवर्तन की संभाव्यता है और यही अशाश्वत के मध्य शाश्वत वस्तु स्वरूप जैन दर्शन का प्रतिपाद्य है जिसे “तत्त्व क्या है?" गौतमस्वामी के प्रश्न परभगवान् महावीर ने “उवगमेई वा, विगमेई वा धुवेई वा" कहा था जो दर्शन में त्रिपदी के नाम से पहचाना जाता है। इस शोधप्रबन्ध में इसी उत्पन्न, विनाश और ध्रौव्य के स्वरूप और लक्षण को विवेचित करने का प्रयास किया गया है। २३७ For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन का द्वैतवाद यथार्थवादी है हमारी सष्टि द्वन्दात्मक है। चेतन और अचेतन इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है और इसे जैनदर्शन ने षड्द्रव्यों में विभक्त किया है। इन्हीं षड्द्रव्यों का सतत परिवर्तन संसार की व्यवस्था को संतुलित रखता है। ___ यदि मात्र शाश्वतवाद पर हमारी श्रद्धा स्थिर होती तो स्पष्ट दृष्टिगत हो रहे परिवर्तन को क्या कहते? इसे मात्र मिथ्या या असत्य कहकर नकारना कैसे उचित होता? जो वस्तु स्पष्टतः इन्द्रियग्राह्य बन रही है, उसे मात्र मिथ्या मानकर उसका अस्तित्व कैसे नकारा जा सकता है? यदि सारा जगत् मिथ्या है तो सम्यक् कुछ भी नहीं रहेगा। जैनदर्शन ने इसे मिथ्या कहने की अपेक्षा आत्मभाव के अतिरिक्त समस्त पदार्थों को पर पदार्थ कहकर उसके अस्तित्व को स्वीकृति प्रदान तो की, परन्तु साथ ही परपदार्थ कहते हुए निष्प्रयोजन भी बताया। जैनदर्शनस्वीकृत नित्यानित्यत्ववाद में ही मुक्ति समभ्व है . परद्रव्यों में जब तक आत्म-बुद्धि है तब तक संसार है, और ज्यों ही यह आत्मभाव समाप्त हुआ, जैनदर्शन के अनुसार मुक्ति निश्चित है। परद्रव्य को तद्प में हम मिथ्या या असत् नहीं कह सकते, उसका अपना अस्तित्व है। यदि ऐसा न हो तो किससे मुक्त होने का प्रयत्न किया जायेगा? मात्र अशाश्वत को स्वीकार करते तो भी वही दार्शनिक समस्या थी। यदि मात्र परिवर्तन ही परिवर्तन रहे तो कर्त्ता किसे कहें? कारण और कार्य में उपादान और उपादेय भाव भी कैसे बनेगा? यदि उपादान कारण सर्वथा क्षणिक है तो वह कार्यकाल तक स्थिर नहीं रहेगा और कीर्योत्पत्ति के एक क्षण पूर्व ही नष्ट हो जाता है तो जिस प्रकार दो घण्टा अथवा दो दिन पहले नष्ट हुआ कारण कार्योत्पत्ति में निमित्त नहीं होता, उसी प्रकार एक क्षण पूर्व भी नष्ट हुआ कारण कार्योत्पत्ति में निमित्त नहीं बनता। अतः यह मानना होगा कि सत् और असत् दोनों भावों का समन्यव ही वस्तु के विवेचन में सहायक है। ३ . सत् और असत् को विरोधी नहीं कह सकते, क्योंकि इन दोनों का सद्भाव एक दृष्टि से नहीं है। सत् किसी अन्य अपेक्षा से है, असत् भी किसी २३८ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक पयायें होंगी परन्तु आत्मा का ध्रुवतत्त्व फिर भी वैसा ही रहेगा। पर्याय के परिवर्तन से आत्मा के ध्रुवत्व का परिवर्तन जैनदर्शन को मान्य नहीं है। इस उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के स्वरूप के स्पष्टीकरण में जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है। यदि स्याद्वाद को नहीं अपनाया होता तो जैनदर्शन भी उन्हीं आरोपों और दोषों से घिर जाता जो एकान्तवादी दर्शनों में आए हैं। महावीर ने स्याद्वाद के आधार पर ही सारी व्याख्याएं दीं। जब महावीर से पूछा गया-आत्मा नित्य है या अनित्य? तब महावीर ने कहा- अस्तित्व की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य । इस स्याद्वाद के कारण जैनदर्शन की आत्मा की कर्ता-भोक्ता विषयक व्याख्या भी सिद्ध हो गयी और असित्व की अनिवार्य शर्त परिणमन की समस्या भी हल हो गयी। अर्थक्रियाकारित्व तभी घटित होगा जब वस्तु नित्यानित्य होगी। केवल नित्य वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व मानने में दोष है। यदि हम नित्य वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व स्वीकार कर लें तो प्रश्न होगा कि वह अर्थक्रिया क्रम से होगी या अक्रम से? यदि हम यह मानें कि क्रम से होगी तो यह तर्कसंगत नहीं लगेगा क्योंकि जब वस्तु समर्थ है तो वह एक ही क्षण में अर्थक्रिया क्यों नहीं कर लेती? जब वह समर्थ है तो काल अथवा अन्य सहकारी कारणों की प्रतीक्षा क्यों करेगी? यदि प्रतीक्षा करती है तो उसका सामर्थ्य आहत होता है। यदि हम यह मान लें कि जिस प्रकार समर्थ होते हुए बीज पृथ्वी, जल, वायु आदि के सहयोग से ही अंकुर को उत्पन्न करता है अन्यथा नहीं, इसी प्रकार नित्य पदार्थ समर्थ होते हुए भी सहयोगी कारणों के बिना अर्थक्रिया नहीं करता । तो फिर प्रश्न उठेगा कि वह सहकारी कारण नित्य पदार्थ का कुछ उपकार करते हैं या नहीं? यदि उपकार करते हैं तो यह उपकार पदार्थ से भिन्न है या अभिन्न है? यदि वह सहकारी कारण अभिन्न है तो वही अर्थक्रिया करता है नित्यपदार्थ नहीं। यदि सहकारी कारण नित्यपदार्थ से भिन्न है तो प्रश्न होता है कि सहकारी कारण और पदार्थ में क्या संबंध होता है? इन दोनों में संयोग संबन्ध २३९ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन नहीं सकता; क्योंकि संयोग संबन्ध दो द्रव्यों में होता है जबकि द्रव्य एक है, क्रिया भी एक है । यहाँ समवाय संबन्ध बन नहीं सकता; क्योंकि वह तो एक है और व्यापक है। यदि समवाय संबन्ध स्वीकार करेंगे तो फिर नित्यपदार्थ और अर्थक्रिया की भिन्नता भी नहीं रहेगी । अतः हमें यह मानना होगा कि अर्थक्रिया नित्यपदार्थ में क्रम से संभव नहीं है । अब यदि यह कहें कि क्रम से न होकर नित्यपदार्थ में अर्थक्रिया अक्रम से होती है तो भी संभव नहीं है; क्योंकि यदि एक संभव नहीं है; क्योंकि यदि एक साथ ही अर्थक्रिया कर ली तो दूसरे क्षण में वह क्या करेगा? अत: यह संभव नहीं है कि नित्यपदार्थ अर्थक्रिया करें। यदि सांख्य के नित्यवाद में अर्थक्रिया संभव नहीं है तो क्या बौद्ध के क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया संभव है? यह भी उचित और तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि जिसका क्षणिक अस्तित्व हो वहाँ क्रम से अर्थक्रिया हो नहीं सकती। देश और काल का क्रम क्षणिक पदार्थ में संभव ही नहीं है । यदि यह कहा जाये कि सन्तान की अपेक्षा पूर्वक्षण और उत्तरक्षण में क्रम संभव हो सकता है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सन्तान कोई वस्तु नहीं है । यदि सन्तान को वस्तु स्वीकार किया जाये तो सन्तान क्षणिक है या अक्षणिक । सन्तान को क्षणिक मानने पर सन्तान में क्षणिक पदार्थों से कोई विशेषता नहीं होगी । अक्रम से भी क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया संभव नहीं है; क्योंकि जब बौद्ध लोग निरंश पदार्थ से अनेक कार्यों की उत्पत्ति मानते हैं तो फिर नित्य पदार्थ में क्रम से अनेक कार्यों की उत्पत्ति में क्यों दोष देते हैं? अतः क्षणिक पदार्थ में अक्रम से भी अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं हो सकता; और एकान्त अनित्य पदार्थ में क्रमव्यापकों की निवृत्ति होने से व्याप्त अर्थक्रिया भी नहीं बन सकती । अर्थक्रिया के अभाव में क्षणिक पदार्थ के अस्तित्व का ही अभाव हो जाता है । I जैनदर्शन नित्यानित्यत्व की मान्यता के कारण इन दूषणों से सुरक्षित है; क्योंकि जैनदर्शन तो प्रत्येक पदार्थ को उत्पाद-व्यय-युक्त पदार्थ की दृष्टि से ध्रुव द्रव्य दृष्टि से स्वीकार करता है चाहे वह जड़ हो या चेतन । यह नित्यनित्य भी प्रतिक्षण होता है । बाह्य निमित्त मिले तो उनसे अन्यथा स्वयं अन्तरंग रूप से परिणमन करता रहता है । २४० For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते जैनदर्शन ने नित्य का लक्षण अनुत्पन्न, अप्रच्युत और स्थिररूप स्वीकार हुए नित्य का लक्षण दिया-- अपने स्वरूप का नाश जो नहीं करता (तद्भावाव्ययं नित्यं ) । तथा द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वीकार किया । जैन दर्शन ने न केवल पुद्गल और आत्मा का ही परिणमन स्वीकार किया, अपितु धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का भी परिणमन स्वीकार किया, यद्यपि इन चारों का स्वाभाविक परिवर्तन ही स्वीकार्य है, क्योंकि इनका वैभाविक परिणमन संभव नहीं है। जीव और पुद्गल में भी जो परिवर्तन होता है, वह सर्वथा विलक्षण परिणमन नहीं होता । इस परिवर्तन में जो समानता होती है, वह द्रव्य है और जो असमानता है, वह पयाय है । द्रव्य में उत्पाद की स्थिति होने पर भी उसकी स्वरूपहानि कभी नहीं होती । . जिस द्रव्याक्षरत्ववाद की स्थापना १९८९ में Lowoisier ( लाओजियर) वैज्ञानिक ने की, उसकी तुलना अगर हम जैनदर्शन के द्रव्य स्वरूप से करें तो कोई अनुचित नहीं होगा। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार भी अनन्त विश्व में द्रव्य का परिणमन्र होता है, पर द्रव्य का विनाश कभी नहीं होता । उदाहरण के रूप में कोयले में होने वाले परिवर्तन को लें, कोयला जलकर राख हुआ तो हमने व्यवहार की भाषा में कह दिया- कोयला जलकर नष्ट हो गया, परन्तु गहराई से देखा जाये तो वह नष्ट नहीं हुआ, अपितु वायुमंडल में ऑक्सीजन के अंश के साथ मिलकर कुछ अंश कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के रूप में परिवर्तित हो गया और कुछ ठोस राख में बदल गया । जैनदर्शन इस परिवर्तनवाद को परिणामिनित्यत्ववाद भी कहता है । इसी परिणमिनित्यत्ववाद की आधारशिला से जैनदर्शन के चिंतन का महल तैयार हुआ है । सांख्य भी परिणमन को तो स्वीकार करता है, परन्तु मात्र प्रकृति का, पुरुष का नहीं । नैयायिक, वैशेषिक आत्मा को नित्य तथा घट-पट को नित्यानित्य मानते हैं, परन्तु जैनदर्शन तो द्रव्य मात्र का प्रतिक्षण परिमणन स्वीकार करता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैनदर्शन कहीं वस्तु में स्वभाव २४१ For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विभाव दोनों की स्वीकृति देता है। स्वभाव परनिरपेक्ष है और विभाव परसापेक्ष । आत्मा जब परसापेक्ष है अर्थात् विभाव दशा में है, तब तक संसार है, ज्यों ही वह परनिरपेक्ष होता है, वह शुद्धस्वरूपी बनकर अन्तिम मंजिल प्राप्त कर लेता है। आत्मा के स्वतन्त्र स्वरूप की जो व्याख्या जैनदर्शन प्रस्तुत कर पाया है, वह किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं होती। इसमें कारण है, क्योंकि उपनिषद् ने एक ही ब्रह्म की कल्पना की है, तो सांख्य ने मात्र पुरुष को भोक्ता के रूप में ही स्वीकृति दी है और बौद्ध आत्मा को क्षणिक मानता है, और इन सभी एकान्तवादी मान्यताओं के कारण अनेक जिज्ञासाएँ तो उभरती हैं, परन्तु समाधान का अभाव बना रहता है। जिनका उपचार मात्र जैनदर्शन में है। ।। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, औपाधिक नहीं जैनदर्शन 'ज्ञान' और 'दर्शन' - दोनों से युक्त को ही आत्मा मानता है, जबकि वैशेषिक की मान्यता है कि ज्ञान आगन्तुक गुण है और आत्मां से सर्वथा भिन्न है, ज्ञान और आत्मा का संबन्ध समवाय से बनता है, आत्मा स्वयं जड़ है। वैशेषिक की समस्या यह है कि यदिज्ञान और आत्मा को (समवायसम्बन्ध से) एक ही माना जाए तो मुक्ति में जैसे आत्मा के विशेष गुण बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म,अधर्म, और संस्कार आदि समाप्त हो जाते हैं, वैसे ही, ज्ञान को आत्मा का विशेष गुण मानने पर तो वह भी समाप्त हो जायेगा तब तो मुक्ति में आत्मा का भी अभाव होना चाहिये; परन्तु वैशेषिकों का यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि प्रथम तो वैशेषिकसम्मत समवाय पृथक् पदार्थ ही सिद्ध नहीं होता, और दूसरे आत्मा और ज्ञान में वैशेषिक सम्मत समवाय से सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। सर्वप्रथम तो ज्ञान और आत्मा में समवाय संबन्ध कैसे बनता है, वैशेषिक का समवाय तो एक ही है और व्यापक भी। यदि यह माना जाये कि ज्ञान और आत्मा में समवाय दूसरे समवाय से रहता है तो इस प्रकार समवायों की अनन्त श्रृंखला माननी होगी और अन्त समवाय मानने से अनवस्था दोष आएगा। यदि दोष आने पर भी, समस्या का समाधान हो तो दोष भी स्वीकार कर लें, किन्तु समस्या तो ज्यों की त्यों बनी रहती है। - यदि यह सोचें कि समवाय में समवायान्तर मानने की आवश्यकता २४२ For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, वह अपने आप ही रहता है तो ज्ञान और आत्मा में भी वह अपने आप रह लेगा। वैशेषिक इसे स्पष्ट करने के लिए दीपक का उदाहरण देते हैं कि दीपक का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव है। स्थूलबुद्धि व्यक्ति भी समझ सकता है कि दीपक का दृष्टान्त घटित नहीं होता क्योंकि दीपक द्रव्य है और प्रकार उसका धर्म है जबकि वैशेषिक तो धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानते हैं। अतः यह मानना ही युक्तियुक्त है कि ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं, स्वाभावकि गुण है । गुण और पर्याय ही सत् का लक्षण है। षड्द्रव्यों की सत्ता वास्तविक है, काल्पनिक नहीं ___ जैनदर्शन ने सृष्टि के पदार्थों को छः पदार्थों में समाहित किया है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैनदर्शन की अपनी मौलिक धारणा है। इनके संबन्ध में जैनदर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन में ऐसी धारणा नहीं बनायी जा सकी। मध्ययुगीन विज्ञान धर्मास्तिकाय की यद्यपि 'ईथर' के नाम से अस्तित्व में लाया था, परन्तु वर्तमान के विज्ञान ने 'ईथर' का निरसन कर दिया है। .. यदि धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व नहीं होता तो पदार्थों की संतुलित व्यवस्था नहीं होती, और उसके अभाव में या तो पदार्थ अनंत में भटकते रहते या मात्र स्थिति ही रहती। फिर जीव और पुद्गल की मोक्ष तक न तो गति रहती और न स्थिति ही। लोक और अलोक का जो विभाजन है, वह भी इन दोनों द्रव्यों के कारण ही है। यहाँ यह भी स्पष्ट समझना चाहिये कि ये दोनों उदासीन सहायक है। ऐसा नहीं है कि जीव और पुद्गल को ये बलपूर्वक गति या स्थिति हेतु प्रेरित करते हैं। इन दोनों द्रव्यों से परिणमन भी सिद्ध होता है । द्रव्य का मूल स्वभाव परिणमन है और इस.परिणमन स्वभाव के कारण पूर्वपर्याय को छोड़कर उत्तरपर्याय को धारण करने का क्रम अनादि काल से सतत चालू है और यह प्रवाह अनन्तकाल तक चालू ही रहेगा। . इन दोनों तत्त्वों को मानने की अनिवार्यता इसलिए पैदा हुई कि किसी ऐसे तत्त्व की आवश्यकता थी जो जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति को नियन्त्रितं करे । आकाश एक अमूर्त, अखण्ड, और अनन्त प्रदेशी द्रव्य है, उसकी २४३ For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता सर्वत्र समान है, अतः उसके इतने प्रदेशों तक पुद्गल और जीवों का गमन है, आगे नहीं। यह नियन्त्रण अखण्ड आकाश द्रव्य नहीं कर सकता क्योंकि उसमें प्रदेश-भेद होने पर भी स्वभाव भेद नहीं है। जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य भी गति और स्थिति में सहायक नहीं बन सकते; क्योंकि वे तो स्वयं गति और स्थिति करने वाले हैं। काल मात्र परिवर्तन स्वभावी है। अतः धर्म और अधर्मद्रव्य को लोक और परलोक के मध्य विभाजक तत्त्व की मान्यता दी गयी और उसे गति-स्थिति में उदासीन सहायक द्रव्य के रूप में स्थापित किया गया। 'शब्द' आकाश का विशेष गुण नहीं पुल की पर्याय है: समस्त जीव-अजीव राशि का आश्रयदाता आकाश तत्त्व है। जैनदर्शन ने आकाश का गुण अवगाह माना है जबकि न्याय वैशेषिक ने शब्द को आकाश का गुण माना है, परन्तु शब्द पौगलिक इन्द्रियों से गृहीत है, पुद्गलों से टकराता है, स्वयं पुद्गलों को रोकता है और पुद्गलों से भरा जाता है, अत: वह पौद्रलिक ही हो सकता है, इसलिए न्यायवैशेषिक की यह मान्यता कि शब्द आकाश का गुण हैं धराशायि हो जाती है। जैनदर्शन 'शब्द' को पुद्गल की भाषावर्गणा मानता है। शब्द के आश्रित द्रव्य परमाणु इन्द्रिय का विषय होने से वायु की अनुकूलता पर दूर स्थान पर स्थित श्रोता तक पहुँच जाते हैं और वायु की प्रतिकूलता पर समीप बैठे श्रोता तक भी नहीं जा पाते। अतः जिस प्रकार ‘गन्ध' इन्द्रिय का विषय होने के कारण पौद्गलिक है, वैसे ही 'शब्द' भी इन्द्रिय का विषय होने से पौगलिक है। आज विज्ञान के क्षेत्र में भी शब्द का पौद्गलिक स्वरूप सिद्ध हो चुका है। टी.वी., टेलीफोन, रेडियो आदि यन्त्रों के माध्यम से शब्दों की तरंगों को पकड़ना जैनदर्शन के 'शब्द' की पुद्गलत्ववादी व्याख्या को ही मान्यता देता है। 'शब्द' आकाश का गुण इसलिए भी नहीं हो सकता कि आकाश तो नित्य है और शब्द अनित्य। यद्यपि यह कहा जाता है कि रामायण और महाभारत कालीन शब्द भी विज्ञान द्वारा कभी न कभी प्रकट किया जायेगा, परन्तु यह भी शब्दनित्यत्ववाद के प्रकाश में ही सोचा जा सकता है। २४४ For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान उसी कार्य की क्रियान्विति कर सकता है, जो संभव है । अगर विज्ञान से यह अपेक्षा रखी जाए कि वह समाप्त हुए शरीर को पुनः वैसा ही बना दे या व्यतीत हुई ऋतुओं को पुनः आमन्त्रित करे तो यह असंभव होगा। अतः हम कह सकते हैं कि शब्द गुण नहीं, पर्याय है; क्योंकि वह अनित्य है । गुण इसलिए भी नहीं है कि शब्द उत्पन्न होता है । गुण कभी उत्पन्न नहीं होता । गुण त्रैकालिक होते हैं । नित्य आकाश का अनित्य शब्द गुण कैसे हो सकता है? यदि 'शब्द' नित्य और स्थायी होता तो आज सर्वत्र शोर ही शोर होता और भयंकर अशान्ति का माहौल हो जाता, फिर खामोशी या निस्तब्धता संभव ही नहीं थी । परन्तु ऐसा नहीं है । इसी से लगता है, शब्द न आकाश का गुण है, न पुद्गल का, वह तो मात्र पुद्गल की अशाश्वत पर्याय है । 'शब्द' आकाश का गुण इसलिए भी संभव नहीं है कि आकाश मूर्त्तिक और स्थिर है। उसमें किसी प्रकार के कंपन की संभावना नहीं है, जबकि शब्द तो साक्षात् कंपन है। किसी बजते हुए घंटे पर हाथ रखकर देखें तो हमें इस बात का विश्वास हो जायेगा। जब तक कंपन है, तभी तक शब्द है । ज्यों ही कंपन रुका, शब्द तुरंत बन्द हो जायेगा । अतः यह तर्क और विज्ञान दोनों द्वारा प्रमाणित है कि शब्द पुद्गल की ही क्षणिक पर्याय है न कि आकाश का गुण । शब्द कंपन के कारण होता है। पुद्गल में प्रकट होने वाला कंपन वायुमंडल में आ जाता है और वायुमंडल सर्वत्र विद्यमान होने से उस कंपन का भी स्पर्श कर लेता है । उसी वायुमंडल का वह कंपन हमारे कानों का भी स्पर्श करता है, अतः जो शब्द हम सुनते हैं, वह उस वायु का ही कंपन है। अगर वायु विपरीत दिशा में बह रही है तो हमको वह शब्द सुनाई नहीं देता क्योंकि वह कंपन वायु की दिशा में तीव्र वेग से बह जाता है और विपरीत दिशा में मन्दत्व को प्राप्त होता है । इसीलिए, यदि वायु हमारी दिशा में बह रही हो तो दूर का शब्द भी सहज ही सुनने में आ जाता है, यह बात हमारे अनुभव में भी प्रायः आ जाती है । बादल तथा बिजली की कड़कड़ाहट सहजतया हमारे सुनने में आती है क्योंकि वहाँ वायुमंडल है, परन्तु सूर्य में होने वाले विस्फोट हम नहीं सुनते क्योंकि वहाँ के वायुमंडल और पृथ्वी के वायुमंडल के बीच में बड़ा अंतराल है अर्थात् सूर्य के वायुमंडल और पृथ्वी के बीच में बड़ा अंतराल है। इन दोनों के बीच कोई संबन्ध २४५ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, इनके मध्य मात्र आकाश है। यदि 'शब्द' आकाश का गुण होता तो सूर्य में होने वाला विस्फोट अवश्य सुनाई देता; क्योंकि आकाश सर्वत्र है। जैनदर्शन ने आकाश का गुण शब्द न मानकर अवगाहन माना है। समस्त पदार्थों को रहने का स्थान देना और किसी प्रकार की रुकावट न डालना, इसे आगम की भाषा में अवगाहन कहते हैं । अवगाहन का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि पृथक-पृथक पदार्थ अपने-अपने स्थान पर स्थित रहें, अपितु अवगाहन का अर्थ है- पदार्थ चाहे जहाँ ठहर सके । इसी गुण के कारण पदार्थ चाहे जहाँ प्रवेश भी पा सकता है और रह भी सकता है, जैसे शीशे में प्रकाश प्रविष्ट भी हो सकता है और और स्थित भी हो सकता है। आज के विज्ञान में यह प्रयोग सिद्ध है कि पदार्थ एक दूसरे में प्रविष्ट हो जाता है । एक्स-रे की किरणें, चुंबक की किरणें तथा रेडियों की विद्युत तरंगें जो कि सूक्ष्म पदार्थ हैं, अन्य पदार्थ में प्रवेश पाते हुए स्पष्ट दिखते हैं । एक्स-रे शरीर में से आरपार हो जाता है और सामने वाली प्लेट पर शरीर के अन्दर का फोटो खिंच जाता है। रेडियो की विद्युत तरंगें पर्वतों तक को भेदकर दूर-दूर देशों से हमारे पास चली आती हैं। जैसा कि आकाश के प्रदेशों के विवेचन में हमने स्पष्ट किया था कि आकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्तानन्त पदार्थ कैसे रह सकते हैं? इसका उत्तर यही है कि अनन्तानन्त पदार्थ एक दूसरे में समाकर रहते हैं । जीव तो होता ही अमूर्त है और अमूर्त इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे एक दूसरे से टकराये बिना एक ही स्थान में स्वाभाविक रूप से रह सकते हैं। मात्र मूर्त पदार्थ ही स्थान घेरते हैं और एक दूसरे से टकराते हैं। मूर्तिक पदार्थ के छह भेदों में भी सूक्ष्म स्कन्ध और सूक्ष्म परमाणु तो यथास्थिति पदार्थों में समा सकते हैं। केवल मूर्तिक स्थूल पदार्थ ही टकराते हैं और एक दूसरे में नहीं समा सकते। इस प्रकार जैनदर्शन वह पहला दर्शन है, जिसने आकाश का गुण शब्द न मानकर अवगाहन माना है और शब्द को पुद्गल की क्षणिक और अशाश्वत पर्याय मात्र लाना है। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाकाश और अलोकाकाश में विभाजन षड्द्रव्यसापेक्ष है: अवगाहन गुणवाला यह आकाश यद्यपि असीम और व्यापक है, परन्तु यह दृश्य जगत् न व्यापक है न असीम । जितने भाग में पदार्थ या द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोकाकाश और जहाँ मात्र आकाश ही उपलब्ध होता है, उसे लोकाकाश कहते हैं । इस लोकाकाश और अलोकाकाश के विभाजन से हमें यह नहीं समझना चाहिये कि आकाश खंडित हो गया। वास्तव में यह विभाजन काल्पनिक है, जिस प्रकार घड़े की अन्तः अवगाह को हम घटाकाश कहते हैं और उससे बाहर फैले हुए असीम आकाश को केवल आकाश कहते हैं, परन्तु इससे आकाश खंडित नहीं होता। असीम आकाश में यह लोक एक घट की भाँति ही समझना चाहिये। सीमा के अन्दर को लोक और उससे बाहर को अलोक समझना चाहिये। लोकाकाश और अलोकाकाश के मध्य किसी प्रकार की दीवार भी बनी हुई नहीं है। जहाँ जीवं और पुद्गल गमन और स्थिति कर सकें, वह लोक और उसके अतिरिक्त संपूर्ण अलोक है। लोकाकाश को भी तीन भागों में विभाजित करके संपूर्ण चराचर प्राणियों और लोकाग्र के भाग में मुक्त जीवों के स्थित रहने का आगमों में ज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत स्पष्टीकरण उपलब्ध होता है। काल भी द्रव्य है: : 'काल' शब्द अत्यन्त प्राचीन है। अथर्ववेद में काल द्रव्य को नित्य · पदार्थ माना गया है, तथा इस नित्य पदार्थ से प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। जैनदर्शन की काल के संबन्ध में दो मान्यताएँ हैं। एक मान्यता काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है । दूसरी मान्यता काल को जीव-अजीव द्रव्य में ही समाहित कर लेती है। .. काल को दो भेदों में विभाजित किया गया है। व्यवहारकाल एवं निश्चयकाल । जिस प्रकार पदार्थों की गति और स्थिति में धर्म और अधर्मद्रव्य सहकारी कारण है, वैसे ही परिवर्तन का कारण काल है। जिसके कारण द्रव्यों में वर्तना होती है, यह निश्चयकाल है एवं पदार्थों में छोटापन-बड़ापन आदि व्यवहारकाल का सूचक है। व्यवहारकाल निश्चयकाल का पर्याय है। यह पदार्थ काल, जीव और पुद्गल के परिणाम से ही उत्पन्न होता है और इसी कारण व्यवहारकाल को जीव और पुद्गल के आश्रित माना गया है। कालद्रव्य को २४७ For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुरूप माना गया है, किन्तु यह अणु कालणु है, पुद्गलाणु नहीं, इसीलिए उसके स्कन्ध नहीं होते । जितने लोकाकाश के प्रदेश होते हैं, उतने ही कालाणु होते हैं । ये एक-एक कालाणु गतिरहित होने से लोकाकाश के एक-एक प्रदेश के ऊपर रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। आकाश के एक स्थान में मन्दगति से चलनेवाला परमाणु लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जितने काल में पहुँचता है, उसे समय कहते हैं । यह समय अत्यन्त सूक्ष्म होता है और प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होने के कारण इसे पर्याय कहते हैं । यहाँ एक शंका हो सकती है, इस ‘समय, घण्टा, मिनिट' आदि के अतिरिक्त और कोई निश्चयकाल नहीं है । काल के दो भेद की कोई आवश्यकता नहीं है। इसका समाधान है - काल के दो भेद अनिवार्य हैं, क्योंकि 'समय, मिनिट, घंटा' आदि काल का ही पर्याय है, और पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती । जिस प्रकार घट रूप पर्याय का कारण मिट्टी है। उसी प्रकार समय, मिनिट आदि पर्यायों का कारण कालाणु रूप निश्चयकाल को मानना चाहिये । पुनः इसके समाधान में एक शंका हो सकती है कि समय-मिनिट आदि पर्यायों का कारण द्रव्य नहीं है, परन्तु मन्दगति से जाने वाले पुद्गल परमाणु ही इनका कारण है । जिस प्रकार निमेष रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में आँखों की पलकों का खुलना और बन्द होना कारण है, उसी प्रकार व्यवहारकाल के 'दिन' रूप पर्याय की उत्पत्ति में सूर्य कारण है, न कि निश्चयकाल । इसका समाधान इस प्रकार दिया जा सकता है कि कारण और कार्य में परिवर्तन होने पर भी समानता अवश्य पायी जाती है। आँखों का खुलना और बन्द होना निमेष का, एवं दिन रूप पर्याय का कारण सूर्य ही उत्पादन कारण होता तो जिस प्रकार मिट्टी से बने घड़े में मिट्टी के रूप रस गुण आदि आते हैं, उसी प्रकार निमेष एवं दिन में क्रमशः आँखों की पलकों के खुलने और बंद होने के तथा सूर्य आदि के पुद्गल परमाणु आ जाते, परन्तु इस प्रकार से हमें इनमें ये पुद्गल उपलब्ध नहीं होते । अतः मानना होगा कि समय आदि व्यवहारकाल का उपादान कारण निश्चय काल है । काल का मुख्य उपकार पदार्थों के परिवर्तन में उदासीन सहयोग देना है। परिवर्तन दो प्रकार का है- क्षेत्रात्मक और भावात्मक । क्षेत्रात्मक परिवर्तन २४८ For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य द्वारा होता है, और भावात्मक परिवर्तन काल द्वारा निष्पन्न होता है। काल के अभाव में गुणात्मक या भावात्मक परिवर्तन की कल्पना संभव नहीं बनती। क्षेत्रात्मक परिवर्तन की प्रतिक्षण संभावना नहीं होती; जबकि भावात्मक परिवर्तन तो प्रारंभ ही रहता है। यह भावात्मक परिवर्तन भी दो प्रकार का होता है- सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म परिवर्तन वह जो पदार्थ के अन्दर ही अन्दर होता रहता है। यह परिवर्तन दृष्टिगत नहीं होता । स्थूल परिवर्तन वह है जो बाहर से दृष्टिगत हो जाता है, परन्तु यह स्थूल परिवर्तन बिना सूक्ष्म परिवर्तन के संभव ही नहीं है; क्योंकि पदार्थ एकदम नहीं बदलता। छोटा सा बच्चा प्रतिक्षण कद में बढ़ रहा है, परन्तु वह महसूस नहीं होता; क्योंकि परिवर्तन सूक्ष्म है । यह सूक्ष्म परिवर्तन सभी द्रव्यों में 'पाया जाता है । स्थूल परिवर्तन मात्र जीव और पुद्गल में ही पाया जाता है। पुद्रल, मैटर और महाभूत प्रायः समानार्थी हैं: अंग्रेजी में जिसे 'मैटर' कहा जाता है, जैन आगमों की भाषा में उसी को पुद्गल कहा जाता है। जो कुछ भी चित्र-विचित्र विविध स्वरूप हम देखते हैं, वह सारा पुद्गल का ही स्वरूप है। जैन आगमों ने संपूर्ण पदार्थों को छह काय में समाहित किया है- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस । जब तक आत्मा इनमें विद्यमान होती है, ये जीवयुक्त कहलाते हैं। आत्मा के विमुक्त होते ही ये अजीव शुद्धपुद्गल होते हैं । जीवों का वर्गीकरण इन पौगलिक शरीरों के आधार पर ही किया गया है। जरा हम दृष्टिपात करें-सृष्टि के चारों ओर ऐसा कौन सा दृष्ट पदार्थ है जो कभी जीवाश्रय न रहा हो? चाहे पानी हो या आग, चाहे रत्न हो या . फल-फूल, सभी तो जीव पिंड या जीवाश्रय हैं। ये छह काय भी पंचभूतों में समाविष्ट हो जाते हैं। छह काय में जो वनस्पति और त्रसकाय गिनाया है, ये दो इन पंच महाभूतों के संघात या मिलन से ही बनते हैं। इसका स्पष्ट विवेचन इस प्रकार से है - पृथ्वी, जल आदि पंच महाभूतों के मेल में जिस भूत का अंश ज्यादा होगा, वह उसके अनुरूप ही बनेगा। जैसे पांचों के संघात में पृथ्वी का अंश ज्यादा है तो वह वस्तु ठोस होगी। यदि जल की अधिकता हो तो तरल होगी, तेज की २४९ For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकता होने पर उष्णवान एवं वायु की अधिकता से हल्की एवं संचरणशील और यदि आकाश का भाग अधिक हो तो खाली स्थान रूप दिखाई देगा । जैसे वर्षा के दिनों में यद्यपि वायु जलमिश्रित होती है, फिर भी कहलाती वायु ही है और गर्मी के मौसम में यद्यपि वायु में तेज या आग का मिश्रण रहता है, फिर भी कहते उसे वायु ही हैं । इसका कारण वायु की अधिकता / मुख्यता है । वनस्पति के विकास से भी पौद्रलिकता सिद्ध होती है। बीज को पृथ्वी में डालकर जल से सिंचन करते हैं, उसमें से अंकुर फूटता है जो वायु को एवं सूर्य के तेज को लेकर वृद्धि को प्राप्त होता है तथा फल और फूलों से युक्त बनता है । इस प्रकार हम देखते हैं, वृक्ष के विकास में पृथ्वी, जल, तेज और वायु, चारों ही भूतों का योगदान रहा है । वृक्ष अपनी संपूर्णता प्राप्त कर भी इन चारों से युक्त रहता है । जैसे उसकी टहनियों में पृथ्वी अधिक है और जल कम, अतः वह कुछ ठोस है । पत्तों में उसकी अपेक्षा अधिक जल है और फूलों में उससे अधिक जल है। शेष जो ईंधन है, वह ठोस होने के कारण पृथ्वी का भाग है। फल-फूलों की चमक अग्नि का भाग है और इन सबमें जो पोलापन है, वह आकाश है। अगर पोलापन नहीं होता तो उसमें कील आदि प्रविष्ट नहीं हो सकती । पोलापन में वायु भी होती है, अतः कहा जा सकता है कि वृक्ष या वनस्पति इन पंचमहाभूतों काही संयोग हैं। हम इन पंचमहाभूतों से व्याप्त अपने शरीर को सदैव देखते ही हैं। इस प्रकार गूढ़ दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह संपूर्ण संसार पंच महाभूतों की ही रचना है । पुद्गल को और भी गहराई से जानने का अगर प्रयास किया जाय तो लगता है कि सृष्टि में इन पांच महाभूतों का ही स्वतन्त्र अस्तित्त्व नहीं है । इन पंच महाभूतों का आधार भी वास्तव में 'इलेक्ट्रोन', 'प्रोटोन' आदि नामों वाले पदार्थ हैं । इनमें न्यूनाधिक संगम से ही महाभूतों का या पदार्थों का निर्माण होता है। ये इलेक्ट्रोन और प्रोटोन आदि इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता । अगर तात्र्त्विक दृष्टि से देखें तो सोने और लोहे में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों इलेक्ट्रोन और प्रोटोन के संगम से बने हैं। पदार्थों में दोनों तत्त्वों की न्यूनाधिकता अवश्य होती है। इन दोनों का आधार भी परमाणु हैं । २५० For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस परमाणु को विज्ञान अभी तक खोज नहीं पाया है । क्योंकि विज्ञान का परमाणु विभिक्त होता है, जबकि जैनदर्शन का परमाणु विभक्त नहीं होता । समस्त भौतिक तत्त्वों का मुख्य आधार परमाणु ही है । यह परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होता है, इसे न इन्द्रिय द्वारा देखा जा सकता है और न यन्त्र द्वारा। इसे तो मात्र परमात्मा की वाणी द्वारा जाना जा सकता है । जब अनेकों परमाणु एकत्रित होते हैं तभी वे स्कन्ध कहलाते हैं और हमारे दृष्टिपंथ में अवतरित होते हैं । 1 वैशेषिक दर्शन में परमाणुवाद मुख्य विषय है । वे चारों जातियों के अलग-अलग परमाणु मानते हैं । प्रत्येक में गुणों की भी अलग-अलग कल्पना करते हैं, जैसे पृथ्वी परमाणु में मात्र गन्ध-गुण, जल में मात्र रस-गुण, अग्नि के परमाणु में मात्र रूप- गुण, वायु में मात्र स्पर्श - गुण, परन्तु उनकी यह मान्यता विज्ञान द्वारा भी खंडित हो जाती है । आज यह प्रमाणित तथ्य है कि पृथ्वी हो या जल - ये इलेक्ट्रोन और प्रोटोन के मिश्रण से ही बने हैं और दोनों के मूल में भी परमाणु हैं । इस दृष्टि से मूल द्रव्य परमाणु ही ठहरता है। जैनदर्शन मूलतत्त्व परमाणु मानता है, परन्तु जैन दर्शन का यह परमाणु वैशेषिक की तरह कूटस्थ नित्य नहीं है, अपितु परिणामी नित्य है । जितने भी द्रव्य होते हैं, वे सभी परिवर्तनशील तो होते ही हैं । इन परमाणुओं के गुणों में भी तारतम्य होता रहता है, जैसे स्पर्श-गुण को लें । स्पर्शगुण में मुख्यतः चार बातें पायी जाती हैं - ठण्डा, गरम, चिकना, और रूखा। चिकने और रूखे पर हम दृष्टिपात करेंगे; क्योंकि इन्हीं के कारण बन्ध और मुक्ति है। चिकने से तात्पर्य आकर्षण और रूखेपन से तात्पर्य विकर्षण से है जिसे वैज्ञानिक प्रोटोन (आकर्षण) और इलेक्ट्रोन (विकर्षण) कहते हैं। 1 जीव का संसार इन पुलों का आत्मा से संयोग के कारण ही है । जीव मिथ्यात्वादि क्रियाओं से कर्म पुगलों को आकर्षित करता है और वे कर्म पुगल ही संसार का निर्माण करते हैं । मन, वचन और काय - इन पुगलों की ही देन है । जैनदर्शन ने श्वास को भी पुद्गल माना है । आकाश के प्रत्येक प्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु भरे पड़े हैं । परिणमनशील होने के कारण ये परमाणु स्वतः रूक्ष और स्निग्ध होते रहते हैं । ये रूक्ष और स्निग्ध रूपों में विभक्त परमाणु विज्ञान को प्रोटोन और इलेक्ट्रोन के रूप 1 २५१ For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मान्य हैं । ये आकर्षित होने और आकर्षित करने की शक्ति से युक्त हैं। इन परमाणुओं में से एक वर्गजिसे जैनसिद्धान्त में कार्मण वर्गणा कहते हैं, आत्मा की क्रियाओं से आकृष्ट होकर आत्मप्रदेशों से एकक्षेत्रावगाह रूप में चिपक जाते हैं जिन्हें शुद्ध क्रिया के अभाव में अलग नहीं किया जा सकता। इन पुद्गल परमाणुओं के सम्मिश्रण की अवस्था में आत्मा को एक अपेक्षा से पदल भी कहा जाता है। पुद्गल की संयोगावस्था आत्मा को अशुद्ध बना देती है और यह अशुद्धावस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक आत्मा अपने स्थायी आवास सिद्धपद को उपलब्ध नहीं करती। जैनदर्शन के प्रतिपादन का केन्द्रबिन्दु जीव है : जैनदर्शन का एक मात्र लक्ष्य है जीव; जीव को जानना, उसे समझना और उसकी संपूर्ण शुद्धि के प्रयास करना। अजीव का स्वरूप और परिचय देने का कारण भी जीव ही है। जब हम यह समझ लें कि जीव क्या है और अजीव क्या है? तभी अजीव से जीव को मुक्त करने का पुरुषार्थ कर सकते हैं। जब तक उसका संपूर्ण परिचय प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक जीव को अजीव से मुक्त नहीं कराया जा सकता। जितना सूक्ष्म वर्गीकरण जैनदर्शन ने जीव का किया है, अन्य दर्शन नहीं कर पाये और इसी वर्गीकरण के कारण जैनदर्शन की अहिंसा भी उतनी ही सूक्ष्म होती गयी। जीव का अपना मूल स्वभाव है समता, सरलता और विरक्ति । यह ठीक वैसे ही है जिस प्रकार 'जल' मूल स्वभाव से शीतल है, परन्तु आग के संयोग के कारण गर्म होता है और कृत्रिम साधनों से अलग होते ही पुनः मूल स्वरूप में स्थिर बन जाता है। यहाँ यदि यह प्रश्न उठाया जाये कि जीव में कर्म का संयोग कब से है, तो इसका समाधान यही है कि अनादि से। जिस प्रकार खान का सोना कब अशुद्ध बना- इसका उत्तर समायवधि के रूप में नहीं दिया जा सकता, वैसे ही आत्मा का कर्म-संयोग कब बना, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। हाँ इतना निश्चित है कि एकबार शुद्ध होने के बाद पुनः वह अशुद्ध नहीं होता। २५२ For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा शब्दातीत मानी गयी है; क्योंकि वह अमूर्त है। अमूर्त्त का न आकार होता है न रूप । जितना भी आकार है वह सारा पुद्गल का है। भारतीय मनीषियों में मात्र चार्वाक के अतिरिक्त सभी ने आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया है। मात्र स्वीकृति ही दी - ऐसा भी नहीं है, उसके स्वरूप और विश्लेषण में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया है । भिन्न-भिन्न मतों का कारण भी यही रहा । जिन्हें जो सत्य तथ्य लगा, उसे उन्होंने सिद्धान्त का रूप दे दिया । उपनिषद् की दृष्टि ब्रह्मवादी दृष्टि है। उन्होंने संसार को ब्रह्म का अंश माना है । जैनदर्शन जीव को स्वतन्त्र अस्तित्व युक्त मानता है। इसमें चैतन्य सहज स्वाभाविक है । जीव भी अनादि अनन्त है । यह संसार जीव रहित कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार गणित में अनन्त में से अनन्त निकालें तो अनन्त ही शेष रहेंगे, वैसे ही अनन्त जीव मोक्ष को प्राप्त कर लें फिर भी अनन्त जीव संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे । जीव का विकास उसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है । निगोद से जीव की विकास यात्रा प्रारम्भ होती हुए मोक्ष तक पहुँचकर पूर्णता को प्राप्त करती है । शक्ति की दृष्टि से सभी जीव समान हैं, चाहे एकेन्द्रिय जीव हो या पंचेन्द्रिय, बलाबल की समानता होने पर भी कुछ जीव पूर्णता को उपलब्ध कर लेते हैं और कुछ जीव भटकते रहते हैं । इसका कारण जीव की स्वाभाविक अनन्त और असीम शक्ति को कुछ तो पुरुषार्थ द्वारा प्रकट कर देते हैं और कुछ जीव पुरुषार्थहीन होकर जहाँ-तहाँ भ्रमण करते रहते हैं । जीव के संबन्ध में जैनदर्शन की अन्य दर्शनों से अलग विलक्षण और अलौकिक मान्यता यही है कि जैनदर्शन में ईश्वर आदर्श या प्रेरक जरूर है परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जीव स्वयं ही अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी मंजिल तय करता है तथा ईश्वरत्व को उपलब्ध कर लेता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मास्वरूप है । ऐसा नहीं कि एक ही ईश्वर है और अन्य सभी भक्त के रूप में ही रहते हैं । अपितु प्रत्येक आत्मा ईश्वर - शक्ति से संपन्न है । २५३ For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन के आचारपक्ष की स्थापना का कारण जीव की अपनी सता और शक्तियों का प्रकट करना ही है । जीव के वर्गीकरण की सूक्ष्मता को पहचान करके हम अपने आपको उन जीवों की हिंसा से विरत करें एवं अपने निज स्वरूप अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र को उपलब्ध करें। २५४ For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ - ग्रन्थ सूची ३. अकलंकत्रयी- अकलंक देव, सं. महेन्द्रकुमार शास्त्री, प्र. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद सन् १९३९ अध्यात्म रहस्य - (हिन्दी व्याख्या सहित) पं. आशाधर सं.पं. जुगल किशोर मुख्तार, प्र. वीर सेवा मंदिर, दिल्ली सन् १९५७ अध्यात्मकाल मार्तण्डः- पं. राजमल्लजी, सं. प्रं. दरबारीलाल कोठिया, पं. परमानन्द जैन, प्र. वीर सेवा मंदिर, सरसावा, जिला सहारनपुर, प्रथमावृत्ति सन् १९४४. . अध्यात्म मत परीक्षा- रचि. यशोविजय, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४ प्र. सं. अधि-नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धांत - डॉ. वेदप्रकाश शर्मा, प्र. अलाईट पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, १५ जे. एन. हिरेडिया मार्ग, बैलर्ड एस्टेट बम्बई,प्र. सं. १९८७ अनुयोगद्वार सूत्र- चतुर्थ खण्ड, सं. देवकुमार जैन प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८७ अभिनव पर्यायवाची शब्द कोष-सत्यपाल गुप्त व श्यामकपूर, प्र. आर्य बुक डिपो, नयी दिल्ली, सन् १९६० अष्टसहस्री- प्रथम भाग, श्री विद्यानंदाचार्य, ज्ञानमति माताजी प्र. दि. जैनत्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (उ.प्र.) प्र. सं. १९७२. अष्ट पाहुड-चयनिका- सं. डॉ. कमलचंद सोगानी, प्र. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्र. सं. १९८७ अष्ट पाहुड (हिन्दी वचनिका सहित)- कुन्दकुंदाचार्य, प्र. अनंतकीर्ति माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं. १९१६. ११. अष्टसहस्री- विद्या नन्दि, स. गुरुवर गोपालदास, प्र. नाथूलाल गांधी श्री नाथारंगजी, सन् १९१५. १२. अर्हत्-प्रवचन-स. पं. चेनसुखदास, प्र. आत्मोदय ग्रन्थमाला. ७. २५५ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आगमयुग का जैनदर्शन-पं. दलसुख मालवणिया, प्र. सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९६६. १४. आचारांग चयनिका - सं. डॉ. कमलचन्द सोगानी, प्र. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर दि. सं. १९८७. १५.. आचारांग नियुक्ति- भद्रबाहु (दि.) प्र. सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई, वि.सं. १९३५. १६. आत्मानुशासन - ले. गुणभद्र, सं. बालचंद्र सिद्धांतशास्त्री, प्र. जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर, तृ. सं. १९८७ १७. आत्ममीमांसा- (हिन्दी विवेचन सहित) पं. मूलचन्द्रजी शास्त्री, प्र.श्री शान्तिवीर दि. जैन संस्थान, सन् १९७० १८. आत्मवाद-ले. मुनि फूलचन्द्र ‘श्रमण' सं. मुनि समदर्शी, प्र. प्राचार्य श्री आत्माराज जैन प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, लुधियाना प्र.सं.१९६५. १९. आत्म तत्त्व विचार- प्रथम भाग, श्रीमद् लक्ष्मण सूरीश्वरजी म., सं. श्री कीर्तिविजय गणिवर, प्र. बी.बी. मेहता. , २०. आत्म-प्रसिद्धि-ले. हरिलाल जैन, श्री सेठी दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई, . वी. नि. सं. २४९०. २१. आत्ममीमांसा की तत्त्वदीपिका नामक व्याख्या- रचित आ. समन्तभद्र, ले. प्रो. उदयचन्द्र जैन, प्र. श्री गणेशवणी दिगम्बर जैन संस्थाण नरिया, वाराणसी, प्र. सं. वी. नि. सं. २४०१ २२. आप्तपरीक्षा- विद्यानन्द, अनु. पं. दरबारीलाल जैन, प्र. वीर सेवा मंदिर, सहारनपुर, सन् १९४९. २३. आयारो-सं. मुनि नथमल, प्र. जैन विश्व भारती, लाडनूं, वि.सं.२०३१. २४. आलाप पद्धति- देवसेन, सं.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी. सन्.१९७१ २५. उत्तराध्ययन सूत्र- प्रथम खण्ड (१ से १०) सं. श्रीचंद सुराणा 'सरस' प्र. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर प्र. सं. १९८७. २५६ For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय खण्ड ( ११ से २२) सं. श्रीचंद सुराणा 'सरस' प्र. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर प्र. सं. १९८५. २७. उत्तराध्ययन सूत्र - तृतीय खण्ड (२३ से ३६) सं. श्रीचंद सुराणा 'सरस' प्र. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर प्र. सं. १९८०. २८. कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि- सुषमा गॉंग, निर्दे. डॉ. दयानंद भार्गव, प्र. भारतीय विद्या प्रकाशन, १ यू. बी. जवाहर नगर बैग्लो रोड दिल्ली, प्र. सं. १९८२. हिन्दी अनु. प्रो. २९. गणधरवाद - गुजराती, ले. पं. दलसुख मालवणिया, पृथ्वीराज, प्र. राजस्थान प्राकृत भारतीय संस्थान जयपुर, प्र. सं. १९८२. ३०. गणधारवाद - ले. पं. श्री. भानुविजयजी, प्र. दिव्यदर्शन प्र. विज्ञान, आत्मानन्द जैन सभा भवन, घी वालों का रास्ता, जयपुर-३. ३१. गणितानुयोग - स मुनि कन्हैयालाल कमल, प्र. आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद वी. नि.सं. २४९५. ३२. ग्रीक एवं मध्ययुगीन दर्शन का वैज्ञानिक इतिहास - ले. जगदीश सहाय श्रीवास्तक, प्र. किताब महल, १५ थानी हिल रोड, इलाहाबाद, प्र. सं. १९६८ ३३. गोम्मटसार जीवकाण्ड (हिन्दी अनुवाद सहित ) - नेमीचन्दाचार्य सिद्धांतचक्रवर्ती, द्वितीयावृत्ति, प्र. रायचन्द्र जैन शास्त्रामाला, परमश्रुत, प्रभावक मण्डल, बम्बई, वी. नि. सं. २४५३. ३४. जैन धर्म दर्शन - ले. मुनि नथमल, प्र. सेठ मन्नालालजी सुराणा मेमोरियल ट्रस्ट ८१ संदर्भ एवेन्यू कलकत्ता - २९, प्र. सं. १९६० ३५. जैन धर्म - ले. डॉ संपूर्णानन्द, प्र. मंत्री साहित्य विभाग भा. दि. जैन संघ चौरासी, मथुरा प्र. सं. १९४८. ३६. जैन दर्शन और अनेकान्त - युवाचाय महाप्रज्ञ, प्र. कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक, आदर्श साहित्य संघ चुरू (राज.).. ३७. जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान-मुनि श्री नगराजजी, सं. सोहनलाल, प्र. रामलालपुरी, संचालक, आत्माराम एण्ड सन्स कश्मीरी गेट, दिल्ली २५७ For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, सन् १९५९ ३८. जैनदर्शन में आत्म विचार - ले. डॉ. लालचन्द जैन प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी - ५ प्र. सं. १९८४. ३९. जैन भारती - ले. श्री ज्ञानमती माताजी, प्र. दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) प्र. सं. १९९० ४०. जैनदर्शन: आधुनिक दृष्टि- डॉ. नरेन्द्र भानावत, प्र. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर प्र. सं. १९८४ ४१. जैन सिद्धांत - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली प्र. सं. १९८३. ४२. जैन तत्त्व मीमांसा - फूलचन्द्र सिद्धांत शास्त्री, प्र. अशोक प्रकाशन मंदिर २/ ३८ भदैनी, वाराणसी. ४३. जैन दर्शन में पदार्थ विज्ञान - ले. जिनेन्द्र वर्णी, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाबन बी/४५-४७ कनॉट प्लेस, नयी दिल्ली, प्र. सं. १९७७. ४४. जैनेन्द्र- सिद्धांत - कोश - द्वितीय भाग, जिनेन्द्र वर्णी, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वि. सं. १९८६. ४५. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग द्वितीय, ले. डॉ. सागरमल जैन, प्र. राजस्थान प्राकृत भारतीय संस्थान, जयपुर प्र. सं. १९८२. ४६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् - विद्यानन्दि, सं. पं. मनोहरलाल, प्र. गांधी नाथारंग - जैन ग्रन्थमाला, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई वी. नि. स. २४४४. ४७. तैत्तिरीय उपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर. ४८. तर्कभाषा - केशव मिश्र, प्र. सं. सी., चौक, वाराणसी. ४९. तर्क संग्रह - अन्नंग भट्ट, प्र. हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी, सप्तम स., वि. सं. २०२६ ५०. तत्त्वार्थवृत्ति ( हिन्दी सार सहित ) श्रुतसागर, सं. महेन्द्रकुमार जैन, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी. ५१. तत्त्वविज्ञान - श्रीमद्रायचन्द्र, प्र. श्री मद्रायचन्द्र ज्ञान प्रचारक ट्रस्ट, २५८ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजभवन, दिल्ली दरवाजा बाहर अहमदाबाद, प्र. सं. १९६३. ५२. तत्त्वार्थसूत्र - वाचक उमास्वाति, टी. सुखलाल, प्र. जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी, सन् १९५२. ५३. तत्त्वार्थराजवार्तिक - भाग १,२ - आचार्य अकलंक देव, सं. पं. महेन्द्रकुमार जैन, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् १९५६. ५४. तत्त्वज्ञान - ले. डॉ. दीवानचन्द, प्र. हिन्दी सूचना विभाग उत्तरप्रदेश, १९६८. ५५. दर्शन के मूल प्रश्न- डॉ. शिवनारायण लाल श्रीवास्तव, प्र. मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी भोपाल प्र. सं. १९८१ ५६. दर्शन और चिंतन - ले. पं. सुखलाल, खण्ड प्रथम, द्वितीय प्र.पं. सुखलालजी सन्मान-समिति गुजरात विद्यासभा अहमदाबाद प्र. सं. १९५७. ५७. दर्शन और अनेकान्त - ले. पं. हंसराज शर्मा, प्र. श्री आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक - मण्डल रोशन मोहल्ला आगरा, प्र. सं. १९२८. ५८. दर्शन पाहुड - कुन्दकुन्दाचार्य, प्र. - माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं. वि. सं. १९७७. ५९. दीघ निकाय - (हिन्दी) अनुवादक - राहुल सांस्कृत्यायन, प्र. महाबोधि सभा सारनाथ, सन् १९३६. ६०. द्रव्यानुभव रत्नाकर - अभयदेवसूरि, ले. चिदानन्दजी. ६१. द्वैत वेदान्त का तात्त्विक अनुशीलन- डॉ. कृष्णकान्त चतुर्वेदी, प्र. विद्यामंदिर, दिल्ली, सन् १९७१. ६२. धर्म दर्शन, मनन और मूल्यांकन - ले. देवेन्द्रमुनि शास्त्री, प्र. श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर प्र. सं. १९८५. ६३. धर्म और दर्शन - ले. देवेन्द्रमुनि, प्र . सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा२ प्र. सं. १९६१. ६४. धम्मपद - अनुवादक राहुल सांस्कृत्यायन, प्र. महाबोधि - सभा, प्र. सं. १९३३. २५९ For Personal & Private Use Only सारनाथ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. धवला (हिन्दी अनवाद सहित)- वीरसेन, पं. सं., अमरावती ६६. न्यायमंजरी- न्यायभट्टविरचित, सं. नगीनजी शाह, प्रथम आह्निकम् प्रकाशक, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अहमदाबाद-९, प्र. सं. १९७५. ६७. न्यायमंजरी- न्यायभट्ट विरचित, सं. नगीनजी शाह द्वितीय आह्निकम् प्रकाशक, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामनदिर, अहमदाबाद-९, प्र.सं. १९७८. ६८. न्यायमंजरी- न्यायभट्टविरचित, सं. नगीजनी शाह तृतीय आह्निकम्, प्रकाशक, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद-९, प्र.सं. १९८४. ६९. न्यायमंजरी-न्यायभट्टविरचित, सं. नगीजनी शाह तृतीय आह्निकम्, प्रकाशक, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद-९, प्र. सं.१९८९. ७०. नियमसार- व्या. पद्मप्रभमधारिदेव, गुजराती अनुवादक पं. हिम्मत जेठालाल शाह, हिन्दी अनुवादक पं. परमेष्ठीदास, प्र. श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट ए-४, बापूनगर, जयपुर प्र. सं. १९८८.. ७१. नियमसार- कुन्दकुन्दाचार्य, प्र. जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई; १९१६. ७२. नयचक्र, माइल्ल धवल-सं. और हिन्दी टीका व्याख्याकार पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्र. सं. १९७१. ७३. न्यायकुमुदचन्द्र- प्रभाचन्दाचनर्य (भाग१-२) सं. पं. महेन्द्रकुमार न्यायशास्त्री, प्र. - मंत्री श्री नाथुराम प्रमी माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, गिरगांव, बम्बई-४, प्रभमावृत्ति वी.नि.सं. २४६४ ७४. न्यायदीपिका, अभिनव धर्म भूषण, सं. और अनुवादक न्यायचायर पं. दरबारीलाल जैन कोठिया, प्र.-वीर सेवा मंदिर, सरसावा, जिला सहारनपुर, प्रथमावृत्ति १९४५. ७५. न्यायदर्शन (वात्सायन भाष्य सहित), सं. श्रीनारायण मिश्र, प्र. चौखम्भा सं. सीरीज वाराणसी, द्वितीय सं. १९७० २६० For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. न्यायविनिश्चय विवरण, भट्टाकलंकदेव, सं.पं. महेन्द्रकुमार जैन, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्र.सं. १९५४. ७७. न्यायसूत्रः गौतम ऋषि, सं.पं. श्रीराम शर्मा, आचार्य संस्कृति संस्थान, बरेली, प्र. सं. १९६४. ७८. न्यायावतार वार्तिक वृत्तिः शान्तिसूरि, सं. पं. दलमुख-मालवणिया, प्र. सिंधी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, प्रथमावृत्ति, सन्१९४९. ७९. नयचक्रसार अने गुरुगुण छत्तीसी- श्रीमद्देवचन्दजी श्री अध्यात्म दर्शन प्रचारक मण्डल पाडरा द्वितीयावृत्ति संवत् १९८५. ८०. नन्दीसूत्र - व्या. श्री आत्मारामजी म., प्र.आ. श्री आत्मारामजी जैन समिति, लुधियाना, सनप १९६६. ८१. नयदर्पण- भाग प्रथम, द्वितीय, ले. जिनेन्द्रवर्णी, प्र.दि. जैन पारमर्थिक संस्थाएँ जवेरीबाग, इन्दौर (म.प्र.) प्र.सं. १९६५. ८२. प्रज्ञापना सूत्र- प्रथम खण्ड, सं. ज्ञानमुनि, प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) प्र.सं. १९८३. ८३. प्रज्ञापना सूत्र -द्वितीय खण्ड, सं.ज्ञानमुनि, प्र.श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) प्र.सं. १९८४. ८४. प्रज्ञापना सूत्र -तृतीय खण्ड, सं. ज्ञानमुनि, प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) प्र.सं. १९८०. ८५. प्रवचनसार सूत्र- श्री अमृतचन्दाचार्य देव कृत तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीका एवं श्री जयसेनाचार्यदेव विरचित तात्पर्य वृत्ति नामक संस्कृत टीका ..सहित, प्र. श्री वीतराग सत्साहित्य प्रसारण ट्रस्ट, ६०२, कृष्णानगर, भावनगर (गुज.) प्र. सं. वि. सं. २०२६.. प्रवचन रत्नाकर- प्रथम खण्ड, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, अनुवादक पं. .. रतनचन्द्र भारिल्ल, प्र. पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४ बापूनगर -जयपुर प्र. सं. १९८१. ८७. प्रवचन रत्नाकर-द्वितीय खण्ड, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, अनुवादक पं. २६१ For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतनचन्द्र भारिल्ल, प्र. पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४ बापूनगर -जयपुर प्र. सं. १९८२. ८८. प्रवचन रत्नाकर-तृतीय खण्ड, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, अनुवादक पं. रतनचन्द्र भारिल्ल, प्र. पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४ बापूनगर -जयपुर प्र. सं. १९८३. ८९. प्रवचन रत्नाकर- चतुर्थ खण्ड, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, अनुवादक पं. रतनचन्द्र भारिल्ल, प्र. पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ए-४ बापूनगर -जयपुर प्र. सं. १९८५. प्रमाण नय तत्त्वालोकः विवेचन और अनुवादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल न्यायतीर्थ, प्र. आत्म जागृति कार्यालय, श्री जैन गुरुकुल शिक्षण संघ, ब्यावर (राज.) प्रथमावृत्ति सन् १९४२. प्रमेयकमलमार्तण्डः प्रभाचन्द्राचार्य, सं.पं. महेन्द्रकुमार शास्त्री, प्र.-निर्णय सागर प्रेस, द्वितीय सं. १९४१ ९२. प्रमेयरत्नमाला (हिन्दी व्याख्या सहित) लघु अनंतवीर्य, व्याख्याकार तथा संपादक पं. श्री हीरालालजी जैन, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, प्र.सं.वि.सं. २०२०. ९३. प्रवचनसारः कुन्दकुन्दाचार्य- संपादक आ. ने उपाध्ये, प्र. परम श्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास तृतीय सं. १९६४. ९४. पंचाध्यायी (पूर्वार्ध-उत्तरार्ध): पं. राजमल, सं.पं. फूलचंद सिद्धांत शास्त्री, वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी. पतंजलि योगदर्शन भाष्यः महर्षि व्यासदेव, प्र. श्री लक्ष्मी निवास चड़क, अजमेरत द्वितीय सं. सन् १९६१. ९६. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (हिन्दी अनुवाद सहित): अमृतचन्द्रासूरि, प्र.भा.जै. सि. प्र. सं. कलकत्ता, वी.सं. २४५२. ९७. परमात्मप्रकाशः (संस्कृत वृत्ति एवं हिन्दी भाषा टीका सहित): योगीन्द्रदेव, सं. आदिनाथ नेमीनाथ उपाध्ये, प्र. परमश्रुत प्रभावक मण्डल, ९५. २६२ For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८. रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला जौहरी बाजार, बम्बई-२, द्वितीय सं.वि.सं.२०१७. प्रमाणप्रमेय कलिका- रचित नरेन्द्रसेन, ले.श्री हीरालाल शास्त्री, सं. दरबारीलाल जैन, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,प्र.सं.वी.नि.सं.२४८७. पंचास्तिकाय संग्रहः (हिन्दी अनुवाद सहित) प्राप्ति स्थान श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र). १००. पाश्चात्य आधुनिक दर्शन की समीक्षात्मक व्याख्या-सं.या.मसीह, प्र. मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड जवाहरनगर, दिल्ली,प्र.सं. १९३३. १०१. प्रशमरति- प्रथम भाग, रचित उमास्वाति, विवेचन भद्रगुप्त विजयजी गणिवर, प्र. श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट, कम्बोई नगर के पास, मेहसाना (गुज.).प्र. सं. वि. सं. २०४२. १०२. प्रशमरति-द्वितीय भाग, रचित उमास्वाति, विवेचन भद्रगुप्त विजयजी गणिवर, प्र. श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट, कम्बोई नगर के पास, मेहसाना (गुज.) प्र. सं. वि. सं. २०४२.. १०३. प्रश्न व्याकरण सूत्र - अनुवादक हस्तिमलजी मुनि, प्र. श्री हस्तिमलजी . सुराणा, पाली, सन् १९५० १०४. बृहत् -द्रव्यसंग्रह- रचित नेमीचन्द्र सिद्धान्तिन्तदेव, अनुवादक राजकिशोरजी जैन, प्र. श्री वीतराग सत् साहित्य प्रचारक ट्रस्ट भावनगर, प्र. सं. वि. सं. २०३३ १०५. भारतीय दर्शन- प्रथम खण्ड, सं. डॉ. राधाकृष्णन्, प्र. राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली -६, प्र. सं. १९७२. १०६. भारतीय दर्शन- द्वितीय खण्ड, सं. डॉ. राधाकृष्णन्, प्र. राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-६, प्र. सं. १९७३. १०७. भारतीय दर्शन- ले. बलदेव, प्र. चौखम्भा ओरियन्टालिया पोस्ट बाक्स - नं. १०३१ वाराणसी (उ.प्र.) प्र.सं. १९९०. १०८. भारतीय दर्शन- ले. चक्रधर शर्मा, प्र. मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स ... बंगलो रोड जवाहरनगर, दिल्ली प्र. सं. १९९० २६३ For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९. भारतीय दर्शन की रूपरेखा-सं. एम. हिरियन्ना, प्र. राजकमल प्राइवेट लिमिटेड ८, नेताजी सुभाष मार्ग, नयी दिल्ली प्र. सं. १९६५. ११०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान- डॉ. हीरालाल जैन, प्र. मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषदप भोपाल सन् १९६२. १११. भगवान महावीर आधुनिक सन्दर्भ में-सं. डॉ. नरेन्द्र भानावत सह सं.डॉ. शान्ता भानावत्, प्र. श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन रामपुरिया सड़क, बीकानेर (राज.) प्र. सं. १९७४. .. ११२. मोक्षमार्ग प्रकाशक- ले. पं. टोडरमल, सं. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, प्र. सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान, दि. जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट ए-४ बापूनगर जयपुर। ११३. मूलाचार- रचित आ. वट्टकेर, टीकानुवाद ज्ञानमतीजी, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली प्र. सं. १९४४. ११४. मीमांसा दर्शन- मण्डन मिश्र, प्र. रमेश बुक डिपो, जयपुर, प्र. सं. सन् १९५५. ११५. मीमांसा दर्शन (शाबर भाष्य): शाबर स्वामी) कु. चौक काशी. ११६. मुण्डकोपनिषद्- गीता प्रेस गोरखपुर. ११७. योगसार (हिन्दी अनुवाद सहित): अमित गति, प्र. भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता, प्र.सन.वी.नि.सं. २४४४. ११८. योगसार (परमात्म प्रकाश के अन्तर्गत संस्कृत छाया और हिन्दी सार), योगीन्द्र देव, प्र. परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्री राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, द्वि.सं. वि. सं. २०१७. ११९. योगदृष्टि समुच्चय- आ. हरिभद्रसूरीश्वर रचित, व्याख्यात, भुवनभानु सूरीश्वर, सं. पद्मसेन विजय भाग, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट ६८ गुलालबाड़ी बम्बई, प्र. सं. वि. सं. २०४०. १२०. वसुनन्दि श्रावकाचार- आ. वसुनन्दिकृत सं. हीरालाल सिद्धांतशास्त्री, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्र. सं. १९६६. २६४ For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९. वैशेषिक दर्शन ( प्रशस्त पादभाष्य: महर्षि प्रशस्तपाद देव. चौखम्भा संस्कृत सीरीज आफिस वाराणसी, प्र. सं. १९६६. १२२. विवाहपण्णत्तिसूत्रं - प्रथम भाग, पं. बेचरदास जीवराज दोसी, प्र. श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, पं. सं. १९७४. १२३. विवाहपण्णत्तिसूत्रं - द्वितीय भाग, सं पं. बेचरदास जीवराज दोसी, प्र. श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, पं. सं. १९७८. १२४ विवाहपण्णत्तिसूत्रं - तृतीय भाग, सं पं. बेचरदास जीवराज दोसी, प्र. श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, पं. सं. १९७८. १२५. विवाहपण्णत्तिसूत्रं - चतुर्थ भाग, सं पं. बेचरदास जीवराज दोसी, प्र. श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, पं. सं. १९७८. १२६ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र - प्रथम भाग, सं. अमरमुनि प्र. श्री आगम प्रकाशनसमिति ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८२. " १२७ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र - द्वितीय भाग, सं. अमरमुनि, प्र: श्री आगम प्रकाशनसमिति ब्यावर- (राज.) प्र. सं. १९८३. १२८. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र - तृतीय भाग, सं. अमरमुनि प्र. श्री आगम प्रकाशनसमिति ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८५. १२९. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र - चतुर्थ भाग, सं. अमरमुनि प्र. श्री आगम प्रकाशनसमिति ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८६. १३०. विशेषावश्यक भाष्य-भाग प्रथम, श्री जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण विरचित, मलधारी श्री हेमचंद्रसूरि विरचितम्, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, तीसरा माला बम्बई, प.सं. २०३९. १३१ विशेषावश्यक भाष्य - भाग द्वितीय, श्री जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण विरचित, मलधारी श्री हेमचंद्रसूरि विरचितम्, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, तीसरा माला बम्बई, प.सं. २०३९. १३२. राजप्रश्नीय सूत्र - द्वितीय खण्ड, सं. रतनमुनि प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, पीपलिया बाजार ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८२. २६५ For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३. श्री ललित विस्तरा- हिन्दी विवेचन प्रकाशन सहित, रचित. श्री हरिभद्र सूरीश्वर. १३४. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता टीका, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वर, व्याख्याकार यथोविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी प्रथम स्तबक, प्रकाशक चौखम्भा ओरियन्टालियक, पो.आ. चौखम्भा पो. बाक्स नं. ३२ गोकुल भवन के. ३७/१०९ गोपाल मंदिर लेन, वाराणसी, प्र.सं. १९७७. १३५. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, द्वितीय स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. १३६. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता,तृतीय स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. १३७. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, चतुर्थ स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. १३८. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, पंचम स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. प्र. सं. वि. सं. २०३९. १३९. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, सप्तम स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य दर्शन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. प्रं. सं. वि. सं. २०४०. १४०. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, अष्टम स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य र्दन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. प्रं. सं. वि. सं. २०३८. २६६ For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१. शास्त्रवार्ता- समुच्चय और उसकी स्याद्वाद-कल्पलता, नवम, दशम, एकादश स्तबक, रचित आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी, व्या. यशेविजय गणिवर्य, हिन्दी विवेचन पं. श्री बदरीनाथजी, प्र. दिव्य र्दन ट्रस्ट, ६८ गुलालवाड़ी, बम्बई-४. १४२. षड्दर्शन रहस्य- पं. रंगनाथ पाठक, प्र. विहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना उ.प्र. सं. १९५८. १४३. षड्दर्शन-समुच्चय-हरिभद्रसूरि विरचित, सं. डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाश, नयी दिल्ली सं. १९८१ । १४४. षड्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित) भूतबलि पुष्पदन्त, प्र. जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती, प्र. आवृत्ति सन् १९३९. १४५. सूत्र कृताङ्ग सूत्र- प्रथम खण्ड, प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९८२. १४६. सूत्र कृताङ्ग सूत्र- द्वितीय खण्ड, प्र. श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राज.) प्र. सं..१९८२. अप्रैल. १४७. स्थानांग सूत्र (ठाणं सूत्र) - सं. मुनि नथमल, प्र. जैन विश्व भारती लाडनूं - (राज.) प्र. सं. १९७६. १४८. सभाष्य तत्त्वार्थाधिम सूत्र- रचित श्री उमास्वाति, अनुवादक पं. खूबचंदजी, प्र. मीठालाल रेवाशंकर जगजीवन झवेरी, आ. व्यवस्थापक परमश्रुत प्रभावक जैन मंडल झवेरी बाजार, बम्बई-२ प्र. सं. १९३२. १४९. समयसार-रचित श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य देव, गुजराती टीकाकार श्री .. हिम्मतलाल जेठालाल शाह हिन्दी अनुवादक पं. परमेष्ठीदासजी, प्र. श्री . वीतराग सत् साहित्य प्रसारक ट्रस्ट भावनगर (गुज.) प्र. सं. वी.नि. सं. २५०५. १५०. स्याद्वादमंजरी-रचित हेमरचन्द्राचार्य, सं. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन प्र. श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमद्रामचन्द्र आश्रम अगास प्र. सं. १९७९. १५१. सर्वदर्शनसंग्रह (हिन्दी टीका सहित), माधवाचार्य, प्र. चौखम्भा संस्कृत .. सीरीज, वाराणसी. २६७ For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. सांख्यकारिका (गोडपादभाष्य): ईश्वरकृष्ण, दृ.कु. चौकासी वि.सं. १८७२. १५३. सांख्यसूत्रम्-कपिलमुनि, सं. श्री रामशंकर भट्टाचार्य, प्र. भारतीय विद्या. प्रकाशन, वाराणसी, वि. सं. २०२२. १५४. सिद्धिविनिश्चय-टीका, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, काशी प्र. सं. सन् १९५१. १५५. स्याद्वाद रत्नाकर- भाग प्रथम, श्री मद्वादिदेवसूरि विरचिंत, प्र. भारतीय बुक कार्पोरेशन, १ यू. बी. जवाहरनगर, बैग्लो रोड, दिल्ली, प्र. सं. १९८८. १५६. स्याद्वाद रत्नाकर- भाग द्वितीय, श्री मद्वादिदेवसूरि विरचित, प्र. भारतीय बुक कार्पोरेशन, १ यू. बी. जवाहरनगर, बैग्लो रोड, दिल्ली, प्र. सं. १९८८. १५७. सवार्थ सिद्धि- रचित श्रीमदाचार्य पूज्यपाद, सं. पं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोधी रोड, नयी दिल्ली-३ प्र.सं. १५८. सम्मति तर्क प्रकरण- खण्ड प्रथम, सिद्धसेन दिवाकर, व्याख्याकार आ. अभयदेवसूरिजी, प्र. सेठ मोतीशा लालबाग जैन ट्रस्ट पाजरा पोल कम्पाउण्ड-भुलेश्वर, बम्बई, प्र. सं. वि. सं. २०४०. १५९. सांख्य-तत्त्व-कौमुदी-वाचस्पति मिश्र, हि.टी. गजानंद शास्त्री, प्र. चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी, वि.सं. २०२८. १६०. सप्तभंगी तरंगिणी-विमलदास, हि.टी. मनोहरलालजी, प्र. परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, सन् १९१६. १६१. सिद्धांतसार-आचार्य नेमीचन्द्र, सं. ए. एन. उपाध्ये व डॉ. हीरालाल जैन, प्र. जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर सन् १९७२. १६२. श्री पुष्कर मुनि अभिनंदन ग्रन्थ, प्र. पुष्कर मुनिजी अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) प्र. सं. १९७९. १६३. श्री कस्तूरचन्द्रजी म. जन्म शताब्दी ग्रन्थ, प्र. श्री प्रताप मुनि ज्ञानालय, २६८ For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी सादड़ी (राज.). १६४. मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, प्र. मुनि हजारीलाल स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) प्र. सं. १९६५. १६५. साध्वी श्री पुष्ववती - अभिनंदन ग्रन्थ, प्र. श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपूर (राज.) प्र. सं. १९८७. १६६. कसुम अभिनन्दन ग्रन्थ, प्र. श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) प्र. सं. १९९० १६७. मरुधर केसरी श्री मिश्रीमलजी अभिनंदन ग्रन्थ, प्र. मरुधर केसरीअभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशन समिति जोधपुर, प्र. सं. १९६८. १६८. ब्र. पं. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, प्र. अ. भा. दि. जैन महिला परिषद् श्री जैन बालाः धर्मकुंज, धनुपुरा आरा, वी. नि. सं. २४८०. १६९. SPACE, TIME AND GRAVITATION SIR ARTHUR, EDDINGTON CAMBRIDGE UNIVERSITY PRESS NEWYORK. १७०. PHILOSOPHY OF PHYSICAL SCIENCE-A EDDINGTON, OXFORD PRESS. १७१. SCIENCE AND UNSEEN WORLD - A. N. WHITE HEAD. १७२. THE NATURE OF THE PHYSICAL WORLD EINSTEIN. १७३. PRASAMRATIPRAKARAN, EDITED AND TRANSLATED DR. Y.S.SHASTRI L.D. INSTITUTE OF .INDOLOGY AHEDMDABAD - 1984. १७४. TRAREVESES ONLESS TRODDEN, PATH OF INDIAN PHILOSOSPHY AND RELIGION, BY Y.S.SHASTRI, L.D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHEMDABAD - 1991. १७५. वैज्ञानिक अर्न्तदृष्टि, बर्टेण्ड रसल अनुदित, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली. १७६. पैंतीस बोल विवरण, मुनि कान्तिसागर, हरि विहार, पालीताना. २६९ For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० रू ३० रू ३०रू ३० रू or m हमारे प्रकाशन प्रवचन साहित्य...... उठ जाग मुसाफिर भोर भइ (अप्राप्य) अमर भये ना मरेंगे (अप्राप्य) बीती रजनी जाग जाग (अप्राप्य) जय सिद्धाचल (अप्राप्य) तीर्थंकर तारणहार रे (अप्राप्य) मणिमंथन/मणिप्रभसागर जागरण/मणिप्रभसागर विद्युत् तरंगें/साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा नवप्रभात/मणिप्रभसागर पाथेय/आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि अनुगूंज/आचार्य जिकान्तिसागरसूरि प्रीत प्रभु से कीजिये/साध्वी विज्ञांजनाश्री प्रार्थना/संकलन काव्य साहित्य. चिंतन चक्र (अप्राप्य) अमीझरणा (अप्राप्य) पूजन सुधा (अप्राप्य) वंदना (अप्राप्य) बज उठी बांसुरी (अप्राप्य) समर्पण (अप्राप्य) चौवीशी (अप्राप्य) शत्रुजय स्तवनावली (अप्राप्य) संगीत के स्वर (अप्राप्य) ३०रू or . . . . . . . . . . . . . . २७० For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 쉬 쉬 쇄 쇄 쇄 의 स्तुति स्तवन सज्झाय संग्रह (अप्राप्य) ऋषिदत्ता रास/मणिप्रभसागर मलयसंदरीरास/मणिप्रभसागर पूजन वाटिका /मणिप्रभसागर नाच उठा मन मोर/मणिप्रभसागर सुधारस/मणिप्रभसागर प्रतिध्वनि/मणिप्रभसागर कथा साहित्य. राही और रास्ता (अप्राप्य) अधूरा सपना (अप्राप्य) । इनसे शिक्षा लो (अप्राप्य) गुरूदेव की कहानियाँ भाग १,२ (अप्राप्य) भीगी भीगी खुश्बू (अप्राप्य) दिशा बोध (अप्राप्य) जटाशंकर/मणिप्रभसागर स्वप्नदृष्टा/साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा इतिहास................ दादा चित्र संपुट (अप्राप्य) नाकोडा तीर्थ का इतिहास (अप्राप्य) अनुभूति अभिव्यक्ति (अप्राप्य) क्षमाकल्याणचरित्रम् (अप्राप्य) करूणामयी मां (अप्राप्य) जैन तीर्थ परिचायिका तस्मै श्रीगुरवे नमः/मणिप्रभसागर गुरूदेव/साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा :11 १०० रू 커 30 २७१ For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भ कुशल गुरूदेव /साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा जहाज मंदिर का इतिहास/मणिप्रभसागर परिचय पुस्तिका (अप्राप्य) तत्वज्ञान........... पंच प्रतिक्रमण विधि सहित पंच प्रतिक्रमण अर्थ सहित पंच प्रतिक्रमण सूत्र दो प्रतिक्रमण सूत्र दो प्रतिक्रमण विधि सहित प्यासा कंठ मीठा पानी/मुनि मनितप्रभसागर जीवविचार प्रकरण सार्थ/मुनि मनितप्रभसागर प्रीत की रीत/साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा ज्ञानसार सार्थ/पद्यानुवाद/मणिप्रभसागर स्वाध्याय माला/संकलन पहला पाठ/संकलन । १५० रू ४० रू २०रू ४० रू ३०रू 3 २रू शोध प्रबन्ध....................................... द्रव्य विज्ञान/साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा ५० रू सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन/ साध्वी डॉ. नीलांजनाश्री . १५० रू विविध............ विहार डायरी/मणिप्रभसागर स्तोत्र वाटिका/संकलन प्रवज्या योग विविध/सं. मणिप्रभसागर दीक्षा रंग शाला भाग १ से ८ . 11 २७२ For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक / मिश्रीमल बोथरा सुप्रभातम् / संकलन भव आलोचना /मुनि मनितप्रभसागर क्षमापना / मुनि मनितप्रभसागर मिच्छामि दुक्कडम् / मुनि मनितप्रभसागर जैन धर्म और विज्ञान / डॉ. एम. आर. गेलडा जहाज मंदिर पत्रिका मासिक-प्रकाशन पंचांग का प्रतिवर्ष प्रकाशन प्रेस में.. दादावाडी दर्शनम् (प्रेस में) . बारसा सूत्र (प्रेस में) श्रमणाचार (प्रेस में) देवद्रव्यादि विचार (प्रेस में) • प्रवाह (प्रेस में) गुरूदेव की कहानियाँ (प्रेस में) वक्त की आवाज (प्रेस में) नवतत्त्व सार्थ (प्रेस में) दंडक सार्थ (प्रेस में) लघु संग्रहणी सार्थ (प्रेस में) २७३ For Personal & Private Use Only भेंट ५ रू ५ रू ५ रू १०० रू Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 . . . . आशीः गौरव और आह्लाद का विषय है कि बहिन साध्वी डॉ. विद्युत्प्रभा का शोध प्रबंध जनता को प्रस्तुत हो रहा है। विद्युत्प्रभा की लेखनी समरसता, प्रवाहमयता और प्रस्तुतीकरण की अनूठी क्षमता का पर्याय है। उसने 'द्रव्य' जैसे गूढ़ विषय पर शास्त्रीय मन्तव्यों के साथ अपने चिन्तन को शब्द-स्वर दिया है। इस ग्रन्थ की महत्ता व उपयोगिता स्वयं सिद्ध है। मेरा अन्तःकरण इस ग्रन्थ के प्रकाशन की बेला में प्रमुदित है, इस भरोसे के साथ कि यह ग्रन्थ विद्वज्जनों द्वारा समादरणीय बनेगा। इस अपेक्षा के साथ कि ऐसे ही गूढ़ विषयों पर और भी चिन्तन चलेगा, और कलम बहेगी, साध्वी विद्यत्प्रभा की उज्ज्वल गति-प्रगति के लिए मैं आशीर्वाद देता हूँ। RAMANTILITTA क Histore Satsanste Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनकान्तिसूरी स्मारक जहाज मंदिर, मांडवला For Personal sPrivateuse only STOR 000000000 000000000