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फिर प्रश्न होता है कि तब धर्म और अधर्म को मानने का क्या कारण है? इसका समाधान अमृतचन्द्राचार्य देते हैं। उनके अनुसार यदि 'धर्म' और 'अधर्म' गति और स्थिति के मुख्य हेतु मान लिये जायें तो जिन्हें गति करनी है वे गति ही करेंगे, और जिन्हें स्थिति रखनी है वे स्थिति ही रखेंगे। दोनों गति और स्थिति एक पदार्थ में नहीं पायी जाती, जबकि गति और स्थिति दोनों ही एक धर्मी में पाये जाते हैं। अतः अनुमान है कि ये व्यवहारनय द्वारा स्थापित उदासीन कारण हैं।"३८
अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता:____ गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा-भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीव को क्या लाभ होता है? भगवान् ने कहा-यदि अधर्मास्तिकाय नहीं होता तो जीव खड़ा कैसे होता? बैठना, मन को एकाग्र करना, मौन करना, निस्पंद होना, करवट लेना आदि जितने भी स्थिर भाव हैं, वे अधर्मास्तिकाय के कारण हैं ।३९
सिद्धसेन दिवाकर धर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय के स्वतन्त्र द्रव्यत्व को आवश्यक नहीं मानते, वे इन्हें द्रव्य की पर्याय मात्र स्वीकार करते हैं।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व की सिद्धिः
प्रश्न है कि चूँकि आकाश सर्वगत है, अतः उसे ही गति और स्थिति में सहायक मान लेना चाहिये । पृथक् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को मानने का क्या औचित्य है? इसका समाधान है कि 'आकाश' धर्म और अधर्म आदि सभी द्रव्यों का आधार है, जैसे-नगर समस्त भवनों का आधार है। आकाश का उपकार अवगाहन निश्चित है तो उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते, अन्यथा तरलता और उष्ण गुण भी पृथ्वी के मान लेने चाहिए। यदि आकाश को गति
और स्थिति का सहायक माना जाये तो जीव और पुद्गल की गति अलोकाकाश में भी होनी चाहिए। और तब, लोक और अलोक की विभाजन रेखा ही समाप्त
३८. पं.का. ता. वृ. ८९ ३९. भगवती १३.४.२५ ४०. प्रयोगविस्त्रसाकर्म, तद्भाविस्थितिस्तथा । लोकानुभाववतांत, किं धर्माधर्मयोः फलंनि.द्वा.२४
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