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कुल में जन्म होता है, उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं । ३७४
- गोत्र कर्म से तात्पर्य जीव के आचार विचार से है, शरीर या रक्त से नहीं। इसीलिये गोत्र को जीवविपाकी कहा है ।३७५ अन्तराय कर्म :
. जो कर्म विघ्न या बाधा उत्पन्न करता है, प्राप्ति की इच्छा होते हुए भी प्राप्त नहीं करने देता, देने की इच्छा होते हुए भी नहीं देने देता, भोग और उपभोग की इच्छा होते हुए भी भोगने नहीं देता, उत्साहित नहीं होने देता, इनके कारणों को अन्तराय कर्म कहते हैं ।३७६
इसके पाँच भेद हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । ३७७ जीव और पर्याप्ति :__पर्याप्ति छः प्रकार की होती है- आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ।३७८ प्रज्ञापनासूत्र में भाषा और मन दोनो को संयुक्त मानकर पाँच पर्याप्तियों का निरूपण किया गया है । ७९ .
मृत्यु के पश्चात् संसारी जीव दूसरा जन्म लेने के लिये योनिस्थान में प्रवेश करते ही अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है, इसी को आहार कहते हैं । इस आहार वर्गणा को शरीर, इन्द्रिय आदि में परिणत करने की जीव शक्ति का पूर्ण हो जाना पर्याप्ति है।
जीवों के चौदह भेद होते हैं ।३८° प्रत्येक जीवों में पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो भेद होते हैं। वे पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, इन पर्याप्तियों की पूर्णता और अपूर्णता से होते हैं। शरीर आदि पूर्ण रहने पर जीव पर्याप्त और अपूर्ण रहने पर अपर्याप्त ३७४. स.सि. ८.१२.७५७ ३७५. स.सि. ८.१२ का “विशेषार्थ' पृ. ३०८ ३७६. स.सि. ८.१३.७५९ ३७७. त. सू. ८.१३ एवं उत्तराध्ययन ३३.१५ ३७८. नवतत्त्व प्रकरण ६ ३७९. प्रज्ञापना २८.१९०४ ३८०. समवायांग १४.१
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