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मोहनीय :
मोहनीय कर्म को संसार का मूल कारण माना जाता है। इसी कारण कर्म विषयक विवेचक के आरम्भ में इसका परिचय दिया गया है। यह आत्मा का शत्रु है क्योंकि इसी के कारण समस्त दुःख हैं। इसे शराब की उपमा दी गई है। आयु कर्म :
किसी विवक्षित शरीर में जीव के रहने की अवधि को आयु कहते हैं। इसकी तलना कारागार से की गयी है। जिस प्रकार न्यायाधीश अपराधी को कारागार में डाल देता है, तब न चाहते हुए भी उसे वहाँ रहना पड़ता है।३६८
आयु कर्म चार प्रकार का है - नरकायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और देवायु।३६९
अधिक परिग्रही, आसक्त, हिंसक, कृतघ्न, उत्सूत्ररूपक आदि स्वरूप वाला जीव नरकायु का बन्ध करता है। इसी प्रकार कपटी, मायावी, प्रपंची आत्मा तिर्यंचायु का, अल्प कषायी, दानरुचि, सौम्य, मनुष्यायु का एवं पंचमहाव्रत धारी साधु, व्रतधारी, श्रावक, देवायु का बन्ध करते हैं । ३७० नाम कर्मः -
जिसका निमित्त पाकर आत्मा गति, जाति, संस्थान, शरीर आदि प्राप्त करता है, वह नाम कर्म है । ३७१
इसके मुख्य दो भेद हैं- शुभ और अशुभ । शुभ और अशुभ के अनेकों उत्तरभेद भी होते हैं । ३७२ गोत्र कर्म:
गोत्र कर्म के मुख्य दो भेद हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र ।३७३ जिसके उदय से पूजनीय कुल में जन्म होता है, वह उच्च गोत्र कर्म है, और जिसके उदय से निंदनीय
३६८. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ११ ३६९. त.सू.८.१० एवं ठाणांग ४.२८६ ३७०. पैंतीस बोल विवरण पृ. २.३ ३७१. स.सि. ८.११.७५५ ३७२. उत्तराध्ययन ३३.१३ ३७३. त.सू. १२
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