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अध्याय : द्वितीय जैन परम्परा मान्य द्रव्य का लक्षण
.. भूत और भविष्य को जोड़ने वाला वर्तमान है। यदि वर्तमान न हो तो भूत
और भविष्य दोनों महत्त्वहीन हैं। जिसका हम आज अस्तित्व स्वीकार करते हैं, निःसंदेह अतीत में भी उसका अस्तित्व रहा है और भविष्य में भी रहेगा। अवस्था में परिणमन तो अनिवार्य है, परन्तु परिणमन के मध्य कुछ ऐसा अप्रकंप तत्त्व है जो सर्वदा स्थायी है। दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य उसे ही कहते हैं जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में प्रतिपल परिणमन तो करे, परन्तु अपने मौलिक स्वभाव की अपेक्षा नित्य रहे। सत् और द्रव्य एक ही है; अथवा यह भी कह सकते हैं- जो सत् है, वही द्रव्य
- अवस्थाओं का परिणमन उसी में संभव है जो ध्रुव या नित्य रहे। नित्य की अनुपस्थिति में न तो पूर्ववर्ती अवस्था संभव है और न ही उत्तरवर्ती । नित्य का लक्षण वाचक उमास्वाति ने इस प्रकार बताया है- जो अपने भाव से कभी च्युत न हो, वह नित्य है।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की इस व्याख्या से युक्त परिणमन की परम्परा से युक्त होकर भी द्रव्य अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं करता। अतः इस सत् (द्रव्य) को त्रिलक्षण ही कहना चाहिये। द्रव्य में न तो मात्र-उत्पाद संभव है और न ही मात्र व्यय और ध्रौव्यता के अभाव में उत्पाद-व्यय किसके आश्रित होंगे। प्रतिपल उत्पाद-व्यय की स्थिति के मध्य भी द्रव्य के अपने स्वरूप की हानि नहीं होती। १. भारतीय दर्शनः बलदेव उपाध्याय पृ. ११ २. उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्- त.सू. ५.२९ . ३. गोयमा सद्दव्वयाए- भ. ८.९.५५ ४. तद्भावाव्यय नित्यम्-त.सू. ५.३० ५. एवमस्य स्वभावत एव त्रिलक्षणायां....सत्वमनुमोदनीयम्-प्र.सा.त.प्र.वृ.९९ ६. ण भवो भंगविहीणो.....विणो धोव्वेण अत्थेण - प्र.सा. १००
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