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द्रव्य और सत्ता इनमें मात्र शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि द्रव्य और सत्ता-इन दोनों का एक ही अर्थ में प्रयोग मिलता है । द्रव्य और सत्ता के एकार्थक होने का कारण प्रवचनसार में इस प्रकार से कथन प्राप्त होता है- “द्रव्य यदि सत् नहीं है तो असत् होगा; और असत् तो द्रव्य नहीं हो सकता, अतः द्रव्य स्वयं सत्ता है।” ७
चेतन और अचेतन जितने भी हैं, वे सभी द्रव्य कहलाते हैं। चेतन और अचेतन द्रव्यों में उत्पाद-व्यय वैसे ही होता है जिस प्रकार मृत्पिंड से घड़े का निर्माण और पिण्डावस्था का नाश । मिट्टी से जब घड़ा बना तब मृत्पिंडाकार का व्यय हुआ और घट की उत्पत्ति हुई, परन्तु इन दोनों ही अवस्थाओं में मृत्तिका की स्थिति यथावत् (ध्रुव) रहती है। ____ आचार्य गुणरत्नसूरि ने 'षड्दर्शन समुच्चय टीका' में सत् की यही व्याख्या दी है-समस्त वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हैं, क्योंकि वे सत् हैं । जो उत्पाद-व्यय युक्त नहीं हैं, वे सत् नहीं हैं। लोकभाषा में 'सत्' शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते हैं, पर यहाँ 'सत्' का अर्थ अस्तित्व है। ___ स्वयं हरिभद्रसूरि ने “उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त” को ही सत् के रूप में प्रतिष्ठित किया हैं।११
“पंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य ने द्रव्य की व्याख्या इस प्रकार दी है'“जो 'सद्भाव' पर्यायों को द्रवित होता है, प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, और ऐसा द्रव्य सत्ता से अनन्यभूत है।"१२९
अगले ही श्लोक में उन्होंने द्रव्य के तीन लक्षण बताये-जो सत् लक्षण वाला हो, जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त हो एवं जो गुण-पर्यायों का आश्रय हो, ७. पादुव्भवाद य अण्णी......उप्पण्णं - प्र.सा. १०३ ८. ण हवदि जदि सद्दव्वं......दव्वं सत्ता-प्र.सा. १०५ ९. “चेतनस्य अचेतनस्य......घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमा.......घटोत्पत्तो पिण्डाकृतेः"
स.वा. ५.३० ४९४-९५ १०. सर्व वस्तूत्पाद्रव्यय......तत्सदपि न भवति-षड्दर्शन टी. ५७.३६० ११. तत्रेह विवक्षातः.......वेदितव्यः - स.वा. ५.३०.४९५ १२. येनोत्पाद.....तत्सदिष्यते-षड्दर्शन ५७.
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