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ईर्यापथ का विवेक अनियतकाल सामायिक है ।३३४ (२) छेदोपस्थापनीय :- यह संयमधारी साधु-साध्वी में पाया जाता है। छोटी दीक्षा के पर्याय का छेद करके बड़ी दीक्षा के अनुष्ठान को छेदोपस्थापनीय कहते. हैं ।३३५ अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोस्थापनीय चारित्र है ।३३६ . (३) परिहारविशुद्धि :- प्राणी वध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। इससे युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है३३७ अथवा विशिष्ट श्रुतपूर्वधारी साधु संघ से अपने को अलग करके आत्मा की विशुद्धि के लिए जिस अनुष्ठान को करता है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है । ३३८ (४) सूक्ष्म संपराय :- जिस चारित्र में कषाय अति अल्प या सूक्ष्म हो जाय, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र है ।३३९ (५) यथाख्यात चारित्र :- मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है, उस अवस्थास्वरूप अपेक्षा लक्षण से जो चारित्र होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं । ३४०
लेश्या और जीव :
लेश्यासिद्धान्त जैनदर्शन का प्रतितन्त्र सिद्धान्त है। अन्य दर्शनों में इसका कोई परिचय प्राप्त नहीं होता । सशरीर संसारी जीव के कषायसापेक्ष आत्मपरिणाम को लेश्या कहते हैं । अर्थात् आत्मा के जो भाव कषाय के भाव और अभाव को प्रगट करें, वह लेश्या हैं । कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) के तरतमभाव से भी लेश्याभेद होता है और कषाय के अभाव से भी । सयोगी केवली के कषायों का अभाव होने पर शुक्ललेश्या होती है । अयोगी केवली के शरीर भी नहीं होता
३३४. स.सि. ९.८.८५४ ३३५. पैंतीस बोल विवरण पृ. ५२ ३३६. स.सि. ९.८.८५४ ३३७. स.सि. ९.८.८५४ ३३८. पैंतीस बोल विवरण पृ. ५२ ३३९. स.सि. ९.८.८५४ ३४०. वही
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