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________________ कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चयनय को भूतार्थ अर्थात् वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ग्राहक और व्यवहारनय को अभूतार्थ वस्तु के अशुद्धस्वरूप का विवेचक कहा बद्रव्यों का विभाजन: जैनदर्शन ने द्रव्यों की संख्या छह स्वीकार की है। उन छः द्रव्यों के विभिन्न विभाजन हैं, वे यहाँ (अपेक्षा से) प्रस्तुत हैं। चेतन-अचेतन की अपेक्षाः द्रव्य दो हैं जीव और अजीव । चेतना और उपयोग जीव के लक्षण हैं इनके विपरीत लक्षणों वाला अजीव है ।११८ मूर्त-अमूर्त की अपेक्षा: आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं, पुद्गल द्रव्य मूर्त है ।१९९ क्रियावान और भाववान की अपेक्षाः.. धर्म, अधर्म, काल और आकाश निष्क्रिय हैं, पुद्गल और जीव सक्रिय है। यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है ।१२० प्रवचनसार के अनुसार 'पुद्गल' और 'जीव' भाव वाले और क्रिया वाले होते हैं, क्योंकि परिणाम, संघात और भेद के द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्राप्त करते हैं। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल मात्र भाववान् हैं, क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है। भाव का लक्षण परिणाम मात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदन । १२१ एक और अनेक की अपेक्षाः धर्म, अधर्म और आकाश-द्रव्य की अपेक्षा एक ही हैं, जीव और पुद्गल ११७. ववहारो मुदत्थो....हवदि जीवो-स.सा. ११. ११८. प्रवचनसार १२७, पं. का. १२४ ११९. पं. का. ९७ १२०. अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां.....सक्रियत्वमर्यादापन्नम्-स.सि.५.७.२७३. १२१. क्रियाभाववत्वेन..... क्रियावंतश्च भवन्ति ।- प्र.सा.त.प्र. १२९ . ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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