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________________ विभाग इस प्रकार होता है- पर्यायार्थिक नय मात्र भावनिक्षेप को तथा द्रव्यार्थिक नय अवशिष्ट तीनों को ग्रहण करता है ।१०९ . . .... दोनों नय मिलकर ही सत् के लक्षण ग्रहण करते हैं, क्योंकि सत् का लक्षण सामान्य और विशेष दोनों से मिलकर बनता है ।११० द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अवस्तु है और पर्यायार्थिक नय का वक्तव्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अवस्तु है। क्योंकि द्रव्यार्थिक नय मात्र सामान्य को ही देखता है और पर्यायार्थिक नय मात्र विशेष को ही देखता है ।१११ ___ अगर एक ही नय से समस्त वस्तु धर्मों को ग्रहण करें तो सत् में परिणमन संभव नहीं हैं क्योंकि यदि मात्र द्रव्यार्थिक नय को स्वीकार करें तब तो संसार में परिवर्तन संभव ही नहीं, क्योंकि यह नय मात्र शाश्वत की अपेक्षा कथन करता है। और इसी प्रकार, मात्र पर्यायार्थिक नय में भी संसार संभव नहीं, क्योंकि यह मात्र अशाश्वत धर्मों की अपेक्षा कथन करता है ।११२ सुख-दुःख की कल्पना नित्यानित्य पक्ष में ही संभव है।१९३ पुद्गलों का योग होने से कर्मबन्ध होता है और कषाय के कारण बंधे हुए कर्मों की स्थिति का निर्माण होता है। एकान्त रूप से क्षणिक या शाश्वत बन्ध स्थिति का निर्माण असंभव है ।११४ बन्ध और स्थिति के अभाव में न तो संसार में भय की प्रचुरता होगी और न मुक्ति की आकांक्षा ।११५ - आध्यात्मिक दृष्टि से भी निश्चयनय और व्यवहारनय की ही मान्यता है ।११६ १०९. स. सि. १.२४.११६ ११०. एए पुण संगहओ....मूलणया- स.त. १.१३ १११. स.त. १.११ ११२. स.त. १.१७ ११३. स.त. १.१८ ११४. कम्म जोगानिपित्तं....बंधट्ठिइकारणंणत्थि- स.त. १.१९ ११५. बंधम्मि अपूरते.....णत्थि मोक्खोय । - स.त. १.२० ११६. नयसागर गा. १८३ - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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