SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि भिन्न-भिन्न दर्शनों में उपरोक्त विरोधी युगलों का प्रतिपादन उपलब्ध होता है, परन्तु जिस प्रकार का तर्कयुक्त और स्पष्ट प्रतिपादन जैन दर्शन में है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । इतर दर्शनों में सप्रतिपक्ष वस्तु का विवेचन अपवाद रूप में ही उपलब्ध होता है। यद्यपि नय में वस्तु के एक ही अंश को ग्रहण किया जाता है, फिर भी अन्य सभी धर्मों की अपेक्षा रहती है । प्रमाण 'तत्' और 'अतत्' - सभी को जानता है, नय में केवल 'तत्' की प्रतीति होती है । १०२ सापेक्षता नय का प्राण है । जो परपक्ष का निषेध करके अपने ही पक्ष में आग्रह रखते हैं, वे सारे मिथ्या हैं । १०३ जब वे परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यग् होते हैं, जैसे मणियाँ जब तक धागे में पिरोई नहीं जाती तब तक माला नहीं बनती । १०४. चूँकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनके धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त हैं, और उन अनन्त अभिप्रायों के कारण नय भी अनन्त हैं, १०५ फिर भी इन्हें मुख्यरूप से दो भागों में बाँटा गया है । वस्तु स्वरूपतः अभेद है और अपने में मौलिक है, परन्तु गुण और पर्याय के • धर्मों द्वारा अनेक है । अभेदग्राही दृष्टि द्रव्यार्थिक नय और भेदग्राही दृष्टि पर्यायार्थिक 1 नय कहलाती है । १०६ स्वामी कार्तिकेय ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है - युक्ति के बल से जो पर्यायों को कहता है वह पर्यायार्थिक १०७ और जो वस्तु के सामान्य स्वरूप को कहता है वह द्रव्यार्थिक नय है । १०८ नयों की अपेक्षा से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार निक्षेपों का १०२. धर्मांतरादान्योपेक्षां तदन्यानिराकृतेश्च - अष्ट. पृ. २९०. १०३. निरपेक्षा... नर्थकृत. - आ. मी. १०४. जहणेय लक्खणगुणा.... विसेसण्णाओ । - स.त. १.२२.२५ १०५. जावइया वयणपट्टा..... वयवाया । - स. त. ३.४७ १०६. दव्वठ्ठियवत्तत्त्वं.. .... पज्जव्व वन्तव्वभग्योय - स. त. १.२९ १०७. का. प्रे. १०.२७० १०८. वही १०.२६९ Jain Education International ६१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy