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________________ बना देते हैं। यहाँ विवेचित एवं सिद्धसेन द्वारा निरूपित उत्पादादि में कालभिन्नता कार्य की पूर्णता की दृष्टि से है। प्रक्रिया की अपेक्षा से तो काल की अभिन्नता ही है। भारत में मुख्यरूप से तीन प्रकार की विचारधारा पायी जाती हैपरिणामवादी, संघातवादी, और आरम्भवादी। सांख्य वस्तु का मात्र रूपान्तर मानते हैं, अतः वे परिणामवादी हैं; बौद्ध स्थूल को भी सूक्ष्म द्रव्यों का समूहमात्र मानते हैं, अतः संघातवादी; और वैशेषिक अनेकों द्रव्यों के संयोग से अपूर्व नवीन वस्तु या द्रव्य की उत्पत्ति मानते हैं, अतः वे आरम्भवादी कहलाते हैं। . __ जैन दर्शन न आरम्भवादी, न संघातवादी और न ही परिणामवादी है, वह कथंचित् सभी को मानता है। सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं: सत् स्वयं अपने परिणमनशील स्वभाव के कारण परस्पर निमित्तनैमित्तिक बनकर प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री के अनुसार समस्त कार्य उत्पन्न होते हैं और पर्याय की अपेक्षा से विनष्ट भी। इनमें परस्पर कार्य-कारण भाव बनते हैं, फिर भी 'सत्' स्वतन्त्र और परिपूर्ण है। वह अपने गुण-पर्याय का स्वामी भी है और आधार भी। ___एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई नया परिणमन नहीं ला सकता। जैसी-जैसी सामग्री उपस्थित होती जाती है, कार्य-कारण नियम के अनुसार द्रव्य स्वयं वैसा वैसा परिणत होता जाता है । जिस समय प्रबल बाह्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती, उस समय द्रव्य स्वयं की प्रकृति के अनुसार सदृश या विसदृश परिणमन करती ही है। एक द्रव्य दूसरे में कोई नया गुणोत्पाद नहीं करता। सभी द्रव्य अपने अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं अर्थात् पर्याय परिवर्तन करते हैं । ५७ इसी तरह प्रत्येक द्रव्य अपनी परिपूर्ण अखंडता और व्यक्ति स्वातन्त्र्य की चरमनिष्ठा पर अपने-अपने परिणमन चक्र का स्वामी है। कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य ५७. समयसार ३७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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