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जैनदर्शन ने नित्य का लक्षण अनुत्पन्न, अप्रच्युत और स्थिररूप स्वीकार हुए नित्य का लक्षण दिया-- अपने स्वरूप का नाश जो नहीं करता (तद्भावाव्ययं नित्यं ) । तथा द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वीकार किया ।
जैन दर्शन ने न केवल पुद्गल और आत्मा का ही परिणमन स्वीकार किया, अपितु धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य का भी परिणमन स्वीकार किया, यद्यपि इन चारों का स्वाभाविक परिवर्तन ही स्वीकार्य है, क्योंकि इनका वैभाविक परिणमन संभव नहीं है। जीव और पुद्गल में भी जो परिवर्तन होता है, वह सर्वथा विलक्षण परिणमन नहीं होता । इस परिवर्तन में जो समानता होती है, वह द्रव्य है और जो असमानता है, वह पयाय है । द्रव्य में उत्पाद की स्थिति होने पर भी उसकी स्वरूपहानि कभी नहीं होती ।
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जिस द्रव्याक्षरत्ववाद की स्थापना १९८९ में Lowoisier ( लाओजियर) वैज्ञानिक ने की, उसकी तुलना अगर हम जैनदर्शन के द्रव्य स्वरूप से करें तो कोई अनुचित नहीं होगा। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार भी अनन्त विश्व में द्रव्य का परिणमन्र होता है, पर द्रव्य का विनाश कभी नहीं होता । उदाहरण के रूप में कोयले में होने वाले परिवर्तन को लें, कोयला जलकर राख हुआ तो हमने व्यवहार की भाषा में कह दिया- कोयला जलकर नष्ट हो गया, परन्तु गहराई से देखा जाये तो वह नष्ट नहीं हुआ, अपितु वायुमंडल में ऑक्सीजन के अंश के साथ मिलकर कुछ अंश कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के रूप में परिवर्तित हो गया और कुछ ठोस राख में बदल गया ।
जैनदर्शन इस परिवर्तनवाद को परिणामिनित्यत्ववाद भी कहता है । इसी परिणमिनित्यत्ववाद की आधारशिला से जैनदर्शन के चिंतन का महल तैयार हुआ है ।
सांख्य भी परिणमन को तो स्वीकार करता है, परन्तु मात्र प्रकृति का, पुरुष का नहीं । नैयायिक, वैशेषिक आत्मा को नित्य तथा घट-पट को नित्यानित्य मानते हैं, परन्तु जैनदर्शन तो द्रव्य मात्र का प्रतिक्षण परिमणन स्वीकार करता है ।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैनदर्शन कहीं वस्तु में स्वभाव
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