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________________ और विभाव दोनों की स्वीकृति देता है। स्वभाव परनिरपेक्ष है और विभाव परसापेक्ष । आत्मा जब परसापेक्ष है अर्थात् विभाव दशा में है, तब तक संसार है, ज्यों ही वह परनिरपेक्ष होता है, वह शुद्धस्वरूपी बनकर अन्तिम मंजिल प्राप्त कर लेता है। आत्मा के स्वतन्त्र स्वरूप की जो व्याख्या जैनदर्शन प्रस्तुत कर पाया है, वह किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं होती। इसमें कारण है, क्योंकि उपनिषद् ने एक ही ब्रह्म की कल्पना की है, तो सांख्य ने मात्र पुरुष को भोक्ता के रूप में ही स्वीकृति दी है और बौद्ध आत्मा को क्षणिक मानता है, और इन सभी एकान्तवादी मान्यताओं के कारण अनेक जिज्ञासाएँ तो उभरती हैं, परन्तु समाधान का अभाव बना रहता है। जिनका उपचार मात्र जैनदर्शन में है। ।। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, औपाधिक नहीं जैनदर्शन 'ज्ञान' और 'दर्शन' - दोनों से युक्त को ही आत्मा मानता है, जबकि वैशेषिक की मान्यता है कि ज्ञान आगन्तुक गुण है और आत्मां से सर्वथा भिन्न है, ज्ञान और आत्मा का संबन्ध समवाय से बनता है, आत्मा स्वयं जड़ है। वैशेषिक की समस्या यह है कि यदिज्ञान और आत्मा को (समवायसम्बन्ध से) एक ही माना जाए तो मुक्ति में जैसे आत्मा के विशेष गुण बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म,अधर्म, और संस्कार आदि समाप्त हो जाते हैं, वैसे ही, ज्ञान को आत्मा का विशेष गुण मानने पर तो वह भी समाप्त हो जायेगा तब तो मुक्ति में आत्मा का भी अभाव होना चाहिये; परन्तु वैशेषिकों का यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि प्रथम तो वैशेषिकसम्मत समवाय पृथक् पदार्थ ही सिद्ध नहीं होता, और दूसरे आत्मा और ज्ञान में वैशेषिक सम्मत समवाय से सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। सर्वप्रथम तो ज्ञान और आत्मा में समवाय संबन्ध कैसे बनता है, वैशेषिक का समवाय तो एक ही है और व्यापक भी। यदि यह माना जाये कि ज्ञान और आत्मा में समवाय दूसरे समवाय से रहता है तो इस प्रकार समवायों की अनन्त श्रृंखला माननी होगी और अन्त समवाय मानने से अनवस्था दोष आएगा। यदि दोष आने पर भी, समस्या का समाधान हो तो दोष भी स्वीकार कर लें, किन्तु समस्या तो ज्यों की त्यों बनी रहती है। - यदि यह सोचें कि समवाय में समवायान्तर मानने की आवश्यकता २४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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