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तिर्यग्लोक है। तिर्यग्लोक के ऊपर कुछ कम सात रज्जु प्रमाण ऊर्ध्वभागवर्ती होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है । ऊर्ध्व और अधोदिशा में कुल ऊँचाई चौदह रज्जु
जैनदर्शन की तरह विशाल जगत ने भी आकाश को स्वीकार किया है। डॉ.हेनसा के अनुसार
"These four elements (Space, Matter, Time and Medium of motion) are all separate in mind. We can not imagine that the one them could depend on another or converted into another."
आकाश, पुद्गल, काल और गति का माध्यम (धर्म) ये चारों तत्त्व हमारे मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न हैं । हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहते हों या एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हों । इससे जैनदर्शन के सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि सभी द्रव्य स्वतन्त्र परिणमन करते हैं और कोई द्रव्य किसी द्रव्य में द्रव्यान्तर नहीं करता। जैनदर्शन लोक को परिमित मानता है और अलोक को अपरिमित ।१६ इसकी पुष्टि वैज्ञानिक एडिंग्टन ने भी की है:
"The World is closed in space dimensions. I shall use the phrase arrow to expresss this one way properly which has on analogue in space."
दिग् आयामों में ब्रह्माण्ड परिबद्ध है । एक दिशता को ठीक प्रकार से प्रस्तुत करने के लिए मैं तीर संकेत (मुहावरे) को प्रयुक्त करूंगा, जिसका दिक् में कोई सादृश्य नहीं है। ____ विश्व विख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, डी. सीटर पीइनकेर आदि की लोक-अलोक के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। इन मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का समन्वय कर देने पर जैनदर्शन में वर्णित लोकालोक का स्वरूप स्वतः फलित होने लगता है।
१४. भगवती ११.१०.५१ पृ. ५३ १५. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा १६. आगासं वजिता सव्वे लोगाम्मि चेव णत्थि वर्हि-गो.जी. ५८३
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