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________________ आइंस्टीन के सिद्धान्तानुसार विश्व बेलनाकार, वक्र, एकबद्ध आकार को धारण करने वाला व सान्त है । जैनदर्शन भी लोक आकाश को वक्र तथा सान्त मानता है। आइंस्टीन के मंतव्यानुसार समस्त आकाश स्वयं सान्त और परिबद्ध है, जबकि जैनदर्शन के अनुसार समस्त आकाश द्रव्य तो अनन्त, असीम और अपरिमित है, मात्र लोकाकाश सान्त व बद्ध है। क्योंकि लोकाकाश में व्याप्त धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय सान्त परिमित तथा बद्धाकार वाले हैं। इस कारण लोक भी सान्त परिमित तथा बद्धाकार वाला हो जाता है।१७ आइंस्टीन के विश्व व्यापक सिद्धान्त में समस्त आकाश अवगाहित है, परन्तु इच ज्योति वैज्ञानिक “डी. सीटर" ने इसे स्वीकार नहीं किया है । शून्य (पदार्थ रहित) आकाश की विद्यमानता को संभावित सिद्ध किया है।१८ इस प्रकार जहाँ आइंस्टीन का विश्व आकाश संपूर्ण रूप में अवगाहित है, वहाँ डी. सीटर का विश्वाकांश संपूर्ण रूप में अवगाहित शून्य है। जैनदर्शन लोकाकाश को अवगहित मानता है और अलोकाकाश को अगाहित शून्य । इससे यह कहा जा सकता है कि विश्व समीकरण में मूलभूत पद 'लोकाकाश का, व परिवर्द्धित पद 'अलोकाकाश' का सूचक है। आइंस्टीन का विश्व लोकाकाश है और डी. सीटर का विश्व अलोकाकाश । इन दोनों के विश्व का समन्वित रूप जैनदर्शन के विश्व लोकालोकाकाश में अभिव्यक्त होता है ।१९ विश्व की वक्रता के विषय में समीकरण के हल वैज्ञानिकों के सामने यह समस्या खड़ी कर देते हैं कि वक्रता धन है अथवा ऋण? धन वक्रता वाला सान्त और बद्ध तथा ऋण वक्रतावाला विश्व अनन्त और खुला पाया जाता है। आइंस्टीन का विश्व धन वक्रता वाला है, अतः सान्त और बद्ध है। ऋण वक्रता वाले विश्व की संभावना भी विश्व समीकरण के आधार पर हुई है। इस प्रकार धन और वक्रता के आधार पर क्रमशः ‘सान्त और बद्ध' तथा “अनन्त और खुले” विश्व की संभावना होती है। लोकाकीश की वक्रता धन और अलोकाकाश की ऋण मानने पर जैन दर्शन का विश्व सिद्धान्त पुष्ट हो सकता है। लोकाकाश का आकार १७. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा १८. फ्रेम युक्लीड टू एर्डिग्टन पृ. १२६ १९. जैन प्रकाश २२.१२.६८ पृ. ५६ ले. कन्हैयालाल लोढा . १८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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