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________________ धन वक्रता वाला है, यह क्षेत्र लोक के गणितीय विवेचन से स्पष्ट है। अलोकाकाश का आकार इससे स्वतः ऋण वक्रता वाला हो जाता है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त धन और ऋण वक्रता स्वीकार करने वाले विश्व सिद्धान्त का समन्वय है । २०. आकाश को सान्त माना गया है, फिर भी हम उसकी सीमा को नहीं पा सकते । इस सिद्धान्त को 'पोइनकेर' ने स्पष्ट किया है- "अपना विश्व एक अत्यन्त विस्तृत गोले के समान है और विश्व में उष्णतामान का विभागीकरण इस प्रकार हुआ है कि गोले के केन्द्र में उष्णतामान अधिक है. और इस गोले की सतह की ओर क्रमशः घटता हुआ विश्व की सीमा (गोले के अंतिम सतह) पर वह वास्तविक शून्य को प्राप्त होता है। सभी पदार्थों का विस्तार उष्णतामान के अनुपात से होता है । अत: केन्द्र की ओर से सीमा की ओर हम चलेंगे तो हमारे शरीर का तथा जिन पदार्थों के पास से हम गुजरेंगे, उन पदार्थों का भी विस्तार क्रमशः घटना प्रारम्भ हो जायेगा, परन्तु हमें इस परिवर्तन का कोई अनुभव नहीं होगा । यद्यपि हमारा वेग वही दिखेगा, परन्तु वस्तुतः वह घट जायेगा और हम कभी सीमा तक नहीं पहुँच पायेंगे। अतः यदि अनुभव के आधार पर कहें तो हमारा विश्व अनन्त है, परन्तु वस्तुवृत्या हम अन्त को पा नहीं सकते । हमारी पहुँच एक सीमा तक है, उसके बाद आकाश अवश्य है, परन्तु हमारी पहुँच से बाहर है । १२९ पोइनेकर ने यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे विश्व के उष्णतामान का विभागीकरण इस प्रकार है कि ज्यों-ज्यों हम सीमा के समीप जाने का प्रयत्न करते हैं, त्यों-त्यों हमारे वेग में और विस्तार में कमी होती है। परिणामत: हम सीमा को प्राप्त नहीं कर सकते । ठाणांग में आये सूत्र को हम इससे जोड़ सकते हैं- “लोक के सब अन्तिम भागों में अबद्ध, पार्श्व, स्पष्ट, पुद्गल होते हैं । लोकान्त तक पहुँचते ही सब पुद्गल स्वभाव से ही रूक्ष हो जाते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संगठित नहीं हो सकते, इसलिये लोकान्त से आगे पुगलों की गति नहीं हो सकती । यह एक लोक स्थिति है । २२ २०. जैन भारती १५ मई १९६६ २१. दी नेचर ऑफ दी फिजीकल रियालिटी पृ. १६३, फाउंडेशनन्स ऑफ साइंस पृ. १७५ २२. सर्ववसु विणं लोगत्तेषु अवद्ध पासपुट्टा पोग्गला लुक्खताए केज्जांति जेणं, जीवा य पोग्गला य णो संचायंति बहिया लोगंता गमणयाए- एवंप्पेगा लोगाट्ठिता पण्णत्ता -ठाणांग ०.१० १८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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