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जैनेन्द्र व्याकरण के अनुसार :
'द्रव्य' शब्द 'द्रु' शब्द से 'यत्' प्रत्यय का विधान करने पर व्युत्पन्न होता है; यहाँ पर 'यत्' प्रत्यय इवार्थक है; और 'द्रव्य' शब्द यत्प्रत्ययान्त निपातित मानना चाहिये। 'द्रव्य भव्ये' (४.१.१५८), जैनेन्द्र व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार जो 'द्रु' की तरह हो उसे 'द्रव्य' समझना । जिस प्रकार बिना गाँठ की लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल, कुर्सी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, जैसे पाषाण खोदने से पानी निकलता है । यहाँ अविभक्त कर्तृकरण है, उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिये । ५°
पंचास्तिकाय के अनुसार :
उन-उन सद्राव पर्यायों को जो तत्त्व द्रवित होता है, प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं, जो सत्ता से अनन्य भूत है । ५१
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार :
(१) जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणों को प्राप्त हुआ था; जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते
हैं । ५२
(२) जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायों को प्राप्त होते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं । ५३ पंचास्तिकाय का अनुसरण करती व्याख्या राजवार्तिक में भी उपलब्ध होती है । ५४
अनेक पर्यायावाची शब्दों के द्वारा अभिहित द्रव्यः
उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाव युक्त नित्य परिणमनशील अर्थ में प्रयुक्त होने
५०. “अथवा 'द्रव्यं भव्ये' (जैनेन्द्र व्याकरण - ४. १. १५८), इत्यनेन निपातितो..... तेन तेन पर्यायेण द्रु इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते ।” राजवार्तिक, ५.२.२.४३६.२६
५१. दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सव्भावपज्जयाई ।
जं दवियं तं भण्णते, अणण्भूदं तु सत्तादी ।। पं. का. ९
५२. गुणैर्गुणान्वा द्रुतं गतं गुणैर्द्रोष्यते, गुणोन्द्रोषतीति वा द्रव्यम् - सर्वार्थसिद्धि, १.५.१७.५ ५३. यथास्वं पर्यायैद्र्यन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि । - सर्वार्थसिद्धि ५.२.२६६.१० ५४. राजवार्तिरक, १.३३.१.९५.४
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