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हाथ और शरीर में आधार-आधेय भाव है, फिर भी न तो पूर्वापर काल हैं, न युतसिद्धि । दोनों युगपत् उत्पन्न होते हैं और अयुतसिद्ध होते हैं ।५६ ।।
'धर्म' और 'अधर्म' संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहता है जैसेतिलों में तेल । वस्तुतः तिल और तेल का उदाहरण भी स्थल है क्यों कि उसमें खली और तेल अलग-अलग किये जा सकता हैं। इससे भी सूक्ष्म उदाहरण होगा- ‘शक्कर में मधुरता'। ___अवगाह दो प्रकार का माना गया है- एक पुरुष के मन की तरह और दूसरा दूध में पानी की तरह । अथवा, जैसे आत्मा संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहती है, वैसे ही धर्म और अधर्म भी संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं ।५८ . जीव और पुद्गल तो जिस प्रकार से जल में हंस अवगाहन करता है, वैसे ही लोकाकाश में करते हैं। ये अल्पक्षेत्र और अंख्येय भाग को रोकते हैं और क्रियावान् हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अतः इनके अवगाह में संयोग और विभाग द्वारा आकाश उपकार करता है।"५९ । धर्म और अधर्म के अनादि संबन्ध और अयुतसिद्धत्व के विषय में अनेकान्त है। पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता होने पर व्यय
और उत्पाद नहीं होता, और पर्यायार्थिकनय की मुख्यता और द्रव्यार्थिकनय की गौणता होने पर सादिसंबन्ध और युतसिद्धत्व होते हैं, क्योंकि आकाश भी द्रव्य है और इस अपेक्षा से उत्पाद, व्यव और ध्रौव्य युक्त होना इसका लक्षण है।६० आकाश एवं लोक का अनन्यत्व :___जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, तथा काल लोक से अनन्य हैं। इसी प्रकार लोक इन पाँचों द्रव्यों से अनन्य है । लोक के बिना अवशिष्ट पाँचों द्रव्यों का अस्तित्व
५६. वही ५.१२.८.९. ४५५ ५७. त.सू. ५.१३ ५८. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र ५.१३.२५७ ५९. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र ५.१८.२६२ ६०. त.रा.वा.५.१८.५.४६६,६७
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