________________
नहीं है और लोकाकाश भी इनसे रहित नहीं होता।६९, धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों अस्तिकायों का एक क्षेत्रावगाही और समान परिमाण वाले होने के कारण एकत्व है, फिर भी इन तीनों के लक्षण भिन्न हैं और स्वरूपः भी भिन्न हैं, अतः अन्यत्व भी हैं।६२ विज्ञान की भाषा में इसे इस प्रकार कहा जाता है कि द्रव्य का अस्तित्व आकाश और काल सापेक्ष है। विज्ञान के इस सिद्धान्त को Theory of Relativity of time & space' नाम से जाना जाता है।
अन्य द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, परन्तु आकाश अनंतप्रदेशी है।६२ ..
रिक्त स्थान को आकाश कहते हैं। यद्यपि इस खाली जगह में वायु होने के कारण इसे वायुमण्डल कहा जाता है, परन्तु वायु और आकाश अलग-अलग हैं। वायु जिसमें रहती है, संचार करती है, वह आकाश है। ऊपर अन्तरिक्ष जहाँ आज के भेजे गये वैज्ञानिक उपग्रह यन्त्र स्पुतनिक आदि घूम रहे हैं वहाँ वायु नहीं है, परन्तु आकाश अवश्य है। जिस खाली जगह में ये वैज्ञानिक-उपकरण घूम रहे हैं वह आकाश है। चतुष्टयी की अपेक्षा लोक :
लोक आदि है या अनादि, एवं लोक सान्त है या अनन्त ! इस संबन्ध में स्कन्दक को जिज्ञासा हुई। वे महावीर के पास पहुंचे और इस संबन्ध में समाधान चाहा। भगवान् महावीर ने कहा
“लोक चार प्रकार का है- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । द्रव्यलोक की अपेक्षा लोक एक है और अन्तवाला है। क्षेत्रलोक की अपेक्षा असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन विस्तार वाला है; असंख्य कोड़ाकोड़ी परिधि वाला है, फिर भी सान्त है। काललोक की अपेक्षा भूत, भविष्य और वर्तमान, इन तीनों कालों में शाश्वत, ध्रुव, नियत, अक्षय, अवस्थित, अव्यय और नित्य है। भावलोक की अपेक्षा अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप,
-
६१. पं. का. ९१ ६२. पं. का. ९६ ६३. लोयालोयप्पमाणमंते अणंते चेव- भगवती २.१०.४ एवं “आकाशस्यानंताः”-त.सू.
६४. भगवती २.१.२४
१७२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org