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रसपर्यायरूप और स्पर्शपर्यायरूप है। इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप, एवं अनन्त अगुरु - लघुपर्यायरूप है । इसका अन्त नहीं है। इस प्रकार द्रव्यलोक एवं क्षेत्रलोक अन्तसहित है, काल एवं भावलोक अंतरहित । ६४ आकाशस्तिकाय के भेदः -
भगवतीसूत्र एवं ठाणांग के अनुसार आकाश दो प्रकार का है - लोकाकाश और अलोकाकाश । ६५
लोकाकाश और अलोकाकाश में क्या भिन्नता है? यह पूछे जाने पर भगवान् महावीर ने कहा- लोकाकाश में जीव, जीव के देश और जीव के प्रदेश हैं, अजीव भी है, अजीव के देश और अजीव के प्रदेश भी हैं। उन जीवों में नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय हैं। अजीव भी रूपी और अरूपी दोनों हैं। रूपी के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल-इस प्रकार चार भेद हैं। जो अरूपी हैं उनके पाँच भेद हैंधर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, और धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय है । ६६
अलोकाकाश में न जीव है न जीवप्रदेश हैं । वह एक अजीवद्रव्य देश है, अंगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है । अनन्तभागन्यून सर्वाकाशरूप है । ६७
यह अलोक न तो धर्मास्तिकाय से, न अधर्मास्तिकाय से, न लोकाकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है। आकाशस्तिकाय के देश और प्रदेश से ही स्पृष्ट है। पृथ्वीकाय अथवा अद्धाकाल से भी स्पृष्ट नहीं है । ६८ जबकि लोक धर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेशों से स्पृष्ट है, इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से एवं उसके प्रदेशों से स्पृष्ट है। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश से स्पृष्ट है। पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से वनस्पतिकाय पर्यन्त से स्पृष्ट है, त्रसकाय से
६५. दुविहे आगेसे पझणते तं जहा लोयागासे य अलोयागासे य-भगवती २.१०.१०, ठाणांग
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२.१५२
६६. भगवती २.१०.११
६७. भगवती २.१०.१२
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