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कथंचित् स्पृष्ट है कथंचित् स्पृष्ट नहीं भी है (जब केवली समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने आत्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं। केवली त्रसकाय के अंतर्गत आते हैं)। अद्धासमय देश से स्पृष्ट होता भी है और नहीं भी। (अद्धाकाल ढाई द्वीप में ही है, आगे नहीं।)
बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार जो धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल को अवकाश दे, वह लोकाकाश और उस लोकाकाश से बाहर अलोकाकाश है।७० लोक का विवेचन बौद्ध मत में :__ आचार्य वसुबंधु ने लोक के संबन्ध में इस प्रकार मंतव्य स्पष्ट किया है
लोक के अधोभाग में सोलह लाख योजन ऊँचा अपरिमित वायुमण्डल है। उसके ऊपर ११ लाख २० हजार योजन ऊँचा जलमण्डल है। उसमें तीन लाख बीस हजार योजन कंचनमय भूमण्डल है। जलमंडल और कंचनमंडल का विस्तार १२ लाख ३ हजार ४५० योजन तथा परिधि ३६ लाख १० हजार ३५० योजन प्रमाण है।७२
वायुमंडल के मध्य में कंचनमय मेरु पर्वत है। यह ८० हजार योजन नीचे जल में डूबा हुआ है तथा इतना ही ऊपर निकला हुआ है। इससे आगे ८० हजार योजन विस्तृत और दो लाख चालीस हजार योजन प्रमाण परिधि से संयुक्त प्रथम समुद्र है जो मेरु को घेर कर अवस्थित है। इससे आगे चालीस हजार योजन विस्तृत युगंधर पर्वत वलयाकार से स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार से एकएक समुद्र को अन्तरित करके आधे-आधे विस्तार से संयुक्त क्रमशः युगंधर, ईशाधर, खदीरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक और निर्मिधर पर्वत हैं। समुद्रों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा होता गया है।७५
६८. प्रज्ञापना १५.१.१००५ ६९. प्रज्ञापना १५.१.१००२ ७०. बृहद् द्रव्य संग्रह २२ ७१. अभिधर्मकोष ३.४५ ७२. अभिधर्मकोष ३.३६ ७३. अभिधर्मकोष ३.४७, ४८ ७४. अभिधर्मकोष ३.५० ७५. अभिधर्मकोष ३.५१, ५२
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