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(७) ज्ञान, सुख आदि का कोई न कोई उपादान कारण अवश्य होना चाहिए। जैसे
घट का उपादान मिट्टी है, इसी तरह ज्ञान, सुख आदि का जो उपादान कारण है और ज्ञानी, सुखी आदि बनता है, वही आत्मा है ।९ (उपादान कारण को हम द्वितीय अध्याय में स्पष्ट कर आये हैं।) . (८) चाहे जीव हो या अजीव, समस्त पदार्थ द्विपदावतार (सप्रतिपक्ष) होते हैं।
जहाँ जीव है वहाँ अजीव भी है यह अजीव निषेधात्मक है । जिस निषेधात्मक शब्द का प्रतिपक्षी अर्थ न हो तो समझना चाहिये कि वह या तो व्युत्पत्तिसिद्ध शब्द का निषेध नहीं करता या फिर शुद्ध शब्द का,किन्तु किसी रूढ शब्द या
संयुक्त शब्द का निषेध करता है, जैसे-अखरविषाण। (९) सामान्यतोदृष्ट अनुमान द्वारा भी आत्मा की सिद्धि हो सकती है। स्वयं की क्रिया जैसी क्रिया अन्य शरीर में भी देखकर आत्मा की सिद्धि हो सकती है। इस प्रकार की क्रिया देखकर हम आत्मा के अस्तित्व का अनुमान कर सकते हैं। प्रिय में आकर्षण और अप्रिय में विकर्षण का निर्णायक आत्मा ही बनती है। परन्तु यदि घट पर भयंकर सर्पचढ़ जाये तो भी घट में आकर्षण या विकर्षण जैसा कोई अन्तर नहीं आता।२२ .
जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है, वैसे ही आगम (शब्द), उपमान और अर्थापत्ति द्वारा भी आत्मा प्रमाणसिद्ध है ।२३.
जिनभद्रसूरि के अनुसार आत्मसिद्धिः
जैसे गुण और गुणी की अभिन्नता है, वैसे ही स्मरण आदि गुणों से जीव भी प्रत्यक्ष सिद्ध है।" इन्द्रियाँ कारण हैं, अतः इनका कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिये, वह अधिष्ठाता ही आत्मा है।५ शरीर सावयव और सादि है, अतः घट की तरह इसका भी कोई कर्ता है। जिसका कोई कर्ता नहीं है, उसका निश्चित् १९. षड्दर्शन टी. ४९.१२५ २०. ठाणं २.१ २१. षड्दर्शन टी. ४९. १२५ २२. वही ४९.१२६ २३. वही ४९.१२७ २४. गणधरवादः- १५६०.६२ २५. वही १५६७
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