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सत्ता तो सर्वत्र है, परन्तु प्रत्येक भूतचतुष्टय युक्त पदार्थ चैतन्य नहीं बनता । अतः स्पष्ट है कि 'चैतन्य' भूत का नहीं, अपितु आत्मा का लक्षण है ।" इसके अतिरिक्त निम्नलिखित तर्कों से भी आत्मा सिद्ध होती है: -
(१) ज्ञान प्राप्ति के माध्यम कर्ण, नेत्र, रसना आदि करण किसी से प्रेरित होकर ही अपनी क्रियाएँ संपन्न करते हैं । इन इन्द्रिय रूपी गवाक्षों से ज्ञान का ग्राहक आत्मा ही है । १५
आचार्य पूज्यपाद ने भी आत्मा का अस्तित्व इसी प्रकार से प्रतिपादित किया है - जिस प्रकार यन्त्रप्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता का ज्ञान कराती हैं वैसे ही प्राण - अपान (श्वासोच्छ्रास) आदि क्रियाएँ भी आत्मा का ज्ञान कराती है। "
(२) यह संसरणशील शरीर किसी की प्रेरणा से ही चल सकता है, जैसे रथ सारथी की इच्छानुसार चलता है। खाने की या पीने की इच्छा होने पर तदनुसार प्रवृत्ति करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति कराने वाला कोई और है, और वही आत्मा है । १७
(३) इस शरीर को इस आकृति में किसी ने बनाया है जैसे घट का निर्माता कुम्हार है, वैसे ही समस्त कार्यों का कोई उत्पादक है । शरीर का जो निर्माता है वही आत्मा है ।
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(४) इस शरीर का कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ तो करण या साधन मात्र हैं। जैसे घटनिर्माण में सहयोगी औजारों का मालिक कुम्हार है, वैसे ही इन इन्द्रिय रूप औजरों का स्वामी आत्मा है ।
(५) यह शरीर तो जड़ है; और जड़ का भोक्ता चेतन ही होता है । "
(६) रूप, रस आदि अनेक प्रकार के ज्ञान किसी आश्रय-भूत द्रव्य में ही रहते हैं । जैसे रूप घट का आश्रयी है, वैसे ही आत्मा ज्ञान का आश्रयी है ।
१४. वही ४९. १९९
१५. वही ४९. १२३
१६. यथा “यंत्रप्रतिमाचोष्टितं......साधयति " - वस. सि.
१७. वही, प्रशस्त. भा. पृ. ६९, प्रश. व्यो. पृ. ४०२, न्यायकुसु. पृ. ३४९ १८. षड्दर्शन टी. ४९. १२३
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