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________________ धर्मास्तिकाय को तत्त्वार्थसूत्र में निष्क्रिय द्रव्य६ कहा है, क्योंकि क्रिया की परिभाषा है-अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है। यहाँ प्रश्न होता है, जब धर्मास्तिकाय निष्क्रिय है तो इसमें उत्पाद आदि संभव नहीं हैं, और उत्पाद आदि लक्षणों के अभाव में इसे द्रव्य नहीं कहा जा सकता? इस शंका का समाधान पूज्यपाद ने इस प्रकार से दिया है-यद्यपि धर्म द्रव्य निष्क्रिय है, तथापि इसमें उत्पादादि द्रव्य के लक्षण घटित होते हैं। इनमें क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है, तथापि अन्य प्रकार से उत्पाद है, क्योंकि उत्पाद दो प्रकार का है- स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद । आगम में प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अगुरुलघु गुण स्वीकार किये गये हैं, जिनका षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से होता है। इसी प्रकार परप्रत्यय उत्पाद भी होता रहता है। जैसे ये धर्मादि द्रव्य गति आदि के कारण होते हैं, इनके गति, स्थिति आदि में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है, अतः इनका कारण भिन्न-भिन्न होना चाहिये । इस प्रकार धर्मादि द्रव्य में परप्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद-व्यय है, और जो उत्पाद-व्यययुक्त है वह द्रव्य - धर्म,अधर्म, आकाश और काल-इनमें निष्क्रिय होने के कारण स्वभावपर्याय ही पायी जाती है; विभावपर्याय नहीं। स्वभावपर्याय में परिणमन परद्रव्यों की अपेक्षा से रहित होता है और जो परिणमन स्कन्ध रूप से होता है वह विभाव परिणमन कहलाता है। विभाव परिणमन जीव और पुद्गल में पाया जाता है। १६. निष्क्रियाणिच । त.सू.-५.७ १७. स.सि. ५.७.५३९ १८. स.सि. ५.७.५३९ .१९. नियमसार २८ १५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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