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________________ पूज्यपाद ने गति की व्याख्या की है- एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने को गति कहते हैं । टीकाकार गुणरत्नसूरि के अनुसार धर्मद्रव्य आकाश के असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश भाग के सभी प्रदेशों में पूरी तरह से व्याप्त है । इसके भी लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेश हैं । यह स्वयं गमन करने वाले जीव और पुद्गल की गति में अपेक्षित कारण है; अपेक्षित कारण से तात्पर्य है कि यह प्रेरणा करके इनको चलाता नहीं है, यदि चलते हैं तो चलने में सहकारी कारण अवश्य बनता है । ७ पंचास्तिकाय के अनुसार धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण, अशब्द, लोकव्यापक, अखण्ड, विशाल और असंख्यात प्रदेशी है। ' स्पर्शादि से रहित होने के कारण ही धर्मास्तिकाय अमूर्त स्वभाववाला है और इसीलिए अशब्द भी है। संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त रहने के कारण लोकव्यापक है । अयुत सिद्ध प्रदेशी होने के कारण अखंड है। स्वभाव से ही सर्वतः विस्तृत होने से विशाल है। निश्चयनय से एक प्रदेशी होने पर भी व्यवहार नय से असंख्यात प्रदेशी है । " द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है । यह लक्षण धर्मास्तिकाय में भी प्राप्त होता है । धर्मास्तिकाय अगुरुलघु रूप से सदैव परिणमित होता है, फिर भी नित्य है, गतिक्रिया में कारणभूत होने पर भी स्वयं अकार्य है । " जैसे मछलियों को पानी चलने में सहयोग देता है वैसे ही धर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गल को उदासीन सहयोग करता है । " अन्य द्रव्यों की तरह धर्म में भी सामान्य और विशेष, दोनों गुण उपलब्ध होते हैं। अमूर्त्त, निष्क्रिय, द्रव्यत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य गुण हैं, एवं इसका विशेष गुण 'गति' प्रदान करना है । १५ ६. स. सि. ५.१७.५५९ ७. षड्दर्शन समुच्चय टीका ४९.१६६ ८. पंचास्तिकाय ८३ ९. पं.का.टी. ८३ १०. वही ८४ १९. वही ८५ १५. गमणणिमित्तं धम्मं । नियमसार ३० Jain Education International १५८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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