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क्रमशः स्पर्श द्वारा, रूप द्वारा, शब्द द्वारा और मन से विषय भोग लेते हैं । यह स्थिति भी कल्पोपपन्न देवों तक रहती है । कल्पातीत देव तो विषयभोगों से पूर्णत: विरत रहते हैं । ३०९
स्थिति, प्रभाव, सुख, चमक, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविशुद्धि, अवधिविषय आदि की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देव क्रमशः अधिक हैं । ३१०
देव एवं नैरयिक जीव नियम से औपपातिक जन्म वाले होते हैं । ३११
४. नारक:- नरक सात हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमः प्रभा । ३१२ सातों नरकों के जीव नपुसंक होते हैं । ३१३ गति की अपेक्षा नारकी, इन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय, कषाय की अपेक्षा चारों कषायों से युक्त, लेश्या की अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले होते हैं । योग की अपेक्षा इनमें मनोयोग, वचनयोग, काययोग-तीनों योग पाये जाते हैं। उपयोग की अपेक्षा से ये ज्ञान और दर्शन दोनों से युक्त होते हैं। ज्ञान की अपेक्षा से इनमें मति, श्रुत, अवधि या मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान पाया जाता है । दर्शन की अपेक्षा से ये सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। समस्त नारकी चरित्र की अपेक्षा न तो चारित्री हैं, न चारित्राचारित्री हैं, अपितु अनिवार्यतः अचारित्री हैं । वेद की अपेक्षा से समस्त नारकी नपुसंक वेदी हैं । ३१४
इन सातों नरकों की भूमियाँ क्रमशः नीचे-नीचे और घनाम्बु तथा वायु और आकाश के सहारे स्थित है। ३१५ इन नारक भूमियों में क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक हैं। इन नारको में लेश्या, परिणाम, शरीर प्रमाण, वेदना और विक्रिया क्रमशः ३१६
३०९. त. सू. ४.८-९
३१०. त.सू. ४.२१ एवं स. सि. ४. २०.४८१
३११. त.सू. २.३५ एवं स. सि. ४. २०.४८१
३१२. प्रज्ञापना १.६० त. सू. ३.१
३१३. त. सू. २.५०
३१४. प्रज्ञापना १३.९३८
३१५. त.सू. ३.१
३१६. त.सू. ३.२ (दिगम्बर परम्परानुसार)
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