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अशुभ, अशुभतर और अशुभतम होते जाते हैं तथा वेदना, शरीरप्रमाण आदि वृद्धिंगत होते हैं । ३१७
ये नारक परस्पर उत्पन्न किये गये दुःख वाले होते हैं और तीन नरकभूमियों तक संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये दुःख वाले भी होते हैं । ३१८ .
भयंकर पीड़ा भोगने पर भी इनका अकाल-मरण नहीं होता।३१९ इनकी उत्कृष्ट आयु क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बावीस, और तैंतीस सागरोपम है।३२० जीव और शरीर :
जब तक राग-द्वेष की स्थिति रहती है, अभी तक आत्मा शरीर के बंधन में निवास करता है ।३२१ शरीर पाँच प्रकार के होते हैं-१. औदारिक, २. वैक्रिय, ३.
आहाराक, ४. तैजस और ५. कार्मण ।३२२ १. औदारिक शरीर :
विशेष शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर गलते हैं, उन्हें शरीर कहते हैं। ये औदारिक आदि कर्मप्रकृति विशेष के उदय से प्राप्त होता है। इसका गलना, सड़ना और विध्वंस होना स्वभाव है।३२३
जो शरीर प्रतिघात युक्त हो अर्थात् पुद्गलस्कन्ध के द्वारा अवरुद्ध हो सके और पुद्गल समूह को अवरुद्ध कर सके, वह औदारिक शरीर कहलाता है। औदारिक शरीर गर्भ से उत्पन्न होता है । इन औदारिक शरीरों (शरीरावयवों) के आश्रय से उत्पन्न सम्मूर्छिम जीवों की भी तत्सदृश जाति होने से सम्मूर्छिम जीवों का शरीर भी औदारिक शरीर की कोटि में आता है। इसी प्रकार स्थावरों का शरीर भी औदारिक शरीर की कोटि में आता है। अन्यदर्शनों की भाषा में
३१७. त.सू. ३.३ ३१८. त.सू. ३.४-५ ३१९. स.सि. ३.५.३७५ ३२०. त.सू. ३.६ ३२१. ठाणांग २.१६३ ३२२. प्रज्ञापना १२.९०१ एवं त.सू. २.३७ ३२३. पैंतीस बोल बिवरण, पृ. १०
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