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- भेदविज्ञान की भाषा में वेत्ता की निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही है । परद्रव्य आत्मा नहीं होता और आत्मा पर द्रव्य नहीं होता।६७ ..
समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं । वे कभी अन्य पदार्थों से अन्यथा नहीं किये जा सकते । एवंभूतनय की दृष्टि से देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं। इनमें आधार आधेयभाव नहीं है। व्यवहार नय से ही परस्पर आधारआधेय भाव की कल्पना होती है। जैसे वायु का आधार आकाश, जल का वायु और पृथ्वी का आधार जल माना जाता है।६८
सत् सप्रतिपक्ष है:___जैन दर्शन सत् का स्वरूप विरोधी युगल से प्रतिपादित करता है । सत् की सत्ता परिवर्तन के साथ ही शाश्वत है। न तो सर्वथा सत् है आर न सर्वथा असत्, अपितु कथंचित् सत् भी है असत् भी। प्रतिपक्ष(असत्) के अभाव में सत् की व्याख्या संभव नहीं है । सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थस्थित सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सप्रतिपक्ष है।६९
वस्तु कथंचित् ही असत् है, सर्वथा नहीं। इसी प्रकार अपेक्षाभेद से वस्तु उभयात्मक और अवाच्य है, नय की अपेक्षा से ही वस्तु सत् आदि रूप है; सर्वथा नहीं।
नय का विवेचन इसी प्रकरण में आगे के पृष्ठों में किया गया है । जैन दर्शन वस्तु को अपेक्षा से ही प्रतिपादित करता है। वक्ता जिस दृष्टि से वस्तु के स्वरूप को कहना चाहता है उसी दृष्टि से उस वस्तु का विचार किया जाता है । वक्ता के अभिप्राय के विरुद्ध यदि एक ही दृष्टिकोण से वस्तु का विचार किया जाये तो अव्यवस्था निश्चित् है। जैन दर्शन में वस्तु का एकान्तिक रूप मिथ्या है। अतः समस्त वस्तुओं का अनेकान्तात्मक रूप से ही प्रमाण का विषय मानना चाहिये।" ६७. सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिताः १ न शक्यतेन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन ।
-प.ध.पू. ४६१। ६८. रा.वा.५.१२.४५४ ६९. पंचास्तिकाय८. एवं सभाष्य तत्त्वार्था पृ. २८२ ७०. कथंचित् ते न सर्वथा। - आ.मी. १.१४ ७१. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ५७.३६३.
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