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________________ इनसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिंदा, सद्गुणों का उद्भावन, असद्गुणों का उच्छादन, नम्रवृत्ति और अनुत्सेक - ये उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं । ४६ अनुत्सेक अर्थात् 'अहंकार रहित होना' । गोत्र शब्द की व्युत्पति है - गूयते यत् तद् गोत्रम् । अर्थात् जो शब्दव्यवहार में आवे, वह गोत्र है । ४६९ ज्ञान, सत्कार, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, स्थान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन आदि में विघ्न करना आदि अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं । ४६२ संवर : इन आठों कर्मों के कर्म प्रवेशद्वार रूप आस्रव को रोकना संवर है। इस प्रकार संवर का तात्पर्य हुआ - कर्मद्वार को बन्द करना । जीव जो कर्मबन्ध पूर्व में (अतीत में) कर चुका है उससे मुक्त होने को निर्जरा कहते हैं । हरिभद्रसूरि ने इसी परिभाषा दी है - "बंधे हुए कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं । १४६३ 1 निर्जरा दो प्रकार से होती है- सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा । कर्मों को झड़ा देने की इच्छा से जो साधु दुष्कर तप तपते हैं; श्मशान में रात्रि के वक्त खड़े होकर ध्यान करते हैं; भूख, प्यास, सदी, गर्मी आदि विविध परिषहों को सहन करते है; बाधाएँ सहते हैं; लोच करते हैं; अठारह प्रकार के शील को धारण करते हैं; बाह्य तथा आभ्यन्तर राग-द्वेष का त्याग करते हैं, उन उग्र तपश्चरण करने वाले शरीरासक्ति रहित मुनियों के कर्मों की निर्जरा सकाम निर्जरा है । वे कर्मों को नियंत्रित कर उन्हें झाड़ते हैं। यह निर्जरा पुरुषार्थ से होती है । 1 जो शान्त परिणामी व्यक्ति कर्मों के उदय से होने वाले लाखों प्रकार के तीव्र शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को साता से भोग लेते हैं, वह अकाम निर्जरा है ४६०. त. रा. वा. ६.२५.५३० ४६१. त.रा.वा. ६.२५.५३१ ४६२. त. रा. वा. ६.२७.५३१ ४६३. षड्दर्शन समुच्चय का. ५१ Jain Education International १४६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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