SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात् उदय में आये हुए कर्मों को शान्ति से भोगना, परन्तु उनके हाथ झड़ाने की इच्छा से छेड़छोड़ न करना ।४६४ । ___ तत्त्वार्थसूत्र में तप को निर्जरा का कारण बताया बताया है। पूज्यपाद ने निर्जरा दो प्रकार की बतायी है- अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से होने वाली निर्जरा को अबुद्धिपूर्वा निर्जरा कहते हैं, तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा होती है।४६५ तत्त्वार्थसूत्र में परिषह २२ माने गये हैं। इन परिषहों को सहन करना कर्मों की निर्जरा है। क्षुधा, प्यास, शीत, गर्मी, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन । ६६ तप बारह प्रकार का होता है-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता, यह छः प्रकार बाह्य एवं प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग-यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप कहलाता है।४६७ इन बारह प्रकार के तप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है।४६८ ___ अबुद्धिपूर्वा निर्जरा में वेदना तो अत्यधिक होती है, परन्तु निर्जरा अल्प होती है । भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर चर्चा उपलब्ध होती है- “भगवन्! नैरयिकों को जो वेदना है, क्या वह निर्जरा कही जा सकती है? नहीं गौतम! यह संभव नहीं है; क्योंकि वेदना कर्म है और निर्जरा नोकर्म है।” ४६९ बंध और मोक्ष : जीव और कर्मपुद्गल का परस्पर एकमेक (एकक्षेत्रावगाही) होकर मिल जाना बन्ध है और सर्वथा वियोग हो जाना मोक्ष है।४७० ४६४. षड्दर्शन समुच्चय टीका ५२.३३६ ४६५. स.सि. ९.७.८०७ ४६६. त.सू. ९.९ एवं नवतत्त्व प्र. २७.२८ ४६७. नवतत्त्व प्रकरण ३५.३६ ४६८. बारसविंह तवो णिजराय-नवतत्त्वप्र. ३५ ४६९. भगवती ७.३.११ ४७०. षड्दर्शन समु. ५१ १४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy