________________
मिले
भगवतीसूत्र के अनुसार "जीव और पुद्गल परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं,. हुए हैं, परस्पर चिकनाई से जुड़े हुए हैं और परस्पर गाढ़ हो कर रह रहे हैं । जैसे लबालब भरे तालाब में कोई व्यक्ति दो सौ छिद्रों वाली जहाज (नौका) डाल दे, उसमें जैसे पानी भर जाता है, वैसे ही जीव और पुद्गल परस्पर एकमेक हो कर रहते हैं । ४७१
भगवतीसूत्र में बन्ध के दो प्रकार बताये हैं-- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबंध । ४७२ जो जीव के प्रयोग से बन्धता है, वह प्रयोगबन्ध और जो स्वाभाविक रूप से बंधता है, वह विस्रसाबन्ध है । यह भगवतीसूत्र के ८ वें शतक के नौवें उद्देशक बन्ध की चर्चा से संबन्धित है ।
जीव और कर्म के बनने योग्य पुद्गल स्कंध का परस्पर अनुप्रवेश - एक का दूसरे में घुस जाना ही बन्ध है । यह पानी और दूध की उपमा से उपमित किया गया है । ७३ यद्यपि यह केवल लौकिक दृष्टान्त है। एकक्षेत्रावगाह को लोहे के तप्त गोले से समझा जा सकता है - जैसे लोहे के गोले को गर्म करने पर लोहे के क्षेत्र में ही आग भी प्रवेश कर जाती है। यह उदाहरण भी पूर्णत: समान नहीं है, क्योंकि लोहे को गर्म करने पर वह भी किंचित् फैल जाता है ।
बन्ध के कारण पाँच हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । ४७४
बंध के प्रकार चार हैं- प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश । ४७५ योग से प्रकृति और प्रदेश का बन्ध का तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग का बन्ध होता है । ४७६
प्रकृतिबन्ध: - इसे श्री पूज्यपाद ने यों समझाया है -- जिस प्रकार नीम की प्रकृति में कड़वापन है, गुड़ की प्रकृति में मीठापन है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय
४७१. भगवती १.६.२६
४७२. भगवती ८.९.१
४७३. षड्दर्शन समुच्चय टीका ५१.२३०
४७४. त.सू. ८.१
४७५. त.सू. ८.३ ४७६. बृ.द्र.सं. ३३
Jain Education International
१४८
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org