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कर्म की प्रकृति है- ज्ञान नहीं होने देना, दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति है- अर्थ का अवलोकन नहीं होने देना, वेदनीयकर्म की प्रकृति है- साता और असाता का संवेदन कराना, दर्शनमोहनीय की प्रकृति है- तत्त्व की श्रद्धा नहीं होने देना, चारित्रमोहनीय की प्रकृति है- असंयमभाव में रहना, आयुकर्म की प्रकृति हैभवधारण करना, नामकर्म की प्रकृति है- नारक आदि नामकरण, गोत्रकर्म की प्रकृति है- उच्च और नीच स्थान की प्राप्ति और अंतरायकर्म की प्रकृति है- दान आदि में विघ्न करना ।४७७
स्थितिबन्धः- कर्म की स्थिति दो प्रकार की है- जघन्य और उत्कृष्ट । ७८ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय- इन चारों की उत्कृष्ट स्थिति तीन कोटाकोटि सागरोपम है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटि सागरोपम है। यह उत्कृष्ट स्थिति मात्र मिथ्यादृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक को ही प्राप्त होती है। नाम और गोत्र की बीस, आयु कर्म की तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।८१ . .. इन सभी कर्मबन्धों की जघन्य स्थिति इस प्रकार है- वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त और अवशिष्ट कर्मों की एक अन्तर्मुहूर्त
है।४८२
: बकरी, गाय, भैंस, आदि के दूध में जिस प्रकार दो प्रहर तक मधुर रस रहने की कालमर्यादा है, उसी प्रकार कर्मों की स्थिति भी समझना चाहिये । जीव के प्रदेशों में जितने काल तक कर्म संबन्ध रूप से स्थिति है, उसे स्थितिबन्ध कहते
जैसे दूध में तारतम्य से रस संबन्धी शक्ति विशेष होती है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों पर लगे कर्म के स्कन्धों में भी सुख अथवा दुःख देने की शक्ति विशेष .४७७. स.सि. ८.३.७३६ एवं बृहद् द्र. सं. ३३, पृ. १०६
४७८. स.सि. ८.१३.७६० ४७९. त.सू. ८.१४.१५ ४८०. स.सि. ८.१४.७६० ४८१. त.सू. ८.१६.१७ ४८२. त.सू. ८.१८.२० • ४८३. बृ.द्र.सं.टी. ३३ पृ. १०७
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