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________________ को अनुभागबन्ध कहते हैं ।४८४ आत्मा के एक-एक प्रदेश पर सिद्धजीवराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण और अभव्य जीवों की संख्या से अनन्तगुणे अनन्तानन्त परमाणु प्रतिक्षण बंधते हैं, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं।४८५ कुन्दकुन्दाचार्य ने बन्ध का कारण जीव के मिथ्यादृष्टियुक्त (रागादिरूप . होने से) अध्यवसाय को कहा है। "मैं जीवों को सुखी दुःखी करता हूँ- यह दृष्टि की मूढ़ता ही शुभाशुभ कर्म को बांधती है।८६ वस्तुतः बाह्य वस्तु बन्ध का कारण नहीं, अपितु अध्यवसाय ही बन्ध का कारण है।४८७ . बंध और आस्रव में भेद :___ प्रथम क्षण में कर्म स्कन्धों का आगमन आस्रव है, और आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षण में जीव के प्रदेशों में उन कर्मों का एकक्षेत्रावगाही रूप से रहना बन्ध है।४८८ मोक्ष का स्वरूप :___'मोक्ष' शब्द का शाब्दिक अर्थ है- मुक्त होना । जैनदर्शन में यह पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि अन्य दर्शनों में भी मोक्ष अवस्था को स्वीकार किया गया है, किन्तु जैनदर्शन में स्वीकृत मोक्ष के स्वरूप में बहुत भिन्नता है। इतना ही नहीं, मोक्ष अवस्था को प्राप्त जीव के स्वरूप में भी भिन्नता है, यो यथास्थल विवेचित की गयी है। तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि जीव का सभी कर्मों से सम्बन्ध का आत्यन्तिक अभाव हो जाना (मुक्त हो जाना) मोक्ष है। पूज्यपाद के अनुसार- “जब आत्मा कर्म मैल रूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है, तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप ४८४. बृ.द्र.सं.टी. ३३ १०७ एवं त.सू. ८.२१ ४८५. त.सू. ८.२४ एवं बृ.द्र.सं.टी. १०७ ४८६. स.सा २५९ ४८७. स.सा. २६५ ४८८. बृ.द्र.सं.टी. १०८ १५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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