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________________ और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । ४८९ कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार “आठों कर्मों को क्षय करने वाले, अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य सूक्ष्मत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, अगुरलघुत्व और अव्याबाधत व इन आठ गुणों से युक्त परम लोक के अग्रभाग में सिद्ध मुक्तात्मा स्थिर हैं । ४९० व्यवहार नय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्ध भगवान् चैतन्यघन से ठोस चूड़ामणि रत्न की तरह हैं, निश्चय नय से सहजपरमचैतन्य चिंतामणि स्वरूप नित्यशुद्ध निज रूप में रहते हैं । ४९१ मोक्ष में जीव का शुद्ध स्वरूप ही रहता है। दीपक बुझने पर जैसे प्रकाश के परमाणु अन्धकार में बदल जाते हैं, उसी प्रकार समस्त कर्मक्षय होने पर आत्मा शुद्ध चैतन्य अवस्था में बदल जाती है । ४९२ बौद्धों के शून्यवाद को दृष्टि में रख कर पंचास्तिकाय में, आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष में आत्मा का सद्भाव सिद्ध किया है- “यदि जीव का मोक्ष में अदस्भाव हो तो शाश्वत - उच्छेद, भव्य - अभव्य, शून्य - अशून्य और विज्ञान - अविज्ञान भावों का अभाव हो जायेगा, जो अनुचित हैं । १४९३ . उत्तराध्ययन के अनुसार, सिद्धात्मा के शरीर की अवगाहना अन्तिम भव पें जो शरीर की ऊँचाई थी, उससे तृतीय भाग हीन होती है । ४९४ सिद्धों के अन्तिम शरीर से कुछ कम होने का कारण यह है कि चरम शरीर के नाक, कान, नाखून आदि खोखले हैं । शरीर के कुछ खोखले भागों में आत्मप्रदेश नहीं होते । मुक्तात्मा छिद्ररहित होने के कारण पहले शरीर से कुछ कम, मोमरहित सांसे के बीच आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के आकार वाली होती है। ४९५ ४८९. स. सि. ९.४.१८ ४९०. नि.सा. ७२ ४९१. स.सा.ता. बृ. १०१ ४९२. तरा. वा. १०.४ पृ. ६४४ ४९३. पं. का. गा. ४६ ४९४. उत्तराध्ययन ३६.६४ ४९५. बृ.द्र. सं. टीका ५१ पृ. १०६ Jain Education International १५१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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