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________________ कषाय के उदय से होने वाले तीव्र आत्मपरिणाम को चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव कहते हैं । ४५३ धवला में इसे और भी स्पष्ट किया गया है--मिथ्यात्व, असंयम और कषाय- ये पाप की क्रियाएं हैं। इन पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। जो कर्म इस चारित्र को आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय आस्रव कहते ___ अत्यन्त आरभ्म और परिग्रह का भाव नरकायु के आस्रव का; कपट (माया) तिर्यंचायुका; अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह का भाव एवं स्वभाव की मृदुता मनुष्यायु के आस्रव का; सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप देवायु के आस्रव का कारण हैं । ५५ योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के आस्रव का कारण हैं, तथा योग की सरलता और अविसंवाद ये शुभनामकर्म के आस्रव के कारण हैं । ५६ शुभनामकर्म अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील, सदाचार, व्रतों का अतिचार रहित पालन, ज्ञान में सतत् उपयोग, सतत् संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य, अरिहंतभक्ति, आचार्य भक्ति बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये १६ कारण तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के हैं। ५७ परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन, और असद्गुणों का उद्भावन ये नीचगोत्र के आसव के कारण हैं ।५८ अकलंक ने उच्छादन और उद्भावन का अर्थ किया है-प्रतिबान्धक कारणों से वस्तु का प्रकट नहीं होना उच्छादन है और प्रतिबन्धक के हट जाने पर प्रकाश में आ जाना उद्भावन है।५९ ४५३. त.सू. ६:१४ ४५४. धवला २२.६.१.९-११ पृ. ४० ४५५. त.सू. ६.१५-१७.१९ ४५६. त.सू. ६:२२.२३ ४५७. त.सू. ६.२४ ४५८. त.सू. ६.२५ ४५९. त.रा.वा. ६.२५.५३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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