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________________ है ४४६ अतः सभी कर्म समारंभों को जानकर त्यागना, यही संवर है। इसे साधने वाला ही मुनि होता है। कर्म और आस्रव :- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म हैं। इन आठ कर्मों के आस्रवों को अलग-अलग इस प्रकार से समझा जा सकता है। प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात-ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं। ४८ ___ श्री पूज्यपाद ने निह्नव आदि का अर्थ किया है- तत्त्वज्ञान मोक्ष का साधन है, उसका गुणगान करने पर उस समय नहीं बोलने वाले के भीतर जो पैशुन्यरूप परिणाम है वह प्रदोष है। किसी कारण से ‘ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता'इत्यादि कहकर ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है। ज्ञान का अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है, फिर भी जिस कारण (ईर्ष्या) से नहीं दिया जाता वह मात्सर्य है। ज्ञान का विच्छेद करना अन्तराय है। दूसरा कोई ज्ञान का प्रकाश फैला रहा हो उस समय शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादन है। प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है।४९ ____ अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, और परिवेदन- ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव (के कारण) हैं। १५०० प्राणी-अनुकंपा, व्रती-अनुकंपा, दान, सरागसंयम आदि का योग, क्षान्ति (क्षमा) और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।०५९ केवली, श्रुत, संघ, धर्म, और देव, इन पाँच का अवर्णवाद बोलना (गुणी पुरुषों/तत्त्वों में दोषों की अविद्यमानता होने पर भी उन में उन दोषों का उद्भावन करना) दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।५२ ४४६. आचारांग १.१.८ ४४७. वही १.१.७.१२ ४४८. त.सू. ६.१० ४४९. स. सि.६.१०.६२८ ४५०. त.स. ६.११ ४५१. त.सू. ६.१२ ४५२. त. सू. ६.१३ १४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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