SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों के आगमन के जैसे पाँच द्वार हैं, वैसे ही आते हुए उन कर्मों को रोकने के भी पाँच द्वार हैं- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, और अयोग।४३९ तत्त्वार्थसूत्र में संवर की परिभाषा दी गयी है- “जो आस्रव का निरोध करे/ रोके वह संवर है।"४४० ..यह संवर दो प्रकार का है- द्रव्यसंवर एवं भावसंवर । संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर है, एवं इसका निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्म-पुगाले के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्यसंवर है।४४१ यही परिभाषा नेमिचन्द्र ने दी है।४२ . हरिभद्र सूरि ने “संवरस्तनिरोधः” ४४३ - आस्रव के निरोध का नाम ही संवर ____ गुणरत्नसूरि ने इसे सर्वसंवर और देशसंवर के नाम से भी विभक्त किया है। जिस समय मन, वचन और काय का सूक्ष्म और स्थूल दोनों व्यापारी का सर्वथा निषेध हो जाये, उसे सर्वसंवर कहते हैं । यह अयोगी केवली गुणस्थान में अर्थात् सिद्धात्मा में होता है । मन, वचन, काय की संयतप्रवृत्ति रूप चारित्र से देशसंवर होता है । ४४ आस्रव और संवर जैन दर्शन के महत्वपूर्ण बिन्दु हैं । ग्यारह अंगों में प्रथम आचारांग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भी आसव-संवर की व्याख्या उपलब्ध होती है। __ आचारांग में बताया गया है कि क्रिया करना, करवाना और उसका अनुमोदन करना आस्रव (का कारण) है।४५ और यही आस्रव संसार परिभ्रमण का कारण ४३९. ठाणांग ५.११० ४४०. त.सू. ९.१ ४४१. स.सि. ९.१.७८५ ४४२. बृ.द्र.सं. ३४ ४४३. षड्दर्शनसमुच्चय ५१ ४४४. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ५१.२२९ ४४५. आचारांग १.१.६ १४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy