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प्रकृति में होने वाला मृत परिवर्तन जैसे वस्तु की उत्पत्ति, विनाश स्थिरता के लिये भी काल का होना अनिवार्य है । यह वह शक्ति है जो अनित्य पदार्थों में परिवर्तन लाती है। यह समस्त गति की आवश्यक अवस्था है। काल स्वतन्त्र यथार्थ सत्तात्मक पदार्थ माना गया है जो समस्त विश्व में व्यापक है और वस्तुओं की गति को व्यवस्थित बनाता है। भिन्न-भिन्न समय में होने के संबन्धों और शीघ्र अथवा विलम्ब के भावों का आधार काल ही है। काल एक ही है जो विस्तार में सर्वत्र उपस्थित है। यह काल एक नित्य द्रव्य है और समस्त वस्तुओं का आधार है।१६ __ वैशेषिक के कालसिद्धान्त की अपेक्षा जैनदर्शन के कालसिद्धान्त में भिन्नता है। जैनदर्शन काल को एक और सर्वव्यापी न मानते हुए असंख्यात और अणुरूप मानते हैं। काल में भी अनेकान्तवाद सिद्धान्त निश्यचनय की दृष्टि से एक है एवं व्यवहारनय की दृष्टि से कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं । १८ सांख्य और काल:
सांख्य में तो मात्र दो तत्त्वों की ही स्वीकृति है। वे तो इसके अतिरिक्त तीसरा द्रव्य मानते ही नहीं हैं। काल इनमें स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। फिर भी, प्राच्य सांख्य या ब्रह्मपरिणामवादी (अद्वैतवादी) दर्शन के सिद्धान्त के रूप में चरक संहिता में काल को 'परिणाम के रूप में व्याख्यात किया गया है- कालः पुनः परिणामः (चरक संहिता)। . विमर्श:- इस प्रकार, हम देखते हैं कि कोई भी क्रिया काल के अभाव में सिद्ध नहीं की जा सकती। प्रत्येक दर्शन काल को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकृति दे या नहीं दे, परन्तु व्यवहार के माध्यम से तो उसे स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि नया, पुराना, बच्चा, जवान आदि समस्त काल के ही उदाहरण हैं। काल की यह
१४. वैशेषिक सूत्र २.२.६ १५. वैशेषिक सूत्र २.२.६ १६. अतीतादिव्यवहारहेतु- तर्कसंग्रह १५ . १७. द्रव्य संग्रह २२ १८. लघु द्रव्य संग्रह १२ १९. सांख्य तत्त्व कौमुदी ३३ पृ. २०९
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