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________________ एक शरीर में अनेक आत्मा रह सकती हैं, परन्तु एक आत्मा अनेक शरीरों में नहीं रह सकती। गणधरवाद में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । जब गौतम स्वामी ब्राह्मण पंडित के रूप में भगवान् महावीर से चर्चा करने जाते हैं और पूछते हैं कि उपनिषद् की अगर यह मान्यता स्वीकार कर लें कि सब ब्रह्म ही हैं तो क्या हानि . महावीर-गौतम! ऐसा संभव नहीं हैं; क्योंकि आकाश की तरह सभी पिण्डों में एक आत्मा संभव नहीं। सभी पिण्डों में लक्षण भेद है। प्रत्येक पिण्ड में भिन्न लक्षण प्रतीत होने से वस्तु भेद स्वीकार्य है । १६४ आत्मा एक हो तो सुख, दुःख, बन्ध, मोक्ष की भी व्यवस्था संभव नहीं है। हम देखते हैं- एक सुखी है, एक दुःखी है, एक बद्ध है, एक मुक्त है । एक ही जीव का एक ही समय में बन्ध और मोक्ष दोनों संभव नहीं हैं। १६५ ... जीव का लक्षण उपयोग है । वह उपयोग प्रत्येक आत्मा का समान नहीं होता। उत्कर्ष, अपकर्ष अवश्य पाया जाता है, अतः जीव अनन्त मानने चाहिए।१६६ एक ही जीवात्मा मानने से न कोई कर्ता होगा, न भोक्ता, न मननशील, न कोई सुखी होगा, न कोई दुःखी, क्योंकि शरीर का यदि अधिकांश भाग पीड़ित हो तो सुखी नहीं होता, वैसे ही संसार का अधिकांश भाग बंधा हुआ हो तो एक अंश मुक्त और सुखी कैसे हो सकता है । १६७ प्रत्येक पिंड की आत्मा के अपने सुख, दुःख, स्मृति और ज्ञान (उपयोग) होते हैं । अतः आत्मा की अनेकता व्यवहार में भी स्पष्ट है। सूत्रकृतांग सूत्र में भी एकात्मवाद का विरोध किया गया है । जो यह मानता है कि एक आत्मा ही नाना रूपों में दिखाई देती है, वह प्रारभ्म में आसक्त रहकर पाप कर लेता है, फिर अकेले उसे ही दुःख और पीड़ा भोगनी पड़ती है; संपूर्ण जगत् को नहीं। १६८ १६४. गणधरवाद १५८१ १६५. वही १५८२ १६६. वही १५८३ १६७. वही १५८४-८५ १८८. सूत्रकृतांग १.१.९.१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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