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________________ आत्मा का परिमाण : देहप्रमाण : आत्मपरिमाण के संबन्ध में विविध वाद प्रचलित हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग आत्मा को व्यापक मानते हैं। उनके अनुसार आत्मा अमूर्त है, अतः आकाश की तरह व्यापक है।१६९ गीता भी यही मानती है । १७० _ रामानुज, वल्लभाचार्य, माधवाचार्य व निम्बार्काचार्य आत्मा को अणु परिमाण मानते हैं। इनके अनुसार आत्मा बाल के हजारवें भाग बराबर है और हृदय में निवास करती है ।९७१ उनका कथन है-यदि आत्मा को अणु परिमाण न माना जाय तो उसका परलोक गमन नहीं होगा। - जैन दर्शन आत्मा को न व्यापक मानता है, न अणुपरिणाम, वह आत्मा को देहपरिणाम मानता है। आत्मा सर्वव्यापी नहीं, अपितु शरीरव्यापी है। जिस प्रकार घट गुण घट में ही उपलब्ध है, वैसे ही आत्मा के गुण शरीर में उपलब्ध हैं। शरीर से बाहर (संसारी) आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर में ही उसका निवास है।१७२ कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष आदि युक्तियुक्त तभी बनते हैं, जब आत्मा को अनेक और शरीरव्यापी माना जाय । १७३ __.आत्मा कथंचित् व्यापक है, पर वह सामान्य अवस्था में नहीं है। केवलीसमुद्घात अवस्था में आठ समय में चौदह राज परिमाण लोक में व्याप्त होने की अपेक्षा वह व्यापक है, परन्तु यह स्थिति कभी-कभी होती है, नियत नहीं। मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । यह समुद्घात सात प्रकार का हैं । १७४ (१) तीव्र वेदना होने के समय मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर जाने की वेदना को वेदना समुद्घात कहते हैं। .१६९. तर्कभाषा पृ. १४९ ।। १७०. गीता २.२० । १७१. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ६९२ १७२. गणधरवाद १५८६ १७३ः वही १५८७ १७४. भगवती २.२.१, पण्ण वणा भा. १ पृ. २३७ एवं स्याद्वामंजरी ९.७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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