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(२) तीव्र कषाय के उदय से दूसरे का नाश करने के लिये मूल शरीर को बिना छोड़े
आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने का कषायसमुद्घात कहते हैं। (३) जिस स्थान में आयु का बन्ध किया हो, मरने के अंतिम समय उस स्थान के
प्रदेशों को स्पर्श करने के लिये मूल शरीर को न छोड़ते हुए आत्मा के प्रदेशों के
बाहर निकलने को मारणांतिक समुद्घात कहते हैं। . . (४) तैजस् समुद्घात दो प्रकार को होता है- शुभ और अशुभ । जीवों को किसी
व्याधि या दुर्भिक्ष से पीड़ित देखकर मूल शरीर को नं छोड़ते हुए मुनियों के शरीर से बारह योजन लम्बे सूच्यगुंल के असंख्येय भाग, अग्रभाग में नौ योजन, शुभ आकृति वाले पुतले के बाहर निकल जाने को शुभ तैजस् समुद्घात कहते हैं । यह पुतला व्याधि, दुर्भिक्ष आदि को नष्ट करके वापस लौट आता है। किसी प्रकार के अपने अनिष्ट को देखकर मुनियों के शरीर को बिना छोड़े ही मुनियों से उक्त परिमाण वाले अशुभ पुतले के बाहर निकल कर जाने को अशुभ तैजस् समुद्घात कहते हैं। यह अशुभ पुतला अपने अनिष्ट को नष्ट
करके मुनि के साथ स्वयं भी भस्म हो जाता है। (५) मूल शरीर को न छोड़ते हुए किसी प्रकार की विक्रिया करने के लिये आत्मा
के प्रदेशों के बाहर जाने को वैक्रिय समुद्घात कहते हैं। (६) ऋद्धिधारी मुनियों को किसी प्रकार की तत्त्वसंबन्धी शंका होने पर उनके मूल
शरीर को बिना छोड़े शुद्ध स्फटिक के एक हाथ के बराबर का पुतला मस्तक के बीच से निकलकर शंका की निवृत्ति के लिये केवली भगवान् के पास भेजा जाना आहारक समुद्घात कहलाता है। यह पुतला केवली भगवान् के पास अन्तर्मुहूर्त काल में पहुँच जाता है और शंका की निवृत्ति होने पर अपने स्थान
पर आ जाता है। (७) वेदनीय कर्म के अधिक रहने पर और आयु कर्म के कम रहने पर आयु कर्म को बिना भोगे ही आयु और वेदनीय कर्म बराबर करने के लिये आत्मप्रदेशों का समस्त लोक में व्याप्त हो जाना केवलीसमुद्घात है। इस अपेक्षा से आत्मा व्यापक है।
सद
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